सम्पादकीय: झारखण्ड-असम विवाद और असम में बसे झारखंडी आदिवासियों की स्थिति को लेकर चल रही कोल्ड बार का क्या होगा हश्र...?
विनोद आनंद
झारखण्ड और असम के बीच इन दिनों कोल्ड बार चल रहा है, यह देश की राजनीति के लिए एक जटिल स्थिति उत्पन्न हो सकती है. इसका हश्र क्या होगा यह तो आने वाला समय तय करेगा लेकिन इस कोल्डबार को दोनों राज्यों के सीएम को विवेक और राजनीति से ऊपर उठ कर रोकना होगा अन्यथा जटिल राजनितिक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी.
बात कर रहे हैं हम असम में झारखण्ड से ले जाकर बसाये गए टी ट्राइब के आदिवासियों को लेकर. उनकी स्थिति, के आकलन के लिए हेमंत सरकार एक सर्वदलीय टीम भेज रही है जो उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति का आकलन करेगी और उन्हें अपने घर वापसी के लिए आमंत्रित करेगी. हेमंत सरकार के इस कदम से राजनीतिक बवंडर उठने लगा है। ये आदिवासी 1840 में अंग्रेजों द्वारा चाय बागानों में काम करने के लिए असम ले जाए गए थे, और आज इनकी जनसंख्या लगभग 20 लाख है. असम के चुनावों में यह समुदाय एक महत्वपूर्ण वोट बैंक के रूप में उभरा है, लेकिन असम सरकार ने अब तक इन्हें आदिवासी का दर्जा नहीं दिया है.
हेमंत सरकार का यह कदम असम सरकार के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है. असम की अर्थव्यवस्था खास तौर पर चाय उत्पादन पर निर्भर करती है, और यदि ये आदिवासी वापस लौटते हैं तो इससे चाय बागानों में कार्यरत श्रमिकों की कमी उत्पन्न हो सकती है. यही नहीं, इससे असम की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है.क्योंकि असम की अर्थव्यवस्था में इन चाय बागान का 5000 करोड़ का योगदान है. इसके साथ हीं 3000 हज़ार करोड़ का विदेशी करेंसी भी इन चाय उत्पादन से आता है. इन बगानो में 7 लाख मज़दूर काम करते हैं जिसमे अधिकतर आदिवासी हैं जो झारखण्ड से जाकर वहां बसे हैं.अगर ये आदिवासी झारखण्ड सरकार द्वारा घर वापसी के प्रस्ताव से झारखण्ड वापस आने को तैयार हो गए तो इन चाय बगानों में काम करने वाले मज़दूरों की कमी होंगी साथ हीं इससे से दोनों राज्यों में टकराव भी बढेगा.
अब असम की सरकार को न केवल चाय उद्योग पर ध्यान देना होगा, बल्कि इस समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और पहचान को भी बचाना होगा.
माना जा रहा है कि हेमंत सरकार का आदिवासियों की 'घर वापसी' का प्रस्ताव केवल एक राजनीतिक चाल नहीं है, बल्कि झारखण्ड में अपने समुदाय को एकजुट करने का एक प्रयास भी है. इससे हेमंत सोरेन की लोकप्रियता में इजाफा होगा, और वे अपने समुदाय के साथ-साथ नए वोटर्स का समर्थन भी हासिल कर सकेंगे.
इस लड़ाई में किसकी होगी जीत किसकी होगी हार ?
इस सियासी संग्राम और दाव पेंच में जीत किसकी होगी, यह भविष्य के घटनाक्रम पर निर्भर करेगा. यदि झारखण्ड की सरकार अपनी योजना को प्रभावी तरीके से लागू करती है और आदिवासियों को उनकी संस्कृति और पहचान के साथ-साथ उचित अधिकार भी देती है, तो झारखण्ड को निश्चित रूप से फायदा होगा.वहीं, असम सरकार को भी इस मौजूदा स्थिति को संभालने के लिए किसी उचित समाधान की तलाश करनी होगी.
वैसे भाजपा के लिए, यह एक महत्वपूर्ण अवसर है कि वे झारखण्ड में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए रणनीतियाँ बनाये भड़काऊ भाषणों से अभी दूर रहे,आदिवासियों के हितों की अनदेखी ना करे, इससे भाजपा की छवि को नुकसान हो सकता है, और इससे पार्टी के जनाधार में कमी आ सकती है.
इस बार के चुनाव से भाजपा समझ गयी है कि आदिवासी समुदाय का समर्थन हासिल करना उनके लिए एक चुनौती है, क्योंकि वे अब अपने अधिकारों को लेकर सावधान हो चुके हैं. यदि उनकी आवाज़ों को अनसुना किया गया, तो यह असम और झारखण्ड दोनों के लिए बड़ी परेशानी का कारण बन सकता है.
इस समय दोनों राज्यों के बीच यह विवाद एक नाजुक स्थिति में है. सचाई यह है कि राजनीतिक आकांक्षाएँ और सामाजिक सरोकार एक-दूसरे से टकरा रहे हैं. राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे इस संकट को अवसर में बदलने के लिए विवेक से काम लें और आपसी संवाद को बढ़ावा दें.
निष्कर्ष
कोल्ड बार का यह मुद्दा केवल आदिवासी समुदाय की स्थिति से ही नहीं, बल्कि असम और झारखण्ड की राजनीति में बदलाव का भी संकेत है. अगर हमें एक सजग सामाजिक परिवर्तन की दिशा में बढ़ना है, तो दोनों राज्यों की राजनीति को संतुलित और समझदारी से आगे बढ़ाना होगा. आदिवासियों के अधिकारों और पहचान को सुरक्षित करना, एक प्राथमिकता होनी चाहिए.
सिर्फ वही क्षेत्र और वह राजनीतिक दल सफल होंगे जो अपने लोगों के साथ न्याय करेंगे, और उनके हितों का ध्यान रखेंगे. इस राजनीति में जीत-हार के बजाय, जनहित और सामाजिक समरसता की आवश्यकता है, ताकि इस क्षेत्र में स्थायी समाधान खोजा जा सके.
Dec 07 2024, 16:39