राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार, पूछा-आपको कैसे पता चला चीन ने जमीन हड़प ली

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सुप्रीम कोर्ट ने एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी से तीखे सवाल पूछे। कोर्ट ने उनसे पूछा, आपको कैसे पता है कि चीन ने भारत की जमीन हड़प ली है? सुप्रीम कोर्ट ने 9 दिसंबर, 2022 को भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच झड़प के बाद भारतीय सेना पर उनकी कथित टिप्पणी को लेकर लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की फजीहत की है। राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भारतीय सेना के बारे में कथित तौर पर ये टिप्पणी की थी, जिसमें उनके खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज किया गया।

भारतीय सेना पर कथित टिप्पणी को लेकर राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सासंद को बड़ी राहत दी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ओर से चीन के भारतीय क्षेत्र पर कब्जा करने को लेकर दिए गए बयान पर कड़ी आपत्ति जताई है। अदालत ने कहा कि जब सीमा पर तनावपूर्ण स्थिति है, तब विपक्ष के नेता को ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था।

राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट की बड़ी नसीहत

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने यह आदेश दिया। सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपांकर दत्ता ने को नसीहत भी दी। जस्टिस दीपांक दत्ता ने राहुल गांधी से पूछा, ‘भारतीय होने की वजह से आपकी टिप्पणी ठीक नहीं। आपको कैसे पता चला कि चीन ने 2000 वर्ग किलोमीटर कब कब्जा कर लिया? विश्वसनीय जानकारी क्या है? एक सच्चा भारतीय ऐसा नहीं कहेगा। जब सीमा पार कोई विवाद हो तो क्या आप ये सब कह सकते हैं?

संसद में सवाल क्यों नहीं किया?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आखिर आपने यह संसद में क्यों नहीं कहा और सोशल मीडिया पर क्यों कहा? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपके पास भले ही अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता है, लेकिन यह क्यों कहा। एक सच्चे भारतीय के तौर पर सेना को लेकर क्या ऐसी टिप्पणी करनी चाहिए? आप एक जिम्मेदार नेता हैं।

राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से राहत भी

सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान राहुल गांधी को मानहानि केस में राहत भी प्रदान की है। इस संबंध में निचली अदालत में आगे की कार्यवाही पर रोक लगा दी है। शीर्ष अदालत ने लखनऊ ट्रायल कोर्ट के समन पर रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले में नोटिस जारी कर जवाब भी मांगा है। दरअसल, मई में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लखनऊ की एमपी-एमएलए अदालत की ओर से पारित समन आदेश को चुनौती देने वाली राहुल गांधी की याचिका को खारिज कर दिया था। इसके बाद राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। यहां राहुल गांधी को राहत मिल गई।

राष्ट्रपति के 14 सवालों पर विचार करेगा सुप्रीम कोर्ट, केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी

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सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में सभी राज्यपालों को विधानसभा से पारित विधेयक को मंजूरी देने की समयसीमा तय कर दी थी। इस पर ही राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछे थे। सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए संदर्भ पर केंद्र सरकार और देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी कर एक सप्ताह में जवाब मांगा है। इस मामले में अब अगली सुनवाई 29 जुलाई को होगी, जिसमें समय-सीमा तय करने पर विचार होगा। 

विधानसभा से पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल कब तक फैसला लेंगे? क्या इस पर कोई समयसीमा तय की जा सकती है? मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में इस संवैधानिक सवाल पर सुनवाई हुई। अदालत ने साफ किया कि यह केवल एक राज्य का नहीं बल्कि पूरे देश के लिए मुद्दा है। इसलिए केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर 29 जुलाई तक विस्तृत जवाब मांगा गया है।

अगस्त के मध्य से शुरू होगी सुनवाई

इस मामले पर सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ गठित की गई है। इस पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए. एस. चंदुरकर हैं। पीठ ने साफ किया कि अगस्त मध्य से इस मुद्दे पर नियमित सुनवाई शुरू हो सकती है।

राष्ट्रपति ने क्या कहा?

जिसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाए थे। संविधान का अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति के सुप्रीम कोर्ट से विचार-विमर्श करने से संबंधित है। इसमें कहा गया है, 'यदि किसी भी समय राष्ट्रपति को ऐसा प्रतीत हो कि किसी कानून या तथ्य का लेकर कोई सवाल उठ रहा है, या उठ सकता है, जो सार्वजनिक महत्व का हो तो उस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ली जा सकती है। राष्ट्रपति उस सवाल को सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता हैं और न्यायालय, सुनवाई के बाद राष्ट्रपति को उस सवाल पर अपनी राय से अवगत करा सकता है।'

राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे ये 14 सवाल

1. राज्यपाल के समक्ष अगर कोई विधेयक पेश किया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनके पास क्या विकल्प हैं?

2. क्या राज्यपाल इन विकल्पों पर विचार करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?

3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?

4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से रोक सकता है?

5. क्या अदालतें राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों की समयसीमा तय कर सकती हैं, जबकि संविधान में ऐसी कोई समयसीमा तय नहीं की गई है?

6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फैसले की समीक्षा हो सकती है?

7. क्या अदालतें अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा फैसला लेने की समयसीमा तय कर सकती हैं?

8. अगर राज्यपाल ने विधेयक को फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया है तो क्या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेनी चाहिए?

9. क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा क्रमशः अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए फैसलों पर अदालतें लागू होने से पहले सुनवाई कर सकती हैं। 

10. क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर सकता है?

11. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की मंजूरी के बिना राज्य सरकार कानून लागू कर सकती है?

12. क्या सुप्रीम कोर्ट की कोई पीठ अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजने पर फैसला कर सकती है? 

13. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश/आदेश दे सकता है जो संविधान या वर्तमान कानूनों मेल न खाता हो?

14. क्या अनुच्छेद 131 के तहत संविधान इसकी इजाजत देता है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?

क्या है मामला?

इस पूरे मामले की शुरुआत 8 अप्रैल को तब हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए एक फैसला दिया था। इस फैसले में राष्ट्रपति के लिए एक समय सीमा तय की गई थी। कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए रखे गए विधेयकों को राष्ट्रपति को तीन महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी। जस्टिस जे बी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली दो जजों की बेंच ने यह फैसला सुनाया था।

सुप्रीम कोर्ट की ईडी को कड़ी फटकार, सीजेआई बोले-हमारा मुंह मत खुलवाइए, नहीं तो कठोर टिप्पणी करनी पड़ेगी

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सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय ईडी को जमकर फटकार लगाई है। जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) ने ईडी पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि कुछ बोलने पर मजबूर मत करो, वरना हमें कुछ कठोर कहना पड़ सकता है। ये टिप्पणी सीजेआई बीआर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने सोमवार को मैसूर अर्बन डेवलपमेंट बोर्ड (MUDA) केस में ईडी की अपील की सुनवाई के दौरान की।

दरअसल, ईडी ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की पत्नी बीएम पार्वती को MUDA केस में समन भेजा था। कर्नाटक हाईकोर्ट ने मार्च में यह समन रद्द कर दिया था। ईडी ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने आखिर में ईडी की अपील खारिज कर दी और कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा।

राजनीतिक लड़ाई में इस्तेमाल ना होने की चेतावनी

ईडी की तरफ से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि 'श्रीमान राजू, कृप्या हमें अपना मुंह खोलने के लिए मजबूर न करें। वर्ना हमें ईडी के खिलाफ कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। दुर्भाग्य से, मुझे महाराष्ट्र में इसे लेकर कुछ अनुभव है। इसे पूरे देश में मत फैलाइए। राजनीतिक लड़ाई को मतदाताओं के सामने लड़ने देना चाहिए, उसमें आप क्यों इस्तेमाल हो रहे हैं।

MUDA केस क्या है

साल 1992 में अर्बन डेवलपमेंट संस्थान मैसूर अर्बन डेवलपमेंट अथॉरिटी (MUDA) ने रिहायशी इलाके विकसित करने के लिए किसानों से जमीन ली थी। इसके बदले MUDA की इंसेंटिव 50:50 स्कीम के तहत जमीन मालिकों को विकसित भूमि में 50% साइट या एक वैकल्पिक साइट दी गई।

क्या है MUDA मामला?

सिद्धारमैया की पत्नी पार्वती के पास मैसूर के केसारे गांव में 3 एकड़ और 16 गुंटा जमीन थी, जो उनके भाई मल्लिकार्जुन ने उपहार में दी थी। जमीन को MUDA ने विकास के लिए अधिग्रहित किया, जिसके बदले पार्वती को विजयनगर तीसरे और चौथे चरण के लेआउट में 38,283 वर्ग फीट जमीन दी गई। आरोप है कि केसारे गांव की तुलना में जमीन की कीमत अधिक है। मामले को पहले निचली कोर्ट, फिर हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था।

सुप्रिम कोर्ट पहुंचे जस्टिस यशवंत वर्मा, नकदी मामले में महाभियोग की सिफारिश को रद्द करने की मांग

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जस्टिस यशवंत वर्मा कैश मामले में अब नया मोड़ आ गया है। संसद में महाभियोग प्रक्रिया शुरू होने से पहले जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर जस्टिस वर्मा ने अंतरिम जांच पैनल रिपोर्ट को चुनौती दी है। साथ ही जस्टिस वर्मा ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की आंतरिक जांच कमेटी की रिपोर्ट को अमान्य करार दिया जाए।

दिल्ली में उनके सरकारी आवास से भारी मात्रा में जली हुई नकदी बरामद की गई थी। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक आंतरिक समिति का गठन किया था, जिसने मामले की जांच की थी। जांच में उनके खिलाफ मजबूत सबूत पाए गए थे और उनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही की सिफारिश की गई थी। अब जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद के मानसून सत्र में महाभियोग चलाने की तैयारी है। उससे पहले ही जस्टिस वर्मा ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी है।

जस्टिस वर्मा ने कहा-पक्ष रखने का उचित मौका नहीं दिया

याचिका में जस्टिस वर्मा ने कहा है कि कमिटी ने उन्हें अपना पक्ष रखने का उचित मौका नहीं दिया। पूर्व निर्धारित सोच के आधार पर काम किया और अपना निष्कर्ष दे दिया। इस बात की जांच की जरूरत थी कि वह कैश किसका है? लेकिन कमिटी ने सही जांच करने की बजाय उनसे कहा कि वो साबित करें कि कैश उनका नहीं है।

पर्सनल हियरिंग के अनुरोध को ठुकराने का आरोप

बता दें कि सीजेआई (रिटायर्ड) संजीव खन्‍ना ने यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग चलाने के प्रस्‍ताव को अनुमति दी थी। जस्टिस वर्मा ने अपनी याचिका में यह भी आरोप लगाया है कि तत्‍कालीन सीजेआई खन्‍ना ने उनके पर्सनल हियरिंग के अनुरोध को भी ठुकरा दिया था। जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका ऐसे समय में दायर की है, जब संसद के मानसून सत्र में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्‍ताव लाने की पूरी तैयारी है।

क्या है मामला? 

14 मार्च 2025 की रात को दिल्ली हाईकोर्ट के उस समय जज रहे जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास के एक स्टोर रूम में आग लगी थी। वहां कथित तौर पर उनके घर से बड़ी मात्रा में कैश मिला था। जस्टिस यशवंत वर्मा का दावा है कि स्टोर रूम में उन्होंने या उनके परिवार वालों ने कभी कैश नहीं रखा और उनके ख़िलाफ़ साजिश रची जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के तत्‍कालीन चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने मामले की जांच के लिए तीन जजों की कमिटी बनाई थी। सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित कमेटी ने भी नोट की मौजूदी को सही माना था।

जब तक मजबूत केस नहीं, अदालतें हस्तक्षेप नहीं करतीं” वक्फ कानून पर सीजेआई गवई की दो टूक

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सुप्रीम कोर्ट में नए वक्फ अधिनियम, 2025 को लेकर सुनवाई चल रही है. मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई की अध्यक्षता वाली दो सदस्यों की पीठ मामले की सुनवाई कर रही है। वक्फ (संशोधन)अधिनियम 2025 के मामले पर अंतिम फैसला आने तक संशोधित कानून को लागू करने पर रोक लगाई गई है। मंगलवार को सुनवाई के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने सुनवाई के दौरान अहम टिप्पणी की। कोर्ट ने जब तक मजबूत केस नहीं बनता, तब तक अदालतें हस्तक्षेप नहीं करतीं।

सुनवाई के दौरान सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून में किसी को भी वक्फ संपत्ति को लेकर आपत्ति जताने का हक दिया गया है और जब तक उस पर विवाद चलेगा तो संपत्ति वक्फ की नहीं रहेगी। उनको आपत्ति है कि 100-200 साल पुराने वक्फ के कागजात कहां से आएंगे और अल्लाह को दान की गई संपत्ति किसी और को ट्रांसफर कैसे की जा सकती है। याचिकाकर्ताओं की ओर से उन्होंने दलील दी कि यह हमारे डीएनए में हैं। सिब्बल ने कहा कि अगर वक्फ संपत्ति को लेकर कोई विवाद होता है तो उसका फैसला करने वाला भी सरकार का अधिकारी ही होगा। उन्होंने कहा कि नए कानून के अनुसार कोई भी वक्फ संपत्ति पर आपत्ति जता सकता है।।

सिब्बल ने कोर्ट को वक्फ का मतलब समझाते हुए कहा, 'वक्फ क्या है, यह अल्लाह को किया गया दान है, जिसे किसी और को ट्रांसफर नहीं किया जा सकता। एक बार वक्फ की गई संपत्ति वक्फ ही रहती है।' कपिल सिब्बल ने कहा कि वक्फ संपत्ति के मैनेजमेंट का अधिकार लिया जा रहा। सिब्बल ने कहा कि यह अधिनियम सरकार की ओर से वक्फ संपत्तियों पर कब्जा करने का एक प्रयास है।

इसी दौरान सीजेआई गवई ने कहा, यह मामला संवैधानिकता के बारे में है। अदालतें आमतौर पर हस्तक्षेप नहीं करती हैं, इसलिए जब तक आप एक बहुत मजबूत मामला नहीं बनाते, कोर्ट हस्तक्षेप नहीं करती है। सीजेआई ने आगे कहा कि औरंगाबाद में वक्फ संपत्तियों को लेकर बहुत सारे विवाद हैं।

अंतरिम आदेश के लिए सुनवाई इन तीन मुद्दों तक ही सीमित रखें, केंद्र की सुप्रीम कोर्ट से अपील

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सुप्रीम कोर्ट, वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। सीजेआई बी आर गवई, जस्टिस एजी मसीह और जस्टिस के विनोद के चंद्रन की बेंच सुनवाई कर रही है। सुनवाई के दौरान तुषार मेहता ने कहा कि बेंच ने पहले तीन मुद्दे उठाए थे ⁠स्टे के लिए। हमने इन तीनों पर जवाब दाखिल किया था। लेकिन अब लिखित दलीलों में और भी मुद्दे शामिल हो गए हैं। सिर्फ तीन मुद्दों तक सुनवाई सीमित हो। कपिल सिब्बल ने इसका विरोध किया।

सरकार ने जिन मुद्दों पर सुनवाई सीमित रखने की अपील की है, उनमें एक मुद्दा है अदालत द्वारा घोषित, वक्फ बाय यूजर या वक्फ बाय डीड संपत्ति को डी-नोटिफाई करने का है। दूसरा मुद्दा केंद्रीय और प्रदेश वक्फ बोर्ड के गठन से जुड़ा है, जिनमें गैर मुस्लिमों को शामिल किए जाने का विरोध हो रहा है। तीसरा मुद्दा वक्फ कानून के उस प्रावधान से जुड़ा है, जिसमें जिलाधिकारी द्वारा जांच और उसकी मंजूरी के बाद ही किसी संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित किया जाएगा।

वक्फ अधिनियम, 2025 के प्रावधानों को चुनौती देने वाले लोगों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अभिषेक सिंघवी ने इन दलीलों का विरोध किया कि अलग-अलग हिस्सों में सुनवाई नहीं हो सकती। एक मुद्दा अदालत द्वारा वक्फ, वक्फ बाई यूजर या वक्फ बाई डीड घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने के अधिकार का है।

याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाया गया दूसरा मुद्दा राज्य वक्फ बोर्डों और केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना से संबंधित है, जहां उनका तर्क है कि पदेन सदस्यों को छोड़कर केवल मुसलमानों को ही इसमें काम करना चाहिए। तीसरा मुद्दा एक प्रावधान से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि जब कलेक्टर यह पता लगाने के लिए जांच करते हैं कि संपत्ति सरकारी भूमि है या नहीं, तो वक्फ संपत्ति को वक्फ नहीं माना जाएगा।

इससे पहले 17 अप्रैल को हुई सुनवाई में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सुनिश्चित किया था कि वे किसी भी वक्फ संपत्ति को डी-नोटिफाई नहीं करेंगे, इनमें वक्फ बाय यूजर भी शामिल है। साथ ही वक्फ बोर्डों में नई नियुक्ति पर भी कोई नई नियुक्ति न करने की बात कही थी।

भारत कोई धर्मशाला नहीं...जानें सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी की वजह

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सुप्रीम कोर्ट ने शरणार्थियों को लेकर बड़ी टिप्पणी की है। कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है। सोमवार को एक श्रीलंकाई नागरिक की भारत में शरणार्थी के तौर पर रहने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है, जहां दुनिया भर से शरणार्थियों को रखा जा सके। दुनिया भर से आए शरणार्थियों को भारत में शरण क्यों दें?

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस दीपांकर दत्ता ने श्रीलंका से आए तमिल शरणार्थी को हिरासत में लिए जाने के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए ये बात कही। सुप्रीम कोर्ट में श्रीलंका के एक नागरिक की हिरासत के खिलाफ याचिका दाखिल की गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर दखल देने से इनकार कर दिया। पीठ मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इसमें निर्देश दिया गया था कि याचिकाकर्ता को UAPA मामले में लगाए गए 7 साल की सजा पूरी होते ही तुरंत भारत छोड़ देना चाहिए।

हालांकि, सजा पूरा होते ही उसने श्रीलंका वापस जाने से मना कर दिया। उसने दलील दी कि श्रीलंका में उसकी जान को खतरा है इसलिए उसे भारत में शरणार्थी के तौर पर रहने की इजाजत दी जाए। याचिकाकर्ता ने ये भी बताया कि उसकी पत्नी और बच्चे भी भारत में ही हैं।

कोर्ट ने क्या कहा?

याचिकाकर्ता के इस तर्क पर न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा, क्या भारत को दुनिया भर से शरणार्थियों की मेजबानी करनी है? हम 140 करोड़ लोगों के साथ संघर्ष कर रहे हैं। यह कोई धर्मशाला नहीं है कि हम हर जगह से विदेशी नागरिकों का स्वागत कर सकें।

क्या है पूरा मामला?

बता दें कि श्रीलंकाई नागरिक को 2015 में टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) से जुड़े होने के शक में गिरफ्तार किया गया था। लिट्टे एक आतंकवादी संगठन था। यह कभी श्रीलंका में सक्रिय था। 2018 में, एक ट्रायल कोर्ट ने उसे गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत दोषी ठहराया। उसे 10 साल की जेल की सजा सुनाई गई। 2022 में, मद्रास हाई कोर्ट ने उसकी सजा को घटाकर 7 साल कर दिया, लेकिन कोर्ट ने कहा कि सजा पूरी होने के बाद उसे देश छोड़ना होगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि निर्वासन से पहले उसे एक शरणार्थी शिविर में रहना होगा। इसका मतलब है कि उसे देश से निकालने से पहले कुछ समय के लिए एक खास शिविर में रहना होगा।

कर्नल सोफिया कुरैशी पर टिप्पणी करने वाले मंत्री विजय शाह की बढ़ी मुश्किलें, सुप्रीम कोर्ट ने SIT बनाने को कहा

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कर्नल सोफिया पर विवादित बयान देने वाले मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री विजय शाह की मुश्किलें बढ़ती दिख रही है।कर्नल कुरैशी को लेकर विवादित टिप्पणी करने वाले विजय शाह को सुप्रीम कोर्ट से बड़ा झटका लगा है। कोर्ट ने इस मामले की जांच के लिए तीन वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों की विशेष जांच टीम (एसआईटी) गठित करने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि यह मामला गंभीर है और इसे किसी भी तरह से राजनीतिक रंग नहीं लेने दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक बार फिर मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री विजय शाह को कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर दिए बयान पर फटकार लगाई है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम इस मामले में मंत्री की माफी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। कोर्ट ने आगे कहा, "आप एक सार्वजनिक चेहरा हैं। एक अनुभवी नेता हैं। आपको बोलने से पहले अपने शब्दों को तोलना चाहिए। हमें आपके वीडियो यहां चलाने चाहिए। यह सेना के लिए एक अहम मुद्दा है। हमें इस मामले में बेहद जिम्मेदार होना होगा।"

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एसवीएन भट की पीठ इस मामले की सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से सख्त लहजे में कहा कि हम इस केस को बहुत करीब से देख रहे हैं और यह सरकार के लिए एक अग्नि परीक्षा है। अदालत ने कहा कि मंत्री को उनके बयान के नतीजे भुगतने होंगे और कानून को अपना रास्ता तय करने दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश देते हुए कहा कि हम इस बात से संतुष्ट हैं कि एफआईआर की जांच एसआईटी द्वारा की जानी चाहिए, जिसमें एमपी कैडर के सीधे भर्ती किए गए 3 वरिष्ठ आईपीसी अधिकारी शामिल हों, लेकिन जो एमपी से संबंधित नहीं हों। इन 3 में से 1 महिला आईपीएस अधिकारी होनी चाहिए। डीजीपी, एमपी को कल रात 10 बजे से पहले एसआईटी गठित करने का निर्देश दिया जाता है। इसका नेतृत्व एक आईजीपी द्वारा किया जाना चाहिए और दोनों सदस्य भी एसपी या उससे ऊपर के रैंक के होंगे।

इससे पहले वरिष्ठ अधिवक्ता मनिंदर सिंह ने दलील देते हुए कहा कि विजय शाह माफी मांग रहे हैं। इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि आपकी माफी कहां है? यह जिस प्रकृति का मामला है, आप किस तरह कि माफी मांगना चाहते हैं, आपका क्या घड़ियाली आंसू बहाना चाहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपने बिना सोचे जो किया और अब माफी मांग रहे हैं। हमें आपकी माफी नहीं चाहिए। अब कानून के मुताबिक निपटेंगे। आपने अगर दोबारा माफी मांगी तो हम अदालत की अवमानना मानेंगे। आप पब्लिक फिगर हैं, राजनेता हैं और क्या बोलते हैं? ये सब वीडियो में है और आप कहां जाकर रुकेंगे। संवेदनशील होना चाहिए और अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। यह बहुत गैर जिम्मेदाराना है। हमें अपनी आर्मी पर गर्व है और आप टाइमिंग देखिए, क्या आप बोले?

इससे पहले बीते गुरुवार को विजय शाह सुप्रीम कोर्ट की शरण पहुंचे और एफआईआर पर रोक लगाने की मांग की, लेकिन शाह को यहां भी फटकार ही पड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा- आप संवैधानिक पद हैं, आपको अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। एक मंत्री होकर आप कैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने एफआईआर कें कंटेंट को लेकर भी फटकारा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एफआईआर की भाषा ऐसी लिखी गई है जो चुनौती देने पर निरस्त हो जाए। सुप्रीम कोर्ट की ओर से एफआईआर में सुधार करने और पुलिलिस विवेचना की मॉनिटरिंग हाईकोर्ट द्वारा किए जाने के भी आदेश दिए।

एक मंत्री होकर कैसी भाषा का इस्तेमाल...कर्नल सोफिया को लेकर विवादित बयान देने वाले मंत्री को सुप्रीम कोर्ट ने फटकारा

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मध्य प्रदेश के वन मंत्री विजय शाह इस समय सुर्खियों में हैं। जब देश कर्नल सोफिया कुरैशी और विगं कमांडर व्योमिका सिंह के के जरिए नारी शक्ति का अभिवादन कर रहा है। उस वक्त बीजेपी के नेता ने कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर विवादित टिप्पणी कर दी। कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने उन पर एक्शन लिया। साथ ही उन पर एफआईआर भी दर्ज कर ली गई। हाई कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हालांकि, उन्हें राहत नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें फटकार मिली है।

सुप्रीम कोर्ट ने कुंवर विजय शाह को फटकार लगाते हुए कहा कि जब देश ऐसी स्थिति से गुजर रहा है, तो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को जिम्मेदार होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें पता होना चाहिए कि वह क्या कह रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ के समक्ष मामले को तत्काल सुनवाई के लिए पेश किया गया। सीजेआई ने शाह के वकील से कहा, 'आप किस तरह के बयान दे रहे हैं। आप सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री हैं।' इस पर वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता एफआईआर पर रोक लगाने की मांग कर रहा है। पीठ ने कहा कि याचिका पर शुक्रवार को सुनवाई होगी।

क्या है शाह का बयान

दरअसल, कर्नल सोफिया कुरैशी 'ऑपरेशन सिंदूर' का चेहरा बनी थीं। उन्होंने भारतीय वायु सेना द्वारा पाकिस्तानी आतंकवादी ठिकानों पर की गई सैन्य कार्रवाई के बारे में प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। विजय शाह ने इस पर विवादित बयान देते हुए कहा था कि जिन्होंने हमारी बेटियों के सिंदूर उजाड़े थे… हमने उन्हीं की बहन भेज कर के उनकी ऐसी की तैसी करवाई।

मंत्री ने मांगी माफी

विजय शाह का वीडियो वायरल होने के बाद सियासी हलचल तेज हो गई। साथ ही उनके इस्तीफे की मांग भी की जा रही है। इसी बीच मंत्री ने वीडियो जारी कर के माफी भी मांगी है और सोफिया कुरैशी को अपनी बहन बताया है। उन्होंने माफी मांगते हुए कहा, हाल ही में मैंने जो बयान दिया अगर उसकी वजह से किसी भी समाज की भावना आहत हुई है, तो इसके लिए मैं दिल से न सिर्फ शर्मिंदा हूं बल्कि बेहद दुखी भी हूं और सभी से माफी चाहता हूं। उन्होंने सोफिया कुरैशी को लेकर आगे कहा, हमारे देश की वो बहन, सोफिया कुरैशी, जिन्होंने राष्ट्र धर्म निभाते हुए जाति और समाज से ऊपर उठकर जो काम किया है, उन्हें हमारी सगी बहन से भी ऊपर सम्मानित मानता हूं।

हाईकोर्ट ने लिया स्वतः संज्ञान

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने इस बयान को बहुत ही आपत्तिजनक माना। हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा कि शाह की टिप्पणी 'तिरस्कारपूर्ण', 'खतरनाक' और 'नालियों की भाषा' जैसी है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह टिप्पणी न केवल उस अधिकारी को निशाना बनाती है, बल्कि पूरे सशस्त्र बलों को बदनाम करती है। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि पहली नजर में मंत्री के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत अपराध बनता है।

सुप्रीम कोर्ट की ओर से समयसीमा तय किए जाने पर राष्ट्रपति ने उठाए सवाल, सर्वोच्च अदालत से पूछे ये 14 सवाल

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 8 अप्रैल 2025 को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सवाल उठाए हैं।सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास वीटो का अधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना होगा। इसमें राष्‍ट्रपति और राज्‍यपालों को विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा तय करने पर टिप्पणी की गई थी। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले पर सर्वोच्च अदालत से 14 सवाल पूछे हैं।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 बेहद अहम सवाल पूछते हुए यह साफ किया है कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो विधेयकों पर मंजूरी या नामंजूरी की समयसीमा तय करती हो। राष्ट्रपति ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विधेयकों पर फैसला लेते हैं, लेकिन ये अनुच्छेद कहीं भी कोई समयसीमा या प्रक्रिया निर्धारित नहीं करते। उन्होंने यह भी कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति का यह विवेकपूर्ण निर्णय संघवाद, कानूनों की एकरूपता, राष्ट्रीय सुरक्षा और शक्तियों के बीच संतुलन जैसे बहुपक्षीय पहलुओं पर आधारित होता है।

राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समयसीमा तय करने जैसे विषयों पर स्पष्टीकरण मांगा है। इन सवालों में पूछा गया है कि राज्यपाल के पास क्या विकल्प हैं जब कोई बिल उनके पास आता है? क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं? क्या राज्यपाल का विवेकाधिकार न्यायिक समीक्षा के अधीन है?

राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे ये 14 सवाल-

1. राज्यपाल के समक्ष अगर कोई विधेयक पेश किया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनके पास क्या विकल्प हैं?

2. क्या राज्यपाल इन विकल्पों पर विचार करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?

3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?

4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से रोक सकता है?

5. क्या अदालतें राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों की समयसीमा तय कर सकती हैं, जबकि संविधान में ऐसी कोई समयसीमा तय नहीं की गई है?

6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फैसले की समीक्षा हो सकती है?

7. क्या अदालतें अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा फैसला लेने की समयसीमा तय कर सकती हैं?

8. अगर राज्यपाल ने विधेयक को फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया है तो क्या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेनी चाहिए?

9. क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा क्रमशः अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए फैसलों पर अदालतें लागू होने से पहले सुनवाई कर सकती हैं।

10. क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर सकता है?

11. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की मंजूरी के बिना राज्य सरकार कानून लागू कर सकती है?

12. क्या सुप्रीम कोर्ट की कोई पीठ अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजने पर फैसला कर सकती है?

13. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश/आदेश दे सकता है जो संविधान या वर्तमान कानूनों मेल न खाता हो?

14. क्या अनुच्छेद 131 के तहत संविधान इसकी इजाजत देता है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?

राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार, पूछा-आपको कैसे पता चला चीन ने जमीन हड़प ली

#supremecourtrapsrahulgandhioverchinaoccupiedbyindianterritory_comment

सुप्रीम कोर्ट ने एक मुकदमे की सुनवाई के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी से तीखे सवाल पूछे। कोर्ट ने उनसे पूछा, आपको कैसे पता है कि चीन ने भारत की जमीन हड़प ली है? सुप्रीम कोर्ट ने 9 दिसंबर, 2022 को भारतीय और चीनी सेनाओं के बीच झड़प के बाद भारतीय सेना पर उनकी कथित टिप्पणी को लेकर लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की फजीहत की है। राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान भारतीय सेना के बारे में कथित तौर पर ये टिप्पणी की थी, जिसमें उनके खिलाफ मानहानि का मामला दर्ज किया गया।

भारतीय सेना पर कथित टिप्पणी को लेकर राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सासंद को बड़ी राहत दी। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ओर से चीन के भारतीय क्षेत्र पर कब्जा करने को लेकर दिए गए बयान पर कड़ी आपत्ति जताई है। अदालत ने कहा कि जब सीमा पर तनावपूर्ण स्थिति है, तब विपक्ष के नेता को ऐसा बयान नहीं देना चाहिए था।

राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट की बड़ी नसीहत

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने यह आदेश दिया। सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपांकर दत्ता ने को नसीहत भी दी। जस्टिस दीपांक दत्ता ने राहुल गांधी से पूछा, ‘भारतीय होने की वजह से आपकी टिप्पणी ठीक नहीं। आपको कैसे पता चला कि चीन ने 2000 वर्ग किलोमीटर कब कब्जा कर लिया? विश्वसनीय जानकारी क्या है? एक सच्चा भारतीय ऐसा नहीं कहेगा। जब सीमा पार कोई विवाद हो तो क्या आप ये सब कह सकते हैं?

संसद में सवाल क्यों नहीं किया?

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आखिर आपने यह संसद में क्यों नहीं कहा और सोशल मीडिया पर क्यों कहा? सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपके पास भले ही अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता है, लेकिन यह क्यों कहा। एक सच्चे भारतीय के तौर पर सेना को लेकर क्या ऐसी टिप्पणी करनी चाहिए? आप एक जिम्मेदार नेता हैं।

राहुल गांधी को सुप्रीम कोर्ट से राहत भी

सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई के दौरान राहुल गांधी को मानहानि केस में राहत भी प्रदान की है। इस संबंध में निचली अदालत में आगे की कार्यवाही पर रोक लगा दी है। शीर्ष अदालत ने लखनऊ ट्रायल कोर्ट के समन पर रोक लगा दी है। सुप्रीम कोर्ट ने मामले में नोटिस जारी कर जवाब भी मांगा है। दरअसल, मई में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने लखनऊ की एमपी-एमएलए अदालत की ओर से पारित समन आदेश को चुनौती देने वाली राहुल गांधी की याचिका को खारिज कर दिया था। इसके बाद राहुल गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। यहां राहुल गांधी को राहत मिल गई।

राष्ट्रपति के 14 सवालों पर विचार करेगा सुप्रीम कोर्ट, केंद्र और राज्य सरकारों को नोटिस जारी

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सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में सभी राज्यपालों को विधानसभा से पारित विधेयक को मंजूरी देने की समयसीमा तय कर दी थी। इस पर ही राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से सवाल पूछे थे। सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की ओर से भेजे गए संदर्भ पर केंद्र सरकार और देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी कर एक सप्ताह में जवाब मांगा है। इस मामले में अब अगली सुनवाई 29 जुलाई को होगी, जिसमें समय-सीमा तय करने पर विचार होगा। 

विधानसभा से पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति और राज्यपाल कब तक फैसला लेंगे? क्या इस पर कोई समयसीमा तय की जा सकती है? मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में इस संवैधानिक सवाल पर सुनवाई हुई। अदालत ने साफ किया कि यह केवल एक राज्य का नहीं बल्कि पूरे देश के लिए मुद्दा है। इसलिए केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी कर 29 जुलाई तक विस्तृत जवाब मांगा गया है।

अगस्त के मध्य से शुरू होगी सुनवाई

इस मामले पर सुनवाई के लिए चीफ जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ गठित की गई है। इस पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए. एस. चंदुरकर हैं। पीठ ने साफ किया कि अगस्त मध्य से इस मुद्दे पर नियमित सुनवाई शुरू हो सकती है।

राष्ट्रपति ने क्या कहा?

जिसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 (1) के तहत मिली शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाए थे। संविधान का अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति के सुप्रीम कोर्ट से विचार-विमर्श करने से संबंधित है। इसमें कहा गया है, 'यदि किसी भी समय राष्ट्रपति को ऐसा प्रतीत हो कि किसी कानून या तथ्य का लेकर कोई सवाल उठ रहा है, या उठ सकता है, जो सार्वजनिक महत्व का हो तो उस पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ली जा सकती है। राष्ट्रपति उस सवाल को सर्वोच्च न्यायालय के पास भेज सकता हैं और न्यायालय, सुनवाई के बाद राष्ट्रपति को उस सवाल पर अपनी राय से अवगत करा सकता है।'

राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे ये 14 सवाल

1. राज्यपाल के समक्ष अगर कोई विधेयक पेश किया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनके पास क्या विकल्प हैं?

2. क्या राज्यपाल इन विकल्पों पर विचार करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?

3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?

4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से रोक सकता है?

5. क्या अदालतें राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों की समयसीमा तय कर सकती हैं, जबकि संविधान में ऐसी कोई समयसीमा तय नहीं की गई है?

6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फैसले की समीक्षा हो सकती है?

7. क्या अदालतें अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा फैसला लेने की समयसीमा तय कर सकती हैं?

8. अगर राज्यपाल ने विधेयक को फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया है तो क्या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेनी चाहिए?

9. क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा क्रमशः अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए फैसलों पर अदालतें लागू होने से पहले सुनवाई कर सकती हैं। 

10. क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर सकता है?

11. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की मंजूरी के बिना राज्य सरकार कानून लागू कर सकती है?

12. क्या सुप्रीम कोर्ट की कोई पीठ अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजने पर फैसला कर सकती है? 

13. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश/आदेश दे सकता है जो संविधान या वर्तमान कानूनों मेल न खाता हो?

14. क्या अनुच्छेद 131 के तहत संविधान इसकी इजाजत देता है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?

क्या है मामला?

इस पूरे मामले की शुरुआत 8 अप्रैल को तब हुई, जब सुप्रीम कोर्ट ने आर्टिकल 142 का इस्तेमाल करते हुए एक फैसला दिया था। इस फैसले में राष्ट्रपति के लिए एक समय सीमा तय की गई थी। कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए रखे गए विधेयकों को राष्ट्रपति को तीन महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी। जस्टिस जे बी पारदीवाला की अध्यक्षता वाली दो जजों की बेंच ने यह फैसला सुनाया था।

सुप्रीम कोर्ट की ईडी को कड़ी फटकार, सीजेआई बोले-हमारा मुंह मत खुलवाइए, नहीं तो कठोर टिप्पणी करनी पड़ेगी

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सुप्रीम कोर्ट ने प्रवर्तन निदेशालय ईडी को जमकर फटकार लगाई है। जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) ने ईडी पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि कुछ बोलने पर मजबूर मत करो, वरना हमें कुछ कठोर कहना पड़ सकता है। ये टिप्पणी सीजेआई बीआर गवई और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच ने सोमवार को मैसूर अर्बन डेवलपमेंट बोर्ड (MUDA) केस में ईडी की अपील की सुनवाई के दौरान की।

दरअसल, ईडी ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की पत्नी बीएम पार्वती को MUDA केस में समन भेजा था। कर्नाटक हाईकोर्ट ने मार्च में यह समन रद्द कर दिया था। ईडी ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने आखिर में ईडी की अपील खारिज कर दी और कर्नाटक उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा।

राजनीतिक लड़ाई में इस्तेमाल ना होने की चेतावनी

ईडी की तरफ से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू सुप्रीम कोर्ट में पेश हुए। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि 'श्रीमान राजू, कृप्या हमें अपना मुंह खोलने के लिए मजबूर न करें। वर्ना हमें ईडी के खिलाफ कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ेगा। दुर्भाग्य से, मुझे महाराष्ट्र में इसे लेकर कुछ अनुभव है। इसे पूरे देश में मत फैलाइए। राजनीतिक लड़ाई को मतदाताओं के सामने लड़ने देना चाहिए, उसमें आप क्यों इस्तेमाल हो रहे हैं।

MUDA केस क्या है

साल 1992 में अर्बन डेवलपमेंट संस्थान मैसूर अर्बन डेवलपमेंट अथॉरिटी (MUDA) ने रिहायशी इलाके विकसित करने के लिए किसानों से जमीन ली थी। इसके बदले MUDA की इंसेंटिव 50:50 स्कीम के तहत जमीन मालिकों को विकसित भूमि में 50% साइट या एक वैकल्पिक साइट दी गई।

क्या है MUDA मामला?

सिद्धारमैया की पत्नी पार्वती के पास मैसूर के केसारे गांव में 3 एकड़ और 16 गुंटा जमीन थी, जो उनके भाई मल्लिकार्जुन ने उपहार में दी थी। जमीन को MUDA ने विकास के लिए अधिग्रहित किया, जिसके बदले पार्वती को विजयनगर तीसरे और चौथे चरण के लेआउट में 38,283 वर्ग फीट जमीन दी गई। आरोप है कि केसारे गांव की तुलना में जमीन की कीमत अधिक है। मामले को पहले निचली कोर्ट, फिर हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था।

सुप्रिम कोर्ट पहुंचे जस्टिस यशवंत वर्मा, नकदी मामले में महाभियोग की सिफारिश को रद्द करने की मांग

#justice_yashwant_verma_reaches_supreme_court 

जस्टिस यशवंत वर्मा कैश मामले में अब नया मोड़ आ गया है। संसद में महाभियोग प्रक्रिया शुरू होने से पहले जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है। सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर जस्टिस वर्मा ने अंतरिम जांच पैनल रिपोर्ट को चुनौती दी है। साथ ही जस्टिस वर्मा ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की आंतरिक जांच कमेटी की रिपोर्ट को अमान्य करार दिया जाए।

दिल्ली में उनके सरकारी आवास से भारी मात्रा में जली हुई नकदी बरामद की गई थी। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक आंतरिक समिति का गठन किया था, जिसने मामले की जांच की थी। जांच में उनके खिलाफ मजबूत सबूत पाए गए थे और उनके खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही की सिफारिश की गई थी। अब जस्टिस वर्मा के खिलाफ संसद के मानसून सत्र में महाभियोग चलाने की तैयारी है। उससे पहले ही जस्टिस वर्मा ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी है।

जस्टिस वर्मा ने कहा-पक्ष रखने का उचित मौका नहीं दिया

याचिका में जस्टिस वर्मा ने कहा है कि कमिटी ने उन्हें अपना पक्ष रखने का उचित मौका नहीं दिया। पूर्व निर्धारित सोच के आधार पर काम किया और अपना निष्कर्ष दे दिया। इस बात की जांच की जरूरत थी कि वह कैश किसका है? लेकिन कमिटी ने सही जांच करने की बजाय उनसे कहा कि वो साबित करें कि कैश उनका नहीं है।

पर्सनल हियरिंग के अनुरोध को ठुकराने का आरोप

बता दें कि सीजेआई (रिटायर्ड) संजीव खन्‍ना ने यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग चलाने के प्रस्‍ताव को अनुमति दी थी। जस्टिस वर्मा ने अपनी याचिका में यह भी आरोप लगाया है कि तत्‍कालीन सीजेआई खन्‍ना ने उनके पर्सनल हियरिंग के अनुरोध को भी ठुकरा दिया था। जस्टिस वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका ऐसे समय में दायर की है, जब संसद के मानसून सत्र में उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्‍ताव लाने की पूरी तैयारी है।

क्या है मामला? 

14 मार्च 2025 की रात को दिल्ली हाईकोर्ट के उस समय जज रहे जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास के एक स्टोर रूम में आग लगी थी। वहां कथित तौर पर उनके घर से बड़ी मात्रा में कैश मिला था। जस्टिस यशवंत वर्मा का दावा है कि स्टोर रूम में उन्होंने या उनके परिवार वालों ने कभी कैश नहीं रखा और उनके ख़िलाफ़ साजिश रची जा रही है। सुप्रीम कोर्ट के तत्‍कालीन चीफ जस्टिस संजीव खन्ना ने मामले की जांच के लिए तीन जजों की कमिटी बनाई थी। सुप्रीम कोर्ट की ओर से गठित कमेटी ने भी नोट की मौजूदी को सही माना था।

जब तक मजबूत केस नहीं, अदालतें हस्तक्षेप नहीं करतीं” वक्फ कानून पर सीजेआई गवई की दो टूक

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सुप्रीम कोर्ट में नए वक्फ अधिनियम, 2025 को लेकर सुनवाई चल रही है. मुख्य न्यायाधीश भूषण रामकृष्ण गवई की अध्यक्षता वाली दो सदस्यों की पीठ मामले की सुनवाई कर रही है। वक्फ (संशोधन)अधिनियम 2025 के मामले पर अंतिम फैसला आने तक संशोधित कानून को लागू करने पर रोक लगाई गई है। मंगलवार को सुनवाई के दौरान भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने सुनवाई के दौरान अहम टिप्पणी की। कोर्ट ने जब तक मजबूत केस नहीं बनता, तब तक अदालतें हस्तक्षेप नहीं करतीं।

सुनवाई के दौरान सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून में किसी को भी वक्फ संपत्ति को लेकर आपत्ति जताने का हक दिया गया है और जब तक उस पर विवाद चलेगा तो संपत्ति वक्फ की नहीं रहेगी। उनको आपत्ति है कि 100-200 साल पुराने वक्फ के कागजात कहां से आएंगे और अल्लाह को दान की गई संपत्ति किसी और को ट्रांसफर कैसे की जा सकती है। याचिकाकर्ताओं की ओर से उन्होंने दलील दी कि यह हमारे डीएनए में हैं। सिब्बल ने कहा कि अगर वक्फ संपत्ति को लेकर कोई विवाद होता है तो उसका फैसला करने वाला भी सरकार का अधिकारी ही होगा। उन्होंने कहा कि नए कानून के अनुसार कोई भी वक्फ संपत्ति पर आपत्ति जता सकता है।।

सिब्बल ने कोर्ट को वक्फ का मतलब समझाते हुए कहा, 'वक्फ क्या है, यह अल्लाह को किया गया दान है, जिसे किसी और को ट्रांसफर नहीं किया जा सकता। एक बार वक्फ की गई संपत्ति वक्फ ही रहती है।' कपिल सिब्बल ने कहा कि वक्फ संपत्ति के मैनेजमेंट का अधिकार लिया जा रहा। सिब्बल ने कहा कि यह अधिनियम सरकार की ओर से वक्फ संपत्तियों पर कब्जा करने का एक प्रयास है।

इसी दौरान सीजेआई गवई ने कहा, यह मामला संवैधानिकता के बारे में है। अदालतें आमतौर पर हस्तक्षेप नहीं करती हैं, इसलिए जब तक आप एक बहुत मजबूत मामला नहीं बनाते, कोर्ट हस्तक्षेप नहीं करती है। सीजेआई ने आगे कहा कि औरंगाबाद में वक्फ संपत्तियों को लेकर बहुत सारे विवाद हैं।

अंतरिम आदेश के लिए सुनवाई इन तीन मुद्दों तक ही सीमित रखें, केंद्र की सुप्रीम कोर्ट से अपील

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सुप्रीम कोर्ट, वक्फ (संशोधन) अधिनियम 2025 की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। सीजेआई बी आर गवई, जस्टिस एजी मसीह और जस्टिस के विनोद के चंद्रन की बेंच सुनवाई कर रही है। सुनवाई के दौरान तुषार मेहता ने कहा कि बेंच ने पहले तीन मुद्दे उठाए थे ⁠स्टे के लिए। हमने इन तीनों पर जवाब दाखिल किया था। लेकिन अब लिखित दलीलों में और भी मुद्दे शामिल हो गए हैं। सिर्फ तीन मुद्दों तक सुनवाई सीमित हो। कपिल सिब्बल ने इसका विरोध किया।

सरकार ने जिन मुद्दों पर सुनवाई सीमित रखने की अपील की है, उनमें एक मुद्दा है अदालत द्वारा घोषित, वक्फ बाय यूजर या वक्फ बाय डीड संपत्ति को डी-नोटिफाई करने का है। दूसरा मुद्दा केंद्रीय और प्रदेश वक्फ बोर्ड के गठन से जुड़ा है, जिनमें गैर मुस्लिमों को शामिल किए जाने का विरोध हो रहा है। तीसरा मुद्दा वक्फ कानून के उस प्रावधान से जुड़ा है, जिसमें जिलाधिकारी द्वारा जांच और उसकी मंजूरी के बाद ही किसी संपत्ति को वक्फ संपत्ति घोषित किया जाएगा।

वक्फ अधिनियम, 2025 के प्रावधानों को चुनौती देने वाले लोगों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल और अभिषेक सिंघवी ने इन दलीलों का विरोध किया कि अलग-अलग हिस्सों में सुनवाई नहीं हो सकती। एक मुद्दा अदालत द्वारा वक्फ, वक्फ बाई यूजर या वक्फ बाई डीड घोषित संपत्तियों को गैर-अधिसूचित करने के अधिकार का है।

याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाया गया दूसरा मुद्दा राज्य वक्फ बोर्डों और केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना से संबंधित है, जहां उनका तर्क है कि पदेन सदस्यों को छोड़कर केवल मुसलमानों को ही इसमें काम करना चाहिए। तीसरा मुद्दा एक प्रावधान से संबंधित है, जिसमें कहा गया है कि जब कलेक्टर यह पता लगाने के लिए जांच करते हैं कि संपत्ति सरकारी भूमि है या नहीं, तो वक्फ संपत्ति को वक्फ नहीं माना जाएगा।

इससे पहले 17 अप्रैल को हुई सुनवाई में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सुनिश्चित किया था कि वे किसी भी वक्फ संपत्ति को डी-नोटिफाई नहीं करेंगे, इनमें वक्फ बाय यूजर भी शामिल है। साथ ही वक्फ बोर्डों में नई नियुक्ति पर भी कोई नई नियुक्ति न करने की बात कही थी।

भारत कोई धर्मशाला नहीं...जानें सुप्रीम कोर्ट की इस सख्त टिप्पणी की वजह

#indiaisnotadharamshalasupremecourtbigstatement

सुप्रीम कोर्ट ने शरणार्थियों को लेकर बड़ी टिप्पणी की है। कोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है। सोमवार को एक श्रीलंकाई नागरिक की भारत में शरणार्थी के तौर पर रहने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत कोई धर्मशाला नहीं है, जहां दुनिया भर से शरणार्थियों को रखा जा सके। दुनिया भर से आए शरणार्थियों को भारत में शरण क्यों दें?

जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस के विनोद चंद्रन की बेंच इस मामले की सुनवाई कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस दीपांकर दत्ता ने श्रीलंका से आए तमिल शरणार्थी को हिरासत में लिए जाने के मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए ये बात कही। सुप्रीम कोर्ट में श्रीलंका के एक नागरिक की हिरासत के खिलाफ याचिका दाखिल की गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने याचिका पर दखल देने से इनकार कर दिया। पीठ मद्रास हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी। इसमें निर्देश दिया गया था कि याचिकाकर्ता को UAPA मामले में लगाए गए 7 साल की सजा पूरी होते ही तुरंत भारत छोड़ देना चाहिए।

हालांकि, सजा पूरा होते ही उसने श्रीलंका वापस जाने से मना कर दिया। उसने दलील दी कि श्रीलंका में उसकी जान को खतरा है इसलिए उसे भारत में शरणार्थी के तौर पर रहने की इजाजत दी जाए। याचिकाकर्ता ने ये भी बताया कि उसकी पत्नी और बच्चे भी भारत में ही हैं।

कोर्ट ने क्या कहा?

याचिकाकर्ता के इस तर्क पर न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा, क्या भारत को दुनिया भर से शरणार्थियों की मेजबानी करनी है? हम 140 करोड़ लोगों के साथ संघर्ष कर रहे हैं। यह कोई धर्मशाला नहीं है कि हम हर जगह से विदेशी नागरिकों का स्वागत कर सकें।

क्या है पूरा मामला?

बता दें कि श्रीलंकाई नागरिक को 2015 में टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (लिट्टे) से जुड़े होने के शक में गिरफ्तार किया गया था। लिट्टे एक आतंकवादी संगठन था। यह कभी श्रीलंका में सक्रिय था। 2018 में, एक ट्रायल कोर्ट ने उसे गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम के तहत दोषी ठहराया। उसे 10 साल की जेल की सजा सुनाई गई। 2022 में, मद्रास हाई कोर्ट ने उसकी सजा को घटाकर 7 साल कर दिया, लेकिन कोर्ट ने कहा कि सजा पूरी होने के बाद उसे देश छोड़ना होगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि निर्वासन से पहले उसे एक शरणार्थी शिविर में रहना होगा। इसका मतलब है कि उसे देश से निकालने से पहले कुछ समय के लिए एक खास शिविर में रहना होगा।

कर्नल सोफिया कुरैशी पर टिप्पणी करने वाले मंत्री विजय शाह की बढ़ी मुश्किलें, सुप्रीम कोर्ट ने SIT बनाने को कहा

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कर्नल सोफिया पर विवादित बयान देने वाले मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री विजय शाह की मुश्किलें बढ़ती दिख रही है।कर्नल कुरैशी को लेकर विवादित टिप्पणी करने वाले विजय शाह को सुप्रीम कोर्ट से बड़ा झटका लगा है। कोर्ट ने इस मामले की जांच के लिए तीन वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों की विशेष जांच टीम (एसआईटी) गठित करने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि यह मामला गंभीर है और इसे किसी भी तरह से राजनीतिक रंग नहीं लेने दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक बार फिर मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री विजय शाह को कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर दिए बयान पर फटकार लगाई है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम इस मामले में मंत्री की माफी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। कोर्ट ने आगे कहा, "आप एक सार्वजनिक चेहरा हैं। एक अनुभवी नेता हैं। आपको बोलने से पहले अपने शब्दों को तोलना चाहिए। हमें आपके वीडियो यहां चलाने चाहिए। यह सेना के लिए एक अहम मुद्दा है। हमें इस मामले में बेहद जिम्मेदार होना होगा।"

सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस एसवीएन भट की पीठ इस मामले की सुनवाई करते हुए राज्य सरकार से सख्त लहजे में कहा कि हम इस केस को बहुत करीब से देख रहे हैं और यह सरकार के लिए एक अग्नि परीक्षा है। अदालत ने कहा कि मंत्री को उनके बयान के नतीजे भुगतने होंगे और कानून को अपना रास्ता तय करने दिया जाएगा।

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश देते हुए कहा कि हम इस बात से संतुष्ट हैं कि एफआईआर की जांच एसआईटी द्वारा की जानी चाहिए, जिसमें एमपी कैडर के सीधे भर्ती किए गए 3 वरिष्ठ आईपीसी अधिकारी शामिल हों, लेकिन जो एमपी से संबंधित नहीं हों। इन 3 में से 1 महिला आईपीएस अधिकारी होनी चाहिए। डीजीपी, एमपी को कल रात 10 बजे से पहले एसआईटी गठित करने का निर्देश दिया जाता है। इसका नेतृत्व एक आईजीपी द्वारा किया जाना चाहिए और दोनों सदस्य भी एसपी या उससे ऊपर के रैंक के होंगे।

इससे पहले वरिष्ठ अधिवक्ता मनिंदर सिंह ने दलील देते हुए कहा कि विजय शाह माफी मांग रहे हैं। इस पर जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि आपकी माफी कहां है? यह जिस प्रकृति का मामला है, आप किस तरह कि माफी मांगना चाहते हैं, आपका क्या घड़ियाली आंसू बहाना चाहते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आपने बिना सोचे जो किया और अब माफी मांग रहे हैं। हमें आपकी माफी नहीं चाहिए। अब कानून के मुताबिक निपटेंगे। आपने अगर दोबारा माफी मांगी तो हम अदालत की अवमानना मानेंगे। आप पब्लिक फिगर हैं, राजनेता हैं और क्या बोलते हैं? ये सब वीडियो में है और आप कहां जाकर रुकेंगे। संवेदनशील होना चाहिए और अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए। यह बहुत गैर जिम्मेदाराना है। हमें अपनी आर्मी पर गर्व है और आप टाइमिंग देखिए, क्या आप बोले?

इससे पहले बीते गुरुवार को विजय शाह सुप्रीम कोर्ट की शरण पहुंचे और एफआईआर पर रोक लगाने की मांग की, लेकिन शाह को यहां भी फटकार ही पड़ी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा- आप संवैधानिक पद हैं, आपको अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए। एक मंत्री होकर आप कैसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। वहीं, सुप्रीम कोर्ट ने एफआईआर कें कंटेंट को लेकर भी फटकारा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एफआईआर की भाषा ऐसी लिखी गई है जो चुनौती देने पर निरस्त हो जाए। सुप्रीम कोर्ट की ओर से एफआईआर में सुधार करने और पुलिलिस विवेचना की मॉनिटरिंग हाईकोर्ट द्वारा किए जाने के भी आदेश दिए।

एक मंत्री होकर कैसी भाषा का इस्तेमाल...कर्नल सोफिया को लेकर विवादित बयान देने वाले मंत्री को सुप्रीम कोर्ट ने फटकारा

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मध्य प्रदेश के वन मंत्री विजय शाह इस समय सुर्खियों में हैं। जब देश कर्नल सोफिया कुरैशी और विगं कमांडर व्योमिका सिंह के के जरिए नारी शक्ति का अभिवादन कर रहा है। उस वक्त बीजेपी के नेता ने कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर विवादित टिप्पणी कर दी। कर्नल सोफिया कुरैशी को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने उन पर एक्शन लिया। साथ ही उन पर एफआईआर भी दर्ज कर ली गई। हाई कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। हालांकि, उन्हें राहत नहीं मिली। सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें फटकार मिली है।

सुप्रीम कोर्ट ने कुंवर विजय शाह को फटकार लगाते हुए कहा कि जब देश ऐसी स्थिति से गुजर रहा है, तो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को जिम्मेदार होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उन्हें पता होना चाहिए कि वह क्या कह रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ के समक्ष मामले को तत्काल सुनवाई के लिए पेश किया गया। सीजेआई ने शाह के वकील से कहा, 'आप किस तरह के बयान दे रहे हैं। आप सरकार के एक जिम्मेदार मंत्री हैं।' इस पर वकील ने कहा कि याचिकाकर्ता एफआईआर पर रोक लगाने की मांग कर रहा है। पीठ ने कहा कि याचिका पर शुक्रवार को सुनवाई होगी।

क्या है शाह का बयान

दरअसल, कर्नल सोफिया कुरैशी 'ऑपरेशन सिंदूर' का चेहरा बनी थीं। उन्होंने भारतीय वायु सेना द्वारा पाकिस्तानी आतंकवादी ठिकानों पर की गई सैन्य कार्रवाई के बारे में प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। विजय शाह ने इस पर विवादित बयान देते हुए कहा था कि जिन्होंने हमारी बेटियों के सिंदूर उजाड़े थे… हमने उन्हीं की बहन भेज कर के उनकी ऐसी की तैसी करवाई।

मंत्री ने मांगी माफी

विजय शाह का वीडियो वायरल होने के बाद सियासी हलचल तेज हो गई। साथ ही उनके इस्तीफे की मांग भी की जा रही है। इसी बीच मंत्री ने वीडियो जारी कर के माफी भी मांगी है और सोफिया कुरैशी को अपनी बहन बताया है। उन्होंने माफी मांगते हुए कहा, हाल ही में मैंने जो बयान दिया अगर उसकी वजह से किसी भी समाज की भावना आहत हुई है, तो इसके लिए मैं दिल से न सिर्फ शर्मिंदा हूं बल्कि बेहद दुखी भी हूं और सभी से माफी चाहता हूं। उन्होंने सोफिया कुरैशी को लेकर आगे कहा, हमारे देश की वो बहन, सोफिया कुरैशी, जिन्होंने राष्ट्र धर्म निभाते हुए जाति और समाज से ऊपर उठकर जो काम किया है, उन्हें हमारी सगी बहन से भी ऊपर सम्मानित मानता हूं।

हाईकोर्ट ने लिया स्वतः संज्ञान

मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने इस बयान को बहुत ही आपत्तिजनक माना। हाई कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए कहा कि शाह की टिप्पणी 'तिरस्कारपूर्ण', 'खतरनाक' और 'नालियों की भाषा' जैसी है। कोर्ट ने यह भी कहा कि यह टिप्पणी न केवल उस अधिकारी को निशाना बनाती है, बल्कि पूरे सशस्त्र बलों को बदनाम करती है। हाई कोर्ट ने यह भी कहा कि पहली नजर में मंत्री के खिलाफ भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत अपराध बनता है।

सुप्रीम कोर्ट की ओर से समयसीमा तय किए जाने पर राष्ट्रपति ने उठाए सवाल, सर्वोच्च अदालत से पूछे ये 14 सवाल

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 8 अप्रैल 2025 को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर सवाल उठाए हैं।सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को एक ऐतिहासिक फैसला दिया था। तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास वीटो का अधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करना होगा। इसमें राष्‍ट्रपति और राज्‍यपालों को विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समय-सीमा तय करने पर टिप्पणी की गई थी। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के इसी फैसले पर सर्वोच्च अदालत से 14 सवाल पूछे हैं।

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत 14 बेहद अहम सवाल पूछते हुए यह साफ किया है कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो विधेयकों पर मंजूरी या नामंजूरी की समयसीमा तय करती हो। राष्ट्रपति ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विधेयकों पर फैसला लेते हैं, लेकिन ये अनुच्छेद कहीं भी कोई समयसीमा या प्रक्रिया निर्धारित नहीं करते। उन्होंने यह भी कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति का यह विवेकपूर्ण निर्णय संघवाद, कानूनों की एकरूपता, राष्ट्रीय सुरक्षा और शक्तियों के बीच संतुलन जैसे बहुपक्षीय पहलुओं पर आधारित होता है।

राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से राज्यपाल की शक्तियों, न्यायिक दखल और समयसीमा तय करने जैसे विषयों पर स्पष्टीकरण मांगा है। इन सवालों में पूछा गया है कि राज्यपाल के पास क्या विकल्प हैं जब कोई बिल उनके पास आता है? क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं? क्या राज्यपाल का विवेकाधिकार न्यायिक समीक्षा के अधीन है?

राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछे ये 14 सवाल-

1. राज्यपाल के समक्ष अगर कोई विधेयक पेश किया जाता है तो संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत उनके पास क्या विकल्प हैं?

2. क्या राज्यपाल इन विकल्पों पर विचार करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?

3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लिए गए फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है?

4. क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों पर न्यायिक समीक्षा को पूरी तरह से रोक सकता है?

5. क्या अदालतें राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 200 के तहत लिए गए फैसलों की समयसीमा तय कर सकती हैं, जबकि संविधान में ऐसी कोई समयसीमा तय नहीं की गई है?

6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फैसले की समीक्षा हो सकती है?

7. क्या अदालतें अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा फैसला लेने की समयसीमा तय कर सकती हैं?

8. अगर राज्यपाल ने विधेयक को फैसले के लिए सुरक्षित रख लिया है तो क्या अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेनी चाहिए?

9. क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा क्रमशः अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए फैसलों पर अदालतें लागू होने से पहले सुनवाई कर सकती हैं।

10. क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों में बदलाव कर सकता है?

11. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की मंजूरी के बिना राज्य सरकार कानून लागू कर सकती है?

12. क्या सुप्रीम कोर्ट की कोई पीठ अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या से जुड़े मामलों को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच को भेजने पर फैसला कर सकती है?

13. क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे निर्देश/आदेश दे सकता है जो संविधान या वर्तमान कानूनों मेल न खाता हो?

14. क्या अनुच्छेद 131 के तहत संविधान इसकी इजाजत देता है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवाद सिर्फ सुप्रीम कोर्ट ही सुलझा सकता है?