क्यों हर बार जीती हुई बाजी हार रही कांग्रेस? ऐसे तो जनता ही नहीं सहयोगियों का भी छूट जाएगा “हाथ”
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इस साल आम चुनाव के बाद जिस विधानसभा चुनाव पर सबसे अधिक ध्यान केंद्रित था, वह महाराष्ट्र का चुनाव था। महाराष्ट्र न केवल उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक सांसद भेजने वाला राज्य है, बल्कि यहाँ देश की आर्थिक राजधानी मुंबई भी स्थित है। इस कारण से यह चुनाव ख़ास था।महाराष्ट्र में एनडीए ने 'महायुति' के नाम से चुनाव लड़ते हुए ऐतिहासिक जीत दर्ज की। लोकसभा चुनाव के दौरान महाराष्ट्र में 'महाविकास अघाड़ी' के बैनर तले इंडिया गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन किया था, लेकिन कुछ ही महीनों में विधानसभा चुनाव में यह स्थिति पलट गई।
इस बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में महायुति गठबंधन में शामिल भारतीय जनता पार्टी ने 132 , एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने 57 और अजित पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) ने 41 सीटें जीती हैं। यानी महायुति ने कुल 230 सीटें हासिल कर सत्ता में धमाकेदार वापसी की है। दूसरी ओर, महाविकास अघाड़ी (एमवीए) गठबंधन में कांग्रेस, शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) और शरद पवार की एनसीपी शामिल हैं। इन्हें कुल 46 सीटें मिली हैं और करारी हार का सामना करना पड़ा है।
महाराष्ट्र चुनाव में कभी अकेले दम पर 200 से ज़्यादी सीटें लाने वाली कांग्रेस इस बार के चुनाव में 16 सीटों के लिए भी संघर्ष करती दिखाई दी। लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन के बाद माना जा रहा था कि कांग्रेस कहीं ना कहीं वापसी कर रही है, लेकिन नतीजों ने फिर से कांग्रेस की राजनीति को सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है। कांग्रेस पहले हरियाणा में हारी और अब महाराष्ट्र में उसे बुरी हार का सामना करना पड़ा है। हरियाणा के बाद अब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मिली हार ने एक बार फिर देश के राजनीतिक पटल पर और इंडिया ब्लॉक के भीतर कांग्रेस की कमजोर स्थिति को उजागर कर दिया है।
बीजेपी के सामने निराशाजनक प्रदर्शन
इस साल जून में हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को अपेक्षाकृत सफलता मिली थी जहां इसने कुल 99 सीटें हासिल कीं। यह एक ऐसा आंकड़ा था जिस पर कांग्रेस खेमा अपने पिछले एक दशक के प्रदर्शन को देखते हुए खुश था।
हालांकि, पार्टी की बढ़त मुख्य रूप से उन इलाकों तक ही सीमित रही, जहां इसने भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रभुत्व का मुकाबला करने के लिए मजबूत सहयोगियों पर बहुत अधिक निर्भरता दिखाई। इन 99 में से 36 सीटें उन राज्यों में मिलीं, जहां कांग्रेस क्षेत्रीय सहयोगियों की अगुआई में काम कर रही थी। इससे उसे वोट ट्रांसफर से काफी फायदा पहुंचा। हालांकि, उन सीटों पर जहां कांग्रेस ने चाहे सीधे तौर पर या फिर किसी तीसरे पक्ष की मौजूदगी में बीजेपी का सामना किया, उसका प्रदर्शन निराशाजनक रहा। ऐसी स्थिति में लड़ी गई 168 सीटों में से कांग्रेस महज 30 सीटें ही निकाल पाई। केरल, पंजाब, तेलंगाना, नागालैंड, मेघालय, लक्षद्वीप और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में पार्टी को अतिरिक्त जीत मिली, जहां बीजेपी की मौजूदगी मामूली है या जहां उसके सहयोगी दलों ने मुकाबले में बढ़त बनाई है।
कहां चूक रही है कांग्रेस?
मई के बाद देश के विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव हुए हैं। आम चुनावों के बाद से कांग्रेस को कई चुनावी झटके लगे हैं। पार्टी को पहले हरियाणा में हार मिली, जम्मू-कश्मीर में प्रदर्शन खराब रहा और अब महाराष्ट्र में मिली हार ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि आख़िर बार- बार कहां चूक रही है कांग्रेस?
11 साल बाद भी समस्याएं जस की तस
महाराष्ट्र में हार के बाद कांग्रेस के एक नेता ने कहा कि लंबे समय से लंबित मसलों पर फैसला नहीं लेने का बड़ा खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ रहा है। वह मानते हैं कि इससे कार्यकर्ताओं में हताशा बढ़ रही है। उनकी बात वाजिब लगती है। मिसाल देखें, पार्टी 11 साल पहले जिन-जिन राज्यों में जिन समस्याओं से जूझ रही थी, आज 11 साल बाद भी उन्हीं समस्याओं से दो-चार हो रही है। हरियाणा, राजस्थान से लेकर कई दूसरी जगह उसे गुटबाजी के चलते नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद भी नेतृत्व इस मसले पर कोई ठोस फैसला नहीं ले पाया।
स्थिति बेहतर करने के लिए कोई गंभीर कोशिश नहीं
बिहार, ओडिशा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में कांग्रेस हाशिये पर पहुंच चुकी है, लेकिन अपनी स्थिति बेहतर करने के लिए उसने कोई गंभीर कोशिश नहीं की। कार्यकर्ता मान रहे थे कि मल्लिकार्जुन खरगे के अध्यक्ष बनने के बाद चीजें साफ होंगी, संगठन के स्तर पर नए चेहरों को मौका मिलेगा और इसका विस्तार भी होगा। लेकिन, बदलाव के नाम पर रस्मअदायगी कर दी गई। पार्टी का एक वर्ग मानता है कि कांग्रेस नेतृत्व ने यथास्थितिवाद को इतना खींच दिया है कि अब अगर बड़ा बदलाव नहीं हुआ तो सीधे उसे ही सख्त सवालों का सामना करना पड़ सकता है।
सहयोगी दलों में असंतोष
कांग्रेस के ढुलमुल रवैये और फैसला न लेने की प्रवृत्ति से अब सहयोगी दल भी नाराज हैं। सहयोगी क्षेत्रीय दलों का मानना है कि कांग्रेस फैसले से लेकर तमाम मसलों में न सिर्फ चीजों को उलझा कर रखती है बल्कि अपनी अव्यावहारिक शर्तें थोपती है। एक क्षेत्रीय दल के वरिष्ठ नेता ने कहा कि लोकसभा चुनाव के बाद जो परिस्थिति बनी, उसमें कांग्रेस की बात मानना सियासी मजबूरी बन गई थी। इससे कांग्रेस कुछ अधिक ही आक्रामक हो गई। लेकिन, पहले हरियाणा और अब महाराष्ट्र में हार के बाद क्षेत्रीय दल एक बार फिर कांग्रेस पर दबाव बनाएंगे।
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