पकड़ौआ विवाह : जबरदस्ती मांग भरना वैध विवाह नहीं संदर्भ : पवित्र अग्नि के समक्ष अपनी मर्जी से सात फेरे होना जरूरी : हाईकोर्ट
शादी को पाणिग्रहण या विवाह भी कहा जाता है । शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाह बताये गये हैं। ये हैं ब्रह्म, दैव आर्य, प्राजापत, असुर , गंधर्व,  राक्षस और पिशाच।  इनमें श्रेष्ठ ब्रह्म विवाह माना जाता है  । इसके बाद दैव और फिर आर्य विवाह को ही उत्तम माना गया है। अन्य प्रकार के विवाह अशुभ माने जाते हैं।
आज से कुछ दशक पहले बिहार में एक अन्य प्रकार के विवाह ने जोर पकड़ा था। इसका इतना खौफ पैदा हो गया था कि नाबालिग , कुंवारे लड़के और नौकरीपेशा लड़के घरों से बाहर नहीं निकलते थे। इसे पकड़ौआ विवाह  कहा जाता था। बिहार के कुछ जिलों में इस प्रकार का विवाह कराने वाले गिरोह सक्रिय हो गये थे और कुछ संपन्न गृहस्थ अपनी लड़की की शादी करने के लिए इन गिरोहों से संपर्क करते थे।
इन गिरोहों के पास मैट्रिक- इंटरमीडिएट पास, ग्रेजुएट और नौकरीपेशा लड़कों की लिस्ट रहती थी। अपनी पसंद बताने पर गिरोह  द्वारा उस लड़के का अपहरण कर उसका पकड़ौआ विवाह करा दिया जाता था। लड़का अगर ना-नुकुर करता था तो उसे डरा-धमकाकर, मारपीट कर जबरदस्ती आनन-फानन में शादी का मंडप तैयार कर लड़की की मांग अपह्वत कर लाये गये लड़के से भरवा दी जाती थी ।
इसकी एवज में में लड़की पक्ष द्वारा गिरोह को मुंह मांगी रकम दी जाती थी। परंतु ऐसे विवाह के लिए ना तो लड़का मानसिक रूप से तैयार होता है ना लड़की । कभी-कभी तो नाबालिगों की शादी भी इसी प्रकार करा दी जाती थी और दोनों को साथ निभाने की कसम खिला दी जाती थी । शादी के कुछ दिनों बाद लड़के को छोड़ दिया जाता था । लड़का घर पहुंच कर अपने साथ हुई घटना की जानकारी अपने परिजनों को देता था । परिजन थाने में इसकी शिकायत दर्ज कराते थे , तो गिरोह के सदस्य परिजनों को इतना डरा-धमका देते थे कि वह परिवार विवाह को स्वीकार कर लेता था।
परंतु आज पकड़ौआ विवाह बीते दिनों की बात हो गयी है । इस विषय पर टीवी सीरियल "भाग्य विधाता " और एक फिल्म "जबरिया जोड़ी " नाम से बन चुकी है ।
इस प्रकार के विवाह के पीछे कई कारण हो सकते हैं । सबसे बड़ा कारण दहेज प्रथा हो सकती है परंतु हो सकता है कि शिक्षा और जागरूकता के अभाव के कारण परिजन इस प्रकार के कृत्य करते थे । पर आज की युवा पीढ़ी जागरूक और समझदार है। वह अपना भला - बुरा समझती है।
इसी संदर्भ में 24 नवंबर , 2023 को पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि जिस विवाह में पवित्र अग्नि के समक्ष लड़का-लड़की अपनी मर्जी से सात फेरे  ( सप्तपदी ) नहीं लेते , वह विवाह कानूनन वैध नहीं माना जा सकता । पटना हाईकोर्ट का यह फैसला फैमिली कोर्ट के द्वारा दिये गये एक फैसले के विपरित है । पीड़ित युवक ने फैमिली कोर्ट के फैसले के विरुद्ध पटना हाईकोर्ट में अपील की थी। इस पर कोर्ट ने  यह फैसला सुनाया।
आज तकिया के नीचे किताबें नहीं मोबाइल रहता है संदर्भ : आधुनिक युग में किताबें स्क्रिप्ट में बदली
पुस्तकों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है । पुस्तकें ज्ञान का भंडार होती हैं। ये हमारे जीवन में सबसे अच्छे मित्र की भूमिका भी निभाती हैं । महान लोगों के कार्य , विचार , ज्ञान , संस्कृति पुस्तकों में हमेशा के लिए दर्ज रहते हैं। इसी कारण पुस्तकों का कभी भी महत्व कम नहीं हुआ।
दूसरी ओर आज कंप्यूटर युग में जहां हर कार्य इंटरनेट पर सुलभ है । नेट पर आज कोई भी पुस्तक पढ़ी जा सकती है। नयी पीढ़ी आज पुस्तकों से थोड़ी दूरी बना रही है। इस दूरी को कम करने के लिए साहित्यकारों और रचनाकारों को सृजन के साथ-साथ नयी पीढ़ी को जोड़े रखना होगा । पुस्तकें हमें अपने आसपास की दुनिया को समझने व सही और गलत का निर्णय लेने की समझ विकसित करती हैं।
पुस्तक मेले का उद्देश्य नवीनतम, दुर्लभ तथा महत्वपूर्ण पुस्तकों और उसके लेखक की विचारधाराओं से पाठक वर्ग और साहित्य प्रेमियों को परिचित करवाना होता है। पुस्तक मेले ज्ञान , संस्कृति और रचनात्मकता का भंडार होते हैं । यह कल्पना शीलता बढ़ाने और सीखने की जिज्ञासा पैदा करते हैं। पुस्तक क्यों पढ़नी चाहिए : पुस्तकें पढ़ना अच्छा होता है । यह हमारी एकाग्रता बढ़ती हैं और जानकारी में इजाफा करती हैं । किताबें आपके माननीय मूल्य के कोष को बढ़ाती हैं । आपको मानसिक रूप से मजबूत बनाने के साथ-साथ आपके सोचने और समझने के क्षेत्र को भी विकसित करती हैं।
आज पुस्तक मेले का स्वरूप बदल रहा है। ये सैर- सपाटे का माध्यम बनते जा रहे हैं। पुस्तक मेले में भीड़ तो होती है मगर लगता है पाठक नहीं होते। आज कुछ भी जानकारी हासिल करनी हो, नेट पर हाजिर है ।
एक क्लिक में इंटरनेट पर दूसरे देशों के ख्याति प्राप्त लेखकों  की विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें आसानी से उपलब्ध हैं। आज प्रिंटिंग कॉस्ट अधिक होने के कारण पुस्तकों की कीमतें भी बढ़ जाती हैं, शायद यही कारण है कि युवा पीढ़ी पुस्तकों से दूर हो रही है ।
किताबें हमारा मनोरंजन भी करती थी पर आज लोगों के मनोरंजन का साधन मोबाइल फोन बन गया है । सब कुछ है इसमें । आधुनिक युग में तकिया के नीचे किताबें रखकर सोने की आदत अब नहीं रही । अब तकिया के नीचे किताबें नहीं मोबाइल दिखता है। आज साहित्य, प्रेम , रहस्य, विद्रोह आदि अब किताबों की बजाय स्क्रिप्ट के रूप में मोबाइल की स्क्रीन पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं । आप जो चाहें वह पलक छपकते हाजिर हो जाता है।
अति महत्वाकांक्षाओं का बोझ कर देता है अकेला संदर्भ : पंचतत्व में विलीन हुए सहारा श्री
आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध  ने पुराने संस्कारों और परंपराओं को क्षीण कर दिया है । महत्वाकांक्षाएं इतनी प्रबल हो गयी हैं कि कोई भी इससे अछूता नहीं है , लेकिन "अति सर्वत्र वर्जते"। इस पर हमें सोचना होगा ।
आज हम अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण ही परिवार के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजते हैं । पौधे को अपने से दूर लगाकर आते हैं। पौधा जहां लगेगा, वहीं पल्लवित और पुष्पित होगा और फिर पेड़ अकेला पड़ जाता है ।
आज सहारा श्री पंच तत्व में विलीन हो गये। इस मौके पर हजारों नामचीन हस्तियां तो मौजूद थीं मगर उनके अपने ( दो बेटे और पत्नी )  उपस्थित नहीं थे।। मुखाग्नि उनके पोते ने दी ।
हमें सोचना होगा, पौधे को अपने आसपास ही लगायें । वह आपकी छांव में पल्लवित और पुष्पित होगा। पेड़  के पास हरियाली होगी तो पेड़ भी स्वस्थ रहेगा। पुरानी कहावत है सांई इतना दीजिये जामें  कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाये। हमें ठहरना होगा और युवा पीढ़ी को समझा ना होगा कि पैसा ही सब कुछ नहीं है , परिवार और समाज भी महत्व रखता है । जिसे अंगुली पड़कर चलना सिखाया वह बुढ़ापे का सहारा ना बने, तकलीफ तो होती है।
कलेक्ट्रेट घाट प्रवासी पक्षियों से हो रहा गुलजार संदर्भ : हजारों मील की यात्रा कर आते हैं ये प्रवासी पक्षी
14  मई  को विश्व प्रवासी पक्षी दिवस ( world Migratory Birds Day ) मनाया जाता है। शरद ऋतु के आरंभ होते ही हर साल लाखों की संख्या में प्रवासी पक्षी दुनिया भर के अलग-अलग क्षेत्र से उड़कर भारत आते हैं । यह पक्षी हजारों मील की यात्रा कर हमारे देश के अलग-अलग राज्यों में स्थित झील, नदी, नहर आदि के पास अपना आश्रय बना लेते हैं और बसंत ऋतु के आते ही वापस अपने घर की ओर निकल पड़ते हैं।
सर्दियों के शुरू होते ही दुनिया भर से प्रवासी पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां उड़ कर भारत पहुंचती हैं । प्रवासी पक्षी भोजन और आश्रय की तलाश में नदियां, समुद्रों और पहाड़ों को पार कर भारत आते हैं । ये पक्षी ऊंची उड़ान भरने वाले होते हैं और भोजन , प्रजनन और शीतकालीन प्रवास के लिए आते हैं। प्रवासी पक्षी जब भी प्रवास के लिए निकलते हैं तो अकेले नहीं बल्कि हजारों की संख्या में समूह बनाकर चलते हैं।
शीत ऋतु में इन प्रवासी पक्षियों के यहां बर्फ जम जाती है, ऐसी स्थिति में इनको आहार ढूंढना और जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है । इसलिए ये पक्षी भारत जैसे गर्म देश में चले आते हैं। ठंड के मौसम में भारत के क्षेत्र इन पक्षियों के लिए स्वर्ग बन जाते हैं । गंगा किनारे बसे शहर बनारस , पटना , इलाहाबाद जैसे शहरों में प्रवासी पक्षियों की अच्छी - खासी संख्या रहती है ।
बिहार के बेगूसराय स्थित कावर झील प्रवासी पक्षियों के लिए काफी मशहूर थी। यह प्रवासी पक्षी हमारे मेहमान होते हैं, परंतु मनुष्य एक विचित्र प्राणी है। वह अपने स्वाद के लिए इन प्रवासी पक्षियों का शिकार करता है । भोजन की तलाश में जब ये पक्षी नदी किनारे आते हैं तो शिकारी इनका शिकार करते हैं। इसी कारण इनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है । जबकि वन्य जीव संरक्षण कानून 1972 की धारा 9 के तहत प्रवासी पक्षियों का शिकार करना कानूनन अपराध है । फिर भी इन पक्षियों का धड़ल्ले से शिकार किया जाता है। अपने शहर पटना के विभिन्न इलाकों में इन पक्षियों का दीदार किया जा सकता है।
सूप या थाली बजाकर जगाते हैं श्री हरि को संदर्भ : कार्तिक माह की देव उठनी एकादशी
दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का सनातन धर्म में बहुत महत्व है । मान्यता है कि भगवान विष्णु चार माह के शयन के बाद इसी दिन योग निंदा से जागते हैं । इसे देवउठनी एकादशी , देव प्रबोधिनी एकादशी या देवोत्थान एकादशी भी कहा जाता है ।
भगवान विष्णु के चार माह के शयन के वक्त कोई भी शुभ कार्य नहीं किये जाते । देवोत्थान एकादशी के बाद से शादी- ब्याह और अन्य कायों की शुरुआत हो जाती है । देव शयनी एकादशी को भगवान विष्णु क्षीरसागर में विश्राम करने जाते हैं और देव उठनी एकादशी को जागते हैं। इस अवधि को चातुर्मास भी कहा जाता है । इस दिन भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप के साथ माता तुलसी के विवाह का आयोजन किया जाता है ।
थाली या सूप बजाकर जगाते हैं नारायण को : देव उठनी एकादशी को यूपी और राजस्थान के इलाकों में चौक और गेरू से घरों में विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनायी जाती हैं। उनके सामने थाली या सूप बजा कर और गीत गाकर देवों को जगाया जाता है और रात्रि में गन्ने का मंडप बनाकर श्री हरि की पूजा - अर्चना और माता तुलसी के साथ विवाह का आयोजन किया जाता है। भगवान को सिंघाड़ा , गन्ना और फल - मिठाई आदि का भोग लगाया जाता है। हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में देव उठनी एकादशी पर दीपावली जैसी रौनक होती है।
भाई की दीर्घायु की बहनें करती हैं कामना संदर्भ : मिथिलांचल का पर्व सामा- चकेवा
रक्षाबंधन और भैया दूज ये दोनों त्योहार भाई-बहन के प्रगाढ़ और अटूट प्रेम को दर्शाते हैं । वहीं मिथिलांचल में भाई-बहन के कोमल और स्नेह भरे रिश्ते को अभिव्यक्त करने वाला एक और त्योहार मनाया जाता है वह है सामा - चकेवा।
महापर्व छठ के पारण वाले दिन से इसकी शुरुआत होती है और कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस पर्व का समापन होता है । इस पर्व में बहनें अपने भाई की दीर्घायु और समृद्धि की कामना करती है । इस पर्व को मनाने की पौराणिक तो नहीं लेकिन एक प्राचीन लोक कथा सदियों से चली आ रही है और उसकी जड़ें भगवान कृष्ण से जुड़ी हुई हैं।
लोककथा के अनुसार श्यामा (सामा) और साम्ब भगवान कृष्ण के पुत्री और पुत्र थे। दोनों भाई - बहन में काफी प्रेम था । सामा प्रकृति प्रेमी थी। उसका ज्यादातर समय उपवन में ही बीतता था। एक दिन भगवान कृष्ण के एक मंत्री ने सामा के विरुद्ध कृष्ण के कान भर दिये।  इस पर भगवान कृष्ण ने सामा को पक्षी बन जाने का शाप दे दिया । सामा पक्षी बन कर उपवन में ही रहने लगी। दूसरी ओर सामा का पति चक्रवाक पत्नी के विरह में उदास रहने लगा और वह भी पक्षी बन गया।
उधर, सामा के भाई साम्ब को सारी बात पता चली तो उसने भगवान कृष्ण को समझाने का प्रयास किया लेकिन भगवान कृष्ण नहीं माने। तब साम्ब ने कठिन तपस्या कर भगवान कृष्ण को प्रसन्न किया। तब भगवान कृष्ण ने वचन दिया कि सामा हर साल कार्तिक माह में आठ दिनों के लिए चक्रवाक के पास आयेगी और कार्तिक पूर्णिमा को लौट जायेगी ।भाई साम्ब के प्रयास से कार्तिक माह में सामा और चकेवा का मिलन हुआ। उसी की याद में इस पर्व को मनाया जाता है ।
इस त्योहार में सामा - चकेवा की जोड़ी के साथ चुगला, पक्षियों आदि की छोटी-छोटी मूर्तियां बनायी जाती है , उन्हें बांस की रंग - बिरंगी टोकरियों में सजा कर उनकी पूजा की जाती है ।वहीं पूजा के बाद उनका खेतों में विसर्जन कर दिया जाता है।

उदीयमान सूर्य को व्रतियों ने दिया अर्घ्य
छठ महापर्व की शुभकामनाएं
सफाई और सात्विकता रहती है चरम पर संदर्भ : इको फ्रेंडली है प्रकृति की पूजा का महापर्व छठ
प्रकृति की पूजा के लिए नदी और तालाब के किनारे मनाया जाने वाला महापर्व छठ पूरी तरह से इको फ्रेंडली है। साथ ही यह महापर्व पर्यावरण को बिल्कुल भी नुकसान नहीं पहुंचता। साथ ही छठ पूजा में प्रयोग होने वाली सारी सामग्री भी इको फ्रेंडली होती है ।
दुनिया में तेजी से विकास हो रहा है। इसका असर भी करीब सभी चीजों पर पड़ा ,मगर महापर्व छठ ही है जिस पर आधुनिकता का कोई असर नहीं पड़ा है । आज भी यह पर्व  उसी तरह मनाया जाता है जिस तरह पुराने जमाने में मनाया जाता था।
धन की देवी मां लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा के लिए दीपावली में घरों की सफाई की जाती है । इसके बाद छठ पूजा के लिए नदी के किनारे, तालाबों और नहरों की सफाई की जाती है । छठ पूजा में उपयोग किया जाने वाला सारा सामान भी प्राकृतिक ही होता है।
मिट्टी के चूल्हे पर आम की लकड़ी से प्रसाद बनाया जाता है । प्रसाद में सब्जी और फल भी प्रयोग में लाये जाते हैं। इनमें गागर नींबू, कच्ची हल्दी ,अदरक , शरीफा, नारियल, लौंग, इलायची, छुहारा  समेत अन्य सामग्री का उपयोग होता है ।
ये सभी चीजें दउरा ( बांस से बनी टोकरी) में रखकर लोग पूजा के लिए घाटों पर दउरा को सिर पर रख कर ले जाते हैं ।  वहीं शाम और सुबह के अर्घ्य-पूजा के बाद एक भी सामान घाट पर नहीं छोड़ा जाता । सारा सामान  घर लाया जाता है ।
आस्था का महापर्व छठ ना सिर्फ स्वच्छता का संदेश देता है बल्कि यह हमें बीमारियों से बचने और स्वस्थ रहने की सीख भी देता है । सूर्य भगवान को अर्घ्य देने में प्रयुक्त होने वाली सामग्री भी अधिकतर मौसम अनुकूल और आसानी से सुलभ होने वाली होती है । आयुर्वेद में इन सामग्रियों का खासा महत्व है। यह सामग्री रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ ठंड से शरीर को बचाने और लड़ने की शक्ति भी देती है।
कार्तिक माह का है धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व संदर्भ : चार दिवसीय महापर्व छठ का हुआ शुभारंभ
लोक आस्था का महापर्व छठ मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल , पूर्वी उत्तर प्रदेश ,नेपाल के तराई क्षेत्र समेत जहां- जहां बिहार के निवासी रहते हैं, उनका सबसे खास और पवित्र पर्व है। इसमें प्रत्यक्ष देवता भगवान सूर्य की उपासना की जाती है ।
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को अस्ताचल गामी और सप्तमी तिथि को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य देने की प्राचीन परंपरा रही है। पौराणिक ग्रन्थों में कार्तिक मास में भगवान सूर्य को अर्घ्य देने का विशेष महत्व बताया गया है । इसके पीछे भी धार्मिक और वैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं ।  साल के छह माह सूर्य उत्तरायण रहते हैं और छह माह दक्षिणायन होते हैं ।
भगवान सूर्य से सिर्फ प्रकाश ही नहीं अपितु  भोजन और शक्ति भी मिलती है। वेदों में भगवान सूर्य को जगत सृष्टा यानी सृजन करने वाला माना गया है। वनस्पतियों को मिलती है ऊर्जा  : सूर्य की किरणें औषधियों में रस का निर्माण करती है ।  कार्तिक माह में सूर्य अपनी सप्त रश्मियों से मन, बुद्धि, शरीर और ऊर्जा को नियंत्रित करके सृजन के लिए प्रेरित करते हैं। सभी को मालूम है कि शरीर के लिए विटामिन डी बहुत ही जरूरी है। सबसे ज्यादा विटामिन डी सूर्योदय के समय मिलता है। रंगों का शरीर पर पड़ता है असर : वहीं सुबह में सूर्य को अर्घ्य देने के पीछे भी रंगों का विज्ञान काम करता है। मानव शरीर में रंगों का संचालन बिगड़ने से कई प्रकार के रोगों का शिकार  होने का  खतरा रहता है । प्रातःकाल सूर्य को अर्घ्य देने के वक्त  शरीर पर पडने वाले प्रकाश से सभी रंग संतुलित रहते हैं। इससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।
पौराणिक कथाओं के अनुसार चार दिवसीय महापर्व छठ  के अवसर पर छठी मैया और सूर्य देव की उपासना की जाती है। मान्यता है कि छठी मैया सूर्य देव की बहन है। यही कारण है कि छठ पर्व पर सूर्य देव की उपासना विशेष फलदायी होती है । यह पर्व घर- परिवार की सुख - शांति और समृद्धि के लिए मनाया जाता है ।
छठ पूजा का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष इसकी सादगी और पवित्रता है ।  छठ मैया के कर्ण प्रिय लोकगीत जीवन में भक्ति का संचार करते हैं । एक यही पर्व है जिस पर आधुनिकता का कोई असर नहीं पड़ा है । एक तरह से हम यह कह सकते हैं कि प्रकृति की पूजा का यह महापर्व पूरी तरह से इको फ्रेंडली है।
प्रदूषित वातावरण लोगों को कर रहा बीमार संदर्भ : ऑरेंज जोन में पटना सहित 10 जिले
इस पृथ्वी पर रहने वाले जीवधारियों को अपनी वृद्धि, विकास और अपने संतुलित जीवन चक्र को चलाने के लिए एक संतुलित वातावरण की आवश्यकता पड़ती है। वातावरण में कई तरह के जैविक और अजैविक पदार्थ निश्चित मात्रा में विद्यमान रहते हैं । कभी-कभी वातावरण में किसी भी घटक की मात्रा कम या अधिक होने या हानिकारक घटकों के शामिल हो जाने के कारण पर्यावरण प्रदुषित हो जाता है ।
आज विज्ञान का उपयोग प्रकृति के अंधाधुंध दोहन, अवैध खनन, गलत निर्माण और विनाशकारी पदार्थों के लिए किया जा रहा है इससे वातावरण प्रदूषित होता जा रहा है, जिससे प्रकृति और प्राणी मात्र का अस्तित्व संकट में पड़ गया है ।  प्रदूषण एक अत्यंत ही धीमा जहर है जो हवा, पानी ,धूल आदि के माध्यम से न केवल मनुष्य के शरीर में प्रवेश करके बीमार बना देता है वरन जीव- जंतुओं, पशु- पक्षियों के साथ ही पौधों और वनस्पतियों को भी नुकसान पहुंचता है ।
प्रदूषण के कारण पूरे विश्व में प्राणी मात्र का अस्तित्व संकट में पड़ गया है । इसी कारण अनेक पशु - पक्षी और वन्य प्राणी इस संसार से विलुप्त हो गये। प्रदूषण के कारण कई तरह की गंभीर बीमारियां फैलने लगती हैं, इनमें कैंसर, टीबी, नेत्र और चर्म रोग आदि शामिल हैं। आज हम हम प्रदूषित पर्यावरण  में जीने को अभिशप्त हैं।
देश के कई हिस्सों में नवंबर व दिसंबर के महीने में वायु प्रदूषण इतना बढ़ जाता है कि लोगों को खुली हवा में सांस लेना मुश्किल होने लगता है । देश की राजधानी दिल्ली का अभी यही हाल है। वायु प्रदूषण से दूर रहने का सबसे सटीक उपाय है वायु प्रदूषण को खत्म करना, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह संभव नहीं लगता ।  इसलिए इससे दूर रहना ही बेहतर है । लोगों को जागरूक कर वायु प्रदूषण को कम किया जा सकता है । साथ ही वायु प्रदूषण करने वाले कारकों को दूर करना होगा ।  वातावरण से धूल कम करने के लिए पानी का छिड़काव करें ।  सुबह - शाम में अति आवश्यक होने पर ही बाहर निकलें। वहीं बाहर निकलना बहुत जरूरी हो तो अच्छी क्वालिटी वाले मास्क  पहन कर ही निकलें।
खाने में गुड़, शहद ,अदरक ,काली मिर्च ,अखरोट और काजू का प्रयोग करें, जो न केवल रक्त को शुद्ध करने में सहायता करते हैं अपितु शरीर की प्रतिरोधक क्षमता भी बढ़ाते हैं। वहीं वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए बड़ी संख्या में पेड़ - पौधे लगाने होंगे साथ ही पेड़ों की अंधाधुंध कटाई पर भी शक्ति से रोक लगाने के उपाय करने होंगे । वहीं समूह में यात्रा करने से ऊर्जा और पैसे की बचत के साथ-साथ पर्यावरण भी कम प्रदूषित होगा। औद्योगिक कल - कारखानों को सघन बस्ती से दूर स्थापित करना होगा ।
और अंत में प्रदूषण को रोकने के लिए वायुमंडल को साफ-  सुथरा रखना आवश्यक है । इसके लिए जनता को जागरूक करना होगा । अगर हम अब भी नहीं चेते तो हमारी आने वाली पीढ़ियां वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव को झेलने के लिए अभिशप्त होंगी।