पाकिस्तान की बैलिस्टिक मिसाइल के खिलाफ क्यों हो गया अमेरिका, खुद के लिए किस खतरे की कर रहा बात?

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पाकिस्तान अब अमेरिका के लिए बड़ा खतरा बन रहा है। व्हाइट हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बड़ा दावा किया है। उन्होंने कहा कि परमाणु हथियारों से लैस पाकिस्तान लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइल विकसित कर रहा है। वह ऐसी मिसाइलें बनाने में लगा है जिसमें दक्षिण एशिया के बाहर अमेरिका पर भी हमला करने की क्षमता हो। जिसके बाद अमेरिका ने एक अहम फैसले में पाकिस्तान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम में शामिल चार संस्थाओं पर प्रतिबंध लगा दिया है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के उप सलाहकार जॉन फाइनर ने कहा कि पाकिस्तान की गतिविधियां उसके इरादों पर गंभीर सवाल उठाती हैं। कार्नेगी एंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में एक भाषण के दौरान जॉन फाइनर ने कहा, 'साफ तौर पर हमें पाकिस्तान की गतिविधियां अमेरिका के लिए एक उभरते हुए खतरे के रूप में ही दिखाई देती हैं।'

फाइनर के मुताबिक ऐसे सिर्फ तीन ही देश हैं जिनके पास परमाणु हथियार और अमेरिका तक मिसाइल हमला करने की क्षमता है। इनमें रूस, चीन और नॉर्थ कोरिया शामिल हैं। ये तीनों ही देश अमेरिका के विरोधी हैं। ऐसे में पाकिस्तान के ये कदम अमेरिका के लिए एक नई चुनौती बनते जा रहे हैं।

फाइनर ने कहा,पाकिस्तान का ये कदम चौंकाने वाला है, क्योंकि वह अमेरिका का सहयोगी देश रहा है। हमने पाकिस्तान के सामने कई बार अपनी चिंता जाहिर की है। हमने उसे मुश्किल समय में समर्थन दिया है और आगे भी संबंध बनाए रखने की इच्छा रखते हैं। ऐसे में पाकिस्तान का ये कदम हमें ये सवाल करने पर मजबूर करता है कि वह ऐसी क्षमता हासिल क्यों करना चाहता है, जिसका इस्तेमाल हमारे खिलाफ किया जा सकता है।

एक दिन पहले ही अमेरिकी विदेश विभाग ने पाकिस्तान के बैलिस्टिक मिसाइल से जुड़ी चार संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की थी। विदेश विभाग की वेबसाइट पर जारी बयान में कहा गया है कि यह निर्णय पाकिस्तान की लंबी दूरी की मिसाइलों के विकास से होने वाले खतरे को देखते हुए लिया गया है।अमेरिका ने गुरुवार को बताया कि चार संस्थाओं को कार्यकारी आदेश 13382 के तहत प्रतिबंधित किया गया है, जो विनाशकारी हथियारों और उनके वितरण के साधनों के प्रसार से जुड़े लोगों पर लागू होता है। बयान के मुताबिक पाकिस्तान की 'नेशनल डेवलपमेंट कॉम्प्लेक्स' और उससे जुड़ी अन्य संस्थाएं जैसे अख्तर एंड संस प्राइवेट लिमिटेड और रॉकसाइड एंटरप्राइज पर पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रम के लिए उपकरण आपूर्ति करने का आरोप है।

पाकिस्तान ने बैन को बताया पक्षपातपूर्ण

अमेरिका के प्रतिबंधों की पाकिस्तान ने कड़ी निंदा करते हुए इसे पक्षपाती करार दिया है और कहा कि यह फैसला क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता के लिए खतरनाक परिणाम लाएगा। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मुमताज जहरा बलोच ने कहा, 'पाकिस्तान की रणनीतिक क्षमताएं उसकी संप्रभुता की रक्षा और दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए हैं। प्रतिबंध शांति और सुरक्षा के उद्देश्य को विफल करते हैं।

चीन की 3 कंपनियों पर लगाया था बैन

इससे पहले इसी साल अप्रैल में अमेरिका ने पाकिस्तान के बैलिस्टिक मिसाइल प्रोग्राम के लिए तकनीक सप्लाई करने पर चीन की 3 कंपनियों पर बैन लगा दिया था। इस लिस्ट में बेलारूस की भी एक कंपनी शामिल थी।

80 के दशक में शुरू हुआ पाकिस्तान का मिसाइल प्रोग्राम

पाकिस्तान ने 1986-87 में अपने मिसाइल प्रोग्राम हत्फ की शुरुआत की थी। भारत के मिसाइल प्रोग्राम का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में इसकी शुरुआत हुई थी।

हत्म प्रोग्राम में पाक रक्षा मंत्रालय को फौज से सीधा समर्थन हासिल था। इसके तहत पाकिस्तान ने सबसे पहले हत्फ-1 और फिर हत्फ-2 मिसाइलों का सफल परीक्षण किया था। BBC की रिपोर्ट के मुताबिक, हत्फ-1 80 किमी और वहीं हत्फ-2 300 किमी तक मार करने में सक्षम थी।

यह दोनों मिसाइलें 90 के दशक में सेना का हिस्सा बनी थीं। इसके बाद हत्फ-1 को विकसित कर उसकी मारक क्षमता को 100 किलोमीटर बढ़ाया गया। 1996 में पाकिस्तान ने चीन की मदद से बैलिस्टिक मिसाइल की तकनीक हासिल की।

फिर 1997 में हत्फ-3 का सफल परीक्षण हुआ, जिसकी मार 800 किलोमीटर तक थी। साल 2002 से 2006 तक भारत के साथ तनाव के बीच पाकिस्तान ने सबसे ज्यादा मिसाइलों की टेस्टिंग की थी।

सरकारी शटडाउन पर ट्रंप समर्थित बिल को नहीं मिला पूर्ण बहुमत, 38 रिपब्लिकंस ने भी विरोध में की वोटिंग

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अमेरिका पर इस समय आर्थिक संकट आ गया है। उसके पास इतना पैसा नहीं बचा है कि वह सरकारी कर्मचारियों को सैलरी दे सके। हालात शटडाउन जैसे हो चुके हैं। सरकार को फंड जुटाने के लिए नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप समर्थित बिल गुरुवार रात अमेरिकी संसद में गिर गया।इससे बचने के लिए अमेरिका के पास 24 घंटे से भी कम का समय बचा है।

हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव ने नव-निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप की फेडरल ऑपरेशन को फंड देने और गवर्नमेंट शटडाउन से एक दिन पहले कर्ज सीमा को बढ़ाने या सस्पेंड करने के प्लान को खारिज कर दिया है। गुरुवार रात अमेरिकी संसद में सरकारी शटडाउन से बचने के लिए बिल लाया गया था। इस बिल को ट्रंप का समर्थन था। करीब 3 दर्जन रिपब्लिकन ने डेमोक्रेट्स के साथ मिलकर ट्रंप समर्थित इस बिल के खिलाफ वोटिंग की। संसद में यह बिल 174-235 से गिर गया और बहुमत वोट भी हासिल करने में विफल रहा।

दरअसल, डेमोक्रेट्स ट्रंप को उनके नए कार्यकाल के पहले साल के दौरान बातचीत का फायदा नहीं देना चाहते। इस वजह से उन्होंने इस बिल का विरोध किया। ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी से जीते हैं।

डोनाल्ड ट्रंप ने सरकारी शटडाउन को रोकने के लिए देश की कर्ज सीमा को बढ़ाने या निलंबित करने का प्रावधान को कानून में शामिल किए जाने की मांग की थी, खास बात यह है कि इस कदम का उनकी अपनी पार्टी नियमित तौर पर विरोध करती रही है। उन्होंने बुधवार को एक बयान में कहा कि इसके अलावा कुछ भी हमारे देश के साथ विश्वासघात है।

क्या होता है सरकार का शटडाउन?

अमेरिकी सरकार में शटडाउन तब होता है, जब सरकार के खर्च संबंधी विधेयक अगले वित्तीय वर्ष की शुरुआत से पहले लागू नहीं हो पाते हैं। शटडाउन के चलते संघीय सरकार को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ती है और गैर जरूरी सरकारी कर्मचारियों को छुट्टी पर भेजना पड़ता है। इस दौरान सिर्फ कानून व्यवस्था बनाए रखने वाली जरूरी एजेंसियों के कर्मचारी ही काम करते हैं। शटडाउन के चलते संघीय और राज्य सरकारों के बीच का समन्वय भी बाधित होता है। फंडिंग में अंतराल के चलते साल 1980 में अमेरिका में शटडाउन को लेकर पहली बार कानूनी राय दी गई थी। साल 1990 से शटडाउन लागू होने लगे और फरवरी 2024 तक अमेरिका में 10 फंडिंग शटडाउन हो चुके हैं।

क्यों जरूरी है इसका पास होना?

दरअसल, अमेरिका को अपने खर्च चलाने के लिए फंड की जरूरत होती है। यह फंड कर्ज लेकर पूरा किया जाता है। इसके लिए एक बिल अमेरिकी संसद हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में लाया जाता है। मौजूदा बिल को ट्रंप की ओर से लाया गया था, जिसे विपक्ष से खारिज कर दिया। इसका सीधा का मतलब है कि अमेरिका को खर्च के लिए पैसा नहीं मिलेगा। अमेरिका इस पैसे से ही न केवल सरकारी अधिकारियों को सैलरी देती है बल्कि दूसरे खर्च भी चलते हैं।

तो अमेरिका में हो जाएगा शटडाउन

इस बिल को पास कराने के लिए शुक्रवार रात तक का ही समय है। यानी अमेरिकी सरकार के पास 24 घंटे खर्च चलाने लायक पैसा भी नहीं है। अगर यह पास नहीं हो पाया तो अमेरिका में शटडाउन लग जाएगा। ऐसा होने पर अमेरिका पर बड़ी मुसीबत आ जाएगी। उसकी अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान होगा। इसका सबसे ज्यादा असर ट्रंप पर पड़ेगा

OpenAI और ChatGPT पर सवाल उठाने वाले सुचिर बालाजी कौन? जिनकी अमेरिका में मौत

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चैटजीपीटी (ChatGPT) डेवलप करने वाली आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कंपनी OpenAI के पूर्व रिसर्चर सुचीर बालाजी को उनके फ्लैट में मृत पाया गया है। OpenAI पर गंभीर सवाल खड़े करने वाले सुचीर बालाजी की मौत सैन फ्रांसिस्को में उनके अपार्टमेंट हुई।शुरुआती रिपोर्ट में सामने आ रहा है कि बालाजी ने आत्महत्या की है। वह अपने फ्लैट में मृत मिले।

सैन फ्रांसिस्को पुलिस विभाग के प्रवक्ता अधिकारी रॉबर्ट रुएका ने बताया कि शुरुआती जांच के दौरान किसी गड़बड़ी का कोई सबूत नहीं मिला है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, बालाजी का शव 26 नवंबर को उनके बुकानन स्ट्रीट अपार्टमेंट में मिला। उनके लिंक्डइन प्रोफाइल के अनुसार, उन्होंने नवंबर 2020 से अगस्त 2024 तक ओपनएआई के लिए काम किया था।

26 साल के सुचिर बालाजी ने OpenAI को लेकर दुनिया को सतर्क किया था। सुचिर ने एआई में योगदान तो दिया ही था साथ ही इस कंपनी में गलत परंपराओं ओर हरकतों को लेकर मजबूत आवाज उठाई थी। दरअसल, सुचिर का कहना था कि ओपनएआई ने चैट जीपीटी बनाने के लिए बिना अनुमति के पत्रकारों, लेखकों, प्रोग्रामरों आदि के कॉपीराइटेड सामग्रियों का इस्तेमाल किया है, जिसका सीधा असर कई बिजनेसों और कारोबारों पर पड़ेगा। माना जा रहा था कि ओपनएआई के खिलाफ चल रहे कानूनी मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

सुचीर बालाजी ने मौत से तीन महीने पहले सार्वजनिक रूप से दावा किया था कि OpenAI ने अमेरिका के कॉपीराइट कानून का उल्लंघन किया है। 23 अक्टूबर को विदेशी मीडिया को एक इंटरव्यू देते समय बालाजी ने यह तर्क दिया था कि OpenAI उन व्यवसायों और उद्यमियों पर नैगेटिव प्रभाव डाल रहा था जिनको चैटजीपीटी को ट्रेन करने के लिए जानकारी हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया गया है। उन्होंने कहा, अगर आप मेरी बातों पर यकीन करते हैं, तो आपको कंपनी छोड़ देनी होगी। साथ ही उन्होंने कहा था, “यह इंटरनेट इकोसिस्टम के लिए एक टिकाऊ मॉडल नहीं है।

ट्रंप की नई कैबिनेट में एक और भारतवंशी को जगह, हरमीत ढिल्‍लों को दिया ये बेहद अहम पद

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अमेर‍िका के नव‍निर्वाचित राष्‍ट्रपत‍ि डोनाल्‍ड ट्रंप अपनी नई पारी के लिए लगातार भारतीयों पर जमकर भरोसा जता रहे हैं। एक बार फिर डोनाल्‍ड ट्रंप ने अपनी कैब‍िनेट में एक और भारतवंशी को जगह दी है। अब ट्रंप ने भारतीय मूल की अमेरिकी हरमीत ढिल्लों को न्याय विभाग में नागरिक अधिकारों के लिए सहायक 'अटॉर्नी जनरल' नामित किया है। ढिल्लों जानी-मानी वकील हैं। वह नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए काम करती रही हैं।

ट्रंप अपने सोशल मीडिया एकाउंट ट्रुथ सोशल पर घोषणा की, मुझे अमेरिकी न्याय विभाग में नागरिक अधिकारों के लिए सहायक अटॉर्नी जनरल के रूप में हरमीत के ढिल्लों को नामित करते हुए खुशी हो रही है। हरमीत देश के शीर्ष चुनावी पैरोकारों में से एक हैं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए लड़ रही हैं कि सभी और केवल वैध वोट की गिनती की जाए। हरमीत सिख धार्मिक समुदाय की एक सम्मानित सदस्य हैं। न्याय विभाग में अपनी नयी भूमिका में हरमीत हमारे संवैधानिक अधिकारों की रक्षक होंगी और हमारे नागरिक अधिकारों एवं चुनाव कानूनों को निष्पक्ष तथा दृढ़ता से लागू करेंगी।

हरमीत ढिल्‍लों के बारे में

54 साल की ढिल्लों का जन्म चंडीगढ़ में हुआ था। बचपन में ही वह अपने माता-पिता के साथ अमेरिका चली गई थीं। उन्होंने अपनी हाई स्कूल की शिक्षा नॉर्थ कैरोलिना स्कूल ऑफ साइंस एंड मैथमेटिक्स से हासिल की। इसके बाद उन्होंने डार्टमाउथ कॉलेज से शास्त्रीय साहित्य में बीए की डिग्री और यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया से कानून की डिग्री हासिल की। 1993 में ढिल्लों ने पॉल वी. नीमेयर, यूनाइटेड स्टेट्स कोर्ट ऑफ अपील्स फॉर द फोर्थ सर्किट में बतौर लॉ क्लर्क काम शुरू किया। 1994 से 1998 तक उन्होंने शियरमैन एंड स्टर्लिंग में एसोसिएट के रूप में काम किया। 1998 से 2002 तक ढिल्‍लों ने सिडली एंड ऑस्टिन और कूली गॉडवर्ड जैसी लॉ फर्मों में एसोसिएट के रूप में काम किया।

फ्रीडम ऑफ स्‍पीच की लड़ाई से बनी पहचान

हरमीत ढिल्लों फ्रीडम ऑफ स्‍पीच की लड़ाई के ल‍िए जानी जाती हैं। फ्री स्पीच सेंसरशिप के लिए आवाज उठाते हुए वे टेक कंपनियों के ख‍िलाफ लंबी जंग लड़ चुकी। अपने पूरे करियर के दौरान हरमीत ने नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लगातार आवाज उठाई है। इलेक्‍शन की पारदर्शिता की बात हो या फ‍िर कांस्‍टीट्यूशन और नागर‍िक अध‍िकारों की रक्षा वे हमेशा आगे रही हैं।

ट्रंप की टीम में कई भारतीय मूल के

इससे पहले विवेक रामास्वामी, जय भट्टाचार्य, तुलसी गबार्ड और काश पटेल को ट्रंप महत्‍वपूर्ण ज‍िम्‍मेदारी दे चुके हैं। इससे ट्रंप के भारतीयों के करीब होने का संकेत मिलता है। लेकिन हरमीत ढिल्लों की नियुक्‍त‍ि को लेकर भारत में ही सवाल उठने लगे हैं। एक्‍सपर्ट उन्‍हें खाल‍िस्‍तान सपोर्टर बता रहे हैं। उनके पुराने ट्वीट्स की खूब चर्चा में है।

ट्रंप ने बढ़ाई 'ड्रैगन' की टेंशन! इसे चीन में नियुक्त किया अमेरिकी राजदूत

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अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नई सरकार वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन सरकार के अंतर्राष्ट्रीयवाद के दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग काम करने जा रही है। ऐसा डोनाल्ड ट्रंप के हालिया फैसले के बाद कहा जा सकता है। डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के बाद से लगातार अपनी टीम बनाने तैयारी में लगे हैं। इसी कड़ी में उन्होंने चीन को लेकर भी पत्ते खोल दिए हैं। ट्रंप ने जॉर्जिया डेविड पर्ड्यू को चीन में एंबेसडर के लिए नॉमिनेट किया है।

ट्रंप ने गुरुवार को फैसले की जानकारी दी। अलजजीरा की रिपोर्ट के अनुसार ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्रुथ सोशल पर एक पोस्ट में कहा, “फॉर्च्यून 500 के सीईओ के रूप में, जिनका 40 साल का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करियर रहा है और जिन्होंने अमेरिकी सीनेट में सेवा की है। डेविड चीन के साथ हमारे संबंधों को बनाने में मदद करने के लिए बहुमूल्य विशेषज्ञता लेकर आए हैं। वह सिंगापुर और हांगकांग में रह चुके हैं और उन्होंने अपने करियर के अधिकांश समय एशिया और चीन में काम किया है।”

पर्ड्यू की नियुक्ति के लिए अमेरिकी सीनेट की मंजूरी की आवश्यकता होगी, लेकिन उनके अनुमोदन की संभावना है, क्योंकि सदन में रिपब्लिकन का बहुमत है। राजदूत के रूप में पर्ड्यू को शुरुआत से ही चुनौतीपूर्ण कार्यभार का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि ट्रम्प अमेरिका को चीन के साथ एक व्यापक व्यापार युद्ध में ले जाने के लिए तैयार हैं।

अभी हाल ही में ट्रंप ने अवैध अप्रवास और ड्रग्स पर लगाम लगाने के अपने प्रयास के तहत पदभार संभालते ही मैक्सिको, कनाडा और चीन पर व्यापक नए टैरिफ लगाने की धमकी दी है। उन्होंने कहा कि वह कनाडा और मैक्सिको से देश में प्रवेश करने वाले सभी उत्पादों पर 25 प्रतिशत कर लगाएंगे और चीन से आने वाले सामानों पर अतिरिक्त 10 प्रतिशत टैरिफ लगाएंगे, जो उनके पहले कार्यकारी आदेशों में से एक है।

इसके बाद वाशिंगटन स्थित चीनी दूतावास ने इस सप्ताह के प्रारंभ में चेतावनी दी थी कि यदि व्यापार युद्ध हुआ तो सभी पक्षों को नुकसान होगा। दूतावास के प्रवक्ता लियू पेंगयु ने एक्स पर पोस्ट किया कि चीन-अमेरिका आर्थिक और व्यापार सहयोग प्रकृति में पारस्परिक रूप से लाभकारी है। कोई भी व्यापार युद्ध या टैरिफ युद्ध नहीं जीतेगा। उन्होंने कहा कि चीन ने पिछले साल नशीली दवाओं की तस्करी को रोकने में मदद करने के लिए कदम उठाए थे।

धमकियों पर कितना अमल करेंगे ट्रंप?

यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ट्रंप वास्तव में इन धमकियों पर अमल करेंगे या वे इन्हें बातचीत की रणनीति के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर टैरिफ लागू किए जाते हैं, तो अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए गैस से लेकर ऑटोमोबाइल और कृषि उत्पादों तक हर चीज की कीमतें नाटकीय रूप से बढ़ सकती हैं। सबसे हालिया अमेरिकी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका दुनिया में वस्तुओं का सबसे बड़ा आयातक है, जिसमें मेक्सिको, चीन और कनाडा इसके शीर्ष तीन आपूर्तिकर्ता हैं।

ट्रंप की चीन विरोधी टीम!

इससे पहले भी ट्रंप ने मार्को रूबियो और माइक वाल्ट्ज जैसे नेताओं को नई सरकार में अहम भूमिका के लिए चुना है। ये दोनों ही नेता चीन के विरोधी माने जाते रहे हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप चीन के प्रति सख्त रुख की नीति पर ही काम करने जा रहे हैं।

व्हाइट हाउस छोड़ने से पहले बाइडन का बड़ा ऐलान, बेटे हंटर को दिया क्षमादान, क्या ट्रंप बदल सकेंगे ये फैसला

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अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के कार्यकाल के अब चंद दिन बचे हुए हैं। इससे पहले जो बाइडन ने बड़ा फैसला लिया है।अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने बेटे पर अवैध तरीके से बंदूक रखने और इनकम टैक्स की चोरी के मामले में उसे माफी दे दी है। राष्ट्रपति बाइडन ने 1 दिसंबर को स्टेटमेंट जारी कर इसके बारे में जानकारी दी है।राष्ट्रपति ने एक बयान में कहा, आज मैंने अपने बेटे हंटर के लिए क्षमादान पर हस्ताक्षर किया। बता दे कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के बेटे जोसेफ हंटर बाइडन पर टैक्स चोरी से लेकर गैरकानूनी ढंग से हथियार रखने, सरकारी पैसे का गलत इस्तेमाल करने और झूठी गवाही देने के आरोप लगे हैं। डेलावेयर की कोर्ट में हंटर ने टैक्स चोरी और गैरकानूनी ढंग से हथियार रखने की बाद स्वीकार कर ली थी। जिसके बाद हाल ही में उन्हें बंदूक अपराध और टैक्स से जुड़े मामले में दोषी करार दिया गया था।

अपने बयान में राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा, “आज, मैंने अपने बेटे हंटर के लिए एक माफी पर हस्ताक्षर किया है। जब से मैंने अमेरिकी राष्ट्रपति का पदभार संभाला है, मैंने कहा था कि मैं न्याय विभाग की ओर से लिए गए फैसलों में दखल नहीं दूंगा और मैंने अपने इस वादे का निभाया भी है। लेकिन मैंने देखा कि मेरे बेटे को गलत तरीके से निशाना बनाया जा रहा है और उस पर मुकदमें चलाए जा रहे हैं। उस पर लगाए आरोप राजनीति से प्रेरित थे, ताकि उससे मुझ पर हमला किया जा सके और मेरी चुनावी प्रक्रिया का विरोध किया जा सके।”

बाइडन ने आगे कहा, “मैंने अपने पूरे करियर में एक साधारण सिद्धांत को फॉलो किया है कि अमेरिकी लोगों को केवल सच बताओ। यह सच है कि मुझे न्याय प्रणाली पर पूरा विश्वास है, लेकिन जब मैंने इसके साथ संघर्ष किया तो मुझे लगा कि राजनीति ने इस प्रक्रिया को भी संक्रमित कर दिया है। मुझे उम्मीद है कि अमेरिकी लोग यह समझेंगे कि एक पिता और एक राष्ट्रपति ने ऐसा फैसला क्यों लिया।”

बाइडन के लिए हुए इस फैसले को उनके पूर्व में किए गए वादे पर उनका यूटर्न कहा जा रहा है। राष्ट्रपति बाइडन अपने उस वादे से मुकर गए हैं, जिसमें उन्होंने बार-बार कहा था कि वह अपने बेटे को माफ या उसकी सजा कम करने के लिए अपने कार्यकारी अधिकार का इस्तेमाल नहीं करेंगे। ट्रंप के चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति और व्हाइट हाउस के शीर्ष प्रवक्ता ने सजा माफ न करने की बात दोहराई थी। क्षमा का मतलब है कि हंटर को उनके अपराधों की सजा नहीं मिलेगी। यह उन्हें जेल भेजने की संभावना को खत्म करता है।

ट्रंप आ रहे हैं...”बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार पर ट्रंप के सहयोगी का बयान

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बांग्लादेश इस समय सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा है। हिंदुओं पर लगातार हमले हो रहे हैं। ताजा मामले में इस्कॉन से जुड़े महंत चिन्मय दास की गिरफ्तारी के बाद बांग्लादेश की युनूस सरकार का दुनियाभर में फजीहत हो रही है। पड़ोसी मुल्क में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ भारत लगातार आवाज उठाता रहा है, वहीं अब भारत को अमेरिका का भी साथ मिल गया है। अमेरिका से बांग्लादेश की सरकार के लिए चेतावनी आई है। यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम (यूएससीआईआरएफ) के पूर्व कमिश्नर जॉनी मूर ने बांग्लादेश के हालात पर चिंता जताई है।

जॉनी मूर ने कहा है कि अमेरिका की बाइडेन सरकार ने बांग्लादेश पर अधिक ध्यान नहीं दिया है।यह समय बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के अस्तित्व पर खतरे की तरह है। लेकिन ट्रंप अब आ रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप अपनी बेहतरीन टीम के साथ पद संभालने वाले हैं। उनकी यह टीम अमेरिकी मूल्यों की पैरोकार है और भारत को एक सहयोगी के तौर पर देखती है।

दरअसल मूर से बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के बीच अमेरिका के रुख के बारे में पूछा गया था? उनसे ये पूछा गया था कि ऐसी स्थिति में ट्रंप सरकार बाइडेन सरकार की तुलना में क्या अलग करेगी? इस पर उन्होंने कहा कि दुनिया में ऐसी कोई चुनौती नहीं है, जिसे सुलझाया नहीं जा सके।

मूर ने कहा कि इस समय दुनियाभर में 50 से अधिक जंग चल रही हैं और मैं हैरान हूं कि मौजूदा अमेरिकी सरकार का बांग्लादेश पर ध्यान ही नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में धार्मिक स्वतंत्रता मानवाधिकारों में शीर्ष प्राथमिकता थी। यह कई मायनों में हमारी विदेशी नीति का केंद्र थी। इस बार भी आपको ऐसा ही देखने को मिलेगा। ट्रंप की टीम भारत को एक ज़रूरी सहयोगी के तौर पर देखती है, लिहाजा आगामी ट्रंप सरकार में आपको अमेरिका और भारत के बीच ऐसा सहयोग देखने को मिलेगा, जो अभी तक नहीं देखने को मिला था।

बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के तख्तापलट के बाद अल्पसंख्यकों खास तौर पर हिंदुओं के खिलाफ हिंसा में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। इसी बीच 25 नवंबर को हिंदू धर्मगुरु चिन्मय कृष्ण दास को देशद्रोह के आरोप में 25 नवंबर को गिरफ्तार किया गया था। बांग्लादेश की अदालत ने उन्हें जमानत नहीं दी और जेल भेज दिया। चिन्मय दास समेत 19 लोगों पर आरोप है कि उन्होंने इस रैली के दौरान बांग्लादेश के राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया। इसके बाद चिन्मय दास के समर्थक सड़कों पर उतर आए और उग्र विरोध प्रदर्शन करने लगे। भारत सरकार ने भी बयान जारी कर बांग्लादेश में चिन्मय कृष्ण दास की गिरफ्तारी और उन्हें जमानत नहीं देने पर गहरी चिंता जताई थी।

रिश्वतखोरी और धोखाधड़ी के आरोपों पर अडानी ग्रुप ने जारी किया बयान, कहा- हरसंभव कानूनी सहारा लेंगे*
#adani_group_issued_a_statement_on_the_allegations_in_america *
अडानी ग्रुप के चेयरमैन गौतम अडानी और उनकी कंपनी अडानी ग्रीन एनर्जी के डायरेक्टर्स समेत 8 लोगों के खिलाफ अमेरिकी न्याय विभाग ने रिश्वतखोरी और धोखाधड़ी का आरोप लगाया है। अडानी समूह ने अमेरिकी न्याय विभाग और अमेरिकी प्रतिभूति और विनिमय आयोग की ओर से अडानी ग्रीन के निदेशकों के खिलाफ लगाए गए आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। कंपनी के बयान के मुताबिक, सभी आरोप निराधार हैं। साथ ही ग्रुप ने अपना अगला कदम भी स्पष्ट कर दिया है। अडानी ग्रुप ने गुरुवार को अडानी ग्रीन के निदेशकों के खिलाफ अमेरिकी न्याय विभाग और अमेरिकी प्रतिभूति और विनिमय आयोग की ओर से लगाए गए रिश्वत के आरोपों को निराधार बताते हुए उनका खंडन किया। इस मामले में ग्रुप ने एक स्टेटमेंट जारी किया है। इसमें लिखा है कि अमेरिकी न्याय विभाग ने अभियोग में अभी लगाए हैं। जब तक दोष साबित नहीं हो जाते, तब तक प्रतिवादियों को निर्दोष माना जाता है। इसमें लिखा है कि इस मामले में सभी संभव कानूनी उपाय किए जाएंगे। अडानी ग्रुप ने स्टेटमेंट में अपने शेयरधारकों को भरोसा दिलाया है। इसमें कहा गया है कि अडानी ग्रुप ने सभी सेक्टर में हमेशा पारदर्शिता और रेगुलेटरी नियमों का पालन किया है और करता रहेगा। स्टेटमेंट में लिखा है, हम अपने शेयरहोल्डर्स, पार्टनर और ग्रुप के कर्मचारियों को आश्वस्त करते हैं कि हम एक कानून का पालन करने वाले संगठन हैं, जो सभी कानूनों का पूरी तरह से अनुपालन करता है। *क्या है पूरा मामला?* बता दें कि देश के मशहूर उद्योगपति गौतम अडानी पर अमेरिका में रिश्वत और धोखाधड़ी के आरोप लगे हैं। यह पूरा मामला अडाणी ग्रुप की कंपनी अडाणी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड और एक अन्य फर्म से जुड़ा हुआ है। आरोपों के अनुसार, यह रिश्वत 2020 से 2024 के बीच बड़े सौर ऊर्जा अनुबंध हासिल करने के लिए दी गई, जिससे अडानी समूह को 2 बिलियन डॉलर से अधिक का लाभ होने की संभावना थी। 24 अक्टूबर 2024 को यह मामला यूएस कोर्ट में दर्ज किया गया, जिसकी सुनवाई बुधवार को हुई। न्यूयॉर्क की फेडरल कोर्ट में हुई सुनवाई में गौतम अडानी समेत 8 लोगों पर अरबों की धोखाधड़ी और रिश्वत के आरोप लगे हैं। अडानी के अलावा शामिल 7 अन्य लोग सागर अडाणी, विनीत एस जैन, रंजीत गुप्ता, साइरिल कैबेनिस, सौरभ अग्रवाल, दीपक मल्होत्रा और रूपेश अग्रवाल हैं। सागर और विनीत अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड के अधिकारी हैं। सागर, गौतम अडानी के भतीजे हैं। रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, गौतम अडानी और सागर के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है।
रूस और ईरान की दोस्तीःअमेरिका और इजरायल के लिए क्यों है चिंता का विषय
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picture credit: Emirates policy






हाल के वर्षों में, रूस और ईरान के बीच बढ़ती साझेदारी मध्य पूर्व में भू-राजनीतिक संतुलन के एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में उभरी है, जो वॉशिंगटन और जेरूसलम में चिंता का कारण बन गई है। जैसे-जैसे दोनों देशों के बीच सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक संबंध मजबूत हो रहे हैं, वे क्षेत्र में अमेरिका और उसके सहयोगियों के खिलाफ एक प्रभावशाली ताकत के रूप में सामने आ रहे हैं। सीरिया से लेकर मध्य पूर्व तक, यह रणनीतिक गठबंधन लंबे समय से अमेरिका के प्रभाव को बाधित करने और इज़राइल की सुरक्षा चिंताओं को जटिल बनाने की क्षमता रखता है।

*रूस-ईरान संबंधों की जड़ें*

ऐतिहासिक रूप से, रूस और ईरान स्वाभाविक सहयोगी नहीं रहे हैं। उनका सहयोग मुख्य रूप से साझा रणनीतिक हितों और पश्चिमी प्रभाव के खिलाफ उनके विरोध के कारण विकसित हुआ है। जबकि रूस ने हमेशा मध्य पूर्व में अपना प्रभाव फिर से स्थापित करने की कोशिश की है, ईरान ने अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों से बचने और अपनी क्षेत्रीय शक्ति को बढ़ाने के तरीकों की तलाश की है, विशेष रूप से उन प्रतिबंधों से जो अमेरिका और यूरोपीय संघ ने ईरान पर लगाए हैं।


उनकी साझेदारी में पहला महत्वपूर्ण मील का पत्थर सीरिया गृह युद्ध के दौरान आया। रूस और ईरान दोनों ने सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन का समर्थन किया, हालांकि उनके समर्थन के कारण अलग थे, लेकिन उनके पास असद के शासन को बनाए रखने में समान हित थे। रूस के लिए, सीरिया में एक ठोस आधार बनाए रखना महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से टार्टस में अपने नौसैनिक अड्डे और हमीमिम में अपने हवाई अड्डे के जरिए।

ईरान के लिए, असद का समर्थन एक महत्वपूर्ण सहयोगी को बनाए रखने में मदद करता है और लेबनान में हिजबुल्लाह सहित शिया मिलिशियाओं के लिए हथियारों और लड़ाकों के परिवहन के लिए एक गलियारा प्रदान करता है, जिससे तेहरान का क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ता है।


हाल के वर्षों में, रूस और ईरान का सहयोग सिर्फ सीरिया तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि इसमें सैन्य सहयोग, ऊर्जा साझेदारी, और संयुक्त राजनयिक प्रयास भी शामिल हो गए हैं, जैसे संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर। इस बढ़ते गठबंधन ने वॉशिंगटन और तेल अवीव में चिंता बढ़ा दी है, जहां अधिकारी मानते हैं कि रूस-ईरान गठबंधन अमेरिका की नीतियों और इज़राइल की सुरक्षा को कमजोर कर सकता है।


*अमेरिका और इज़राइल के हितों के खिलाफ रणनीतिक साझेदारी*

अमेरिका और इज़राइल दोनों लंबे समय से ईरान को एक बड़ा खतरा मानते हैं, इसके परमाणु महत्वाकांक्षाओं, हिजबुल्लाह और हामस जैसे आतंकवादी समूहों के समर्थन, और क्षेत्र में इसके विघटनकारी प्रभाव के कारण। हालांकि, रूस और ईरान के बढ़ते रिश्ते ने अमेरिका और इज़राइल के लिए ईरान की शक्ति को नियंत्रित करने की कोशिशों को और जटिल बना दिया है।


**सैन्य सहयोग**: रूस-ईरान साझेदारी के सबसे चिंताजनक पहलुओं में से एक उनका बढ़ता सैन्य सहयोग है। रूस ने ईरान को उन्नत हथियारों की आपूर्ति की है, जिनमें S-300 एयर डिफेंस सिस्टम शामिल है, जिससे ईरान को इज़राइल की हवाई हमलों या अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप से खुद को बचाने की क्षमता में काफी वृद्धि हुई है। ये उन्नत प्रणालियाँ, जो लड़ाकू जेट और मिसाइलों को लक्ष्य बना सकती हैं, इज़राइल के लिए ईरानी परमाणु स्थलों या सीरिया में ईरानी सैन्य ठिकानों पर हवाई हमले करने को बहुत कठिन बना देती हैं। यह बढ़ता सैन्य सहयोग इज़राइल के लिए एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत करता है, जो हमेशा ईरान की सैन्य वृद्धि को एक अस्तित्वगत खतरे के रूप में देखता है।


**संयुक्त सैन्य अभ्यास और खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान**: पिछले कुछ वर्षों में, रूस और ईरान ने सीरिया में संयुक्त सैन्य अभ्यास किए हैं, जो इस बात का प्रदर्शन है कि वे अमेरिकी और इज़राइली हितों को सीधे चुनौती देने के लिए सैन्य सहयोग बढ़ाने के लिए तैयार हैं। ये अभ्यास उनके बढ़ते सैन्य एकीकरण का संकेत देते हैं और पश्चिमी शक्तियों के साथ किसी संभावित टकराव की स्थिति में भविष्य के सहयोग के लिए एक रूपरेखा हो सकते हैं। यह समन्वय ईरान को अमेरिकी और इज़राइली सैन्य रणनीतियों को बेहतर तरीके से समझने की अनुमति देता है, जिससे पश्चिमी शक्तियों के लिए स्वतंत्र रूप से कार्य करना अधिक कठिन हो जाता है।


*आर्थिक और ऊर्जा संबंध गठबंधन को मजबूत करते हैं*

सैन्य सहयोग के अलावा, रूस-ईरान गठबंधन आर्थिक क्षेत्र में भी मजबूत हुआ है। दोनों देशों ने व्यापारिक सौदों और संयुक्त उपक्रमों के माध्यम से अमेरिकी प्रतिबंधों को दरकिनार करने की कोशिश की है, खासकर ऊर्जा क्षेत्र में। रूस, जो दुनिया के सबसे बड़े तेल उत्पादक देशों में से एक है, ईरान के साथ सहयोग करने के लिए उत्सुक था, जिसके पास विशाल तेल और गैस संसाधन हैं, लेकिन जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण कठिनाइयों का सामना कर रहा है।

**ऊर्जा सहयोग**: रूस और ईरान ने हाल के वर्षों में अपने ऊर्जा संबंधों को मजबूत किया है। मॉस्को ने ईरान में परमाणु पावर प्लांट बनाने का समझौता किया है, जबकि तेहरान ने अपने तेल और गैस भंडारों को रूसी कंपनियों के लिए खोल दिया है। इसके बदले में, रूस ने ईरान को अपनी ऊर्जा निर्यात बढ़ाने में मदद की है, जिससे तेहरान को अमेरिकी प्रतिबंधों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण सहारा मिल रहा है।

ये आर्थिक संबंध दोनों देशों को पश्चिमी प्रतिबंधों के दबाव से बचने में मदद करते हैं। रूस के लिए, ईरान के ऊर्जा संसाधनों तक पहुंच प्राप्त करना खाड़ी क्षेत्र में एक रणनीतिक पकड़ हासिल करने का एक तरीका है, जो वैश्विक तेल और गैस बाजारों के लिए महत्वपूर्ण है। ईरान के लिए, रूस का आर्थिक समर्थन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़े विनाशकारी प्रभावों को कम करने में मदद करता है, विशेष रूप से 2015 के ईरान परमाणु समझौते (JCPOA) से अमेरिका की निकासी के बाद।


*संयुक्त राष्ट्र और अन्य मंचों में कूटनीतिक दबदबा*

रूस, ईरान का एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक साझेदार बन गया है, जो संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उसे समर्थन प्रदान करता है। मॉस्को ने ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने या उसके मध्य पूर्व में किए गए कार्यों की निंदा करने वाले प्रस्तावों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी वीटो शक्ति का इस्तेमाल करके अवरुद्ध किया है। इस कूटनीतिक समर्थन ने ईरान को अंतर्राष्ट्रीय दबाव से बचने के लिए एक प्रकार का सुरक्षा कवच प्रदान किया है, विशेष रूप से अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों से।

इसके अलावा, दोनों देश संयुक्त रूप से वैश्विक कूटनीतिक प्रयासों में सहयोग कर रहे हैं। रूस और ईरान दोनों पश्चिमी देशों द्वारा मध्य पूर्व में किए गए सैन्य हस्तक्षेपों, जैसे इराक, लीबिया और यमन में, का विरोध करते हैं। अपने विदेश नीति के मिलते-जुलते दृष्टिकोणों से, रूस और ईरान पश्चिमी शक्तियों के खिलाफ एक शक्तिशाली काउंटरबैलेंस बनाने का प्रयास कर रहे हैं, जो भविष्य में शक्ति संतुलन को फिर से बदल सकता है।

*इज़राइल की सुरक्षा पर प्रभाव*

इज़राइल के लिए, रूस-ईरान गठबंधन विशेष रूप से चिंताजनक है। इज़राइल ने हमेशा स्पष्ट किया है कि वह परमाणु-सक्षम ईरान को सहन नहीं करेगा और उसने सीरिया में ईरानी ठिकानों पर एयरस्ट्राइक करके हिजबुल्लाह और अन्य ईरानी-समर्थित समूहों को उन्नत हथियारों की आपूर्ति को रोकने की कोशिश की है। हालांकि, रूस के सैन्य ठिकानों की सीरिया में मौजूदगी और ईरान के साथ उसके घनिष्ठ संबंधों के कारण, इज़राइल के लिए सीरिया में हवाई हमले करना और भी जटिल हो गया है। रूस के साथ सीधी टकराव की संभावना इज़राइल के सैन्य रणनीति को और कठिन बना देती है।

इसके अतिरिक्त, इज़राइल ईरान के हिजबुल्लाह और अन्य मिलिशियाओं के समर्थन को लेकर गहरे चिंतित है, जो इज़राइल की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा पैदा करते हैं। ईरान ने सीरिया और इराक में अपनी स्थिति का उपयोग इन प्रॉक्सी समूहों के विस्तार के लिए किया है, जिससे इज़राइल की सीमाओं पर इन सशस्त्र मिलिशियाओं का खतरा बढ़ गया है। रूस-ईरान सहयोग इन समूहों को और अधिक स्वतंत्र रूप से काम करने की अनुमति देता है, जिससे इज़राइल के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा बनाए रखना और भी कठिन हो जाता है।



वॉशिंगटन और तेल अवीव के लिए, रूस-ईरान गठबंधन का बढ़ता हुआ प्रभाव एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करता है, जो क्षेत्र में बदलते गठबंधनों और शक्ति संतुलन को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाए। जैसे-जैसे अमेरिका और इज़राइल इन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, रूस-ईरान धारा क्षेत्रीय सुरक्षा की गतिशीलता को बदलने में एक प्रमुख तत्व बने रहेंगे।


रूस-ईरान गठबंधन केवल एक अस्थायी साझेदारी नहीं है; यह मध्य पूर्व के भू-राजनीतिक आदेश में एक बुनियादी बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है। अमेरिका और इज़राइल के लिए, मॉस्को और तेहरान के बढ़ते संबंध एक स्पष्ट और वर्तमान खतरा प्रस्तुत करते हैं, जो क्षेत्र में उनके रणनीतिक उद्देश्यों को जटिल बना रहे हैं। जैसे-जैसे दोनों देश अपनी साझेदारी को मजबूत करते हैं, इसके परिणाम वॉशिंगटन की विदेश नीति और इज़राइल की सुरक्षा पर लंबे समय तक महसूस किए जाएंगे।
अमेरिका में मतदान शुरू, ट्रंप और कमला हैरिस में कांटे की टक्कर, वोटिंग के बीच 7 स्विंग स्टेट्स पर सबकी नजर

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अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोटिंग जारी है। भारतीय समय के मुताबिक शाम 6 बजे से मतदान शुरू हो गया है। जहां डेमोक्रेट उम्मीदवार कमला हैरिस और रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के बीच कांटे की टक्कर दिख रही है।ट्रंप अगर जीत हासिल करते हैं तो वो दूसरी बार राष्ट्रपति बनेंगे। वहीं, अगर कमला हैरिस को जीत मिलती है तो वो पहली बार राष्ट्रपति बनेंगी।

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में कई राज्यों में मतदान जारी है। वैसे तो मतदान की तारीख आज यानि कि 5 नवंबर है. लेकिन इससे पहले ही करोड़ों लोग वोटिंग कर चुके हैं. यह सुविधा में अमेरिका में है, इसे अर्ली वोटिंग कहते हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के इलेक्शन लैब के मुताबिक, अमेरिका के कई हिस्सों में हो रही अर्ली वोटिंग में अब तक लगभग आठ करोड़ लोग वोट डाल चुके हैं। वहीं, आज फ्लोरिडा, जॉर्जिया, इलिनॉइस, लुइसियाना, मैरीलैंड, मैसाचुसेट्स, मिशिगन, मिसौरी, पेंसिल्वेनिया, रोड आइलैंड, साउथ कैरोलाइना और वॉशिंगटन में वोटिंग हो रही है।

अमेरिका के पेन्सिलवेनिया राज्‍य पर दुनिया की नजरें

इस चुनाव में जॉर्जिया, मिशिगन, और पेंसिल्वेनिया जैसे महत्वपूर्ण स्विंग स्टेट्स का खास महत्व है। विशेष रूप से पेंसिल्वेनिया को चुनावी परिणामों के लिहाज से अहम माना जा रहा है। यह राज्‍य अमेरिका के स्विंग स्‍टेट का हिस्‍सा है। अमेरिका में 7 स्विंग स्‍टेट हैं और यही फैसला करते हैं कि अगला राष्‍ट्रपति कौन होगा। पेन्सिलवेनिया में कुल 19 इलेक्‍टोरल वोट हैं जो किसी अन्‍य राज्‍य की तुलना में ज्‍यादा है। यहां अब तक कमला हैरिस की डेमोक्रेटिक पार्टी का दबदबा था।

किस 'स्विंग स्टेट' में कौन आगे?

अमेरिका चुनाव से पहले ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक नेवादा में ट्रंप को 51.2 प्रतिशत समर्थन मिला जबकि हैरिस को 46 प्रतिशत। इसी तर्ज पर नॉर्थ कैरोलिना में ट्रंप को 50.5 प्रतिशत और हैरिस को 47.1 प्रतिशत समर्थन मिल रहा है। उधर, जॉर्जिया की बात की जाए तो यहां डोनाल्‍ड ट्रंप को 50.1% से 47.6% के अंतर से कमला हैरिस से आगे हैं। मिशिगन में ट्रंप को 49.7 प्रतिशत तो हैरिस को 48.2 प्रतिशत लोग पसंद कर रहे हैं। ऐसे ही पेंसिल्वेनिया में ट्रंप को 49.6 प्रतिशत के मुकाबले हैरिस को 47.8 प्रतिशत लोग पसंद कर रहे हैं। उधर, विस्कॉन्सिन में ट्रंप 49.7 प्रतिशत और कमला हैरिस 48.6 प्रतिशत लोगों की पहली पसंद हैं।

स्विंग स्टेट क्या हैं और वे महत्वपूर्ण क्यों हैं?

जैसा कि उनके नाम से पता चलता है, स्विंग स्टेट - जिन्हें बैटलग्राउंड स्टेट भी कहा जाता है - राष्ट्रीय चुनाव के नतीजे को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। अमेरिकी राजनीति में, राष्ट्रपति चुनाव एक वेटेज वोटिंग सिस्टम द्वारा तय किए जाते हैं जिसे इलेक्टोरल कॉलेज के रूप में जाना जाता है, न कि लोकप्रिय वोट द्वारा। इस वजह से, स्विंग स्टेट नतीजे तय करने में एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। 50 राज्यों में से प्रत्येक को उनकी जनसंख्या के अनुपात में एक निश्चित संख्या में इलेक्टोरल कॉलेज वोट आवंटित किए जाते हैं। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को जीतने के लिए 270 इलेक्टर हासिल करने होंगे।

पाकिस्तान की बैलिस्टिक मिसाइल के खिलाफ क्यों हो गया अमेरिका, खुद के लिए किस खतरे की कर रहा बात?

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पाकिस्तान अब अमेरिका के लिए बड़ा खतरा बन रहा है। व्हाइट हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बड़ा दावा किया है। उन्होंने कहा कि परमाणु हथियारों से लैस पाकिस्तान लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइल विकसित कर रहा है। वह ऐसी मिसाइलें बनाने में लगा है जिसमें दक्षिण एशिया के बाहर अमेरिका पर भी हमला करने की क्षमता हो। जिसके बाद अमेरिका ने एक अहम फैसले में पाकिस्तान के बैलिस्टिक मिसाइल कार्यक्रम में शामिल चार संस्थाओं पर प्रतिबंध लगा दिया है।

राष्ट्रीय सुरक्षा के उप सलाहकार जॉन फाइनर ने कहा कि पाकिस्तान की गतिविधियां उसके इरादों पर गंभीर सवाल उठाती हैं। कार्नेगी एंडोवमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस में एक भाषण के दौरान जॉन फाइनर ने कहा, 'साफ तौर पर हमें पाकिस्तान की गतिविधियां अमेरिका के लिए एक उभरते हुए खतरे के रूप में ही दिखाई देती हैं।'

फाइनर के मुताबिक ऐसे सिर्फ तीन ही देश हैं जिनके पास परमाणु हथियार और अमेरिका तक मिसाइल हमला करने की क्षमता है। इनमें रूस, चीन और नॉर्थ कोरिया शामिल हैं। ये तीनों ही देश अमेरिका के विरोधी हैं। ऐसे में पाकिस्तान के ये कदम अमेरिका के लिए एक नई चुनौती बनते जा रहे हैं।

फाइनर ने कहा,पाकिस्तान का ये कदम चौंकाने वाला है, क्योंकि वह अमेरिका का सहयोगी देश रहा है। हमने पाकिस्तान के सामने कई बार अपनी चिंता जाहिर की है। हमने उसे मुश्किल समय में समर्थन दिया है और आगे भी संबंध बनाए रखने की इच्छा रखते हैं। ऐसे में पाकिस्तान का ये कदम हमें ये सवाल करने पर मजबूर करता है कि वह ऐसी क्षमता हासिल क्यों करना चाहता है, जिसका इस्तेमाल हमारे खिलाफ किया जा सकता है।

एक दिन पहले ही अमेरिकी विदेश विभाग ने पाकिस्तान के बैलिस्टिक मिसाइल से जुड़ी चार संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की थी। विदेश विभाग की वेबसाइट पर जारी बयान में कहा गया है कि यह निर्णय पाकिस्तान की लंबी दूरी की मिसाइलों के विकास से होने वाले खतरे को देखते हुए लिया गया है।अमेरिका ने गुरुवार को बताया कि चार संस्थाओं को कार्यकारी आदेश 13382 के तहत प्रतिबंधित किया गया है, जो विनाशकारी हथियारों और उनके वितरण के साधनों के प्रसार से जुड़े लोगों पर लागू होता है। बयान के मुताबिक पाकिस्तान की 'नेशनल डेवलपमेंट कॉम्प्लेक्स' और उससे जुड़ी अन्य संस्थाएं जैसे अख्तर एंड संस प्राइवेट लिमिटेड और रॉकसाइड एंटरप्राइज पर पाकिस्तान के मिसाइल कार्यक्रम के लिए उपकरण आपूर्ति करने का आरोप है।

पाकिस्तान ने बैन को बताया पक्षपातपूर्ण

अमेरिका के प्रतिबंधों की पाकिस्तान ने कड़ी निंदा करते हुए इसे पक्षपाती करार दिया है और कहा कि यह फैसला क्षेत्रीय और वैश्विक स्थिरता के लिए खतरनाक परिणाम लाएगा। पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मुमताज जहरा बलोच ने कहा, 'पाकिस्तान की रणनीतिक क्षमताएं उसकी संप्रभुता की रक्षा और दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता बनाए रखने के लिए हैं। प्रतिबंध शांति और सुरक्षा के उद्देश्य को विफल करते हैं।

चीन की 3 कंपनियों पर लगाया था बैन

इससे पहले इसी साल अप्रैल में अमेरिका ने पाकिस्तान के बैलिस्टिक मिसाइल प्रोग्राम के लिए तकनीक सप्लाई करने पर चीन की 3 कंपनियों पर बैन लगा दिया था। इस लिस्ट में बेलारूस की भी एक कंपनी शामिल थी।

80 के दशक में शुरू हुआ पाकिस्तान का मिसाइल प्रोग्राम

पाकिस्तान ने 1986-87 में अपने मिसाइल प्रोग्राम हत्फ की शुरुआत की थी। भारत के मिसाइल प्रोग्राम का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान की तत्कालीन प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में इसकी शुरुआत हुई थी।

हत्म प्रोग्राम में पाक रक्षा मंत्रालय को फौज से सीधा समर्थन हासिल था। इसके तहत पाकिस्तान ने सबसे पहले हत्फ-1 और फिर हत्फ-2 मिसाइलों का सफल परीक्षण किया था। BBC की रिपोर्ट के मुताबिक, हत्फ-1 80 किमी और वहीं हत्फ-2 300 किमी तक मार करने में सक्षम थी।

यह दोनों मिसाइलें 90 के दशक में सेना का हिस्सा बनी थीं। इसके बाद हत्फ-1 को विकसित कर उसकी मारक क्षमता को 100 किलोमीटर बढ़ाया गया। 1996 में पाकिस्तान ने चीन की मदद से बैलिस्टिक मिसाइल की तकनीक हासिल की।

फिर 1997 में हत्फ-3 का सफल परीक्षण हुआ, जिसकी मार 800 किलोमीटर तक थी। साल 2002 से 2006 तक भारत के साथ तनाव के बीच पाकिस्तान ने सबसे ज्यादा मिसाइलों की टेस्टिंग की थी।

सरकारी शटडाउन पर ट्रंप समर्थित बिल को नहीं मिला पूर्ण बहुमत, 38 रिपब्लिकंस ने भी विरोध में की वोटिंग

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अमेरिका पर इस समय आर्थिक संकट आ गया है। उसके पास इतना पैसा नहीं बचा है कि वह सरकारी कर्मचारियों को सैलरी दे सके। हालात शटडाउन जैसे हो चुके हैं। सरकार को फंड जुटाने के लिए नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप समर्थित बिल गुरुवार रात अमेरिकी संसद में गिर गया।इससे बचने के लिए अमेरिका के पास 24 घंटे से भी कम का समय बचा है।

हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव ने नव-निर्वाचित राष्ट्रपति ट्रंप की फेडरल ऑपरेशन को फंड देने और गवर्नमेंट शटडाउन से एक दिन पहले कर्ज सीमा को बढ़ाने या सस्पेंड करने के प्लान को खारिज कर दिया है। गुरुवार रात अमेरिकी संसद में सरकारी शटडाउन से बचने के लिए बिल लाया गया था। इस बिल को ट्रंप का समर्थन था। करीब 3 दर्जन रिपब्लिकन ने डेमोक्रेट्स के साथ मिलकर ट्रंप समर्थित इस बिल के खिलाफ वोटिंग की। संसद में यह बिल 174-235 से गिर गया और बहुमत वोट भी हासिल करने में विफल रहा।

दरअसल, डेमोक्रेट्स ट्रंप को उनके नए कार्यकाल के पहले साल के दौरान बातचीत का फायदा नहीं देना चाहते। इस वजह से उन्होंने इस बिल का विरोध किया। ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी से जीते हैं।

डोनाल्ड ट्रंप ने सरकारी शटडाउन को रोकने के लिए देश की कर्ज सीमा को बढ़ाने या निलंबित करने का प्रावधान को कानून में शामिल किए जाने की मांग की थी, खास बात यह है कि इस कदम का उनकी अपनी पार्टी नियमित तौर पर विरोध करती रही है। उन्होंने बुधवार को एक बयान में कहा कि इसके अलावा कुछ भी हमारे देश के साथ विश्वासघात है।

क्या होता है सरकार का शटडाउन?

अमेरिकी सरकार में शटडाउन तब होता है, जब सरकार के खर्च संबंधी विधेयक अगले वित्तीय वर्ष की शुरुआत से पहले लागू नहीं हो पाते हैं। शटडाउन के चलते संघीय सरकार को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ती है और गैर जरूरी सरकारी कर्मचारियों को छुट्टी पर भेजना पड़ता है। इस दौरान सिर्फ कानून व्यवस्था बनाए रखने वाली जरूरी एजेंसियों के कर्मचारी ही काम करते हैं। शटडाउन के चलते संघीय और राज्य सरकारों के बीच का समन्वय भी बाधित होता है। फंडिंग में अंतराल के चलते साल 1980 में अमेरिका में शटडाउन को लेकर पहली बार कानूनी राय दी गई थी। साल 1990 से शटडाउन लागू होने लगे और फरवरी 2024 तक अमेरिका में 10 फंडिंग शटडाउन हो चुके हैं।

क्यों जरूरी है इसका पास होना?

दरअसल, अमेरिका को अपने खर्च चलाने के लिए फंड की जरूरत होती है। यह फंड कर्ज लेकर पूरा किया जाता है। इसके लिए एक बिल अमेरिकी संसद हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में लाया जाता है। मौजूदा बिल को ट्रंप की ओर से लाया गया था, जिसे विपक्ष से खारिज कर दिया। इसका सीधा का मतलब है कि अमेरिका को खर्च के लिए पैसा नहीं मिलेगा। अमेरिका इस पैसे से ही न केवल सरकारी अधिकारियों को सैलरी देती है बल्कि दूसरे खर्च भी चलते हैं।

तो अमेरिका में हो जाएगा शटडाउन

इस बिल को पास कराने के लिए शुक्रवार रात तक का ही समय है। यानी अमेरिकी सरकार के पास 24 घंटे खर्च चलाने लायक पैसा भी नहीं है। अगर यह पास नहीं हो पाया तो अमेरिका में शटडाउन लग जाएगा। ऐसा होने पर अमेरिका पर बड़ी मुसीबत आ जाएगी। उसकी अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान होगा। इसका सबसे ज्यादा असर ट्रंप पर पड़ेगा

OpenAI और ChatGPT पर सवाल उठाने वाले सुचिर बालाजी कौन? जिनकी अमेरिका में मौत

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चैटजीपीटी (ChatGPT) डेवलप करने वाली आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कंपनी OpenAI के पूर्व रिसर्चर सुचीर बालाजी को उनके फ्लैट में मृत पाया गया है। OpenAI पर गंभीर सवाल खड़े करने वाले सुचीर बालाजी की मौत सैन फ्रांसिस्को में उनके अपार्टमेंट हुई।शुरुआती रिपोर्ट में सामने आ रहा है कि बालाजी ने आत्महत्या की है। वह अपने फ्लैट में मृत मिले।

सैन फ्रांसिस्को पुलिस विभाग के प्रवक्ता अधिकारी रॉबर्ट रुएका ने बताया कि शुरुआती जांच के दौरान किसी गड़बड़ी का कोई सबूत नहीं मिला है। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, बालाजी का शव 26 नवंबर को उनके बुकानन स्ट्रीट अपार्टमेंट में मिला। उनके लिंक्डइन प्रोफाइल के अनुसार, उन्होंने नवंबर 2020 से अगस्त 2024 तक ओपनएआई के लिए काम किया था।

26 साल के सुचिर बालाजी ने OpenAI को लेकर दुनिया को सतर्क किया था। सुचिर ने एआई में योगदान तो दिया ही था साथ ही इस कंपनी में गलत परंपराओं ओर हरकतों को लेकर मजबूत आवाज उठाई थी। दरअसल, सुचिर का कहना था कि ओपनएआई ने चैट जीपीटी बनाने के लिए बिना अनुमति के पत्रकारों, लेखकों, प्रोग्रामरों आदि के कॉपीराइटेड सामग्रियों का इस्तेमाल किया है, जिसका सीधा असर कई बिजनेसों और कारोबारों पर पड़ेगा। माना जा रहा था कि ओपनएआई के खिलाफ चल रहे कानूनी मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे।

सुचीर बालाजी ने मौत से तीन महीने पहले सार्वजनिक रूप से दावा किया था कि OpenAI ने अमेरिका के कॉपीराइट कानून का उल्लंघन किया है। 23 अक्टूबर को विदेशी मीडिया को एक इंटरव्यू देते समय बालाजी ने यह तर्क दिया था कि OpenAI उन व्यवसायों और उद्यमियों पर नैगेटिव प्रभाव डाल रहा था जिनको चैटजीपीटी को ट्रेन करने के लिए जानकारी हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया गया है। उन्होंने कहा, अगर आप मेरी बातों पर यकीन करते हैं, तो आपको कंपनी छोड़ देनी होगी। साथ ही उन्होंने कहा था, “यह इंटरनेट इकोसिस्टम के लिए एक टिकाऊ मॉडल नहीं है।

ट्रंप की नई कैबिनेट में एक और भारतवंशी को जगह, हरमीत ढिल्‍लों को दिया ये बेहद अहम पद

#trump_nominated_indo_american_harmeet_dhillon_as_assistant_attorney_general

अमेर‍िका के नव‍निर्वाचित राष्‍ट्रपत‍ि डोनाल्‍ड ट्रंप अपनी नई पारी के लिए लगातार भारतीयों पर जमकर भरोसा जता रहे हैं। एक बार फिर डोनाल्‍ड ट्रंप ने अपनी कैब‍िनेट में एक और भारतवंशी को जगह दी है। अब ट्रंप ने भारतीय मूल की अमेरिकी हरमीत ढिल्लों को न्याय विभाग में नागरिक अधिकारों के लिए सहायक 'अटॉर्नी जनरल' नामित किया है। ढिल्लों जानी-मानी वकील हैं। वह नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए काम करती रही हैं।

ट्रंप अपने सोशल मीडिया एकाउंट ट्रुथ सोशल पर घोषणा की, मुझे अमेरिकी न्याय विभाग में नागरिक अधिकारों के लिए सहायक अटॉर्नी जनरल के रूप में हरमीत के ढिल्लों को नामित करते हुए खुशी हो रही है। हरमीत देश के शीर्ष चुनावी पैरोकारों में से एक हैं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए लड़ रही हैं कि सभी और केवल वैध वोट की गिनती की जाए। हरमीत सिख धार्मिक समुदाय की एक सम्मानित सदस्य हैं। न्याय विभाग में अपनी नयी भूमिका में हरमीत हमारे संवैधानिक अधिकारों की रक्षक होंगी और हमारे नागरिक अधिकारों एवं चुनाव कानूनों को निष्पक्ष तथा दृढ़ता से लागू करेंगी।

हरमीत ढिल्‍लों के बारे में

54 साल की ढिल्लों का जन्म चंडीगढ़ में हुआ था। बचपन में ही वह अपने माता-पिता के साथ अमेरिका चली गई थीं। उन्होंने अपनी हाई स्कूल की शिक्षा नॉर्थ कैरोलिना स्कूल ऑफ साइंस एंड मैथमेटिक्स से हासिल की। इसके बाद उन्होंने डार्टमाउथ कॉलेज से शास्त्रीय साहित्य में बीए की डिग्री और यूनिवर्सिटी ऑफ वर्जीनिया से कानून की डिग्री हासिल की। 1993 में ढिल्लों ने पॉल वी. नीमेयर, यूनाइटेड स्टेट्स कोर्ट ऑफ अपील्स फॉर द फोर्थ सर्किट में बतौर लॉ क्लर्क काम शुरू किया। 1994 से 1998 तक उन्होंने शियरमैन एंड स्टर्लिंग में एसोसिएट के रूप में काम किया। 1998 से 2002 तक ढिल्‍लों ने सिडली एंड ऑस्टिन और कूली गॉडवर्ड जैसी लॉ फर्मों में एसोसिएट के रूप में काम किया।

फ्रीडम ऑफ स्‍पीच की लड़ाई से बनी पहचान

हरमीत ढिल्लों फ्रीडम ऑफ स्‍पीच की लड़ाई के ल‍िए जानी जाती हैं। फ्री स्पीच सेंसरशिप के लिए आवाज उठाते हुए वे टेक कंपनियों के ख‍िलाफ लंबी जंग लड़ चुकी। अपने पूरे करियर के दौरान हरमीत ने नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए लगातार आवाज उठाई है। इलेक्‍शन की पारदर्शिता की बात हो या फ‍िर कांस्‍टीट्यूशन और नागर‍िक अध‍िकारों की रक्षा वे हमेशा आगे रही हैं।

ट्रंप की टीम में कई भारतीय मूल के

इससे पहले विवेक रामास्वामी, जय भट्टाचार्य, तुलसी गबार्ड और काश पटेल को ट्रंप महत्‍वपूर्ण ज‍िम्‍मेदारी दे चुके हैं। इससे ट्रंप के भारतीयों के करीब होने का संकेत मिलता है। लेकिन हरमीत ढिल्लों की नियुक्‍त‍ि को लेकर भारत में ही सवाल उठने लगे हैं। एक्‍सपर्ट उन्‍हें खाल‍िस्‍तान सपोर्टर बता रहे हैं। उनके पुराने ट्वीट्स की खूब चर्चा में है।

ट्रंप ने बढ़ाई 'ड्रैगन' की टेंशन! इसे चीन में नियुक्त किया अमेरिकी राजदूत

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अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की नई सरकार वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन सरकार के अंतर्राष्ट्रीयवाद के दृष्टिकोण से बिल्कुल अलग काम करने जा रही है। ऐसा डोनाल्ड ट्रंप के हालिया फैसले के बाद कहा जा सकता है। डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के बाद से लगातार अपनी टीम बनाने तैयारी में लगे हैं। इसी कड़ी में उन्होंने चीन को लेकर भी पत्ते खोल दिए हैं। ट्रंप ने जॉर्जिया डेविड पर्ड्यू को चीन में एंबेसडर के लिए नॉमिनेट किया है।

ट्रंप ने गुरुवार को फैसले की जानकारी दी। अलजजीरा की रिपोर्ट के अनुसार ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्रुथ सोशल पर एक पोस्ट में कहा, “फॉर्च्यून 500 के सीईओ के रूप में, जिनका 40 साल का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करियर रहा है और जिन्होंने अमेरिकी सीनेट में सेवा की है। डेविड चीन के साथ हमारे संबंधों को बनाने में मदद करने के लिए बहुमूल्य विशेषज्ञता लेकर आए हैं। वह सिंगापुर और हांगकांग में रह चुके हैं और उन्होंने अपने करियर के अधिकांश समय एशिया और चीन में काम किया है।”

पर्ड्यू की नियुक्ति के लिए अमेरिकी सीनेट की मंजूरी की आवश्यकता होगी, लेकिन उनके अनुमोदन की संभावना है, क्योंकि सदन में रिपब्लिकन का बहुमत है। राजदूत के रूप में पर्ड्यू को शुरुआत से ही चुनौतीपूर्ण कार्यभार का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि ट्रम्प अमेरिका को चीन के साथ एक व्यापक व्यापार युद्ध में ले जाने के लिए तैयार हैं।

अभी हाल ही में ट्रंप ने अवैध अप्रवास और ड्रग्स पर लगाम लगाने के अपने प्रयास के तहत पदभार संभालते ही मैक्सिको, कनाडा और चीन पर व्यापक नए टैरिफ लगाने की धमकी दी है। उन्होंने कहा कि वह कनाडा और मैक्सिको से देश में प्रवेश करने वाले सभी उत्पादों पर 25 प्रतिशत कर लगाएंगे और चीन से आने वाले सामानों पर अतिरिक्त 10 प्रतिशत टैरिफ लगाएंगे, जो उनके पहले कार्यकारी आदेशों में से एक है।

इसके बाद वाशिंगटन स्थित चीनी दूतावास ने इस सप्ताह के प्रारंभ में चेतावनी दी थी कि यदि व्यापार युद्ध हुआ तो सभी पक्षों को नुकसान होगा। दूतावास के प्रवक्ता लियू पेंगयु ने एक्स पर पोस्ट किया कि चीन-अमेरिका आर्थिक और व्यापार सहयोग प्रकृति में पारस्परिक रूप से लाभकारी है। कोई भी व्यापार युद्ध या टैरिफ युद्ध नहीं जीतेगा। उन्होंने कहा कि चीन ने पिछले साल नशीली दवाओं की तस्करी को रोकने में मदद करने के लिए कदम उठाए थे।

धमकियों पर कितना अमल करेंगे ट्रंप?

यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ट्रंप वास्तव में इन धमकियों पर अमल करेंगे या वे इन्हें बातचीत की रणनीति के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। अगर टैरिफ लागू किए जाते हैं, तो अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए गैस से लेकर ऑटोमोबाइल और कृषि उत्पादों तक हर चीज की कीमतें नाटकीय रूप से बढ़ सकती हैं। सबसे हालिया अमेरिकी जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, अमेरिका दुनिया में वस्तुओं का सबसे बड़ा आयातक है, जिसमें मेक्सिको, चीन और कनाडा इसके शीर्ष तीन आपूर्तिकर्ता हैं।

ट्रंप की चीन विरोधी टीम!

इससे पहले भी ट्रंप ने मार्को रूबियो और माइक वाल्ट्ज जैसे नेताओं को नई सरकार में अहम भूमिका के लिए चुना है। ये दोनों ही नेता चीन के विरोधी माने जाते रहे हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप चीन के प्रति सख्त रुख की नीति पर ही काम करने जा रहे हैं।

व्हाइट हाउस छोड़ने से पहले बाइडन का बड़ा ऐलान, बेटे हंटर को दिया क्षमादान, क्या ट्रंप बदल सकेंगे ये फैसला

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अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के कार्यकाल के अब चंद दिन बचे हुए हैं। इससे पहले जो बाइडन ने बड़ा फैसला लिया है।अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपने बेटे पर अवैध तरीके से बंदूक रखने और इनकम टैक्स की चोरी के मामले में उसे माफी दे दी है। राष्ट्रपति बाइडन ने 1 दिसंबर को स्टेटमेंट जारी कर इसके बारे में जानकारी दी है।राष्ट्रपति ने एक बयान में कहा, आज मैंने अपने बेटे हंटर के लिए क्षमादान पर हस्ताक्षर किया। बता दे कि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के बेटे जोसेफ हंटर बाइडन पर टैक्स चोरी से लेकर गैरकानूनी ढंग से हथियार रखने, सरकारी पैसे का गलत इस्तेमाल करने और झूठी गवाही देने के आरोप लगे हैं। डेलावेयर की कोर्ट में हंटर ने टैक्स चोरी और गैरकानूनी ढंग से हथियार रखने की बाद स्वीकार कर ली थी। जिसके बाद हाल ही में उन्हें बंदूक अपराध और टैक्स से जुड़े मामले में दोषी करार दिया गया था।

अपने बयान में राष्ट्रपति जो बाइडन ने कहा, “आज, मैंने अपने बेटे हंटर के लिए एक माफी पर हस्ताक्षर किया है। जब से मैंने अमेरिकी राष्ट्रपति का पदभार संभाला है, मैंने कहा था कि मैं न्याय विभाग की ओर से लिए गए फैसलों में दखल नहीं दूंगा और मैंने अपने इस वादे का निभाया भी है। लेकिन मैंने देखा कि मेरे बेटे को गलत तरीके से निशाना बनाया जा रहा है और उस पर मुकदमें चलाए जा रहे हैं। उस पर लगाए आरोप राजनीति से प्रेरित थे, ताकि उससे मुझ पर हमला किया जा सके और मेरी चुनावी प्रक्रिया का विरोध किया जा सके।”

बाइडन ने आगे कहा, “मैंने अपने पूरे करियर में एक साधारण सिद्धांत को फॉलो किया है कि अमेरिकी लोगों को केवल सच बताओ। यह सच है कि मुझे न्याय प्रणाली पर पूरा विश्वास है, लेकिन जब मैंने इसके साथ संघर्ष किया तो मुझे लगा कि राजनीति ने इस प्रक्रिया को भी संक्रमित कर दिया है। मुझे उम्मीद है कि अमेरिकी लोग यह समझेंगे कि एक पिता और एक राष्ट्रपति ने ऐसा फैसला क्यों लिया।”

बाइडन के लिए हुए इस फैसले को उनके पूर्व में किए गए वादे पर उनका यूटर्न कहा जा रहा है। राष्ट्रपति बाइडन अपने उस वादे से मुकर गए हैं, जिसमें उन्होंने बार-बार कहा था कि वह अपने बेटे को माफ या उसकी सजा कम करने के लिए अपने कार्यकारी अधिकार का इस्तेमाल नहीं करेंगे। ट्रंप के चुनाव जीतने के बाद भी राष्ट्रपति और व्हाइट हाउस के शीर्ष प्रवक्ता ने सजा माफ न करने की बात दोहराई थी। क्षमा का मतलब है कि हंटर को उनके अपराधों की सजा नहीं मिलेगी। यह उन्हें जेल भेजने की संभावना को खत्म करता है।

ट्रंप आ रहे हैं...”बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार पर ट्रंप के सहयोगी का बयान

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बांग्लादेश इस समय सांप्रदायिकता की आग में झुलस रहा है। हिंदुओं पर लगातार हमले हो रहे हैं। ताजा मामले में इस्कॉन से जुड़े महंत चिन्मय दास की गिरफ्तारी के बाद बांग्लादेश की युनूस सरकार का दुनियाभर में फजीहत हो रही है। पड़ोसी मुल्क में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ भारत लगातार आवाज उठाता रहा है, वहीं अब भारत को अमेरिका का भी साथ मिल गया है। अमेरिका से बांग्लादेश की सरकार के लिए चेतावनी आई है। यूएस कमीशन ऑन इंटरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम (यूएससीआईआरएफ) के पूर्व कमिश्नर जॉनी मूर ने बांग्लादेश के हालात पर चिंता जताई है।

जॉनी मूर ने कहा है कि अमेरिका की बाइडेन सरकार ने बांग्लादेश पर अधिक ध्यान नहीं दिया है।यह समय बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के अस्तित्व पर खतरे की तरह है। लेकिन ट्रंप अब आ रहे हैं। डोनाल्ड ट्रंप अपनी बेहतरीन टीम के साथ पद संभालने वाले हैं। उनकी यह टीम अमेरिकी मूल्यों की पैरोकार है और भारत को एक सहयोगी के तौर पर देखती है।

दरअसल मूर से बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा के बीच अमेरिका के रुख के बारे में पूछा गया था? उनसे ये पूछा गया था कि ऐसी स्थिति में ट्रंप सरकार बाइडेन सरकार की तुलना में क्या अलग करेगी? इस पर उन्होंने कहा कि दुनिया में ऐसी कोई चुनौती नहीं है, जिसे सुलझाया नहीं जा सके।

मूर ने कहा कि इस समय दुनियाभर में 50 से अधिक जंग चल रही हैं और मैं हैरान हूं कि मौजूदा अमेरिकी सरकार का बांग्लादेश पर ध्यान ही नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं आपको यकीन दिलाता हूं कि ट्रंप के पहले कार्यकाल में धार्मिक स्वतंत्रता मानवाधिकारों में शीर्ष प्राथमिकता थी। यह कई मायनों में हमारी विदेशी नीति का केंद्र थी। इस बार भी आपको ऐसा ही देखने को मिलेगा। ट्रंप की टीम भारत को एक ज़रूरी सहयोगी के तौर पर देखती है, लिहाजा आगामी ट्रंप सरकार में आपको अमेरिका और भारत के बीच ऐसा सहयोग देखने को मिलेगा, जो अभी तक नहीं देखने को मिला था।

बांग्लादेश में शेख हसीना सरकार के तख्तापलट के बाद अल्पसंख्यकों खास तौर पर हिंदुओं के खिलाफ हिंसा में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है। इसी बीच 25 नवंबर को हिंदू धर्मगुरु चिन्मय कृष्ण दास को देशद्रोह के आरोप में 25 नवंबर को गिरफ्तार किया गया था। बांग्लादेश की अदालत ने उन्हें जमानत नहीं दी और जेल भेज दिया। चिन्मय दास समेत 19 लोगों पर आरोप है कि उन्होंने इस रैली के दौरान बांग्लादेश के राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया। इसके बाद चिन्मय दास के समर्थक सड़कों पर उतर आए और उग्र विरोध प्रदर्शन करने लगे। भारत सरकार ने भी बयान जारी कर बांग्लादेश में चिन्मय कृष्ण दास की गिरफ्तारी और उन्हें जमानत नहीं देने पर गहरी चिंता जताई थी।

रिश्वतखोरी और धोखाधड़ी के आरोपों पर अडानी ग्रुप ने जारी किया बयान, कहा- हरसंभव कानूनी सहारा लेंगे*
#adani_group_issued_a_statement_on_the_allegations_in_america *
अडानी ग्रुप के चेयरमैन गौतम अडानी और उनकी कंपनी अडानी ग्रीन एनर्जी के डायरेक्टर्स समेत 8 लोगों के खिलाफ अमेरिकी न्याय विभाग ने रिश्वतखोरी और धोखाधड़ी का आरोप लगाया है। अडानी समूह ने अमेरिकी न्याय विभाग और अमेरिकी प्रतिभूति और विनिमय आयोग की ओर से अडानी ग्रीन के निदेशकों के खिलाफ लगाए गए आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है। कंपनी के बयान के मुताबिक, सभी आरोप निराधार हैं। साथ ही ग्रुप ने अपना अगला कदम भी स्पष्ट कर दिया है। अडानी ग्रुप ने गुरुवार को अडानी ग्रीन के निदेशकों के खिलाफ अमेरिकी न्याय विभाग और अमेरिकी प्रतिभूति और विनिमय आयोग की ओर से लगाए गए रिश्वत के आरोपों को निराधार बताते हुए उनका खंडन किया। इस मामले में ग्रुप ने एक स्टेटमेंट जारी किया है। इसमें लिखा है कि अमेरिकी न्याय विभाग ने अभियोग में अभी लगाए हैं। जब तक दोष साबित नहीं हो जाते, तब तक प्रतिवादियों को निर्दोष माना जाता है। इसमें लिखा है कि इस मामले में सभी संभव कानूनी उपाय किए जाएंगे। अडानी ग्रुप ने स्टेटमेंट में अपने शेयरधारकों को भरोसा दिलाया है। इसमें कहा गया है कि अडानी ग्रुप ने सभी सेक्टर में हमेशा पारदर्शिता और रेगुलेटरी नियमों का पालन किया है और करता रहेगा। स्टेटमेंट में लिखा है, हम अपने शेयरहोल्डर्स, पार्टनर और ग्रुप के कर्मचारियों को आश्वस्त करते हैं कि हम एक कानून का पालन करने वाले संगठन हैं, जो सभी कानूनों का पूरी तरह से अनुपालन करता है। *क्या है पूरा मामला?* बता दें कि देश के मशहूर उद्योगपति गौतम अडानी पर अमेरिका में रिश्वत और धोखाधड़ी के आरोप लगे हैं। यह पूरा मामला अडाणी ग्रुप की कंपनी अडाणी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड और एक अन्य फर्म से जुड़ा हुआ है। आरोपों के अनुसार, यह रिश्वत 2020 से 2024 के बीच बड़े सौर ऊर्जा अनुबंध हासिल करने के लिए दी गई, जिससे अडानी समूह को 2 बिलियन डॉलर से अधिक का लाभ होने की संभावना थी। 24 अक्टूबर 2024 को यह मामला यूएस कोर्ट में दर्ज किया गया, जिसकी सुनवाई बुधवार को हुई। न्यूयॉर्क की फेडरल कोर्ट में हुई सुनवाई में गौतम अडानी समेत 8 लोगों पर अरबों की धोखाधड़ी और रिश्वत के आरोप लगे हैं। अडानी के अलावा शामिल 7 अन्य लोग सागर अडाणी, विनीत एस जैन, रंजीत गुप्ता, साइरिल कैबेनिस, सौरभ अग्रवाल, दीपक मल्होत्रा और रूपेश अग्रवाल हैं। सागर और विनीत अडानी ग्रीन एनर्जी लिमिटेड के अधिकारी हैं। सागर, गौतम अडानी के भतीजे हैं। रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, गौतम अडानी और सागर के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है।
रूस और ईरान की दोस्तीःअमेरिका और इजरायल के लिए क्यों है चिंता का विषय
#russia_iran_vs_america_israel

picture credit: Emirates policy






हाल के वर्षों में, रूस और ईरान के बीच बढ़ती साझेदारी मध्य पूर्व में भू-राजनीतिक संतुलन के एक महत्वपूर्ण चुनौती के रूप में उभरी है, जो वॉशिंगटन और जेरूसलम में चिंता का कारण बन गई है। जैसे-जैसे दोनों देशों के बीच सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक संबंध मजबूत हो रहे हैं, वे क्षेत्र में अमेरिका और उसके सहयोगियों के खिलाफ एक प्रभावशाली ताकत के रूप में सामने आ रहे हैं। सीरिया से लेकर मध्य पूर्व तक, यह रणनीतिक गठबंधन लंबे समय से अमेरिका के प्रभाव को बाधित करने और इज़राइल की सुरक्षा चिंताओं को जटिल बनाने की क्षमता रखता है।

*रूस-ईरान संबंधों की जड़ें*

ऐतिहासिक रूप से, रूस और ईरान स्वाभाविक सहयोगी नहीं रहे हैं। उनका सहयोग मुख्य रूप से साझा रणनीतिक हितों और पश्चिमी प्रभाव के खिलाफ उनके विरोध के कारण विकसित हुआ है। जबकि रूस ने हमेशा मध्य पूर्व में अपना प्रभाव फिर से स्थापित करने की कोशिश की है, ईरान ने अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों से बचने और अपनी क्षेत्रीय शक्ति को बढ़ाने के तरीकों की तलाश की है, विशेष रूप से उन प्रतिबंधों से जो अमेरिका और यूरोपीय संघ ने ईरान पर लगाए हैं।


उनकी साझेदारी में पहला महत्वपूर्ण मील का पत्थर सीरिया गृह युद्ध के दौरान आया। रूस और ईरान दोनों ने सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद के शासन का समर्थन किया, हालांकि उनके समर्थन के कारण अलग थे, लेकिन उनके पास असद के शासन को बनाए रखने में समान हित थे। रूस के लिए, सीरिया में एक ठोस आधार बनाए रखना महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से टार्टस में अपने नौसैनिक अड्डे और हमीमिम में अपने हवाई अड्डे के जरिए।

ईरान के लिए, असद का समर्थन एक महत्वपूर्ण सहयोगी को बनाए रखने में मदद करता है और लेबनान में हिजबुल्लाह सहित शिया मिलिशियाओं के लिए हथियारों और लड़ाकों के परिवहन के लिए एक गलियारा प्रदान करता है, जिससे तेहरान का क्षेत्रीय प्रभाव बढ़ता है।


हाल के वर्षों में, रूस और ईरान का सहयोग सिर्फ सीरिया तक सीमित नहीं रहा है, बल्कि इसमें सैन्य सहयोग, ऊर्जा साझेदारी, और संयुक्त राजनयिक प्रयास भी शामिल हो गए हैं, जैसे संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर। इस बढ़ते गठबंधन ने वॉशिंगटन और तेल अवीव में चिंता बढ़ा दी है, जहां अधिकारी मानते हैं कि रूस-ईरान गठबंधन अमेरिका की नीतियों और इज़राइल की सुरक्षा को कमजोर कर सकता है।


*अमेरिका और इज़राइल के हितों के खिलाफ रणनीतिक साझेदारी*

अमेरिका और इज़राइल दोनों लंबे समय से ईरान को एक बड़ा खतरा मानते हैं, इसके परमाणु महत्वाकांक्षाओं, हिजबुल्लाह और हामस जैसे आतंकवादी समूहों के समर्थन, और क्षेत्र में इसके विघटनकारी प्रभाव के कारण। हालांकि, रूस और ईरान के बढ़ते रिश्ते ने अमेरिका और इज़राइल के लिए ईरान की शक्ति को नियंत्रित करने की कोशिशों को और जटिल बना दिया है।


**सैन्य सहयोग**: रूस-ईरान साझेदारी के सबसे चिंताजनक पहलुओं में से एक उनका बढ़ता सैन्य सहयोग है। रूस ने ईरान को उन्नत हथियारों की आपूर्ति की है, जिनमें S-300 एयर डिफेंस सिस्टम शामिल है, जिससे ईरान को इज़राइल की हवाई हमलों या अमेरिकी सैन्य हस्तक्षेप से खुद को बचाने की क्षमता में काफी वृद्धि हुई है। ये उन्नत प्रणालियाँ, जो लड़ाकू जेट और मिसाइलों को लक्ष्य बना सकती हैं, इज़राइल के लिए ईरानी परमाणु स्थलों या सीरिया में ईरानी सैन्य ठिकानों पर हवाई हमले करने को बहुत कठिन बना देती हैं। यह बढ़ता सैन्य सहयोग इज़राइल के लिए एक गंभीर चुनौती प्रस्तुत करता है, जो हमेशा ईरान की सैन्य वृद्धि को एक अस्तित्वगत खतरे के रूप में देखता है।


**संयुक्त सैन्य अभ्यास और खुफिया जानकारी का आदान-प्रदान**: पिछले कुछ वर्षों में, रूस और ईरान ने सीरिया में संयुक्त सैन्य अभ्यास किए हैं, जो इस बात का प्रदर्शन है कि वे अमेरिकी और इज़राइली हितों को सीधे चुनौती देने के लिए सैन्य सहयोग बढ़ाने के लिए तैयार हैं। ये अभ्यास उनके बढ़ते सैन्य एकीकरण का संकेत देते हैं और पश्चिमी शक्तियों के साथ किसी संभावित टकराव की स्थिति में भविष्य के सहयोग के लिए एक रूपरेखा हो सकते हैं। यह समन्वय ईरान को अमेरिकी और इज़राइली सैन्य रणनीतियों को बेहतर तरीके से समझने की अनुमति देता है, जिससे पश्चिमी शक्तियों के लिए स्वतंत्र रूप से कार्य करना अधिक कठिन हो जाता है।


*आर्थिक और ऊर्जा संबंध गठबंधन को मजबूत करते हैं*

सैन्य सहयोग के अलावा, रूस-ईरान गठबंधन आर्थिक क्षेत्र में भी मजबूत हुआ है। दोनों देशों ने व्यापारिक सौदों और संयुक्त उपक्रमों के माध्यम से अमेरिकी प्रतिबंधों को दरकिनार करने की कोशिश की है, खासकर ऊर्जा क्षेत्र में। रूस, जो दुनिया के सबसे बड़े तेल उत्पादक देशों में से एक है, ईरान के साथ सहयोग करने के लिए उत्सुक था, जिसके पास विशाल तेल और गैस संसाधन हैं, लेकिन जो अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण कठिनाइयों का सामना कर रहा है।

**ऊर्जा सहयोग**: रूस और ईरान ने हाल के वर्षों में अपने ऊर्जा संबंधों को मजबूत किया है। मॉस्को ने ईरान में परमाणु पावर प्लांट बनाने का समझौता किया है, जबकि तेहरान ने अपने तेल और गैस भंडारों को रूसी कंपनियों के लिए खोल दिया है। इसके बदले में, रूस ने ईरान को अपनी ऊर्जा निर्यात बढ़ाने में मदद की है, जिससे तेहरान को अमेरिकी प्रतिबंधों के खिलाफ एक महत्वपूर्ण सहारा मिल रहा है।

ये आर्थिक संबंध दोनों देशों को पश्चिमी प्रतिबंधों के दबाव से बचने में मदद करते हैं। रूस के लिए, ईरान के ऊर्जा संसाधनों तक पहुंच प्राप्त करना खाड़ी क्षेत्र में एक रणनीतिक पकड़ हासिल करने का एक तरीका है, जो वैश्विक तेल और गैस बाजारों के लिए महत्वपूर्ण है। ईरान के लिए, रूस का आर्थिक समर्थन अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण उसकी अर्थव्यवस्था पर पड़े विनाशकारी प्रभावों को कम करने में मदद करता है, विशेष रूप से 2015 के ईरान परमाणु समझौते (JCPOA) से अमेरिका की निकासी के बाद।


*संयुक्त राष्ट्र और अन्य मंचों में कूटनीतिक दबदबा*

रूस, ईरान का एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक साझेदार बन गया है, जो संयुक्त राष्ट्र जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उसे समर्थन प्रदान करता है। मॉस्को ने ईरान पर कड़े प्रतिबंध लगाने या उसके मध्य पूर्व में किए गए कार्यों की निंदा करने वाले प्रस्तावों को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपनी वीटो शक्ति का इस्तेमाल करके अवरुद्ध किया है। इस कूटनीतिक समर्थन ने ईरान को अंतर्राष्ट्रीय दबाव से बचने के लिए एक प्रकार का सुरक्षा कवच प्रदान किया है, विशेष रूप से अमेरिका और यूरोपीय शक्तियों से।

इसके अलावा, दोनों देश संयुक्त रूप से वैश्विक कूटनीतिक प्रयासों में सहयोग कर रहे हैं। रूस और ईरान दोनों पश्चिमी देशों द्वारा मध्य पूर्व में किए गए सैन्य हस्तक्षेपों, जैसे इराक, लीबिया और यमन में, का विरोध करते हैं। अपने विदेश नीति के मिलते-जुलते दृष्टिकोणों से, रूस और ईरान पश्चिमी शक्तियों के खिलाफ एक शक्तिशाली काउंटरबैलेंस बनाने का प्रयास कर रहे हैं, जो भविष्य में शक्ति संतुलन को फिर से बदल सकता है।

*इज़राइल की सुरक्षा पर प्रभाव*

इज़राइल के लिए, रूस-ईरान गठबंधन विशेष रूप से चिंताजनक है। इज़राइल ने हमेशा स्पष्ट किया है कि वह परमाणु-सक्षम ईरान को सहन नहीं करेगा और उसने सीरिया में ईरानी ठिकानों पर एयरस्ट्राइक करके हिजबुल्लाह और अन्य ईरानी-समर्थित समूहों को उन्नत हथियारों की आपूर्ति को रोकने की कोशिश की है। हालांकि, रूस के सैन्य ठिकानों की सीरिया में मौजूदगी और ईरान के साथ उसके घनिष्ठ संबंधों के कारण, इज़राइल के लिए सीरिया में हवाई हमले करना और भी जटिल हो गया है। रूस के साथ सीधी टकराव की संभावना इज़राइल के सैन्य रणनीति को और कठिन बना देती है।

इसके अतिरिक्त, इज़राइल ईरान के हिजबुल्लाह और अन्य मिलिशियाओं के समर्थन को लेकर गहरे चिंतित है, जो इज़राइल की सुरक्षा के लिए सीधा खतरा पैदा करते हैं। ईरान ने सीरिया और इराक में अपनी स्थिति का उपयोग इन प्रॉक्सी समूहों के विस्तार के लिए किया है, जिससे इज़राइल की सीमाओं पर इन सशस्त्र मिलिशियाओं का खतरा बढ़ गया है। रूस-ईरान सहयोग इन समूहों को और अधिक स्वतंत्र रूप से काम करने की अनुमति देता है, जिससे इज़राइल के लिए क्षेत्रीय सुरक्षा बनाए रखना और भी कठिन हो जाता है।



वॉशिंगटन और तेल अवीव के लिए, रूस-ईरान गठबंधन का बढ़ता हुआ प्रभाव एक नए दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करता है, जो क्षेत्र में बदलते गठबंधनों और शक्ति संतुलन को ध्यान में रखते हुए तैयार किया जाए। जैसे-जैसे अमेरिका और इज़राइल इन चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, रूस-ईरान धारा क्षेत्रीय सुरक्षा की गतिशीलता को बदलने में एक प्रमुख तत्व बने रहेंगे।


रूस-ईरान गठबंधन केवल एक अस्थायी साझेदारी नहीं है; यह मध्य पूर्व के भू-राजनीतिक आदेश में एक बुनियादी बदलाव का प्रतिनिधित्व करता है। अमेरिका और इज़राइल के लिए, मॉस्को और तेहरान के बढ़ते संबंध एक स्पष्ट और वर्तमान खतरा प्रस्तुत करते हैं, जो क्षेत्र में उनके रणनीतिक उद्देश्यों को जटिल बना रहे हैं। जैसे-जैसे दोनों देश अपनी साझेदारी को मजबूत करते हैं, इसके परिणाम वॉशिंगटन की विदेश नीति और इज़राइल की सुरक्षा पर लंबे समय तक महसूस किए जाएंगे।
अमेरिका में मतदान शुरू, ट्रंप और कमला हैरिस में कांटे की टक्कर, वोटिंग के बीच 7 स्विंग स्टेट्स पर सबकी नजर

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अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोटिंग जारी है। भारतीय समय के मुताबिक शाम 6 बजे से मतदान शुरू हो गया है। जहां डेमोक्रेट उम्मीदवार कमला हैरिस और रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के बीच कांटे की टक्कर दिख रही है।ट्रंप अगर जीत हासिल करते हैं तो वो दूसरी बार राष्ट्रपति बनेंगे। वहीं, अगर कमला हैरिस को जीत मिलती है तो वो पहली बार राष्ट्रपति बनेंगी।

अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में कई राज्यों में मतदान जारी है। वैसे तो मतदान की तारीख आज यानि कि 5 नवंबर है. लेकिन इससे पहले ही करोड़ों लोग वोटिंग कर चुके हैं. यह सुविधा में अमेरिका में है, इसे अर्ली वोटिंग कहते हैं. यूनिवर्सिटी ऑफ फ्लोरिडा के इलेक्शन लैब के मुताबिक, अमेरिका के कई हिस्सों में हो रही अर्ली वोटिंग में अब तक लगभग आठ करोड़ लोग वोट डाल चुके हैं। वहीं, आज फ्लोरिडा, जॉर्जिया, इलिनॉइस, लुइसियाना, मैरीलैंड, मैसाचुसेट्स, मिशिगन, मिसौरी, पेंसिल्वेनिया, रोड आइलैंड, साउथ कैरोलाइना और वॉशिंगटन में वोटिंग हो रही है।

अमेरिका के पेन्सिलवेनिया राज्‍य पर दुनिया की नजरें

इस चुनाव में जॉर्जिया, मिशिगन, और पेंसिल्वेनिया जैसे महत्वपूर्ण स्विंग स्टेट्स का खास महत्व है। विशेष रूप से पेंसिल्वेनिया को चुनावी परिणामों के लिहाज से अहम माना जा रहा है। यह राज्‍य अमेरिका के स्विंग स्‍टेट का हिस्‍सा है। अमेरिका में 7 स्विंग स्‍टेट हैं और यही फैसला करते हैं कि अगला राष्‍ट्रपति कौन होगा। पेन्सिलवेनिया में कुल 19 इलेक्‍टोरल वोट हैं जो किसी अन्‍य राज्‍य की तुलना में ज्‍यादा है। यहां अब तक कमला हैरिस की डेमोक्रेटिक पार्टी का दबदबा था।

किस 'स्विंग स्टेट' में कौन आगे?

अमेरिका चुनाव से पहले ताजा सर्वेक्षण के मुताबिक नेवादा में ट्रंप को 51.2 प्रतिशत समर्थन मिला जबकि हैरिस को 46 प्रतिशत। इसी तर्ज पर नॉर्थ कैरोलिना में ट्रंप को 50.5 प्रतिशत और हैरिस को 47.1 प्रतिशत समर्थन मिल रहा है। उधर, जॉर्जिया की बात की जाए तो यहां डोनाल्‍ड ट्रंप को 50.1% से 47.6% के अंतर से कमला हैरिस से आगे हैं। मिशिगन में ट्रंप को 49.7 प्रतिशत तो हैरिस को 48.2 प्रतिशत लोग पसंद कर रहे हैं। ऐसे ही पेंसिल्वेनिया में ट्रंप को 49.6 प्रतिशत के मुकाबले हैरिस को 47.8 प्रतिशत लोग पसंद कर रहे हैं। उधर, विस्कॉन्सिन में ट्रंप 49.7 प्रतिशत और कमला हैरिस 48.6 प्रतिशत लोगों की पहली पसंद हैं।

स्विंग स्टेट क्या हैं और वे महत्वपूर्ण क्यों हैं?

जैसा कि उनके नाम से पता चलता है, स्विंग स्टेट - जिन्हें बैटलग्राउंड स्टेट भी कहा जाता है - राष्ट्रीय चुनाव के नतीजे को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। अमेरिकी राजनीति में, राष्ट्रपति चुनाव एक वेटेज वोटिंग सिस्टम द्वारा तय किए जाते हैं जिसे इलेक्टोरल कॉलेज के रूप में जाना जाता है, न कि लोकप्रिय वोट द्वारा। इस वजह से, स्विंग स्टेट नतीजे तय करने में एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। 50 राज्यों में से प्रत्येक को उनकी जनसंख्या के अनुपात में एक निश्चित संख्या में इलेक्टोरल कॉलेज वोट आवंटित किए जाते हैं। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को जीतने के लिए 270 इलेक्टर हासिल करने होंगे।