दुनिया का ऐसा मंदिर जिसके आस-पास इंसान या कोई पशु-पक्षी भी चला जाए तो उसकी हो जाती है मौत

दुनिया में कई अजीबगरीब जगहें मौजूद हैं। इनमें कुछ जगहें बेहद रहस्मयी और अनोखी हैं, जिनके बारे में जानकर लोगों को यकीन नहीं होता है। इनसे जुड़ी कई कहानियां प्रचलित होती हैं। आज हम आपको एक ऐसी ही जगह के बारे में बताने वाले हैं, जो तुर्की में स्थित है। बताया जाता है कि यह एक ऐसा मंदिर है, जहां पर जाने वाले कभी लौटकर वापस नहीं आए। इस जगह पर कई लोगों की रहस्मयी मौत हो चुकी है, जिसकी वजह से यहां पर किसी को जाने नहीं दिया जाता है। 

यह रहस्यमयी मंदिर तुर्की के प्राचीन शहर हेरापॉलिस में स्थित है। इस जगह के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, लेकिन यहां रहने वाले लोग बताते हैं कि यहां स्थित मंदिर के बाहर एक दरवाजा है, जो असल में नरक का दरवाजा है। इसके पास जाते ही इंसान की मौत हो जाती है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि इस दरवाजे के पास जाने पर इंसान ही नहीं, बल्कि जानवारों की भी मौत हो जाती है। 

नर्क का दरवाजा

बता दें कि यह मंदिर तुर्की के हेरापोलिस शहर में स्थित है। इस मंदिर को इंसान और पशु-पक्षियों के रहस्यमयी मौत के लिए जाना जाता है। यह दुनिया में इसी कारण से विख्यात है। ऐसा बताया जाता है कि इस मंदिर के आस-पास जो कोई भी जाता है वह कभी वापस नहीं आता। उसकी मौत हो जाती है। मौत कैसे होती है ये किसी को नहीं पता। यहां इंसान तो क्या पशु-पक्षी भी जाते हैं तो उनकी भी मौत हो जाती है। मंदिर के आस-पास लगातार हुई रहस्यमयी मौतों की घटनाओं के कारण मंदिर के दरवाजे को लोग नर्क का दरवाजा भी कहते हैं।

विज्ञान की नजर से मौत का कारण

लोगों की मानें तो उनका कहना है कि इस मंदिर में एक ग्रीक देवता वास करते हैं और जब वह सांस छोड़ते हैं तो उनकी सांस से निकली जहरीली हवा से यहां आने वाले लोगों की मौत हो जाती है। वहीं विज्ञान की दृष्टि से देखें तो वैज्ञानिकों का मानना है कि इस मंदिर के जमीन के नीचे से जहरीली गैस कार्बनडाई ऑक्साइड का रिसाव होता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि जमीन से निकलने वाली 10% कार्बनडाई ऑक्साइड इंसानों की जान ले लेती है और इस मंदिर से निकलने वाली कार्बनडाई ऑकिसाइड की मात्रा 91% है।

शनि शिंगणापुर के पीछे की क्या है कहानी? और जाने क्यों नहीं होता घरों में दरवाजे

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित है शिंगणापुर गांव, जिसे शनि शिंगणापुर के नाम से जाना जाता है। 

यह गांव हिन्दू धर्म के विख्यात शनि देव की वजह से प्रसिद्ध है, क्योंकि इस गांव में शनि देव का चमत्कारी मंदिर स्थित है। 

आपको शायद यकीन न हो लेकिन इस गांव के किसी भी घर या दुकान में दरवाजा नहीं है। 

कहते हैं कि बीते कुछ समय में यह गांव अपनी इसी खासियत से देश-दुनिया में काफी मशहूर हुआ था। लेकिन यहां दरवाजा क्यों नहीं प्रयोग किया जाता

चलिए अब आपको शिंगणापुर मंदिर की कहानी बताते हैं जिसके चलते शिंगणापुर गांव में शनि देव की इतनी महिमा बढ़ गई।

गांव पर शनिदेव की है कृपा, घर में नहीं होते दरवाजे

नहीं, यहां चोरी की घटनाएं नहीं होती हैं। क्योंकि, माना जाता है कि जो भी व्यक्ति यहां चोरी करेगा उसे स्वयं शनि देव ही सजा दे देंगे।

 यहां के लोग अलमारी, लॉकर, सूटकेस आदि भी नहीं रखते हैं। यह अनोखी प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इस स्थान पर शनि की विशेष कृपा है। शास्त्रों के अनुसार शिंगणापुर में ही शनिदेव का जन्म भी हुआ है।

कहते हैं एक बार इस गांव में काफी बाढ़ आ गई, पानी इतना बढ़ गया कि सब डूबने लगे। लोगों का कहना है कि उस भयंकर बाढ़ के दौरान कोई दैवीय ताकत पानी में बह रही थी। जब पानी का स्तर कुछ कम हुआ तो एक व्यक्ति ने पेड़ की झाड़ पर एक बड़ा सा पत्थर देखा। 

ऐसा अजीबोगरीब पत्थर उसने अब तक नहीं देखा था, तो लालचवश उसने उस पत्थर को नीचे उतारा और उसे तोड़ने के लिए जैसे ही उसमें कोई नुकीली वस्तु मारी उस पत्थर में से खून बहने लगा। 

यह देखकर वह वहां से भाग खड़ा हुआ और गांव वापस लौटकर उसने सब लोगों को यह बात बताई। सभी दोबारा उस स्थान पर पहुंचे जहां वह पत्थर रखा था, सभी उसे देख भौचक्के रह गए। 

लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिरकार इस चमत्कारी पत्थर का क्या करें। 

इसलिए अंतत: उन्होंने गांव वापस लौटकर अगले दिन फिर आने का फैसला किया। उसी रात गांव के एक शख्स के सपने में भगवान शनि आए और बोले “मैं शनि देव हूं, जो पत्थर तुम्हें आज मिला उसे अपने गांव में लाओ और मुझे स्थापित करो”।

अगली सुबह होते ही उस शख्स ने गांव वालों को सारी बात बताई, जिसके बाद सभी उस पत्थर को उठाने के लिए वापस उसी जगह लौटे। बहुत से लोगों ने प्रयास किया, किंतु वह पत्थर अपनी जगह से एक इंच भी न हिला। 

काफी देर तक कोशिश करने के बाद गांव वालों ने यह विचार बनाया कि वापस लौट चलते हैं और कल पत्थर को उठाने के एक नए तरीके के साथ आएंगे। 

उस रात फिर से शनि देव उस शख्स के सपने में आए और उसे यह बता गए कि वह पत्थर कैसे उठाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि “मैं उस स्थान से तभी हिलूंगा जब मुझे उठाने वाले लोग सगे मामा-भांजा के रिश्ते के होंगे”। तभी से यह मान्यता है कि इस मंदिर में यदि मामा-भांजा दर्शन करने जाएं तो अधिक फायदा होता है। इसके बाद पत्थर को उठाकर एक बड़े से मैदान में सूर्य की रोशनी के तले स्थापित किया गया।

आज शिंगाणपुर गांव के शनि शिंगाणपुर मंदिर में यदि आप जाएं तो प्रवेश करने के बाद कुछ आगे चलकर ही आपको खुला मैदान दिखाई देगा। उस जगह के बीचो-बीच स्थापित हैं शनि देव जी। यहां जाने वाले आस्थावान लोग केसरी रंग के वस्त्र पहनकर ही जाते हैं। कहते हैं मंदिर में कथित तौर पर कोई पुजारी नहीं है, भक्त प्रवेश करके शनि देव जी के दर्शन करके सीधा मंदिर से बाहर निकल जाते हैं। रोजाना शनि देव जी की स्थापित मूरत पर सरसों के तेल से अभिषेक किया जाता है।

मंदिर में आने वाले भक्त अपनी इच्छानुसार यहां तेल का चढ़ावा भी देते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जो भी भक्त मंदिर के भीतर जाए वह केवल सामने ही देखता हुआ जाए। उसे पीछे से कोई भी आवाज लगाए तो मुड़कर देखना नहीं है। शनि देव को माथा टेक कर सीधा-सीधा बाहर आ जाना है, यदि पीछे मुड़कर देखा तो बुरा प्रभाव होता है।

एक ऐसा मंदिर जहां शाम ढलने से पहले ही लोग चले जाते हैं घर, खौफनाक है यहां का रहस्य, जानें

भारत में कई प्राचीन मंदिर है। हर मंदिर का अपना महत्‍व है और मान्‍यता भी। इनमें से कई मंदिर बेहद रहस्यमयी और चमत्कारिक हैं। देवी देवताओं पर विश्वास करने वाले लोग इसे भगवान की कृपा मानते हैं, तो वहीं कुछ लोगों के लिए ये मंदिर आश्‍चर्य का विषय है। इन्‍हीं में से एक मंदिर है किराडू मंदिर। यह रहस्यमयी मंदिर राजस्‍थान के बाड़मेर जिले में स्थित है। 1161 ईसा पूर्व में इस जगह को किराट कूप के नाम से जाना जाता था।

कहने को यह मंदिर राजस्‍थान में बना है, लेकिन इसके निर्माण में दक्षिण शैली की झलक दिखाई देती है। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में खजुराहो जैसी शिल्‍पकला देखने को मिलती है, इसी वजह से लोग इसे राजस्‍थान का खजुराहो भी कहते हैं। यह मंदिर कई रहस्यों से घिरा है। इस मंदिर को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। तो आइए जानते हैं किराड़ू मंदिर क्‍यों है इतना डरावना।

खंडहर में बदल गए मंदिर

बाड़मेर से 35 किमी दूर किराडू मंदिर पांच मंदिरों की एक सुंदर श्रृंखला है। दक्षिण शैली में बने इन मंदिराें की सुंदरता के चर्चे पूरे भारत में हैं। लेकिन अब इसके ज्‍यादातर मंदिर खंडहर में बदल चुके हैं। भगवान शिव और विष्‍णु के मंदिर की हालत ठीक ठाक है।

पत्‍थर का बन जाता है व्‍यक्ति

यह मंदिर इतना डरावना है कि लोग यहां शाम तक रूकती भी नहीं। सूरज ढलते ही लोग यहां से चले जाते हैं। इसके पीछे एक बेहद खौफनाक कारण है। मान्‍यता है कि जो भी व्‍यक्ति सूरज ढलने के बाद इस मंदिर में रुकता है, वह हमेशा के लिए पत्‍थर का बन जाता है। इस खौफनाक मंजर के बाद कोई भी शाम ढलने के बाद यहां नहीं रुकना चाहता।

मंदिर को मिला है साधु का श्राप

ऐसी मान्‍यता है कि इस खौफनाक रहस्‍य के पीछे एक साधु का श्राप है। कहा जाता है कि एक सिद्ध साधु अपने शिष्‍यों को राजा और प्रजा के भरोसे छोड़कर चले गए थे। उन्‍होंने राजा से उनका ख्याल रखने के लिए कहा था। लेकिन राजा और प्रजा दोनों अपने काम में इतने व्‍यस्‍त हो गए कि शिष्‍यों पर ध्‍यान ही नहीं किया। यहां अचानक से एक शिष्‍य की तबीयत बिगड़ गई। 

जब शिष्‍यों ने गांव वालों से मदद मांगी, तो किसी ने उनकी मदद नहीं की। जब साधु को इस बात का पता चला तो उन्‍हें बहुत गुस्‍सा आया और उन्होंने परे गांव को श्राप दे दिया कि जो भी सूर्यास्‍त के बाद इस मंदिर में प्रवेश करेगा, वो पत्‍थर का बन जाएगा। अब तो राजस्‍थान सरकार ने भी शाम ढलने के बाद इस मंदिर में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है।

पीछे मुड़कर देखना भी है मना

लोक कथाओं के अनुसार, उस दौरान एक कुम्‍हार की पत्‍नी ने साधु के शिष्यों की मदद की थी। साधु उस महिला से प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने उसे शाम तक गांव छोड़ने का आदेश दिया और कहा कि भूल से भी पलटकर ना देखे। महिला जब जा रही थी, तो उसने गलती से पीछे मुड़कर देख लिया, इससे वह भी पत्‍थर की बन गई।

आज भी स्‍थापित है महिला की मूर्ति

उस महिला की मूर्ति आज भी मंदिर के पास स्‍थापित है। साधु के इस श्राप के कारण ही गांव के लोगों में दहशत फैल गई और अब कोई भी शाम के बाद इस मंदिर में जाने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता।

बाड़मेर के पास जैन मंदिर, बाड़मरे फोर्ट और सैंड डयून्‍स देखने को मिल जाएंगे। किराडू के रहस्‍य के चलते लोग इस मंदिर को देखने आते हैं। हालांकि, किराडू का श्राप सच है या कल्‍पना, कहा नहीं जा सकता। लेकिन बंजरा जगह पर होने के कारण यह जगह डरावनी लगती है। शाम तो शाम दिन में भी यहां ज्‍यादा लोग दिखाई नहीं देते।

स्तम्भेश्वर महादेव मंदिर एक ऐसा मंदिर है, जो दिन में दो बार समुद्र में समा जाता है,जाने ऐसा क्यों

भारत में कई ऐसे मंदिर हैं, जो दुनिया भर में काफी मशहूर हैं। इन मंदिरों में दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। भगवान शिव के कई प्राचीन मंदिर हैं जो बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्हीं में से एक गुजरात के स्तंभेश्वर महादेव मंदिर का भी उल्लेख है। सबसे पुराना मंदिर होने के होने के साथ स्तंभेश्वर महादेव मंदिर को 'गायब मंदिर' भी कहा जाता है। सावन के महीने में इस मंदिर में लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। दूर-दूर से लोग महादेव के दर्शन करने के लिए यहां आते हैं।

स्तंभेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने अपने तपोबल से किया था। यह मंदिर समुद्र में स्थित है और रोज़ाना दो बार गायब हो जाता है। कई लोगों को मंदिर का गायब होना एक चमत्कार लगता है। यही नहीं लोग अपनी मनोकामना पूर्ण होने की कामना लेकर इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आते रहते हैं। अगर आप भी भगवान शिव की भक्त हैं तो इस मंदिर के दर्शन करने के लिए जा सकती हैं।

क्यों कहा जाता है 'गायब मंदिर'

रोजाना स्तंभेश्वर महादेव मंदिर सुबह और शाम कुछ देर के लिए गायब हो जाता है। इसके पीछे प्राकृतिक कारण है, दरअसल दिन भर में समुद्र का स्तर इतना बढ़ जाता है कि मंदिर पूरी तरह डूब जाता है। फिर कुछ ही पलों में समुद्र का स्तर घट जाता है और फिर मंदिर पुनः दिखाई देने लगता है। ऐसा हमेशा सुबह और शाम के समय होता है। मंदिर के गायब होने के पीछे लोग समुद्र द्वारा शिव का अभिषेक करना मानते हैं। यही नहीं श्रद्धालु भगवान शिव के इस मंदिर का नजारा लेने के लिए दूर-दूर से आते हैं।

स्तंभेश्वर महादेव मंदिर जाने का तरीका

स्तंभेश्वर महादेव मंदिर गुजरात के वडोदरा से लगभग 40 किलोमीटर दूर जंबूसर तहसील में स्थित है। कावी कंबोई गुजरात के वडोदरा से लगभग 75 किमी दूर है। कावी कंबोई वडोदरा, भरूच, और भावनगर जैसी जगहों से सड़क मार्ग द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। वडोदरा से आप स्तंभेश्वर महादेव मंदिर जाने के लिए निजी टैक्सी या फिर अन्य वाहन का साधन लें सकती हैं। इसके अलावा यहां पहुंचने के लिए सड़क, रेल या फिर एयर प्लेन के जरिए भी आसानी से पहुंचा जा सकता है। वहीं इस मंदिर से जुड़ी अधिक जानकारी के लिए आप www.stambheshwarmahadev.com पर जाकर विजिट कर सकती हैं।

ऐसे निमार्ण हुआ था स्तंभेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना

पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह शिवलिंग स्वयं भगवान कार्तिकेय द्वारा स्थापित किया गया था। एक कहानी यह भी कहती है कि भगवान कार्तिकेय (शिव के पुत्र) राक्षस तारकासुर को मारने के बाद स्वयं को दोषी मानते हैं। इसलिए भगवान विष्णु ने उन्हें यह कहते हुए सांत्वना दी कि आम लोगों को परेशान करने वाले एक राक्षस को मारना गलत नहीं है। हालांकि कार्तिकेय भगवान शिव के एक महान भक्त की हत्या के पाप को दूर करना चाहते थे। इसलिए, भगवान विष्णु ने उन्हें शिवलिंग स्थापित करने और क्षमा प्रार्थना करने की सलाह दी।

अदभुत है कोडुंगल्लूर मंदिर की मान्यता,जाने इनका क्या है इतिहास

 कोडुंगल्लूर देवी मंदिर अत्यंत प्राचीन मंदिर है, जो कि केरल राज्य के त्रिशूर जिले में स्थापित है। वैसे तो दक्षिण भारत मे बहुत से मंदिर है परंतु यह मंदिर सब मंदिरों में सबसे अद्भुत है। कोडुंगल्लूर देवी मंदिर को "श्री कुरम्बा भगवती मंदिर" के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में माँ भद्रकाली उपस्थित है, उनकी काली रूप में पूजा की जाती है। यहां आने वाले लोग देवी को कुरम्बा या कोडुंगल्लूर अम्मा के नाम से बुलाते है।

केरल के मंदिर में माँ काली के रुद्र रूप की पूजा अर्चना की जाती है यह मंदिर मालाबार के 64 भद्रकाली मंदिरों में से प्रमुख है माँ काली ने अपने प्रचण्ड रूप में आठों हाथों में कुछ न कुछ पकड़ रखा है जैसे:- एक हाथ मे राक्षस राजा दारूका का सिर पकड़ा हुआ है, एक हाथ मे घंटी, एक हाथ मे तलवार और एक हाथ मे अंगूठी। मंदिर में दोपहर 3 बजे से लेकर रात 10 बजे तक पूजा होती है।

कोडुंगल्लूर मंदिर का इतिहास

यहां के लोगो का मानना है कि इस मंदिर में भगवान शिव की आराधना की जाती थी और परशुराम जी ने मंदिर के निकट ही माँ काली की प्रतिमा लगाई थी। कोडुंगल्लूर कभी चेरा साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था, जो एक महत्वपूर्ण नगर कहलाता था। इस मंदिर को चेरमान पेरुमल ने बनवाया। यह मंदिर केरल के मध्य में स्थित है। इस मंदिर में उपस्थित माँ भद्रकाली को यहां के लोग "मलयाला भगवती" बुलाते है। इस मंदिर में प्राचीनतम तरह से ही देवी के निर्देशानुसार पूजा की जाती है। यहं पांच 'श्री चक्र' शंकराचार्य ने स्थापित किए, जिन्हें देवी की शक्तियों का मुख्य स्रोत माना जाता है। इस मंदिर में पुष्प अर्जित करने का अधिकार केवल यहाँ के पुजारी नंबूदिरीस और आदिकस का है।

कोडुंगल्लूर मंदिर की मान्यताएं

इतिहास के पन्नों में कहा गया है कि प्राचीन काल मे इस मंदिर में सबसे पहले जानवरों की बलि की परंपरा हुआ करती थी बलि पक्षियों और बकरी की होती थी। भक्तों की मांग व उनके द्वारा संरक्षण की मांग में इन बलिदानों का चलन था, मगर अब इस सभ्यता में केरल सरकार के हस्तक्षेप के बाद से ही इस मंदिर में अब पशु-बलि पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन यहां धार्मिक अनुष्ठानों की समाप्ति नहीं हुई है। अब यहां पर भगवान को लाल धोती अर्पित करने की परंपरा है, भक्त महंगे उपहार, सोना-चांदी अपनी इच्छा व क्षमता अनुसार चढ़ाया जाता है। 

कौडुंगल्लूर भगवती मंदिर के त्यौहार

भरानी त्यौहार केरल के प्रमुख त्योहारों में से एक है इस त्योहार का आयोजन हर साल मार्च और अप्रैल महीने के बीच किया जाता है यह त्यौहार आमतौर पर 'कोझिकलकु मूडल' नामक अनुष्ठान से शुरू हुआ, जिसमे मुर्गो की बलि और उनके रक्त का बहाव शामिल है। इस त्यौहार का इतना माध्यम है कि इसके द्वारा माँ काली और उनके राक्षसों को प्रसन्न किया जा सके।

केतू थेण्डल' इस मंदिर का प्रमुख त्यौहार है बरगद के पेड़ के चारो ओर एक मंच बनाया जाता है राजा इस मंच पर खड़े होकर "रेशमी छतरी" फैलता है जिसके तुरंत बाद ही मंदिर के दरवाज़े खोल दिये जाते है। इसके बाद कोई भी जाति का श्रद्धालु मंदिर में प्रवेश कर सकता है, ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान दारूका राक्षस की हत्या का जश्न मनाया जाता है इस प्रकार इसमें छड़ों का उपयोग किया जाता है जिसको तलवार का प्रतीक माना जाता है। इस मौके पर श्रद्धालु देव की तरह वस्त्र धारण करते है तथा मंदिर के चारो तरफ हाथों में छड़ लिए दौड़ते है, छड़ हवा में लहराने से यह अनुष्ठान पूरा किया जाता है। इसके पश्चात अगले दिन 'शुद्धिकरण' का समारोह आयोजन किया जाता है।

चूहों के कारण मशहूर है माता का ये मंदिर ,जाने इनकी पीछे की रोचक कहानी।

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार हिन्दू धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता माने गए है, जिनका पूजन भक्तों द्वारा अपने अपने ढंग से किया जाता है। हिन्दू धर्म में हवा, पृथ्वी, जल, पशु-पक्षी आदि को भी भगवान के रूप में पूजा जाता है तथा इनके मंदिरों के बारे में भी आपने कई बार सुना होगा। एक ऐसा ही मंदिर है - बीकानेर राजस्थान में, जो इन दिनों काफी चर्चा में है। ये है देशनोक का करणी माता मंदिर, जो दुनियाभर में 'चूहों के एकमात्र मंदिर' के नाम से भी प्रसिद्द है। तो आइए विस्तार से जानते है, इस मंदिर के बारे में। ..... 

हमारे घर में एक चूहा आ जाता है तो हम उत्पाद मचा देते है। बैचेन हो जाते है और उस चूहें को भगाने के लिए हर तरकीब निकालने लगते है। क्योंकि इनसे प्लेग जैसी गंभीर बीमारियां हो जाती है। इसके साथ-साथ हमारे घर से चूहों के रहने के कारण बदबू भी आने लगती गै। लेकिन आप जानते है कि माता का यह एक ऐसा मंदिर है। जहां पर सैकड़ों चूहें रहते है। और इनके रहने से कोई बदबू नहीं फैलती और न ही कोई बीमारी।

राजस्थान के ऐतिहासिक नगर बीकानेर से लगभग 30 किलो मीटर दूर देशनोक में स्थित करणी माता का मंदिर जिसे चूहों वाली माता, चूहों वाला मंदिर और मूषक मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि मां दुर्गा का साक्षात अवतार-करणी माता है।

इस मंदिर में खास बात यह है कि इस मंदिर में इतने सारे चूहे रहने के बाद भी यहां पर एक भी बदबू नहीं आती है। साथ ही आज तक कोई बीमारी नहीं फैली और सबसे बड़ी बात यह है कि इस मंदिर में भक्तों को प्रसाद चूहों का झूठा किया हुआ दिया जाता है।

इस मंदिर में आपको कालें रंग के चूहे नजर आएगे, लेकिन जिसे सफेद रंग का चूहा नजर आएगा। समझो उसकी हर मनोकामना पूर्ण हो गई। इतना ही नहीं इस चूहे को देखने के लिए यहां पर भक्तों की काफी होड़ लगती है। इस मंदिर में साल के दोनो नवरात्र में अच्छी खासी भीड़ होती है और माता के मंदिर को सजाकर उत्सव भी मनाया जाता है। इस मंदिर के बनने के पीछे है रोचक कहानी। जानिए वो क्या है।

इस मंदिर को 15 वीं शताब्दी में राजपूत राजाओं ने बनवाया था। माना जाता है कि देवी दुर्गा ने राजस्थान में चारण जाति के परिवार में एक कन्या के रूप में जन्म लिया और फिर अपनी शक्तियों से सभी का हित करते हुए जोधपुर और बीकानेर पर शासन करने वाले राठौड़ राजाओं की आराध्य बनी।

सन् 1387 में जोधपुर के एक गांव में जन्मी इस कन्या का नाम वैसे तो रिघुबाई था पर जनकल्याण के कार्यों के कारण करणी माता के नाम से इन्हें पूजा जाने लगा। और यह नाम इन्हें मात्र 6 साल की उम्र में ही उनके चमत्कारों व जनहित में किए कार्यों से प्रभावित होकर ग्रामीणों ने दिया था।

यह हैं करणी माता के पीछे की कहानी

इस मंदिर के बारें में कथा है कि करणी माता का जन्म सन् 1387 में एक चारण परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम रिघुबाई था। रिघुबाई की शादी साठिका गांव के किपोजी चारण से हुई थी लेकिन शादी के कुछ समय बाद ही उनका मन सांसारिक जीवन से ऊब गया इसलिए उन्होंने किपोजी चारण की शादी अपनी छोटी बहन गुलाब से करवाकर खुद को माता की भक्ति और लोगों की सेवा में लगा दिया

जनकल्याण, अलौकिक कार्य और चमत्कारिक शक्तियों के कारण रिघु बाई को करणी माता के नाम से स्थानीय लोग पूजने लगे। वर्तमान में जहां यह मंदिर बना हुआ है वहां पर एक गुफा में करणी माता अपनी इष्ट देवी की पूजा किया करती थी। यह गुफा आज भी मंदिर परिसर में बनी हुई है।

कहा जाता है कि करणी माता 151 साल तक जिंदा रही और 23 मार्च 1538 को ज्योतिर्लिन हुई थी। उनके ज्योतिर्लिन होने के बाद उनके भक्तों ने उनकी मूर्ति की स्थापना कर के उनकी पूजा शुरू कर दी जो की तब से आज भी चली आ रही है।

करणी माता बीकानेर राजघराने की कुलदेवी है। कहा जाता है कि इनके आशीर्वाद से ही बीकानेर और जोधपुर रियासत की स्थापना हुई थी। करणी माता के वर्तमान मंदिर का निर्माण बीकानेर रियासत के महाराजा गंगा सिंह ने 20वीं शताब्दी के शुरुआत में करवाया था।

इस मंदिर में चूहों के अलावा, 

संगमरमर के मुख्य द्वार पर की गई उत्कृष्ट कारीगरी, मुख्य द्वार पर लगे चांदी के बड़े-बड़े दरवाजे, माता के सोने के छत्र और चूहों के प्रसाद के लिए रखी चांदी की बहुत बड़ी परात भी मुख्य आकर्षण है।

यहां पर सिर्फ चूहों का शासन

इस मंदिर में प्रवेश करते ही आपको हर जगह चीजें नजर आएगें। इतना ही नही यह आपके शरीर में भी उछल-कूद करेगे। जिसके कारण यहां पर आपको अपने पैर घसीटते हुए जाना पडता है। जिससे कि कोई चूहा घायल न हो। अगर आपने पैर उठाया और आपके पैर से कोई चूहा घायल हुआ तो यह अशुभ माना जाता है।

यहां पर कम से कम 20000 चूहे रहते है। और इन चूहों में कुछ सफेद चूहे रहते है जो कि बहुत ही पवित्र माने जाता है। मान्यता है की यदि आपको सफ़ेद चूहा दिखाई दे गया तो आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।

दिया जाता है भक्तों को स्पेशल प्रसाद

इस मंदिर में रहने वाले चूहों की अपनी ही एक विशेषता है। इस मंदिर में सुबह 5 बजें मंगल आरती और शाम को 7 बजे आरती करते समय सभी चूहें अपने बिल से बाहर आ जाते है। यहां पर रहने वाले चूहों को काबा कहा जाता कहां जाता है

मां को जो प्रसाद चढाया जाता है वो पहले चूहे खाते है। उसके बाद उसे भक्तों के बीच बांटा जाता है। इस चूहों की चील, गिद्ध और दूसरे जानवरो से रक्षा के लिए मंदिर में खुले स्थानो पर बारीक जाली लगी हुई है।

यह चूहे है माता की संतान

मन्याता है कि इस मंदिर में जो भी चूहे रहते है वो माता के संतान है। इनकी एक कथा के अनुसार एक बार करणी माता का सौतेला पुत्र लक्ष्मण, कोलायत में स्थित कपिल सरोवर में पानी पीने की कोशिश में डूब कर मर गया। जब करणी माता को यह पता चला तो उन्होंने, मृत्यु के देवता यम को उसे पुनः जीवित करने की प्रार्थना की। पहले तो यम राज़ ने मन किया पर बाद में उन्होंने विवश होकर उसे चूहे के रूप में पुर्नजीवित कर दिया।

लेकिन यहां के लोकगीतों में दूसरी ही कथा कही जाती है। इसके अनुसार एक बार 20000 सैनिकों की एक सेना देशनोक पर आक्रमण करने आई जिन्हे माता ने अपने प्रताप से चूहे बना दिया और अपनी सेवा में रख लिया। जो कि अब माता के दरबार में उनकी रक्षा करते है।

अनोखा मंदिर जहां देवी की आराधना करने आता है भालू का पूरा परिवार

 छत्तीसगढ़ के एक मंदिर के बारे में बात कर रहे हैं जहां देवी के मंदिर में हर दिन दर्शन करने के लिए भालू का पूरा परिवार आता है.

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के घूंचापाली गांव में चंडी देवी का मंदिर है जिसमें लोगों की काफी आस्था है. लोगों का दावा है कि ये मंदिर करीब 150 साल पुराना है. 

पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी रहती है मगर सबसे खास भक्तों में भालू शामिल हैं, इस मंदिर में माता का दर्शन करने भालू आते हैं. हैरानी इस बात की है कि भालू किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते और चुपचाप दर्शन कर के चले जाते हैं.

भालुओं ने कभी नहीं पहुंचाया किसी को नुकसान

 भालू आरती के वक्त आते हैं और माता की मूर्ति की परिक्रमा भी करते हैं. उसके बाद वो प्रसाद भी लेते हैं. कई बार तो पुजारी अपने हाथों से उन्हें प्रसाद खिला देते हैं. जो लोग इस मंदिर में दर्शन करने गए हैं, उनका दावा है कि भालू मंदिर में ऐसे पेश आते हैं जैसे वो कोई पालतू जानवर हों. उनका व्यवहार बहुत सरल और सीधा-सादा होता है. प्रसाद लेकर वो जंगल की ओर दोबारा लौट जाते हैं.

तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध था मंदिर

ग्रामीणों में मान्यता है कि भालू जामवंत के परिवार का हैं और वो देवी के भक्त हैं इसलिए वहां आते हैं. निवासियों का ये भी कहना है कि उन्होंने आज तक किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाया है. आपको बता दें कि पुराने वक्त में ये मंदिर तंत्र साधना के लिए जाना जाता था. यहां साधु-महात्मा का डेरा था जो तंत्र साधना करते थे, मगर 1950-1951 के वक्त ये मंदिर आम जनता के लिए खोल दिया गया. इस मंदिर में निर्माण कार्य कई बार हुआ है क्योंकि लोगों का दावा है कि देवी की मूर्ति अपने आप बढ़ती जा रही है.

आइए जानते है तिरुपति बालाजी की क्या है पौराणिक इतिहास और भक्त क्यों देते हैं अपने बालों का दान

आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुमला पर्वत पर स्थित यह मंदिर भारत के सबसे प्रमुख व पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। इसके अलावा यह भारत के सबसे अमीर मंदिरों में से एक भी है। चमत्कारों व रहस्यों से भरा हुआ यह मंदिर न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में जाना जाता है। इस मंदिर के मुख्य देवता श्री वेंकटेश्वर स्वामी है, जो स्वयं भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं और तिरुमाला पर्वत पर अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास करते हैं।

तिरुपति बालाजी मंदिर में बाल-दान की परम्परा

मान्यताओं के मुताबिक, जिन भक्तों की मनोकामनाएं पूरी हो जाती है, वे मंदिर में आकर वेंकटेश्वर स्वामी को अपना बाल समर्पित (दान) करते हैं। दक्षिण में होने के बावजूद इस मंदिर से पूरे देश की आस्था जुड़ी है। यह प्रथा आज से नहीं बल्कि कई शाताब्दियों से चली आ रही है, जिसे आज भी भक्त काफी श्रद्धापूर्वक मानते आ रहे हैं। इस मंदिर की खासियत यह है कि यहां न सिर्फ पुरुष अपने बाल का दान करते हैं बल्कि महिलाएं व युवतियां भी भक्ति-भाव से अपने बालों का दान करती हैं।

तिरुपति में बाल दान करने के पीछे की कहानी क्या है?

पौराणिक किवदंती के अनुसार, प्राचीन समय में भगवान तिरुपति बालाजी की मूर्ति पर चीटियों ने बांबी बना ली थी, जिसके कारण वह किसी को दिखाई नहीं देती थी। ऐसे में वहां रोज एक गाय आती और अपने दूध से मूर्ति का जल-अभिषेक कर चली जाती। जब इस बात का पता गाय मालिक को चला तो उसने गाय को मार दिया, जिसके बाद मूर्ति के सिर से खून बहने लगा। इस पर एक महिला ने अपने बाल काटकर बालाजी के सिर पर रख दिया। इसके बाद भगवान प्रकट हुए और महिला से कहा, यहां आकर जो भी मेरे लिए अपने बालों का त्याग करेगा, उसकी हर इच्छा पूरी होगी। तभी से ये केश-दान की परंपरा चली आ रही है।

तिरुपति बालाजी मंदिर को लेकर पौराणिक मान्यता

पौराणिक मान्यताओं की मानें तो भगवान विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक सरोवर के किनारे निवास किया था। यह सरोवर तिरुमाला के पहाड़ी पर स्थित है। इसीलिए तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियां शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिर‍ि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है, जो वेंकटाद्री नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि मंदिर में स्थित प्रभु की प्रतिमा किसी ने बनाई नहीं है बल्कि ये स्वयं ही उत्पन्न हुई है।

तिरुपति बालाजी मंदिर का इतिहास

तिरुपति बालाजी मंदिर को 'टेम्पल ऑफ सेवन हिल्स' भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण करीब तीसरी शाताब्दी के आसपास में हुआ है, जिसका समय-समय अलग-अलग वंश के शासकों द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया है। 5वीं शाताब्दी तक यह मंदिर सनातनियों का प्रमुख धार्मिक केंद्र बन चुका था। कहा जाता है कि इस मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय ने की थी।

9वीं शताब्दी में कांचीपुरम के पल्लव शासकों ने यहां कब्जा कर लिया था। इस मंदिर के ख्याति प्राप्त करने की बात की जाए तो 15वीं शाताब्दी के बाद इस मंदिर काफी प्रसिद्धि मिली, जो आजतक बरकरार है।

तिरुपति बालाजी मंदिर की कहानी

कहा जाता है कि एक बार भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ क्षीर सागर में अपने शेषशैय्या पर विश्राम कर रहे थे, तभी वहां भृगु ऋषि आए और उनके छाती पर एक लात मारी। इस पर क्रोधित न होकर विष्णु जी ने भृगु ऋषि के पांव पकड़ लिए और पूछा कि ऋषिवर आपके पैरों में चोट तो नहीं लगी। लेकिन लक्ष्मी जी को ऋषि का यह व्यवहार पसंद नहीं आया और वे क्रोधित होकर बैकुंठ छोड़कर चली गई और पृथ्वी पर पद्मावती नाम की कन्या के रूप में जन्म लिया।

इस पर भगवान विष्णु ने अपना रूप बदल वेंकटेश्वर के रूप में माता पद्मावती के पास पहुंच गए और विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे देवी ने स्वीकार कर लिया और फिर दोनों की शादी हो गई। आज भी तिरुपति मंदिर में स्थित मूर्ति को आधा पुरुष व आधा महिला कपड़े में सजाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां भगवान वेंकटेश्वर स्वामी अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास करते हैं।

तिरुपति बालाजी मंदिर में चढ़ने वाला प्रसाद

यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और शिल्प कला का अदभूत उदाहरण हैं। इस मंदिर से 23 किमी. दूर एक गांव है, जहां बाहरी व्‍यक्तियों का जाना वर्जित है। यहां पर लोग बहुत ही नियम और संयम के साथ रहते हैं। मान्‍यता है कि बालाजी को चढ़ाने के लिए फल, फूल, दूध, दही और घी सब इसी गांव से आता है। इस गांव में सदियों से परम्परा चली आ रही है, यहां की महिलाएं कभी भी सिले हुए वस्त्र धारण नहीं करती हैं।

तिरुपति बालाजी मंदिर के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य

⦁ मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करते ही दाई ओर एक छड़ी रखी है, जिसको लेकर कहा जाता है कि बालाजी की मां उसी छड़ी से उनकी पिटाई करती थी।

⦁ पिटाई के दौरान ही उनकी ठुड्डी पर चोट लग गई थी, जिस पर उनकी मां ने उस चंदन का लेप लगाया था, जो प्रथा के रूप में आज भी चली रही है।

⦁ मंदिर की मूर्ति में वेंकटेश्वर स्वामी खुद निवास करते हैं और इसीलिए मूर्ति के सिर पर लगे बाल असली है, जो कभी आपस में उलझते नहीं और मुलायम बने रहते हैं।

⦁ मूर्ति पर कान लगाकर सुनने पर समुद्री लहरों की ध्वनि सुनाई देती है और मूर्ति में भी हमेशा नमी बनी रहती है।

⦁ मंदिर में एक दीया है, जो कई शाताब्दियों से निरंतर जलता आ रहा है। रहस्यमयी बात यह है कि इस दीपक में न तो कभी तेल डाला जाता है और न कभी घी..।

⦁ गर्भ गृह में प्रवेश करने पर मूर्ति मध्य में स्थित दिखाई देती है लेकिन गर्भ गृह के बाहर से देखने पर मूर्ति गर्भ गृह में दाई ओर स्थित दिखाई देती है।

वेंकटेश्वर स्वामी की मूर्ति पर पचाई कपूर लगाया जाता है। विज्ञान की मानें तो पचाई कपूर लगाने से पत्थर कुछ समय बाद चटक जाता है 

लेकिन वर्षों से तिरुपति बालाजी को यह कपूर लगाया जा रहा है लेकिन आज भी मूर्ति एकदम सुरक्षित है।

⦁ हर गुरुवार को तिरुपति जी का चंदन श्रृंगार किया जाता है और जब यह चंदन लेप हटाया जाता है तो मूर्ति के ह्रदय के पास माता लक्ष्मी छवि उभर आती है।

⦁ ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी बालाजी में ही समाहित है। इसीलिए प्रतिदिन मूर्ति के श्रृंगार के समय नीचे धोती और ऊपर साड़ी पहनाई जाती है।

⦁ तिरुपति बालाजी की मूर्ति एक काले पत्थर से बनी है, जो देखने एक जीवंत मूर्ति दिखाई देती है। गर्भगृह का वातावरण काफी ठंडा रखा जाता है, उसे बावजूद मूर्ति पर पसीने की बूंद उभर आती हैं। मान्‍यता है कि बालाजी को अत्यधिक गर्मी लगती है, जिससे उनकी पीठ भी हमेशा नम रहती है।

एक ऐसा रहस्यमयी मंदिर जहां हवा में लटके हैं इसके खंभे, जाने

दुनिया भर में भगवान शिव के कई मंदिर हैं और हर एक मंदिर से कोई न कोई रहस्य जुड़ा हुआ है। 

यह मंदिर आंध्र प्रदेश में है और खास बात यह है कि इस विशाल मंदिर का भार मात्र एक खंभे पर है जो हवा में लटका हुआ है। यूं तो इस मंदिर में अन्य खंभे भी हैं लेकिन हवा में लटका वो एक खंबा अनेकों रहस्य और चमत्कार समेटे हुए है। चलिए जानते हैं इस बारे में विस्तार से।

इस मंदिर में यूं तो 70 खंभे हैं लेकिन इस मंदिर का आकर्षण केंद्र हवा में लटका वो खंबा जिस पर मंदिर का पूरा भार आधारित है। मंदिर में मौजूद हवा में लटके इस खंबे को आकाश स्तंभ के रूप में माना जाता है। यह खंबा जमीन से आधा इंच के करीब ऊपर उठा हुआ है

इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि हवा में लटके इस खंबे के नीचे से अगर कपड़ा निकाला जाए तो उस व्यक्ति के घर में सुख-समृद्धि (सुख-समृद्धि के लिए हटाएं ये वास्तु दोष) का वास हमेशा बना रहता है। खंबे के हवा में लटकने के पीछे एक कथा भी प्रचलित है। माना जाता है कि भगवान वीरभद्र की उत्पत्ति दक्ष प्रजापति के यज्ञ के बाद हुई थी।

जब महादेव ने माता सती के आत्मदाह के बाद वीरभद्र को अपनी जटा से उत्पन्न कर दक्ष प्रजापति को मारने भेजा था। तब दक्ष के वध के बाद भगवान वीरभद्र का क्रोध शांत होने के नाम ही नहीं ले रहा था। पाताल से लेकर आकाश तक उनकी हुंकार से सब भयभीत हो उठे थे।

तब भगवान शिव ने उन्हें क्रोध शांत करने के लिए तपस्या का आदेश दिया। जिसके बाद कहा जाता है कि जहां आज लेपाक्षी मंदिर है उसी स्थान पर वीरभद्र भगवान ने तपस्या की थी और क्रोध पर नियंत्रण पाया था। मान्यता है कि इस मंदिर में जो हवा में लटका खंबा है वो भगवान वीरभद्र के क्रोध के कारण ही है।

भगवान वीरभद्र ने क्रोध रूप में तपस्या आरंभ की थी जिसके बाद उनकी क्रोध की अग्नि के ताप से वह जगह कांपने लगी थी। इसी कारण से उस स्थान पर कुछ भी बनाया जाता वह कांपने लगता और मंदिर का निर्माण अधूरा रह जाता। ऐसे में विरुपन्ना और विरन्ना जो विजयनगर के राजा हुआ करते थे उन्होंने युक्ति लगाई।

उन्होंने इस मंदिर का निर्माण ऐसे तरीके से कराया जिससे मंदिर का आधार वह स्तंभ हवा में लटकने लगा और मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। माना जाता है कि जिस दिन यह स्तंभ जमीन को छु गया उस दिन भगवान शिव के वीरभद्र रूप का क्रोध पुनः जाग जाएगा और सृष्टि का विनाश उस दिन निश्चित है।

हिमाचल प्रदेश के ज्वालामुखी मंदिर का क्या है रोचक तथ्य,और इनका पौराणिक इतिहास जाने

ज्वालामुखी मंदिर, भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के दक्षिण में 30 किमी की दूरी पर स्थित है। हिन्दू देवी माँ ज्वालामुखी को समर्पित इस मंदिर को ‘जोता वाली का मंदिर’ और ‘नगरकोट’ के नाम से भी जाता है। यह मंदिर माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है।

माता के अन्य मंदिरों की तुलना में यह मंदिर अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं की जाती है, बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही 09 ज्वालाओं की पूजा होती है। मंदिर के पौराणिक इतिहास के कारण भव्य मंदिर में दर्शन के लिए काफी बड़ी मात्रा में भक्तजन यहाँ आते है।

ज्वालामुखी मंदिर कांगड़ा का इतिहास

हिमाचल प्रदेश में बने इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण राजा भूमि चंद द्वारा करवाया गया था। इसके बाद महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने द्वारा साल 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निर्माण करवाया था। पांडवों द्वारा इस मंदिर की खोज की गई थी। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माना जाता है कि 51 स्थलों पर माता सती के शरीर के हिस्से गिरे थे और उस हर एक स्थान को शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है, यह स्थान भी उन्ही स्थानों में से एक है।

मंदिर की पौराणिक मान्यता

पौराणिक कथा के अनुसार माना जाता है कि भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष प्रजापति ने अपने यहाँ पर यज्ञ करवाया था, जिसमे सभी -देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया, परन्तु शिव को नहीं बुलाया गया। सती अपने पिता के पास इसका उत्तर लेने गई वहां उनके पति शिव को अपमानित किया गया, जो वो सहन नहीं कर पाईं और हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी।

जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उनकी पत्नी सती ने आत्मदाह कर लिया है तो गुस्साएं भगवान शिव ने माता सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकालकर तांडव करना शुरू कर दिया, जिसके कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया और इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया था, जहाँ-जहाँ पर माता सती के शरीर के अंग गिरे, वह स्थान शक्तिपीठ बन गया। मान्यता है कि ज्वालाजी मंदिर के स्थान पर ही माता सती की जीभ गिरी थी।

ज्वालामुखी मंदिर कांगड़ा के रोचक तथ्य

1,मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार अत्यंत सुंदर और मनमोहक है। मंदिर में घुसते के साथ ही बायें हाथ पर अकबर नहर है। इस नहर का निर्माण मुग़ल बादशाह अकबर द्वारा करवाया गया था।

2,उसके आगे मंदिर का गर्भ द्वार है जिसके अंदर माता ज्योति के रूम में विराजमान है।

3,मंदिर के ऊपरी भाग में गोरखनाथ का एक मंदिर है जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि यहां गुरु गोरखनाथ जी आये थे और कई चमत्कार दिखाए थे।

4,मंदिर की चोटी पर सोने की परत चढी हुई है।

5,मंदिर में आज भी एक जलकुण्ड है जो देखने मे खौलता हुआ प्रतीत होता है, पर वास्तव मे पानी ठंडा है।

6,यहां मंदिर के अंदर 9 स्थानों पर दिव्य ज्योतियाँ निरंतर प्रज्ज्वलित होती है। ये नौ ज्योतियां माता महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका और अंजीदेवी को समर्पित हैं।

7,सम्राट अशोक यहाँ से निकलने वाली अग्नि की लपटों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। उन्होंने मंदिर में एक सोने की छत्री स्थापित करवाई, जो आज भी पानी से ज्वाला की रक्षा करती है।

8,इस जगह का एक अन्य आकर्षण ताम्बे का पाइप भी है, जिसमें से प्राकृतिक गैस का प्रवाह होता है।

9,मंदिर में आरती का समय सुबह 5 बजे व दोपहर 12 बजे है, इसके बाद शाम की आरती 7 और रात 10 बजे की जाती है।

10,दोनों नवरात्रि के दिनों में मंदिर के अन्दर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। अखंड देवी पाठ रखे जाते हैं और वैदिक मंत्रोच्चारण सहित हवन किया जाता है।

11,इस मंदिर से मात्र 4.5 कि.मी. की दूरी पर नगिनी माता का मंदिर है। इस मंदिर में जुलाई और अगस्त के माह में मेले का आयोजन किया जाता है।

12,मंदिर से करीब 5 कि.मी. की दूरी पर पांडवो द्वारा निर्मित रघुनाथ जी का मंदिर है, यह मंदिर प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और देवी सीता को समर्पित है।