भदोही के ज्ञान सरोवर का है पौराणिक इतिहास, सरोवर में स्नान करने से कोढ़ रोग हो जाता था खत्म
नितेश श्रीवास्तव ,भदोही। जिले के ज्ञान सरोवर का इतिहास काफी पुराना और पौराणिक है। प्राचीन काशी राज्य का एक हिस्सा आज का भदोही जनपद भी था, जो बनारस स्टेट के जमाने में भी जिला था. कोढ़ जिसे आजकल लोग ज्ञानपुर कहते हैं, यह भदोही का मुख्यालय था।
कालांतर में जब राज्यों का विलीनीकरण हुआ और भदोही को क्रमश मिर्जापुर और बाद में वाराणसी में मिला दिया गया, तब भी ज्ञानपुर तहसील मुख्यालय था. जो बाद में 2 तहसीलों में विभाजित हुआ और भदोही को एक अलग तहसील बना दिया गया. इसी ज्ञानपुर कोढ़ के मध्य में एक शंकर जी का प्राचीन मंदिर स्थित है, जिसका इतिहास लगभग 250 वर्ष पुराना है. यह मंदिर ज्ञानपुर नगर के मध्य में स्थित ज्ञान सरोवर के पश्चिमी किनारे पर पूर्वा विमुख स्थित हैं। सावन के दिनों में यहां पर भक्तों की भारी भीड़ देखी जाती है।
बताया जाता है कि इतिहास के पन्नों में यहां विशाल जंगल था. आज भी उन जंगलों का अवशेष देखा जा सकता है. जिसे सुंदरवन कहा जाता है. इन्हीं जंगलों के बीच बावड़ी के रूप में आज का ज्ञान सरोवर स्थित था. इसमें स्नान करने से उस समय कोढ़ जो एक बीमारी है वो दूर हो जाती थी. उस समय गांव गिराव में जिसे कोड़ हो जाता था, उसे कोढ़ी कहा जाता था और गांव से बाहर कर दिया जाता था. कोढ़ रोग के कारण गांव से बाहर किए गए लोग इस जंगल में आकर रहने लगे. भोजन के रूप में जंगली वनस्पति खाते थे और इसी बावड़ी में स्नान करते थे. इस बात का स्पष्ट प्रमाण तत्कालीन अभिलेखों में मिलता है. कि इस बावड़ी में स्नान करने वाले कोढ़ रोग से मुक्त हो जाते थे.इस बात का प्रचार धीरे-धीरे समूचे उत्तर प्रदेश, बिहार तथा मध्यप्रदेश तक हो गया. जो लोग कोढ़ से पीड़ित थे, वो इस रोग से मुक्ति के लिए इस स्थान पर आते थे।
इसी कारण इसका नाम कोढ़ रखा गया. इसके बाद में गोपीगंज रेलवे स्टेशन का नाम भी कोढ़ रखा गया. कोढ़ अब ज्ञानपुर के नाम से विख्यात है. गोपीगंज स्टेशन का नाम भी बदलकर ज्ञानपुर रोड कर दिया गया. भयानक कोढ़ रोग से मुक्ति का प्रचार-प्रसार इतना बढ़ा कि तमाम राजे रजवाड़ों और जमींदारों का भी ध्यान उधर गया।गंगापुर वाराणसी के जमींदार ठाकुर हरिहर सिंह ने इस बावड़ी का सुंदरीकरण कराया और एक कुएं का निर्माण कराया. उसी बावड़ी के किनारे एक विशाल शंकर जी के मंदिर का भी निर्माण कराया गया. कालांतर में वही बावड़ी ज्ञान सरोवर के नाम से विख्यात हुई और ठाकुर हरिहर सिंह के परिवार वालों ने उनकी स्मृति में मंदिर का नाम भी हरिहरनाथ मंदिर रख दिया. हरिहर शंकर जी को भी कहा जाता है।
अतः यह नाम काफी प्रचलित हुआ. धीरे-धीरे यहां स्थापित शिवलिंग की महिमा सिद्धपीठ के रूप में जानी जाने लगी. आज भी दावे के साथ यह कहा जाता है कि जिसने यहां आकर भगवान भोलेनाथ के मंदिर में निरीक्षल भाव से मनोकामना कि वह अवश्य पूरी होती है।
Jul 20 2024, 17:39