संस्कृतनिष्ठ भारतीय संस्कृति में ही है मूल्यपरक जीवन पद्धति का वर्णन : प्रो. पांडेय
गोरखपुर। काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के ज्योतिष विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. विनय कुमार पांडेय ने कहा कि यूनान, रोम, मिस्र, यूरोप समेत दुनिया के किसी भी देश के धर्मग्रंथ या इतिहास में जीवन पद्धति का उल्लेख नहीं है। जबकि संस्कृत से प्रस्फुटित वेदों, पुराणों से बनी भारतीय संस्कृति में ही मूल्यपरक जीवन पद्धति का वर्णन है। भारतीय संस्कृति ही एकमात्र ऐसी संस्कृति है जिसमें परिवार, समाज, राष्ट्र और यहां तक कि दुश्मनों के प्रति मर्यादा बताई गई है। अमर्यादित आचरण तभी होता है जब हम अपनी संस्कृति से विमुख होते हैं। मर्यादित आचरण का भान कराने वाली हमारी संस्कृति संस्कृतमूलक है और हमें अपनी भारतीय संस्कृति और संस्कृत पर गर्व होना चाहिए।
प्रो. पांडेय बुधवार को युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 55वीं और राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 10वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में समसामयिक विषयों के सम्मेलनों की श्रृंखला के चौथे दिन ‘संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति’ विषयक सम्मेलन को बतौर मुख्य अतिथि संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि संस्कृत पढ़ने और समझने वाला कभी भी भारतीय संस्कृति नहीं छोड़ सकता है। क्योंकि, संस्कृत का गहरा प्रभाव पड़ता है और संस्कृत से बनी भारतीय संस्कृति मन-मस्तिष्क को शुद्ध करती है। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति विकास और ज्ञान के समवेत स्वरूप को लेकर चलती है। हमारे यहां ज्ञान और विज्ञान साथ-साथ चले हैं। अध्यात्म, धर्म भारतीय संस्कृति के मूल अंग हैं। प्रो. पांडेय ने कहा कि संस्कृति को समझने के लिए हमें प्रकृति और विकृति को भी समझना पड़ेगा। उदाहरण के लिए भूख लगना प्रकृति है। भूख लगने पर जब समूह में लोगों का भोजन कोई एक ही छीन ले तो यह विकृति होगी जबकि सबके साथ मिल बांटकर खाना या फिर खुद भूखे रहकर अन्य जरूरतमंद लोगों को खिला देना संस्कृति कही जाएगी। और, यही भाव भारतीय संस्कृति का है। उन्होंने कहा कि आज जब पूरा विश्व अर्थवाद और बाजारवाद की चपेट में है, दूसरों का अधिग्रहण न करने का ज्ञान देने वाली भारतीय संस्कृति ही मार्गदर्शक नजर आती है। इसलिए आज पूरी दुनिया भारतीय संस्कृति का अनुपालन करने के लिए लालायित है।
*संस्कृति ने ही भारत को स्थायी गुलामी से बचाया*
प्रो. पांडेय ने कहा कि भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों की ही देन रही है कि भारत को स्थायी रूप से कोई गुलाम नहीं बना पाया। भारतीयों को उनकी संस्कृति से दूर करने के लिए विदेशी आक्रमणकारियों ने सबसे पहले संस्कृत ज्ञान परंपरा को मिटाने की कोशिश की। मैकाले की शिक्षा पद्धति इसका उदाहरण है क्योंकि उसे पता था कि जब तक भारत के घरों में संस्कृत है तब तक भारत को हमेशा के लिए गुलाम नहीं बनाया जा सकता।
*भारतीय संस्कृति कराती है कर्तव्य बोध*
प्रो. पांडेय ने कहा कि भारतीय संस्कृति कर्म प्रधान है। यह कर्तव्य का बोध कराती है। जबकि पश्चिमी देशों की संस्कृतियां अधिकारों पर जोर देती हैं। अधिकार प्रधान इन संस्कृतियों ने लोगों को कर्तव्यों से विमुख करना शुरू कर दिया। भारत के संस्कृतनिष्ठ ग्रंथों से हमेशा कर्तव्यों की राह दिखाई है। कारण, कर्तव्य करेंगे तो अधिकारों से कोई भी वंचित नहीं कर सकता है।
*विश्व की अन्य संस्कृतियों में मनुष्य उपभोक्ता*
प्रो. पांडेय ने कहा कि विश्व की अन्य संस्कृतियों में मनुष्य को प्रकृति का उपभोक्ता माना गया है। भारत की संस्कृति मनुष्य को प्रकृति का एक अंश मात्र, प्रकृति की श्रेष्ठ कृति और उसका संरक्षक मानती है। संस्कृत से आगे बढ़ी भारतीय संस्कृति ने सदैव ज्ञान, मूल्यों की स्थापना पर आधारित स्थायी विकास और विश्व बंधुत्व की भावना पर जोर दिया है।
*दो हजार वर्ष पूर्व थे दो ही विज्ञान, ज्योतिष और आयुर्वेद*
प्रो. पांडेय ने कहा कि भारतीय संस्कृति ने ज्ञान आधारित विज्ञान को अपनाया। उसने हमेशा यही माना है कि विज्ञान जरूरी है लेकिन हमें विनाश वाला विज्ञान नहीं चाहिए। पुरातन भारतीय संस्कृति इसीलिए पेड़ों को भी देवता मानती थी कि उसे पर्यावरण विज्ञान का संरक्षण करना था। उन्होंने कहा कि दो हजार वर्ष पूर्व दो ही विज्ञान थे, भारतीय ज्योतिष और आयुर्वेद। इसके अलावा दुनिया में और कोई विज्ञान नहीं था।
*किसी घटना के मूल में छिपा होता है संस्कृति का मूल*
प्रो. पांडेय ने कहा कि संस्कृति को सभ्यता और परंपरा से जोड़ देते हैं या तीनों को समानार्थी शब्द मान लेते हैं। जबकि हमें यह जानना होगा कि संस्कृति एक दिन में नहीं बनती है। समाज की घटनाओं के परिणामों से संस्कृति बनती है। किसी घटना के मूल में संस्कृति का मूल छिपा होता है। उन्होंने कहा कि बार-बार होने वाली घटनाएं परंपरा वन जाती हैं और जब इसका समाज पर सकारात्मक परिणाम दिखने लगे तो यह संस्कृति बनती है। उन्होंने कहा कि 19वीं शताब्दी तक दुनिया रोम, यूनान और बेबीलोन की संस्कृति से आकर्षित थी। तब यह मान लिया गया था कि जीवन पद्धति का विकास इन्हीं संस्कृतियों से हुआ है। पर, 20वीं शताब्दी में जब विदेशी विद्वानों के भारतीय संस्कृति को लेकर शोधपरक लेख आते हैं तब दुनिया की आंख खुलती है।
*एकाकार रूप में हैं संस्कृत और भारतीय संस्कृति : डॉ. लक्ष्मी मिश्रा*
सम्मेलन में विषय प्रवर्तन करते हुए दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग की सह आचार्य एवं समन्वयक डॉ. लक्ष्मी मिश्रा ने कहा कि भारतीय सभ्यता और मनीषा में संस्कृत और संस्कृति को कभी पृथक रूप में नहीं देखा जा सकता। हमारे सभी वेदों, वेदांगों और पुराणों, दर्शनों समेत सभी वैदिक विद्याओं की रचना संस्कृत में ही है। ये वैदिक विद्याएं ही हमें संस्कृति देती हैं। इसलिए संस्कृत केवल भाषा नहीं है अपितु संस्कृति की जननी है। डॉ. मिश्रा ने कहा कि संस्कृति का सीधा संबंध संस्कार से है। संस्कृति को जानना अर्थात संस्कृति से जुड़ना और यदि संस्कृति से जुड़ना है तो हमें संस्कृत को आत्मसात करना ही होगा। उन्होंने कहा कि संस्कृत सृजित भारतीय संस्कृति मुख्यतः आध्यात्मिकता पर केंद्रित है। महायोगी गुरु गोरखनाथ ने भी इसी आध्यात्मिक संस्कृति को जन-जन से जोड़ने का व्यापक अभियान चलाया। डॉ. मिश्रा ने कहा कि संस्कृत और भारतीय संस्कृत के पोषण में गोरक्षपीठ और इसके श्रीमहंतों का माननीय योगदान रहा है। यह संस्कृत और संस्कृति की ध्वजवाहक पीठ है। उन्होंने कहा कि भारत में जब संस्कृत को त्रिभाषा से पृथक किया जा रहा था तब इस पीठ की अगुवाई में इस कृत्य का मुखर विरोध किया गया। संस्कृत और संस्कृति के उन्नयन में इस पीठ के महंत दिग्विजयनाथ जी, महंत अवेद्यनाथ जी और वर्तमान में योगी आदित्यनाथ जी की भूमिका अनिर्वचनीय है।
*संस्कृत से प्रस्फुटित हुई है भारतीय संस्कृति : प्रो. कमलचंद्र*
सम्मेलन को संबोधित करते हुए केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर के पूर्व आचार्य प्रो. कमलचचंद्र योगी ने कहा कि आज एक बार फिर पूरा विश्व भारत की आध्यात्मिक संस्कृति की महत्ता को स्वीकार कर रहा है। यह आध्यात्मिक संस्कृति, संस्कृत से ही प्रस्फुटित हुई है। संस्कृत और भारतीय संस्कृति को कभी विलग नहीं किया जा सकता है। संस्कृत ने न सिर्फ अध्यात्म बल्कि जीवन के भौतिक पक्ष का भी मार्गदर्शन करने वाले ज्ञान का प्रादुर्भाव किया है। आध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही दृष्टिकोण से यदि भारतीय संस्कृति दुनिया में बहुमूल्य है तो इसका श्रेय भी संस्कृत को जाता है। उन्होंने कहा कि जब पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण का दौर शुरू हुआ तो गोरक्षपीठ ने संस्कृत और भारतीय संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का बीड़ा उठाया। सवाई, आगरा से आए ब्रह्मचारी दासलाल ने कहा कि संस्कृत वैज्ञानिक भाषा है। भारतीय संस्कृति, संस्कृत पर ही आश्रित है। उन्होंने कहा कि हमारी संस्कृति एक माला के रूप में है जिसमे वेद, वेदांग, पुराण आदि मनके हैं तो इन मनकों को माला में पिरोने वाली संस्कृत धागे की भूमिका में है।
सम्मेलन की अध्यक्षता गोरखनाथ मंदिर के प्रधान पुजारी योगी कमलनाथ, आभार ज्ञापन महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के सदस्य डॉ. शैलेंद्र प्रताप सिंह संचालन माधवेंद्र राज, वैदिक मंगलाचरण डॉ रंगनाथ त्रिपाठी, गोरक्षाष्टक पाठ आदित्य पाण्डेय व गौरव तिवारी ने किया।
इस अवसर पर दिगम्बर अखाड़ा, अयोध्या के महंत सुरेशदास, नासिक महाराष्ट्र से पधारे योगी डॉ. विलासनाथ, कटक उड़ीसा से आए महंत शिवनाथ, अयोध्या से आए महंत राममिलनदास, काशी से पधारे महामंडलेश्वर संतोष दास उर्फ सतुआ बाबा, नीमच मध्य प्रदेश से आए योगी लालनाथ, देवीपाटन शक्तिपीठ, तुलसीपुर के महंत मिथलेशनाथ, जबलपुर से आए महंत नरसिंह दास, कालीबाड़ी के महंत रविन्द्रदास, दिग्विजयनाथ पीजी कॉलेज के प्राचार्य डॉ. ओमप्रकाश सिंह आदि प्रमुख रूप से उपस्थित रहे।
Sep 18 2024, 20:36