संत प्रेमानंद का कथन समाज के लिए आईना : एडवोकेट नमिता झा
वाराणसी। आज कल संत प्रेमानंद महाराज के बयान पर घमासान मचा हुआ है। भले ही कई लोग उनके बयान पर असहमति जताते हों, लेकिन इसमें एक कटु यथार्थ छिपा है, जिसे नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं है। आधुनिकता की चकाचौंध में आज का युवा वर्ग परंपरा, संस्कृति और सामाजिक मर्यादा को भूलता जा रहा है। रिश्तों में स्थिरता और विश्वास की जगह अब दिखावा और क्षणिक आकर्षण ने ले ली है। यही कारण है कि विवाह संस्था, जो हमारे समाज का आधार स्तंभ मानी जाती है, आज सबसे अधिक खतरे में है।
महाराज का कहना कि "आज के समय में 100 में से मुश्किल से दो-चार लड़कियां ही पवित्र जीवन जी रही हैं", भले ही एक कठोर अभिव्यक्ति लगे, लेकिन यह समाज की वर्तमान दशा का एक आईना भी है। सोशल मीडिया और फिल्मों ने युवा पीढ़ी के सामने ऐसा जीवनशैली मॉडल प्रस्तुत किया है, जिसमें बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड बनाना एक सामान्य फैशन बन चुका है। यह तथाकथित "प्रेम" दरअसल क्षणिक आकर्षण और शारीरिक चाहत पर आधारित होता है। नतीजा यह निकलता है कि कई बार युवाओं के परिवार बर्बाद हो जाते हैं, आत्महत्या जैसी घटनाएं सामने आती हैं और तलाक के मामलों में तेजी से वृद्धि होती है।
एक अधिवक्ता के रूप में न्यायालय में रोजाना देखे जाने वाले घरेलू हिंसा और तलाक के मामलों से यह सच्चाई और स्पष्ट हो जाती है। हर दिन 15–20 मामले दर्ज होना यह बताता है कि हमारे समाज में विवाह संस्था कितनी कमजोर हो चुकी है। हजारों मुकदमे सालों से लंबित हैं, जिनमें पति-पत्नी एक-दूसरे के खिलाफ आरोप-प्रत्यारोप की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह सब उसी अस्थिर मानसिकता और असंयमित जीवनशैली का परिणाम है, जिसकी ओर संत प्रेमानंद इशारा कर रहे हैं।
समाज में यह भी देखा गया है कि जो युवक-युवतियां बार-बार अलग-अलग संबंधों में पड़ते हैं, उनके भीतर स्थायी और समर्पित संबंध निभाने का धैर्य कम हो जाता है। ऐसी स्थिति में विवाह जैसी पवित्र संस्था मात्र औपचारिकता बनकर रह जाती है। जबकि भारतीय संस्कृति में विवाह केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं बल्कि दो परिवारों का पवित्र बंधन माना जाता है।
जरूरत इस बात की है कि हम आधुनिकता को अपनाते हुए भी अपनी जड़ों और संस्कृति को न भूलें। मर्यादा, संयम और पवित्रता ही जीवन को संतुलित और खुशहाल बना सकते हैं। यदि समय रहते हमने इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया, तो वह दिन दूर नहीं जब भारतीय संस्कृति केवल किताबों और स्मृतियों तक सीमित रह जाएगी। तब हमारे पास पछतावे के सिवा कुछ नहीं बचेगा।
संत प्रेमानंद जी महाराज का बयान भले ही तीखा लगे, लेकिन यह समाज को आईना दिखाने वाला है। हमें इसे आलोचना की दृष्टि से नहीं, बल्कि आत्ममंथन के अवसर के रूप में लेना चाहिए। केवल तभी हम अपने समाज और परिवार की उस पवित्रता को बचा पाएंगे, जो भारतीय सभ्यता की पहचान है।
Aug 19 2025, 19:02