भगवान शिव का एक प्राचीन मंदिर, जहां आज भी खौलता रहते है पानी, जुड़ी है रहस्यमयी कहानी भगवान शिव के क्रोध से।

भारत में भगवान शिव के बहुत से प्राचीन और चमत्कारी मंदिर हैं. इन सभी मंदिरों में अलग-अलग तरह के रहस्य और चमत्कार देखने को मिलते हैं. जिसमें किसी मंदिर का शिवलिंग साल दर साल बढ़ रहा है, तो कोई शिव मंदिर कलयुग के अंत का संकेत देता है. उन्हीं में से एक भगवान शिव का एक ऐसा मंदिर भी है. जहां कड़कती ठंड में भी पानी उबलता रहता है. यह आज भी एक रहस्य बना हुआ है. जिसका पता आज तक कोई भी वैज्ञानिक भी नहीं लगा पाया है. वहीं इस मंदिर और यहां के उबलते पानी से जुड़ी भगवान शिव की एक कथा प्रचलित है. आइए जानते हैं कि आखिर कहां है यह रहस्यमयी मंदिर और क्या है इसकी कहानी?

कहां है ये मंदिर?

भगवान शिव का यह अनोखा और रहस्यमयी मंदिर हिमाचल प्रदेश में कुल्लू से लगभग 45 किलोमीटर दूर मणिकर्ण में स्थित हैं. यह हिंदू और सिख दोनों ही धर्मों का एक ऐतिहासिक धार्मिक स्थल है. मणिकर्ण से होकर पार्वती नदी बहती है, जिसके एक तरफ शिव मंदिर है और दूसरी तरफ गुरु नानक देव का ऐतिहासिक गुरुद्वारा है, जिसे मणिकर्ण साहिब के नाम से जाना जाता है. यहां का उबलता पानी आज भी एक रहस्य है, जिसके बारे में विज्ञान भी कुछ नहीं बता पाया है.

क्या है कहानी?

भगवान शिव के इस मंदिर से जुड़ी एक कथा बहुत प्रचलित हैं. वैसे तो शिव जी को भोलेनाथ कहा जाता है, लेकिन जब वह क्रोध आता है तब उनके प्रकोप से कोई भी नहीं बचता है. कथा के अनुसार, एक बार नदी में क्रीड़ा करते हुए माता पार्वती की के कान का कुंडल का मणि पानी में गिर गया था. जो बहते हुए पाताल लोक पहुंच गया था. जिसके बाद भगवान शिव ने मणि को ढूंढने के लिए अपने गणों को भेजा, लेकिन बहुत ढूंढने पर भी वह उन्हें मणि नहीं मिली. जिससे भगवान शिव नाराज हो गए और अपना विकराल रूप धारण कर अपने तीसरा नेत्र खोल लिया. महादेव के क्रोध के कारण नदी का पानी उबलने लगा, जो आज भी है.

भगवान शिव का यह विकराल रूप देखकर नैना देवी प्रकट हुई और उन्होंने पाताल में जाकर शेषनाग से भगवान शिव को यह मणि वापस लौटाने को कहा. जिसके बाद शेषनाग ने महादेव को माता पार्वती की मणि लौटा दी. शेषनाग ने पाताल लोक से जोर की फुंकार भरी और जगह-जगह ढेर सारी मणियां भी धरती लोक पर आ गईं. माता पार्वती की मणि मिलने के बाद भगवान शिव ने उन सभी मणियों को पत्थर बनाकर नदी में वापस डाल दिया.

स्नान करने से मिलती है रोगों से मुक्ति

यहां लोगों की मान्यता है कि जो भी इस पवित्र जल में स्नान करता है. उनके सभी त्वचा के रोग खत्म हो जाते हैं. इसके अलावा मान्यता है कि श्रीराम ने कई बार इस जगह पर भगवान शिव की आराधना और तपस्या की थी. आज भी श्रीराम की तपस्या स्थली मणिकर्ण में भगवान राम का एक पुराना और भव्य मंदिर है.

Disclaimer: इस खबर में दी गई जानकारी धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. हम इसकी पुष्टि नहीं करता है.

एक ऐसा मंदिर जहां दर्शन करने से दूर होती है आंखों से जुड़ी सभी परेशानियां, जानें क्या है मान्यता

भारत में देवी-देवताओं के बहुत से प्राचीन मंदिर हैं. इन मंदिरों से जुड़ी मान्यताओं के चलते यहां साल भर भक्तों की भीड़ लगी रहती है. जिनमें से एक मंदिर ऐसा भी है जहां देवी मां के दर्शन मात्र से लोगों की आंखों से जुड़ी सभी परेशानियां दूर होती हैं. साथ ही लोगों का यह भी मानना है कि यहां भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

कहां है यह मंदिर?

देवी मां का यह अनोखा मंदिर देवभूमि उत्तराखंड में नैनीताल झील के उत्तरी छोर में स्थित है. इस मंदिर का नाम नैना देवी मंदिर हैं. यह मंदिर माता सती के 51 शक्तिपीठों में एक हैं.

यहां गिरे थे माता सती के नेत्र

पौराणिक कथा के अनुसार जब भगवान शिव माता के मृत शरीर को लेकर कैलाश जा रहे थे, तब अलग-अलग स्थानों पर माता के शरीर के अंग गिरे. जहां भी वह अंग गिरे, उन जगहों को माता के शक्तिपीठ स्थापित हो गए. यहां माता सती के नेत्र गिरे थे. इस मंदिर में मां दो नेत्र के रूप में विराजमान है.

आंखों का इलाज

नैना देवी मंदिर के प्रति लोगों की अटूट आस्था है. यहां भक्त अपनी आंखों की बीमारी के साथ आते हैं और माता के आशीर्वाद से उनकी आंखों से जुड़ी सभी परेशानियां दूर हो जाती हैं. यहां हर तरह की आंखों की बीमारियों से मुक्ति मिल जाती है. मंदिर की अनोखी मान्यता के चलते यहां पूरे साल भक्तों की भीड़ लगी रहती है.

गणेश जी के साथ है विराजमान

इस मंदिर में माता गर्भगृह में विराजमान है. वही उनके साथ भगवान गणेश और माता काली की भी विराजमान हैं.

वार्षिक महोत्सव

इस मंदिर में हर साल सितंबर माह में नंदा अष्टमी के दिन नैना देवी महोत्सव का आयोजन किया जाता है. जो कि आठ दिन तक चलता है. इस दौरान सुबह ब्रह्म मुहूर्त में माता सुनंदा का डोला भक्तों को दर्शन के लिए मंदिर प्रांगण में रखा जाता है. जिसके बाद तीन से पांच दिन बाद इसे पूरे नगर में घुमाया जाता है. फिर रात्रि में इस नैनी झील में विसर्जित कर दिया जाता है. इसके साथ ही पास के मैदान में एक मेले का आयोजन भी किया जाता है.

Disclaimer:इस खबर में दी गई जानकारी धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. हम इसकी पुष्टि नहीं करता है.

मां चामुंडा ने की थी चील बनकर जोधपुर के लोगों की रक्षा,मंदिर में दर्शन करने से होती हैं मनोकामनाएं पूरी

दुनिया भर में बहुत से प्राचीन और चमत्कारी मंदिर हैं. जो अपनी अनोखी मान्यताओं के चलते प्रचलित हैं. भारत में देवी मां का ऐसा मंदिर भी हैं, जहां देवी मां ने चील बनकर लोगों की रक्षा की थी. देवी मां के इस मंदिर हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते है. मान्यता है कि इस मंदिर मे दर्शन करने और सच्चे मन से मांगी गई मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

कहां है यह मंदिर

मेहरानगढ़ दुर्ग में मां काली का एक प्राचीन और विशाल मंदिर स्थित है. मेहरानगढ़ की तलहटी में मां चामुंडा की प्रतिमा को स्थापित किए किया गया हैं जोधपुर की स्थापना के साथ ही मेहरानगढ़ की पहाड़ी पर जोधपुर के किले पर इस मंदिर को स्थापित किया गया था. मां चामुंडा देवी को अब से लगभग 561 साल पहले मंडोर के परिहारों की कुलदेवी के रूप में पूजा जाता था.

चील बनकर की रक्षा

मां चामुंडा माता के प्रति अटूट आस्था कारण यह बताया जाता है. कि साल 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान जोधपुर पर गिरे बम को उस समय मां चामुंडा चील बनकर जोधपुर के लोगों की रक्षा की थी . इसके अलावा बताया जाता है कि किले में 9 अगस्त 1857 को गोपाल पोल के पास बारूद के ढेर पर बिजली गिरी थी. इस दौरान मंदिर तो टूट गया था, लेकिन मंदिर की मूर्ति को खरोंच तक नहीं आई थी. इसलिए जोधपुरवासी मां चामुंडा को जोधपुर की रक्षक मानते है.

पूरी होती है मनोकामना

मां चामुंडा के इस मंदिर में दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं का बारह महीने लगा रहता है. मां चामुंडा के मुख्य मंदिर का विधिवत निर्माण महाराजा अजीतसिंह ने करवाया था. मारवाड़ के राठौड़ वंशज चील को मां दुर्गा का स्वरूप मानते हैं. राव जोधा को माता ने आशीर्वाद में कहा था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी तब तक दुर्ग पर कोई विपत्ति नहीं आएगी. इसके आलावा लोगों का मानना है कि माता इस मंदिर में माता आए भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं.

साल में एक बार खुलता है ये रहस्यमयी मंदिर, जहां सालभर जलता है दीपक और ताजे रहते हैं फूल

भारत को मंदिरों के देश कहा जाता हैं. यहां बहुत से चमत्कारी और रहस्यमयी मंदिर हैं. इन मंदिर में छिपे रहस्यों की गुत्थी आज तक कोई नहीं सुलझा पाया है. यह मंदिर अपने रहस्यों के चलते पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. यहां होने वाले चमत्कारों को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं. इस लेख में हम एक ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहें हैं जिनके कपाट सिर्फ दिवाली के दौरान खोले जाते हैं. इसके बाद मंदिर में भगवान के सामने दीपक जलाने के बाद पुष्प चढ़ाएं जाते है, लेकिन एक साल बाद भी दीपक भी जलता रहता है और फूल भी ताजे रहते है.

कहां है यह मंदिर?

यह रहस्यमयी मंदिर बेंगलुरु से लगभग 180 किलोमीटर दूर कर्नाटक के हासन जिले में स्थित है. इस मंदिर को हसनंबा मंदिर के नाम से जाना जाता है. इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में कराया गया था. इससे पहले सिहामासनपुरी के नाम से जाना जाता था, जो इसके ऐतिहासिक महत्व को दर्शाता था. इस मंदिर की कई खासियत है, जो इस अन्य मंदिरों से अलग बनाती है.

सालभर जलता है दीपक, ताजे रहते हैं फूल

दिवाली के दौरान इस मंदिर में दूर-दूर से भक्त दर्शन करने आते हैं. कहा जाता है कि इस मंदिर के कपाट दिवाली के दौरन सिर्फ 7 दिनों के लिए खोले जाते हैं. मंदिर के कपाट खुलने पर यहां हजारों की संख्या में भक्त मां जगदम्बा के दर्शन और उनसे आशीर्वाद पाने के लिए यहां पहुंचते हैं. जिस दिन इस मंदिर के कपाट को बंद किया जाता है, उस दिन मंदिर के गर्भगृह में शुद्ध घी का दीपक जलाया जाता है. साथ ही मंदिर के गर्भगृह को फूलों से सजाया जाता है और चावल से बने व्यंजनों को प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है. स्थानीय लोगो को कहना है कि एक साल बाद जब दिवाली पर दोबारा मंदिर के कपाट खोले जाते हैं तब दीपक भी जलता रहता है और फूल भी नहीं मुरझाते

7 दिनों तक चलता है उत्सव

दिवाली के दौरान जब हसनंबा मंदिर के कपाट खोले जाते हैं. इस दौरान सभी भक्त मां जगदंबा के दर्शन करते हैं. मंदिर में हसनंबा देवी माता की 1 सप्ताह तक पूजा-पाठ होती है और अंतिम दिन मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं, जिसके बाद फिर अगले साल ही खुलते हैं.

मंदिर से जुड़ी कथा है प्रचलित

हसनंबा मंदिर से जुड़ी कई कथाएं प्रचलित हैं. जिसमें से एक कथा के अनुसार, अंधकासुर नाम के एक राक्षस था. जिसने कठोर तपस्या कर ब्रह्मा जी को प्रसन्न कर अदृश्य होने का वरदान प्राप्त किया. ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करने के बाद अंधकासुर ने मनुष्यों और ऋषि- मुनियों को परेशान करने लगा. ऐसे में भगवान शिव ने उस राक्षस का वध करने का जिम्मा उठाया. लेकिन उस राक्षस के खून की एक-एक बूंद राक्षस बन जाते थे. तब उसके वध के लिए भगवान शिव ने तपयोग से योगेश्वरी देवी का निर्माण किया, जिन्होंने अंधकासुर का नाश कर दिया.

नोट:इस खबर में दी गई जानकारी धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है,हम इसकी पुष्टि नहीं करता है.

मथुरा के गोवर्धन में स्थित राधा कुंड: एक पवित्र और रहस्यमयी स्थल जहां रात के 12 बजे स्नान करने से पूरी होती है मनोकामना

श्री कृष्ण की नगरी मथुरा के गोवर्धन में अहोई अष्टमी की रात 12 बजे राधा कुंड में स्नान करने की परंपरा है. इस दौरान लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां पहुंचेंगे और राधा कुंड में और आस्था की डुबकी लगाएंगे. इस जगह दो कुंड हैं एक कृष्ण कुंड और दूसरा राधा कुंड, लेकिन मान्यता के अनुसार अहोई अष्टमी के दिन जो भी दंपति राधा कुंड में साथ में स्नान करते हैं उनको संतान सुख की प्राप्ति होती है. कहा जाता है कि राधा रानी स्वयं दंपति को जल रूप में संतान प्राप्ति का आशीर्वाद देती हैं, जिस वजह संतान प्राप्ति के आशीर्वाद के लिए लाखों की संख्या में श्रद्धालु गोवर्धन आते हैं.

मान्यता के अनुसार द्वापर युग में जब भगवान कृष्ण गौ चारण लीला कर रहे थे तभी एक राक्षस सभी गायों के बीच गाय का रूप धारण कर उन्हें मारने लगा था. ऐसे में भगवान भगवान कृष्ण उस गाय राक्षस को पहचान गए थे और उसका वध कर दिया. हालांकि जैसे इस बात की जानकारी राधा रानी को लगी तो उन्होंने भगवान कृष्ण को कहा कि आपको गौ हत्या का पाप लगा है, जिस वजह से आप जाकर सभी तीर्थ का स्नान करें. ऐसे में पाप से प्रायश्चित के तौर पर श्रीकृष्ण ने अपनी बांसुरी से कुंड बनवाया और उसमें तीर्थ स्थानों के पानी को वहां इकट्ठा कर स्नान किया.

कैसे पड़ा नाम?

इस कुंड के बगल में श्री राधा जी ने अपने कंगना की मदद से एक कुंड और तीर्थ स्थान के जल एकत्रित कर उसमें स्नान किया. भगवान कृष्ण ने राधा रानी से खुश होकर कुंड को राधा कुंड का नाम दिया और वरदान दिया कि जो भी दंपति अहोई अष्टमी की मध्य रात्रि के बीच यहां स्नान करेगा उसे संतान की प्राप्ति होगी. तभी से ये मान्यता चली आ रही है.

पुलिस प्रशासन ने व्यवस्था की चाक चौबंद

शासन प्रशासन ने गुरुवार और शुक्रवार की मध्य रात्रि में होने वाले स्नान को लेकर तैयारियां पूर्ण कर ली गई है. पुलिस ने राधा कुंड में जगह-जगह बैरिकेडिंग भी लगा दी है, जिससे किसी तरह की अनहोनी ना हो

महाराष्ट्र का अद्वितीय मंदिर: अंबरनाथ शिव मंदिर की खास बातें,जाने

महाराष्ट्र में मुंबई के पास अंबरनाथ शहर में अंबरनाथ मंदिर स्थित है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है और इसे अंबरेश्वर के नाम से भी जाना जाता है। मंदिर में मिले शिलालेख के अनुसार, इस मंदिर का निर्माण 1060 ईं में राजा मांबाणि ने करवाया था। इस मंदिर को पांडवकालीन मंदिर भी बताया जाता है। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इस मंदिर जैसा पूरे विश्व में कोई मंदिर नहीं है। अंबरनाथ शिव मंदिर के पास कई ऐसे नैसर्गिक चमत्कार हैं, जिससे इसकी मान्यता बढ़ती जाती है। आइए जानते हैं इस मंदिर के बारे में खास बातें…

ऐसा है यहां का शिवलिंग

अंबरनाथ शिव मंदिर अद्वितीय स्थापत्य कला के लिए प्रसिद्ध है। 11वीं शताब्दी में बने इस मंदिर के बाहर दो नंदी बैल बने हुए हैं। मंदिर के प्रवेश के लिए तीन मुखमंडप हैं। अंदर जाते हुए सभामंडप तक पहुंचते हैं और फिर सभामंडप के बाद 9 सीढ़ियों के नीचे गर्भगृह स्थित है। मंदिर की मुख्य शिवलिंग त्रैमस्ति की है और इनके घुटने पर एक नारी है, जो शिव-पार्वती के रूप को दर्शाती है। शीर्ष भाग पर शिव नृत्य मुद्रा में दिखाई देते हैं।

पेडों के बीच में स्थित है यह मंदिर

मंदिर के गर्भगृह के पास गर्म पानी का कुंड भी है। इसके पास ही एक गुफा भी है, जो बताया जाता है कि उसका रास्ता पंचवटी तक जाता है। यूनेस्को ने अंबरनाथ शिव मंदिर सांस्कृतिक विरासत घोषित किया है। वलधान नदी के तट पर स्थित यह मंदिर आम और इमली के पेड़ से घिरा हुआ है।

आकर्षित करती हैं यहां की मूर्तियां

मंदिर की वास्तुकला देखते ही बनती है, जिससे यहां देश-विदेश से कई लोग आते हैं। मंदिर की बाहर की दिवारों पर भगवान शिव के अनेक रूप बने हुए हैं। इसके साथ ही गणेश, कार्तिकेय, चंडिका आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां से सजा हुआ है। साथ ही देवी दुर्गा की असुरों का नाश करते हुए भी दिखाया गया है।

हर साल मेले का होता है आयोजन

मंदिर के अंदर और बाहर कम से कम ब्रह्मदेव की 8 मुर्तियां बनी हुई हैं। साथ ही इस जगह के आसपास कई जगह प्राचीन काल की ब्रह्मदेव की मुर्तियां हैं, जिससे पता चलता है कि यहां पहले ब्रह्मदेव की उपासना होती थी। शिवरात्रि के अवसर पर यहां मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला 3-4 दिनों तक लगाया जाता है, तब यहां काफी भीड़ देखी जा सकती है।

एक ही रात में बनया था यह विशाल मंदिर

बताया जाता है कि अज्ञातवास के दौरान पांडव कुछ वर्ष अंबरनाथ में बिताए थे, तब उन्होंने विशाल पत्थरों से एक ही रात में इस मंदिर का निर्माण किया था। फिर कौरवों द्वारा लगातार पीछे किए जाने के भय से यह स्थान छोड़कर चले गए। जिससे मंदिर का कार्य पूरा नहीं हो सका। सालों से मौसम की मार झेल रहा यह मंदिर आज भी खड़ा है।

आखिर क्यों है प्रसिद्ध कोलकाता का कालीघाट मंदिर,जानें इनकी पौराणिक इतिहास,और महत्व

भारत को मंदिरों की भूमि के रूप में जाना जाता है। अनुमान है कि भारत में 20 लाख मंदिर हैं। कालीघाट मंदिर हिंदू देवी काली को समर्पित है और यह भारत के सबसे प्रसिद्ध काली मंदिरों में से एक है। यह आदि गंगा के तट पर स्थित है, जो हुगली नदी से मिलने वाली एक छोटी सी नहर है। कालीघाट मंदिर धार्मिक लोगों के बीच प्रसिद्ध है। हर दिन हज़ारों काली भक्त मंदिर में आते हैं और पूजा करते हैं। यह एक शक्ति पीठ है। कालीघाट मंदिर उस स्थान पर बनाया गया है जहाँ देवी सती के दाहिने पैर की उंगलियाँ गिरी थीं।

इतिहास

कालीघाट मंदिर से जुड़ी कई कहानियाँ हैं। सबसे लोकप्रिय कहानियों में से एक आत्मा राम नामक ब्राह्मण की है, जिसने भागीरथी नदी में एक मानव पैर के आकार की संरचना देखी। लोगों का मानना है कि उसे एक प्रकाश की किरण द्वारा निर्देशित किया गया था जो पानी से आती हुई प्रतीत हो रही थी। ब्राह्मण ने पत्थर के टुकड़े की प्रार्थना की। उसे सपने में बताया गया कि पैर की अंगुली देवी सती की है। उसे अपने सपनों में एक मंदिर स्थापित करने के लिए कहा गया। उसे नकुलेश्वर भैरव के स्वंभु लिंगम की तलाश करने के लिए भी कहा गया। ब्राह्मण ने शंभु लिंगम पाया, और लिंगम और पैर के आकार की संरचना की पूजा करना शुरू कर दिया।

कालीघाट मंदिर का संदर्भ पंद्रहवीं शताब्दी के मानसर भाषन के संश्लेषण और कवि चंडी में पाया गया है, जिसे सत्रहवीं शताब्दी के दौरान वितरित किया गया था। कालीघाट काली मंदिर का उल्लेख लालमोहन बिद्यानिधि के 'संबंदा निर्णय' में भी किया गया है। वर्तमान मंदिर 200 साल पुराना है और इसे उन्नीसवीं शताब्दी में बनाया गया था। जेसोर के राजा, राजा बसंत रॉय ने मूल मंदिर का निर्माण कराया था।

पौराणिक महत्व

यह स्थान हिंदू लोगों के लिए धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी सती ने अपने पिता के घर पूजा सेवा के लिए स्वागत न किए जाने पर अपने पिता से झगड़ा करने के बाद खुद को शांति अग्नि में जिंदा जला लिया था। भगवान शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने सती के शरीर को अपने कंधे पर रख लिया। उन्होंने तांडव नृत्य करना शुरू कर दिया। स्वर्ग के देवता घबरा गए और भयभीत हो गए। उन्होंने भगवान विष्णु से हस्तक्षेप करने के लिए कहा। भगवान विष्णु ने तब सती के शरीर को कई टुकड़ों में काट दिया, और वे टुकड़े धरती पर गिर गए। ऐसा माना जाता है कि कालीघाट वह स्थान है जहाँ सती के दाहिने पैर की उंगलियाँ गिरी थीं।

देवी काली को हिंदू धर्म की एक असाधारण रूप से भयावह देवी के रूप में देखा जाता है। उन्हें एक रक्षक और एक विध्वंसक के रूप में भी जाना जाता है। देवी काली की पूजा हजारों लोग करते हैं जो भारत और दुनिया के दूर-दूर से आते हैं। यहाँ, देवी काली की मूर्ति देवी काली की अन्य मूर्तियों से अलग है। मूर्ति में तीन प्रमुख आँखें, चार हाथ और एक लंबी उभरी हुई जीभ शामिल है। मूर्ति को आत्माराम गिरि और ब्रह्मानंद गिरि द्वारा बलुआ पत्थर से बनाया गया है। देवी के एक हाथ में शैतान भगवान शुंभ का सिर है। दूसरे हाथ में एक तलवार है जो दर्शाती है कि मानव अहंकार को स्वर्गीय जानकारी द्वारा मार दिया जाना चाहिए और हमारे व्यवहार के तरीकों से समाप्त कर दिया जाना चाहिए। इसी तरह कोई मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

कालीघाट मंदिर का महत्व

कालीघाट मंदिर सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले काली मंदिरों में से एक है। पूरे भारत से देवी काली के भक्त दिवाली के दौरान काली पूजा के लिए यहाँ आते हैं, हिंदू महीने अश्विन के महीने में। काली पूजा बहुत उत्साह और उमंग के साथ मनाई जाती है। दुर्गा पूजा भी बहुत उत्साह और जोश के साथ मनाई जाती है। दुर्गा पूजा के दौरान सड़कों पर भीड़ रहती है और पूजा के दौरान दृश्य बहुत शानदार और देखने लायक होते हैं। इस मंदिर की स्नान यात्रा भी बहुत प्रसिद्ध है। पुजारी अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर मूर्तियों को स्नान कराते हैं। मंदिर में लोगों की भीड़ हो जाती है, जिससे भक्तों को संभालना मुश्किल हो जाता है। यह मंदिर अपनी खूबसूरत और अनूठी वास्तुकला के लिए जाना जाता है। देवी षष्ठी, शीतला और मंगल चंडी का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन पत्थर हैं। यहाँ सभी पुजारी महिलाएँ हैं।

माना जाता है कि मंदिर में एक कुंड है जिसमें गंगा का पानी है, जिसे बहुत पवित्र माना जाता है। इस स्थान को काकू-कुंड के नाम से जाना जाता है। भक्तों का मानना ​​है कि कुंड में स्नान करने से कई लाभ होते हैं। ऐसा माना जाता है कि कई निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिए यहाँ स्नान करते हैं। स्नान घाट को जोर-बांग्ला के नाम से जाना जाता है। बलि हरकठ ताला नामक स्थान पर दी जाती है। राधा कृष्ण को समर्पित एक स्थान भी है, जिसे शमो-रे मंदिर के नाम से जाना जाता है।

निष्कर्ष

कालीघाट मंदिर कोलकाता के सबसे पवित्र स्थलों में से एक है और यह एक शीर्ष पर्यटन स्थल है। ऐसा माना जाता है कि कलकत्ता नाम कालीघाट से ही लिया गया है। इसे सभी 52 मार्गों में सबसे पवित्र पीठ के रूप में जाना जाता है। यह आदि गंगा के तट पर स्थित है। इस मंदिर का हिंदू भक्तों के दिलों में एक विशेष स्थान है, जो देवी काली का आशीर्वाद लेने के लिए बड़ी संख्या में मंदिर में आते हैं। कोलकाता त्योहारों का शहर है, और त्योहारों के दौरान अधिक भक्त मंदिर में आते हैं।

भगवान शिव का एक अनोखा शिवालय, जहां चिता की आग से जलाई जाती है आरती की ज्योत"

वैसे तो उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर में भस्म आरती होती है और वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में भी आरती के लिए चिता की अग्नि का इस्तेमाल किया जाता है। भगवान शंकर के ये दोनों ही मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त अगर देश में कोई अन्य ऐसा शिवालय है जहां आरती की ज्योत प्रज्जवलित करने के लिए जलती हुई चिता की लकड़ी का सहारा लिया जाता है, तो वह है कोलकाता के नीमतल्ला घाट के समीप बना बाबा भूतनाथ मंदिर।

जी हां, बाबा भूतनाथ मंदिर भले ही द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल न हो, इसके बावजूद यह शिवभक्तों की अटूट आस्था और विश्वास का केंद्र है। जानकारों के अनुसार मंदिर करीब सवा 300 साल पुराना है, जिसकी स्थापना नीमतल्ला श्मशान घाट पर रहने वाले एक अघोरी बाबा ने की थी। शुरूआती दिनों में मंदिर के नाम पर केवल एक शिवलिंग था और अघोरी बाबा के अलावा आसपास के अन्य लोग जलाभिषेक व पूजा-अर्चना करते थे।

भूतनाथ मंदिर का इतिहास खंगालने पर पता चला है कि बिल्कुल श्मशान भूमि पर ही शिवलिंग यानी मंदिर बना हुआ था इसीलिए आरती के वक्त जब ज्योति प्रज्जवलन की जरूरत होती थी तब पुजारी किसी भी जलती हुई चिता से एक लकड़ी उठा लेता था। यह प्रथा तब से आज तक जारी है।

गंगा नदी के पश्चिम किनारे पर बने भूतनाथ मंदिर के भव्य व दिव्य मंदिर के संचालन का जिम्मा हिंदू सत्कार समिति के पास है, जबकि प्रबंधन का कार्य मंदिर कमेटी देखती है। हिंदू सत्कार समिति के संयुक्त सचिव के मुताबिक 1932 से समिति ने मंदिर का संचालन अपने हाथों में लिया और साल-दर-साल मंदिर का विस्तार व प्रचार होता गया।

1940 में खड़ी की गई दीवार.

उनके अनुसार 1940 के आसपास कोलकाता नगर निगम की पहल पर मंदिर और श्मशान घाट के बीच एक दीवार खड़ी कर दोनों को पृथक किया गया। मंदिर स्थापना की निश्चित तिथि किसी के स्मरण में नहीं है, इसलिए मंदिर संचालन समिति, प्रबंधक कमेटी, पुजारी और नित्य आने वाले भक्तों की रजामंदी से अंग्रेजी नववर्ष के पहले दिन यानी पहली जनवरी को मंदिर का स्थापना दिवस मान लिया गया और इसी दिन मंदिर का वार्षिक उत्सव मनाया जाने लगा।

इसकी पूर्व संध्या यानी 31 दिसम्बर की रात मंदिर के समक्ष भजन-कीर्तन होता है, जिसमें लाखों भक्तों की मौजूदगी में देश के ख्याति प्राप्त भजन गायक अपनी-अपनी मधुर आवाज में बाबा के भजनों की गंगा प्रवाहित करते है। इसके अलावा महाशिवरात्रि पर भव्य आयोजन होता है और पूरे सावन महीने के दौरान भक्तों द्वारा अलौकिक श्रृंगार, संगीतमय भजन-कीर्तन और महारुद्राभिषेक कराया जाता है। हालांकि, कोरोना महामारी की वजह से बीते दो साल सावन में होने वाले आयोजनों को स्थगित कर दिया गया था। कोरोना महामारी के दौरान पुजारीगण ही नियमित पूजा पाठ करते थे। मंदिर परिसर में भक्तों के प्रवेश पर राज्य प्रशासन और संचालन समिति द्वारा रोक थी।

भूतनाथ मंदिर के प्रति लोगों के विश्वास का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर परिसर में प्रवेश पर रोक के बावजूद भगवान शिव के अति प्रिय सावन महीने में रोजाना हजारों लोग मंदिर की चौखट पर माथा टेकने पहुंचते रहे। इस दफा कोरोना नियमों को मानकर सावन महोत्सव मनाया जा रहा है।

300 साल से जारी है क्रम

इसे बाबा भूतनाथ की कृपा से कम नहीं कहा जा सकता, कि मंदिर के स्थापना काल (सवा 300 साल पहले) से अभी तक मंगला आरती (सुबह 4 बजे) और संध्या आरती (शाम साढ़े 6 बजे) की ज्योत चिता की आग से प्रज्वलित हो रही है।

बाबा की आरती के वक्त पुजारी को कोई न कोई जलती चिता अवश्य मिल जाती है, जिसकी लकड़ी से दीपक की ज्योत जलाई जाती है। इतने लंबे इतिहास में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि आरती के वक्त किसी की चिता न जल रही हो।

चांदी की दीवार

अपने किसी मनोरथ के पूर्ण होने पर स्वेच्छा से मंदिर में श्रृंगार या विशेष पूजा के लिए भी भक्तों को अपनी बारी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। भक्तों में बाबा के प्रति विश्वास इस बात से पुख्ता होता है कि लाखों खर्च कर मंदिर परिसर की पूरी दीवार रजत (चांदी) से बनवाई गई है।

इसके अलावा नंदी, त्रिशूल, डमरू और अर्धनारीश्वर के अतिरिक्त भगवान शंकर के कई रूप चांदी के हैं, जिन्हें बारी-बारी से हर शाम सुसज्जित कर भक्तों के दर्शनार्थ शिवलिंग पर विराजित किया जाता है। इन सबसे अलग एक और बात, जो केवल भूतनाथ मंदिर में ही देखने को मिलेगी, वह यह कि सर्व भूतों के स्वामी भूतनाथ नमामि का यह मंदिर सातों दिन और चौबीसों घंटे खुला रहता है। कहते हैं कि नियमित रूप से इस मंदिर में आकर कपूर जलाने वाले और उसकी कालिख का टीका लगाने वाले भक्तों की बाबा हर मनोकामना पूर्ण करते हैं।

माता कात्यायनी की महिमा: गोपियों ने अपने हाथों से बनाई थी मूर्ति, भगवान कृष्ण को वर रूप में चाहा था

नवरात्रि में देवी के विभिन्न स्वरुपों की पूजा हो रही है. इनमें एक माता कात्यायनी का स्वरूप भी शामिल है. दिल्ली के पास देवी कात्यायनी का ऐसा मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आज भी माता के दरबार से कोई भक्त खाली हाथ नहीं लौटता. हम बात कर रहे हैं कि भगवान की रास स्थली वृंदावन के कात्यायनी माता मंदिर की. यह मंदिर तो बाद में बना, लेकिन मंदिर में मौजूद माता की मूर्ति द्वापर युग में खुद गोपियों ने अपने हाथों से बनाई थीं और नियमित माता की पूजा कर भगवान कृष्ण को वर रूप में चाहा था.

माता की कृपा से उनकी इच्छा पूरी भी हुई.इसके बाद तमाम ऋषि मुनियों ने इस स्थान पर तप कर माता की कृपा का फल प्राप्त किया. इस प्रसंग में हम श्रीमद भागवत के हवाले से उसी मंदिर की चर्चा करेंगे, जहां माता आज भी अपने भक्तों की झोली सहज ही भर देती हैं. श्रीमदभागवत की कथा के मुताबिक भगवान कृष्ण वृंदावन में 11 वर्ष 56 दिनों तक रहे. जब भगवान गोप गोपियों के साथ खेलते हुए 7 वर्ष के हो गए, तो गोपियों के मन में भाव जगा कि उन्हें पति के रूप में कृष्ण की ही प्राप्ति हो.

इस भाव के चलते गोपियां रोज सुबह ब्रह्म मुर्हुत में उठ जातीं, यमुना स्नान करतीं और अपने हाथों से माता कात्यायनी की मूर्ति बनाकर ‘कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्द गोपसुतं देविपतिं मे कुरु ते नमः॥’ मंत्र से उनकी पूजा करतीं.

ऐसे पूरी हुई गोपियों की कामना

उनकी इस पूजा से भगवान प्रसन्न हुए और जब अघासुर के वध के बाद एक वर्ष का कालाक्षेप हुआ था, भगवान खुद ही वृंदावन के सभी ग्वाल बाल बन गए थे, उसी समय सभी गोपियों से शादी कर उनकी इच्छा की पूर्ति की थी.श्रीमद भागवत कथा के मुताबिक खुद भगवान जब 11 वर्ष 56 दिन तक वृंदावन में गुजारने के बाद कंस वध के लिए मथुरा जाने लगे तो इस मंदिर में आए और कंस वध की कामना के साथ विधि विधान से माता की स्तुति की थी. बाद में इस स्थान पर कई ऋषि मुनियों ने माता की पूजा की और अभीष्ठ फल की प्राप्ति की.

शक्तिपीठ है माता का मंदिर

देवी पुराण और मार्कंडेय पुराण के मुताबिक यह मंदिर ठीक उसी स्थान पर है, जहां पूर्व में माता सती के केश गिरे थे. इसलिए यह स्थान शक्तिपीठ भी हैं. मान्यता है कि इस मंदिर में आज भी कोई भक्त मन वचन और कर्म से शुद्ध होकर ‘कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्द गोपसुतं देविपतिं मे कुरु ते नमः॥’ का जाप करता है तो उसकी मनोकामना सहज ही पूरी हो जाती है. खासतौर पर जिन लोगों की शादी में बाधा आती है, उनकी कुंडली में ग्रहों के दोष की वजह से तय हुई शादी भी टूट जाती है, उन्हें इस मंदिर में पूजा का बड़ा फल मिलता है.

कौन हैं मां कात्यायनी

देवी भागवत की एक कथा के मुताबिक ऋषि कात्य के गोत्र में कात्यायन नाम के एक ऋषि हुए. उस समय महामारी फैली हुई थी. इससे दुखी होकर ऋषि ने देवी भगवती की खूब तपस्या की थी. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माता उनके सामने प्रकट हुईं और वरदान मांगने को कहा. उस समय ऋषि माता के स्वरुप पर मोहित हो गए और कहा कि वह उन्हें बेटी स्वरूप में पाना चाहते हैं. माता ने तथास्तु कहा और नियत समय पर मां भगवती कात्यायन ऋषि के घर बेटी बनकर अवतरित हुईं और महामारी का हरण किया था. उस समय उनका नाम कात्यायनी रखा गया.

सलकनपुर देवी पीठ: जहां बंजारों ने की थी इस मंदिर की स्थापना, आज भी 1400 सीढ़ियां चढ़कर पहुंचते हैं भक्त

सलकनपुर मंदिर आस्था और श्रद्धा का 52 वां शक्ति पीठ माना जाता है. मंदिर पहुंचने के लिए भक्तों को पत्थर से बनी 1 हजार 451 सीढ़ियों चढ़ना होती हैं. हालांकि अब सलकनपुर देवी मंदिर ट्रस्‍ट ने पहाड़ी यहां सड़क भी बनवा दी है. सालभर भक्त भोपाल, इटारसी, होशंगाबाद, पिपरिया, सोहागपुर, बैतूल सहित दूर दूर से टोलियां बनाकर गाते-बजाते पैदल ही यहां आते हैं.

सलकनपुर मंदिर : श्रीमद् भागवत कथा के अनुसार जब रक्तबीज नामक देत्य से त्रस्त होकर जब देवता देवी की शरण में पहुंचे। तो देवी ने विकराल रूप धारण कर लिया। और इसी स्थान पर रक्तबीज का संहार कर उस पर विजय पाई। मां भगवति की इस विजय पर देवताओं ने जो आसन दिया, वही विजयासन धाम के नाम से विख्यात हुआ। मां का यह रूप विजयासन देवी कहलाया।

बंजारों ने कराया था निर्माण: मंदिर निर्माण के संबंध में कहा जाता है कि आज से करीब 300 वर्ष पूर्व बंजारो द्वारा उनकी मनोकामना पूर्ण होने पर इस मंदिर का निर्माण किया गया था। मंदिर निर्माण और प्रतिमा मिलने की इस कथा के अनुसार पशुओं का व्यापार करने वाले बंजारे इस स्थान पर विश्राम और चारे के लिए रूके। अचानक ही उनके पशु अदृष्य हो गए।

बंजारे को मिली थी बालिका: इस तरह बंजारे पशुओं को ढूंडने के लिए निकले, तो उनमें से एक बृद्ध बंजारे को एक बालिका मिली। बालिका के पूछने पर उसने सारी बात कही। तब बालिका ने कहा की आप यहां देवी के स्थान पर पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं। बंजारे ने कहा कि हमें नही पता है कि मां भगवति का स्थान कहां है। तब बालिका ने संकेत स्थान पर एक पत्थर फेंका। जिस स्थान पर पत्थर फेंका वहां मां भगवति के दर्शन हुए। उन्होने मां भगवति की पूजा-अर्चना की। कुछ ही क्षण बाद उनके खोए पशु मिल गए। मन्नत पूरी होने पर बंजारों ने मंदिर का निर्माण करवाया। यह घटना बंजारों द्वारा बताये जाने पर लोगों का आना शुरू हो गया और वे भी अपनी मन्नत लेकर आने लगे।

धुने की स्थापना: हिंसक जानवरों, चौसठ योग-योगिनियों का स्थान होने से कुछ लोग यहां पर आने में संकोच करते थे। तब स्वामी भद्रानंद ने यहां तपस्या कर चौसठ योग-योगिनियों के लिए एक स्थान स्थापित किया। तथा मंदिर के समीप ही एक धुने की स्थापना की। और इस स्थान को चैतन्य किया है। तथा धुने में एक अभिमंत्रित चिमटा, जिसे तंत्र शक्ति से अभिमंत्रित कर तली में स्थापित किया गया है। आज भी इस धुने की भवूत को ही मुख्य प्रसाद के रूप में भक्तगणों को वितरित किया जाता है।