खजराना गणेश मंदिर: जहां पूरी होती हैं भक्तों की मनोकामनाएं,जानिए इनकी इतिहास*

मध्य प्रदेश अपनी प्राकृतिक सुंदरता और ऐतिहासिक मंदिरों के लिए जाना जाता है. ऐसा ही एक मंदिर इंदौर के खरजाना में स्थित है. ये प्रसिद्ध मंदिर भगवान गणेश को समर्पित है. खजराना का गणेश मंदिर अपने चमत्कारों के लिए भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय हैं. इस गणेश मंदिर से जुड़ी मान्यता है कि यहां भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है. मन्नत पूरी होने के बाद भक्त जन भगवान गणेश की प्रतिमा की पीठ पर उल्टा स्वास्तिक बनाते हैं और गणेश जी को मोदक और लड्डू का भोग लगाते हैं

मान्यताओं के अनुसार, खरजाना के एक स्थानीय पंडित मंगल भट्ट को सपने में भगवान गणेश ने दर्शन देकर उन्हें मंदिर निर्माण के लिए कहा था. उस समय होलकर वंश की महारानी अहिल्या बाई का राज था. पंडित ने अपने स्वप्न की बात रानी अहिल्या बाई को बताई. जिसके बाद रानी अहिल्या बाई होलकर ने इस सपने की बात को बेहद गंभीरता से लिया और स्वप्न के अनुसार उस जगह खुदाई करवाई. खुदाई करवाने पर ठीक वैसी ही भगवान गणेश की मूर्ति प्राप्त हुई जैसा पंडित ने बताया था. इसके बाद यहां मंदिर का निर्माण करवाया गया. आज भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होने से इस मंदिर को विश्व स्तर की ख्याति प्राप्त हो चुकी है.

होलकर वंश की महारानी ने बनवाया था मंदिर:

इंदौर का खजराना स्थित गणेश मंदिर का निर्माण 1735 में होलकर वंश की महारानी अहिल्या बाई ने करवाया था. मान्यताओं के अनुसार, श्रद्धालु इस मंदिर की तीन परिक्रमा लगाते हैं और मंदिर की दीवार पर धागा बांधते हैं. वैसे तो भगवान गणेश की पूजा-अर्चना हर शुभ कार्य करने से पहले की जाती है, लेकिन खजराना गणेश मंदिर में भक्तों की सबसे अधिक भीड़ बुधवार के दिन होती है. बुधवार को भगवान गणेश की पूजा करने के लिए भक्त दूर-दूर से यहां आते हैं. इस दिन यहां विशेष आरती आयोजित की जाती है

टीम इंडिया के सुपर सिलेक्टर हैं बप्पा:

टीम इंडिया के क्रिकेटर जब भी इंदौर आते हैं, वे खजराना स्थित गणेश मंदिर में बप्पा का आशीर्वाद लेने जरूर जाते हैं. अंजिक्य रहाणे ने एक बार दर्शन के समय मंदिर परिसर में कहा था कि टीम इंडिया के सभी खिलाड़ी खजराना भगवान गणेश को टीम इंडिया के सुपर सिलेक्टर मानते हैं. बप्पा का आशीर्वाद मिलने के बाद ही टीम में सिलेक्ट होते हैं और अच्छा प्रदर्शन करते हैं

परिसर में हैं 33 मंदिर:

खजराना गणेश मंदिर परिसर में 33 छोटे-बड़े मंदिर बने हुए हैं. यहां भगवान राम, शिव, मां दुर्गा, साईं बाबा, हनुमान जी सहित अनेक देवी-देवताओं के मंदिर हैं. मंदिर परिसर में पीपल का एक प्राचीन पेड़ भी है. इस पीपल के पेड़ के बारे में मान्यता है कि ये मनोकामना पूर्ण करने वाला पेड़ है.

भगवान श्री गणेश को पहला निमंत्रण:

भगवान गणेश के मंदिर में हर शुभ कार्य का पहला निमंत्रण दिया जाता है. परंपरा है कि विवाह, जन्मदिन समारोह आदि शुभ कामों के लिए भक्त सबसे पहला निमंत्रण भगवान गणेश के मंदिर में देते हैं. इंदौर और आसपास के भक्त अपने आराध्य को सबसे पहला निमंत्रण भेजकर भगवान गणेश को आमंत्रित करते हैं. वहीं नया वाहन, जमीन या मकान खरीदने पर भक्त भगवान गणेश के दरबार में माथा टेककर भगवान का आशीर्वाद लेते हैं, ताकि भविष्य में कोई परेशानी न हो और सभी काम शुभ हों.

सबसे धनी हैं इंदौर के खजराना गणेश:

देश के सबसे धनी गणेश मंदिरों में खजराना गणेश मंदिर का नाम भी सबसे पहले आता है. यहां भक्तों की ओर से चढ़ाए हुए चढ़ावे के कारण मंदिर की कुल चल और अचल संपत्ति बेहिसाब है. इसके साथ ही शिर्डी स्थित साईं बाबा, तिरुपति स्थित भगवान वेंकटेश्वर मंदिर की तरह यहां भी श्रद्धालुजन ऑनलाइन भेंट चढ़ावा चढ़ाते हैं. हर साल मंदिर की दानपेटियों में से विदेशी मुद्राएं भी अच्छी खासी संख्या में निकलती हैं.

नि:शुल्क भोजन:

गणेश मंदिर में भक्तों के लिए निशुल्क भोजन की भी व्यवस्था की गई है. हजारो की संख्या में लोग यहां हर रोज भोजन करते हैं. इसके अलावा, जिन भक्तों की मन्नत पूरी होती है वो स्वयं के बराबर लड्डुओं से तुला दान करते है.

मुख्य त्योहार विनायक चतुर्थी:

इंदौर शहर और आसपास के अन्य शहरों के नागरिकों को खजराना गणेश मंदिर में बहुत विश्वास है. ये मंदिर बहादुर मराठा रानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा बनाया गया था. ये मंदिर भारत के प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों में से एक है. बुधवार एवं रविवार को बड़ी संख्या में लोग यहां दर्शन करने आते हैं. एक स्थानीय मान्यता के अनुसार, इस मंदिर में पूजा करने पर भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. इस मंदिर का मुख्य त्योहार विनायक चतुर्थी है. इसे अगस्त और सितंबर के महीने में भव्य तरीके से आयोजित किया जाता है.

मंदिर को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया है. मंदिर का प्रबंधन भट्ट परिवार द्वारा किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि औरंगजेब से गणेश मूर्ति की रक्षा करने के लिए मूर्ति को एक कुएं में छिपा दिया गया था. इसके बाद 1735 में कुएं से मूर्ति निकालकर मंदिर का निर्माण किया गया था. इस मंदिर की स्थापना अहिल्या बाई होल्कर द्वारा की गई थी, जो मराठा के होली वंश से थीं. पिछले कुछ वर्षों में मंदिर का काफी विकास हुआ है. मंदिर में सोने, हीरे और अन्य बहुमूल्य रत्नों का नियमित दान किया जाता है. गर्भगृह की बाहरी और ऊपरी दीवार चांदी की बनी हुई है. इस पर विभिन्न मनोदशाओं और उत्सवों की चित्रकारी भी कई गई है. मंदिर के भगवान गणेश की आंखें हीरे की बनी हुई हैं, जो इंदौर के एक व्यवसायी ने दान में दी थीं.

गोविंद देव जी मंदिर का इतिहास: आखिर क्यों नहीं दिखते है राधा रानी के पांव,जानिए वजह

गोविंद देव जी एक विश्व विख्यात मंदिर है और यहां ठाकुर जी की कोई साधारण प्रतिमा नहीं है. इस प्रतिमा को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के पपौत्र वज्रनाभ जी ने बनवाई थी. वज्रनाभ जी अनिरुद्ध के पुत्र थे. पूरे देशभर से लोग इस मंदिर में गोविंद जी के दर्शन करने आते हैं. कृष्ण जन्माष्टमी पर इस मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है. जयपुर स्थित इस प्रसिद्ध मंदिर की खासियत है कि इस मंदिर में कोई शिखर नहीं है. बिना शिखर वाला इस मंदिर को माना जाता है.वज्रनाभ जी ने अपनी दादी से पूछा कि श्रीकृष्ण कैसे लगते थे और फिर दादी के कहे अनुसार उस शीला से जिस शीला से कंस ने उनके 7 भाइयों का वध किया था उस शीला से निर्माण किया

श्रीकृष्ण के पपौत्र वज्रनाभ को दादी जैसे-जैसे बताती गई वैसे-वैसे वो प्रतिमा को आकार देते गए. जब पहली प्रतिमा बनाई तो उसके पैर तो वैसे ही बन गए बाकी स्वरूप वैसा नहीं था जिसके बाद उन्होंने दूसरी प्रतिमा बनाई. जब दूसरी प्रतिमा बनाई तो पैर और शरीर दोनों एक जैसे बन गए लेकिन वह श्रीकृष्ण जैसे नहीं थे. जो पहले प्रतिमा बनाई गई थी, तो उसको मदन मोहन जी का नाम दिया गया जो करौली में विराजित है और दूसरी प्रतिमा बनाई वो गोपिनाथ जी कहलाए जो कि पुरानी बस्ती जयपुर में विराज रहे हैं. इसके बाद उन्होंने तीसरी प्रतिमा बनाई और जैसे ही तीसरी प्रतिमा पूर्ण हुई, तो उनकी दादी ने सिर हिलाते हुए हां कहा क्योंकि श्रीकृष्ण का पूर्ण रूप था वो यही स्वरूप था जो कि इस मंदिर में स्थित गोविंद की प्रतिमा में है.

कालांतर में जब औरंगजेब का आतंक बढ़ा तो बहुत से हिंदू मंदिर तोड़े गए, तब यह 7 मंजिला मंदिर वृंदावन में था. फिर आमेर के राजा मानसिंह जी इस प्रतिमा को लेकर पहले गोवर्धन में विराजे, इसके बाद कामा में विराजे और उसके बाद फिर गोविंदपुर रोपाड़ा से आमेर होते हुए यहां विराजित की गई. अब यह प्रतिमा सूर्य महल में विराजमान है. यह एक मंदिर नहीं सूर्य महल है

पहली छवि का नाम मदन मोहन जी है जो राजस्थान के करौली में स्थापित है.

दूसरी छवि गोपीनाथ जी के नाम से जानी जाती है जो जयपुर की पुरानी बस्ती में स्थापित है.

तीसरी दिव्य छवि हैं गोविंद देवजी की.

इस प्रकार गोविंद देवजी की पवित्र छवि को ‘बज्रकृत’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है वज्रनाभ द्वारा निर्मित.

श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ने बनवाई थी मूर्तियां

ऐसी धार्मिक मान्यता है कि एक बार भगवान कृष्ण के प्रपौत्र ने अपनी दादी से भगवान कृष्ण के स्वरूप के बारे में पूछा और कहा कि आपने तो भगवान कृष्ण के दर्शन किए थे तो बताइए कि उनका स्वरूप कैसा था. भगवान कृष्ण के स्वरूप को जानने के लिए उन्होंने जिस काले पत्थर पर कृष्ण स्नान करते थे उस पत्थर से 3 मूर्तियों का निर्माण किया. पहली मूर्ति में भगवान कृष्ण के मुखारविंद की छवि आई जो आज भी जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में विराजमान है.

क्यों नहीं दिखते राधा रानी के पैर?

ऐसी मान्यता है कि राधा रानी के चरण कमल बहुत दुर्लभ हैं और श्री कृष्ण हमेशा उनके चरणों को अपने हृदय के पास रखते हैं, श्री कृष्ण जिनकी पूजा पूरी सृष्टि करती है, वे भी उनके चरणों की स्पर्श करते थे. राधा देवी के चरण बहुत दुर्लभ हैं और कोई भी व्यक्ति उनके चरणों को इतनी आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिए उनके पैर हमेशा ढके रहते हैं. कुछ मंदिरों में जन्माष्टमी पर या राधाष्टमी पर उनके चरणों को कुछ समय के लिए खुला रखा जाता है.

मान्यता के अनुसार माता राधा के चरण बेहद पवित्र हैं और उनके दर्शन मात्र से जीवन सफल हो जाता है. भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि उन्हें स्वयं राधा रानी के चरण कमलों के दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिलता था. इसलिए, उनके चरण हमेशा ढके रहते हैं.

गोविंद देव जी मंदिर का इतिहास

श्री शिव राम गोस्वामी 15वीं शताब्दी में भगवान गोविंद देवजी के सेवाधिकारी थे. मुगल बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में कई हिंदू मंदिरों को तोड़ दिया गया था. श्री शिव राम गोस्वामी ने पवित्र प्रतिमाओं को पहले कामा (भरतपुर), राधाकुंड और फिर गोविंदपुरा गांव (सांगानेर) में स्थानांतरित किया. तब आमेर शासकों ने पवित्र प्रतिमाओं को स्थानांतरित कर 1714 में दिव्य प्रतिमाएं आमेर घाटी के कनक वृंदावन पहुंचाई. आखिर में 1715 में उन्हें आमेर के जय निवास ले जाया गया.

मान्यता के अनुसार, सवाई जयसिंह पहले सूरज महल में रहते थे. एक दिन उन्हें स्वप्न आया कि उन्हें महल खाली कर देना चाहिए क्योंकि यह महल स्वयं श्री गोविंद देवजी के लिए है. इसके बाद वह स्थान छोड़कर चंद्रमहल चले गए. इस प्रकार, जयपुर की नींव रखे जाने से पहले ही भगवान गोविंद देव जी को सूरज महल में प्रतिष्ठित कर दिया गया था.

मध्य प्रदेश का वो मंदिर जहां अश्वत्थामा करते हैं शिव पूजा, जाने एक अद्भुत रहस्य

असीरगढ़ किले में स्थित शिव मंदिर की प्राचीन महिमा कई धार्मिक ग्रंथों में भी मिलती है। इतना ही नहीं इस प्राचीन शिव मंदिर में विराजमान भगवान भोलेनाथ के दर्शन करने दूर-दूर से श्रद्धालु असीरगढ़ के किले में पहुंचते हैं।

मंदिर से जुड़ी है कई धार्मिक मान्यताएं

मंदिर के आसपास रहने वाले लोग और निरंतर मंदिर में भगवान भोलेनाथ के दर्शन और पूजन करने के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की मानें तो मंदिर से कई धार्मिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, जहां कुछ लोगों की माने तो इस मंदिर का एक बड़ा रहस्य भी है, जहां इस मंदिर के रोजाना शाम को बंद होने के बावजूद जब सुबह मंदिर के द्वार खुलते हैं, तो शिवलिंग पर फूल और रोली चढ़ी हुई होती है। इतना ही नहीं शिव मंदिर में किसी के पूजन करने के प्रमाण भी मिलते हैं। बहरहाल, यह खोज का विषय है कि, आखिर मंदिर के कपाट बंद होने के बावजूद सुबह द्वार खुलते ही शिवलिंग पर फूल और रोली आखिर कहां से आकर चढ़ते हैं।

लगभग 5 हजार साल पुराना है शिव मंदिर

बुरहानपुर जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित असीरगढ़ का किला बेहद ही प्राचीन है, लगभग 5 हजार साल पुराने इस किले में भगवान शिव का मंदिर भी स्थित है, जो इतिहासकारों की मानें तो लगभग 5 हजार साल पुराना ही है। इतना ही नहीं यह मंदिर महाभारत काल के पहले का बताया जाता है। यही कारण है कि, मान्यता अनुसार यहां सालों तक भटकने का श्राप पा चुके अश्वत्थामा रोजाना शिव आराधना के लिए मंदिर आते हैं, और वे ही फूल और रोली भगवान शिव को अर्पित करते हैं।

जिसने भी देखा वो हो गया पागल

किले के आसपास रहने वाले और निरंतर मंदिर आने वाले लोग अश्वत्थामा से जुड़ी कई कहानियां सुनाते हैं। ग्रामीणों की माने तो आज तक जिसने भी अश्वत्थामा देखा है, उसकी मानसिक स्थिति हमेशा के लिए खराब हो गई। इतना ही नहीं कुछ लोगों की माने ऐसी भी मान्यता है कि,भगवान शिव की पूजा करने से पहले अश्वत्थामा किले में स्थित तालाब में नहाते भी हैं। गांव के बुजुर्गों की माने तो कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की मांग भी करते हैं। हालांकि, अभी तक इन मान्यताओं को लेकर किसी तरह की कोई पुष्टि नहीं हो सकी है।

कौन हैं महाभारत के अश्वत्थामा?

महाभारत युद्ध के बाद अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया था। तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया, और युगों-युगों तक भटकते रहने का श्राप दिया था। यही कारण है कि धार्मिक मान्यताओं के चलते आज भी अश्वत्थामा भटक रहे हैं, जहां असीरगढ़ स्थित किले में लोगों को उनकी मौजूदगी का अहसास होता है।

कुछ ऐसा ही किले का इतिहास

उत्तर दिशा में सतपुड़ा पहाड़ियों के शिखर पर समुद्र तल से लगभग 750 फीट की ऊंचाई पर असीरगढ़ का किला स्थित है। विशाल पहाड़ी पर स्थित इस किले की सुंदरता हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। पगडंडी और संकरे रास्तों से पर्यटक इस किले तक पहुंचते हैं, जहां इस किले पर पहुंचने के बाद आसपास का नजारा अत्यंत ही सुंदर नजर आता है। यही कारण है कि, दूर-दूर से लोग पर्यटन की दृष्टि से असीरगढ़ किले पर पहुंचते हैं। साथ ही यहां स्थित शिव मंदिर में दर्शन और पूजन के लिए भी लोग दूर-दूर से यहां आते हैं।

भगवान गणेश का चमत्कारी मंदिर, जहां पत्र लिखकर बताई जाती हैं समस्याएं,जाने

भगवान गणेश मंदिर में अपने पूरे परिवार के साथ विराजमान है,

मंदिर के बारे में सबसे खास बात है, यहां देश-दुनिया से आने वाले पत्र। कई जगहों से भक्त भगवान को पत्र लिखकर समस्याएं बताते हैं और उनका हल भगवान चुटकियों में कर देते हैं।

वहीं भगवान को भक्त निमंत्रण-आमंत्रण पत्र भी भेजते हैं। भक्तों के घर परिवार में शुभ-मांगलिक कार्य होने पर भगवान त्रिनेत्र गणेश जी को सबसे पहले याद किया जाता है। त्रिनेत्र गणेश मंदिर में सच्चे मन से मांगी गई मुराद जरुर पुरी होती है।

मंदिर के नाम और पते त्रिनेत्र गणेश मंदिर, रणथम्भौर दुर्ग, सवाई माधोपुर, राजस्थान के साथ पिन कोड नंबर 322021 लिखने पर यहां पत्र पहुंच जाता है।

रामायण में भी है मंदिर का उल्लेख

इस मंदिर के बारे में रामायण में भी उल्लेख मिलता है। रामायण काल और द्वापर युग में भी यह मंदिर था। कहा जाता है कि भगवान राम ने लंका की और कूच करते समय भगवान त्रिनेत्र गणेश जी का अभिषेक इसी रुप में किया था।

इसी तरह की और भी सच्ची कहानियां इस मंदिर के बारे में आज भी कही सुनी जाती है। कहा जाता है कि मंदिर का भव्य निर्माण महाराजा हमीर देव चौहान ने करवाया था। हमीरदेव और अलाउद्दीन खिलजी के बीच सन् 1299-1302 के बीच रणथम्भौर में युद्ध हुआ था।

उस समय दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी के सैनिकों ने दुर्ग को चारों और से घेर लिया था। हालात ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे, इसी बीच महाराजा को भगवान गणेश ने स्वप्न में कहा कि मेरी पूजा करो सभी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। इसके दूसरे दिन किले की दीवार पर त्रिनेत्र गणेश की प्रतिमा अंकित हो गई।

उसके बाद हमीरदेव ने भगवान गणेश द्वारा बताई जगह पर ही मंदिर बनवाया। इसके बाद कई सालों तक चला युद्ध समाप्त हो गया

कैसे जाएं त्रिनेत्र गणेश मंदिर

त्रिनेत्र गणेश मंदिर, रणथम्भौर दुर्ग, सवाई माधोपुर, राजस्थान जाने के लिए सड़क मार्ग आसान राह है। सवाई माधोपुर से 13 किलोमीटर दूरी पर ही त्रिनेत्र गणेश मंदिर का मंदिर है। मंदिर विश्व धरोहर में शामिल रणथम्भौर दुर्ग के अंदर बना हुआ है। यहां जाने के लिए रेल सेवा भी उपलब्ध होती है।

साथ ही यहां सड़क मार्ग से बस या निजी वाहन से जाया जा सकता है। हवाई सेवा का उपयोग करने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट जयपुर है। यहां से बस या निजी वाहन से जा सकते हैं।

रातों-रात बना मंदिर, ककनमठ मंदिर की अनोखी कहानी जो आपको कर देगी हैरान,जाने

जिस मंदिर के बारे हम आपके जिक्र कर रहे हैं उस मंदिर का नाम ककनमठ मंदिर है। यह मंदिर भारत के किसी और राज्य में नहीं बल्कि देश का दिल बोले जाने वाले राज्य यानी मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के सिहोनियां कस्बे में मौजूद है।

जमीन से लगभग 115 फुट की ऊंचाई पर मौजूद यह मंदिर आसपास के लोगों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। एक पवित्र मंदिर होने के साथ-साथ एक रहस्यमयी मंदिर के रूप में भी विख्यात है।

इस रहस्यमयी का इतिहास बेहद ही दिलचस्प है। कई लोगों का मानना है कि ककनमठ मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था और उस समय इसे कछवाहा वंश के राजा कीर्ति ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया था।

कई लोगों का मानना है कि राजा कीर्ति की पत्नी ककनावती भगवान शिव की बड़ी भक्त थी और आसपास एक भी शिव मंदिर नहीं था इसलिए इसका निर्माण करवाया था।

ककनमठ मंदिर की रहस्यमयी कहानी के बारे में सुनकर कई लोग कुछ समय के लिए सोच में पड़ जाते हैं। हज़ार साल से भी प्राचीन इस मंदिर के बारे में कई लोगों का मानना है कि रातों-रात इस मंदिर का निर्माण भूतों ने कर दिया था!

वहीं कुछ लोगों का मानना है कि सुबह होते ही भूतों ने मंदिर का कुछ निर्माण करना छोड़ दिया जिसे बाद में रानी ने करवाया था। इसलिए मंदिर का कुछ हिस्सा बाद में बिना चूने और गारे से बना हुआ है

इस मंदिर को देखकर ऐसा लगता है कि यह कभी भी गिर सकता है, लेकिन हजारों वर्ष से लेकर आज भी यह मंदिर वैसे ही खड़ा है। आंधी-तूफान में भी मंदिर का कोई भी हिस्सा हिलता-डुलता नहीं है।

कई लोगों का मानना है कि वैज्ञानिकों ने भी इस मंदिर का निरीक्षण कर चुके हैं और उन्हें यह मालूम नहीं चल सका कि इसका निर्माण कैसे किया गया है। कहा जाता है कि यहां कई मूर्तियां टूटी हुई अवस्था में हैं। आपको बता दें कि इस मंदिर को मध्य प्रदेश का अजूबा मंदिर माना जाता है।

ककनमठ मंदिर कैसे पहुंचें

आपको बता दें कि इस अद्भुत मंदिर पहुंचना बेहद आसान है। इसके लिए आप मध्य प्रदेश के किसी भी शहर से आसानी से पहुंच सकते हैं। वैसे आपको बता दें कि यह मंदिर झांसी से लगभग 154 किमी की दूरी पर है। ग्वालियर से इस मंदिर की दूरी लगभग 40 किमी है। ऐसे में इन दोनों ही शहरों से आप आसानी से यहां पहुंच सकते हैं।

सोमनाथ मंदिर में कई बार हो चुका है आक्रमण,सोमनाथ मंदिर के पीछे की क्या है कहानी,जानते है मंदिर का रहस्य

सोमनाथ मंदिर गुजरात, भारत में स्थित है और यह भारतीय इतिहास का एक प्रसिद्ध मंदिर है. इसकी कहानी में अंतरराष्ट्रीय और धार्मिक महत्व है. सोमनाथ मंदिर हिंदू धर्म के एक प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक है. यह भगवान शिव के उपास्य मंदिरों में से एक है. आज हम आपको बताएंगे सोमनाथ मंदिर का इतिहास और इससे जुड़ी कुछ दिलचस्प बातों को.

सोमनाथ मंदिर की कहानी इतिहास

विभिन्न युगों में बनती रही है. इसके निर्माण का विवादित इतिहास है. मान्यता है कि मंदिर का निर्माण महाभारत काल में चंद्रभागा राज्य के राजा सोम देव द्वारा हुआ था. यहां सोम राजा ने शिवलिंग की पूजा की थी और इसे “सोमेश्वर” नाम से जाना जाता था. धार्मिक कथाओं के अनुसार, चंद्रभागा राज्य के राजा भीमदेव ने इसे पुनः बनवाया था. इतिहास में सोमनाथ मंदिर को कई बार आक्रमण का शिकार हुआ. 11वीं सदी में गजनी नामक अफगान सैन्याधीश इमादुद्दीन ने इसे तबाह कर दिया था. 12वीं सदी में गुजरात के राजा भीमदेव II ने इसे पुनः बनवाया और इसे शिवलिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग के रूप में स्वीकार किया गया.

सोमनाथ मंदिर के निर्माण में विभिन्न शैलियों और कला का सम्मिलन होता है. यह मंदिर प्राचीन भारतीय वास्तुकला की अद्भुतता का उदाहरण माना जाता है. इसके गुंबज, भव्य स्तंभ, और विशेष शैली के अंगारे मंदिर की सुंदरता को और भी बढ़ाते हैं. सोमनाथ मंदिर आज एक प्रमुख पर्यटन स्थल है जिसे हिंदू धर्म के श्रद्धालु और अन्य धर्मीय पर्यटक देखने के लिए आते हैं. मंदिर के समीप गुजरात के दूसरे पर्यटन स्थल भी हैं जैसे की सोमनाथ बीच, भालका तीर्थ, जुनागढ़ फोर्ट आदि.

सोमनाथ मंदिर के निर्माण की कथा

एक अवधि में राजा दक्ष नामक राजा अपनी यज्ञ याग के लिए बड़े सम्पुर्ण यजमानों को आमंत्रित किया. वह अपने पुत्र प्रियंव्रत्त को इस यज्ञ की प्रमुख अग्नि कुंड में हवन करने के लिए नहीं बुलाता था क्योंकि उसकी पत्नी सती माता ने उनसे विवाहित के रूप में व्रत धारण किया था. यज्ञ के समय प्रियंव्रत्त का मन स्वयं सोमनाथ के मंदिर में ही होता था, इसलिए वह यज्ञ में नहीं शामिल होने के लिए तैयार था. एक दिन, प्रियंव्रत्त के अनजाने में सती माता ने भगवान शिव के द्वारा सोमनाथ में हो रहे महायज्ञ को देखा. उन्हें देखकर उनका मन स्वयं सोमनाथ के प्रति भक्ति और श्रद्धा से भर गया. सती माता के इच्छा से सोमनाथ ने अपने महायज्ञ का त्याग कर दिया और सती माता के सामने प्रकट हो गए.

यहां पर भगवान शिव ने सती माता की अपनी स्तुति की और उन्हें आशीर्वाद दिया. यह कथा भगवान शिव और सती माता के प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, जिससे सोमनाथ मंदिर का नाम प्रसिद्ध हुआ

सोमनाथ मंदिर का रहस्य

गुजरात के सोमनाथ मंदिर के बारे में कई रहस्य हैं, जो इसको अद्भुत और रहस्यमय बनाते हैं. यहां कुछ प्रमुख रहस्यों का उल्लेख किया जा रहा है.

निर्माण तकनीक: सोमनाथ मंदिर के निर्माण तकनीक वैशिष्ट्यपूर्ण है. इस मंदिर का निर्माण इतने भारी और विस्तृत पत्थरों से किया गया है कि यह अद्भुत और सुरक्षित लगने वाला है. इसके अंदर रहस्यमय गुफाएं और चंदन वृक्षों के जंगल भी हैं.

नागर वास्तुशास्त्र: सोमनाथ मंदिर एक प्राचीन भारतीय वास्तुशास्त्र के अनुसार निर्मित है. इसमें नागार्चितेक्टर का प्रभाव है, जो इसे और भी अधिक रहस्यमय बनाता है.

इतिहास: सोमनाथ मंदिर का

इतिहास भारतीय इतिहास के विभिन्न युगों में समृद्ध है. इसका निर्माण और पुनर्निर्माण कई बार हुआ है, और इसे धार्मिक और राजनीतिक वादों से घिरा हुआ है.

धार्मिक महत्व: सोमनाथ मंदिर हिंदू धर्म के एक प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक है. इसलिए यह धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोन से भी एक रहस्यमय स्थल है.

गुप्त रहस्य: सोमनाथ मंदिर में निहित गुप्त गुफाएं भी हैं, जो इसे और भी रहस्यमय बनाती हैं. इन गुप्त गुफाओं का इस्तेमाल पूर्व काल में तपस्वियों और संन्यासियों द्वारा किया जाता था.

सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण

सोमनाथ मंदिर पर इतिहास में कई बार आक्रमण हुआ है. इसका निर्माण कई बार हो चुका है और इसके समय समय पर यह आक्रमणों का शिकार हुआ है. जहां सबसे पहले लोकप्रिय आक्रमण महमूद गजनवी का था, जो 1024 ईसा पूर्व में हुआ था. उन्होंने सोमनाथ मंदिर को कई बार लूटा और नष्ट कर दिया. अलाउद्दीन खिलजी ने 1296 में सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया था और उसे लूटा था. 1701 में मुगल सम्राट औरंगजेब ने सोमनाथ मंदिर को भी आक्रमण करने का प्रयास किया था, लेकिन इसे नष्ट करने में उन्हें सफलता नहीं मिली.

एक ऐसा रहस्यमय मंदिर जहां हर 12 साल में बिजली गिरने से टूट जाता है शिवलिंग,क्या है इसकी पीछे की पौराणिक कथा, जानिए

हिमाचल प्रदेश एक खूबसूरत पहाड़ी राज्य है, जो अपने प्राकृतिक अजूबों और समृद्ध संस्कृति से लेकर सुंदर घरों तक और प्राचीन संरचनाओं तक कई चीजों के लिए जाना जाता है। लेकिन आज हम आपके लिए कुल्लू जिले के एक अनोखे और रहस्यमयी मंदिर के बारे में कुछ दिलचस्प बातें लेकर आएं हैं, जिसका काफी ज्यादा धार्मिक महत्व है। ये मंदिर बिजली महादेव के रूप में जाना जाता है, मंदिर कुल्लू घाटी के सुंदर गांव काशवरी में स्थित है, जो 2460 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर शिव देवता को समर्पित है। इसे भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में भी गिना जाता है। तो चलिए हम आपको बिजली महादेव मंदिर के बारे में बताते हैं।

रहस्यमय बिजली

मंदिर के अंदर स्थित शिव लिंगम हर 12 साल में रहस्यमय तरीके से बिजली के बोल्ट से टकराता है। इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ पाया है और बिजली गिरने की इस घटना की वजह से शिव लिंगम के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। माना जाता है कि मंदिर के पुजारी हर टुकड़ों को इकट्ठा करके उन्हें नाज, दाल के आटे और कुछ अनसाल्टेड मक्खन से बने पेस्ट के उपयोग से जोड़ते हैं। कुछ महीनों के बाद शिवलिंग पहले जैसा लगने लगता है।

स्थानीय मान्यता

स्थानीय लोगों के अनुसार, पीठासीन देवता क्षेत्र के निवासियों को किसी भी बुराई से बचाना चाहते हैं, जिस वजह से बिजली शिवलिंग से टकरा जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि बिजली एक दिव्य आशीर्वाद है जिसमें विशेष शक्तियां होती हैं। यह भी माना जाता है कि देवता स्थानीय लोगों का भी बचाव करते हैं।

पौराणिक कथा

ऐसा कहा जाता है कि एक बार कुल्लू की घाटी में कुलंत नाम का एक राक्षस रहता था। एक दिन, उसने एक विशाल सांप में अपना रूप बदल दिया और पूरे गांव में रेंगते हुए लाहौल-स्पीति के मथन गांव पहुंच गया। ऐसा करने के लिए, उन्होंने ब्यास नदी के प्रवाह को रोकने की कोशिश की, जिस वजह से गांव में बाढ़ आ गई थी। भगवान शिव राक्षस को देख रहे थे, गुस्से में उन्होंने उसके साथ युद्ध करना शुरू कर दिया। शिव द्वारा राक्षस का वध करने के बाद और सांप को तुरंत मारने के बाद, वे एक विशाल पर्वत में बदल गया, जिससे इस शहर का नाम कुल्लू पड़ गया। बिजली गिराने को लेकर लोक मान्यता है कि भगवान शिव के आदेश से भगवान इंद्र हर 12 साल में बिजली गिराते हैं।

कैसे पहुंचे मंदिर -

मंदिर कुल्लू से लगभग 20 किमी दूर स्थित है और यहां तक आप 3 किमी का ट्रैक करते हुए पहुंच सकते हैं। ये ट्रैक पर्यटकों के लिए काफी मजेदार है। घाटियों और नदियों के कुछ मनोरम नजारों का आनंद लेने के लिए ये जगह बेस्ट है।

आखिर क्यों नहीं लाना चाहिए मेहंदीपुर बालाजी मंदिर के प्रसाद को घर ?जानते है इस मंदिर की पीछे की इतिहास

हमारे देश में मंदिरों की संख्या अनगिनत हैं, लेकिन कुछ-कुछ मंदिरों की काफी ज्यादा विशेषताएं और प्रसिद्ध है, जिसमें राजस्थान में स्थिति मेहंदीपुर बालाजी का मंदिर भी शामिल है। यह एक हनुमान जी का मंदिर है, जहां हर दिन लाखों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं। इस मंदिर के कई रहस्य और चमत्कार सुनने को मिलते हैं। इस मंदिर को लेकर यह मान्यता है कि इस मंदिर के दर्शन मात्र से भक्तों के सारे कष्ट दूर होते जाते हैं। साथ ही यहां आने वाले भक्तों को भूत-प्रेतों और किये-कराये से भी मुक्ति मिल सकती है।

मेहंदीपुर बालाजी मंदिर कहां है और क्या है इसकी खासियत?

राजस्थान के दौसा जिले में स्थित मेहंदीपुर बालाजी का मंदिर भगवान हनुमान जी का है। इस मंदिर में हनुमान जी के अलावा कई अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। बालाजी भगवान हनुमान जी का ही दूसरा नाम है। ऐसी मान्यता है कि हनुमान जी के बचपन का नाम बालाजी है, जो हिन्दी और संस्कृत में इस्तेमाल होता है।

इस मंदिर में स्थिति बाला जी की मूर्ति के बाई छाती की ओर एक छोटा सा छेद है, जिसमें से लगातार पानी की एक पतली धारा बहती रहती है। इसी धारा से निकले पानी को टैंक में जमा करके भगवान बाला जी के चरणों में रखा जाता है, जिसके बाद प्रसाद के रूप में इसे वितरित किया जाता है।

इस मंदिर का दर्शन के लिए लोग देश के लगभग हर एक कोने से आते हैं। यहां पर ऊपरी चक्कर और प्रेत आत्माओं से मुक्ति के लिए अर्जी लगाई जाती है। इस मंदिर में प्रेतराज सरकार और भैरवबाबा की भी मूर्ति विराजित है। कहा जाता है कि किसी भी नकारात्मक साया के लिए यहां अर्जी लगाई जाती है। भूत-प्रेत के साए को भगाने के लिए यहां कीर्तन इत्यादि किया जाता है।

बालाजी के मंदिर का प्रसाद घर पर क्यों नहीं लाना चाहिए?

ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर के दर्शन से भूत-प्रेत, किये-कराए जैसी इत्यादि बाधाओं से मुक्ति मिलती है। ऐसे में इस मंदिर के प्रसाद या फिर इस मंदिर से जुड़ी किसी भी सुगंधित चीज को घर पर लाना सही नहीं माना जाता है। क्योंकि ऐसा करने से घर में ऊपरी साया आने का खतरा रहता है।

कैसे लगाई जाती है बालाजी में अर्जी?

बालाजी मंदिर पहुंचने के बाद वहां का दुकानदार आपको एक थाली देता है, जिसमें आपको एक अर्जी का दोना भी मिलता है। इसके साथ ही कटोरी में घी भी दिया जाता है। अर्जी लगाने के लिए इस थाली को सिर पर रखें और फिर अपना नाम, अपने पिता का नाम लें। अगर आप शादी-शुदा महिला हैं, तो अपने नाम के साथ अपने पति का पूरा नाम लें। अपने मन में अपनी तीन समस्याओं के बारे में सोचें।

अब मंदिर पहुंचने के बाद इस थाली को महंत जी के हाथ में दे लें और फिर महाराज जी थाली में रखे लड्डू और घी को हवन कुंड में डाल देते हैं। पूरी प्रक्रिया में मन में उन्हीं तीन समस्याओं के बारे में दोहराना होता है। इसके बाद आपको अपनी दरख्वास्त करनी है और फिर दुकानदार के पास चले आएं। इस दौरान थाली में 6 लड्डू होती है, आपको लड्डू सहित दुकानदार को दे देना है।

दूसरे चरण में अर्जी लगाने के लिए चावल की थाली दी जाएगी, जिसे प्रेतराज के दरबार पर जाना है। यहां जाते हुए भी वही प्रक्रिया दोहरानी है। फिर मंदिर से बाहर आने के बाद एक जगह रूकें और थाली में बची सारी चीजों को सात बार उतारें और पीछे गिराएं। पीछे मुड़कर नहीं देखना होता है और सीथे इस प्रक्रिया के बाद दुकानदार के पास वापस चले जाएं। दोनों थालियों को दुकानदार को देना है, यहां दुकानदार आपको लड्डू देगा, जिसे वहीं खाना है। इस लड्डू को दूसरों को न खिलाएं।

फिर तीसरे चरण में अर्जी लगानी है, जिसके लिए दुकानदार आपको एक दोना देगा। इस दोने को लेकर आपको उस लाइन में खड़ा होना है, जिस लाइन में आप पहली बार खड़ थे। मन ही मन आपको अपना नाम और पता कहना है। साथ ही यह बोलना है कि “ बालाजी मैंने आज आपकी अर्जी लगाई है, जिसे मंजूर करना।” इसे मन ही मन दोहराएं, इससे आपकी अर्जी लग जाएगी।

मेहंदीपुर बालाजी का इतिहास

यह मंदिर करीब 1000 साल पुराना है। मान्यता है कि एक बार मंदिर के पुराने महंत ने एक सपना देखा था, जिसमें उन्हें मंदिर में तीनों देवताओं के दर्शन हुए। यह बालाजी मंदिर के निर्माण की पहला संकेत था। कहा जाता है कि सपने में जंगली जानवरों और जंगली पेड़ों से भरे जगह पर भगवान प्रकट हुए और फिर तीनों देवताओं ने महंत को आदेश दिया कि वे सेवा करके अपने कर्तव्यों का पालन करे। इसके बाद महंत ने मंदिर में तीनों देवताओं बालाजी, प्रेतराज और भैरों महाराज की स्थापना की।

इस मंदिर के पहले महंत गणेश पुरी जी महाराज थे, फिलहाल मंदिर के श्री किशोर पूरी जी हैं। वह काफी धार्मिक निष्ठा भावना से मंदिर की पूजा करते हैं।

कैसी है मेहंदीपुर बालाजी मंदिर की बनावट?

राजस्थान में स्थित बालाजी मंदिर की बनावट राजपूत शैली में की गई है, जिसकी वास्तुकला देखकर आप पूरी तरह से आकर्षित हो सकते हैं। इस मंदिर के 4 प्रांगण है, जिसके पहले 2 प्रांगण में भैरव बाबा की मूर्ति और बालाजी महाराज की मूर्ति है। वहीं, तीसरे और चौथे प्रांगण में प्रेतराज की मूर्ति स्थापित है।

कब जाना चाहिए मेहंदीपुर बालाजी मंदिर?

मेहंदीपुर बालाजी मंदिर आप 12 महीने जा सकते हैं। इस मंदिर में कोई भी कभी भी दर्शन के लिए जा सकता है। आप किसी भी मौसम में जा सकते हैं।

मेहंदीपुर बालाजी मंदिर जाने से पहले क्या करें तैयारी?

बालाजी मंदिर के दर्शन से पहले आप जिस तारीख को निकल रहे हैं, उसके करीब 10 दिन पहले से प्याज और लहसुन जैसी चीजें खाना बंद कर लें।

मंदिर के दर्शन से 10 दिन पहले रोजाना अच्छे से नहा धोकर हनुमान चालीसा पढ़ें।

दर्शन के लिए निकलने से पहले एक डेढ़ मीटर के लाल कपड़े में 1 सूखा नारियल, लौंग, लाल मिर्च, अक्षत यानी खड़ा चावल, घर के चारों कोनों की धूल और 21 रुपये डालकर 3 गांठ लगाकर बांध लें।

आपके साथ परिवार का जो भी सदस्य जा रहा है, उसके सिर के चारों ओर इस लाल कपड़े को 21 बार घुमा लें और फिर इसे एक खूंटी में टांग दें।

अब अगले दिन सुबह-सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर अपने परिवार के साथ बालाजी मंदिर के लिए निकले।

घर से जब बालाजी मंदिर के लिए निकले, तो इस लाल कपड़े को फिर से परिवार के सदस्यों के सिर के चारों ओर घुमाएं और फिर घर से तुरंत बाहर निकल जाएं।

घर से जब एक बार बाहर निकल जाएं, तो दोबारा मुड़कर न देखें और न ही किसी चीज के लिए लौटें।

अपने लिए दो सेट कपड़े जरूर बांध लें। साथ ही रास्ते के लिए बिना प्याज और लहसुन का खाना बांध लें।

एक ऐसा मंदिर जहां आंख और मुंह पर पट्टी बांधकर की जाती है पूजा,जानिए इनका पौराणिक कथा

उत्तराखंड के चमोली जिले के एक गांव वाण में एक बेहद ही अद्भुत मंदिर स्थित है, जिसका नाम लाटू देवता मंदिर’ है. लोगों के बीच यह मंदिर चर्चा में बना रहता है क्योंकि इससे जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जिन्हें जानकर आप चैंक जाएंगे. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस मंदिर में पुजारी आंखों पर पट्टी और मुंह पर कपड़ा बांधकर पूजा करते हैं. इतना ही नहीं, इस लोगों के बीच इस मंदिर की बहुत मान्यता है लेकिन आम लोग मंदिर के भीतर जाकर दर्शन नहीं कर सकते. आइए जानते हैं लाटू देवता मंदिर से जुड़ी खास बातें और इस मंदिर के महत्व के बारे में.

क्यों बांधते हैं आंखों पर पट्टी?

लाटू देवता मंदिर में केवल एक ही पुजारी भीतर जा सकता है और वह भी आंखों पर पट्टी बांधकर. मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर में नागराज अपनी मणि के साथ विराजते हैं. कहा जाता है नाग मणि की रोशनी इतनी तेज होती है कि अगर किसी की आंखों पर मणि की रोशनी पड़ जाए तो वह व्यक्ति अंधा हो जाता है. इसलिए आम लोग दर्शन के लिए इस मंदिर के भीतर नहीं जा सकते. पुजारी भी आंखों और मुंह पर पट्टी बांधकर ही प्रवेश करते हैं. ताकि मणि की रोशनी आंखों और उसकी गंध नाक तक न पहुंचे.

साल में एक बार खुलते हैं कपाट

लाटू देवता मंदिर के कपाट साल में केवल एक बार वैशाख माह की पूर्णिमा तिथि के दिन खुलते हैं. कपाट खुलने में यहां श्रद्धालुओं की भीड़ दर्शन के लिए उमड़ती है. मार्गशीर्ष माह की अमावस्या के दिन कपाट बदं कर दिए जाते हैं.

लाटू देवता की पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार लाटू देवता उत्तराखंड की आराध्य देवी नंदा के भाई हैं. देवी नंदा माता पार्वती का ही स्वरूप हैं. जब देवी पार्वती का भगवान शिव से विवाह हुआ तो उनके विदा करने के लिए लाटू समेत उनके सभी भाई कैलाश पर्वत तक गए. इस बीच लाटू देवता को प्यास और वह पानी के लिए इधर-उधर भटकने पर उन्हें एक कुटिया मिली. कुटिया में एक साथ दो मटके रखे थे, जिनमें से एक में पानी और दूसरे में मदिरा थी. लाटू ने गलती से मदिरा पी ली और उत्पात मचाने लगे. जिससे नाराज होकर नंदा देवी यानि माता पार्वती ने उन्हें श्राप दे दिया और बांधकर कैद करने का आदेश दिया.

अपनी गलती का अहसास होने पर लाटू ने माफी मांगी और पश्चाताप किया. जिसके बाद मां नंदा देवी ने कहा कि वाण गावं में लाटू का मंदिर होगा और हर साल वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन उनका पूजन किया जाएगा. मान्यता है कि तभी लाटू देवता उस मंदिर में सांप के रूप में कैद हैं और वैशाख की पूर्णिमा तिथि के दिन उनका पूजन किया जाता है.

नोट: इस खबर में दी गई सभी जानकारियां और तथ्य मान्यताओं के आधार पर हैं (Streetbuzz )किसी भी तथ्य की पुष्टि नहीं करता है

द्वारका नगरी का समुद्र में डूबने का क्या रहस्य है,जाने पीछे के वजह

श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के जल विलीन होने की कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के डूबने की मुख्य दो वजह मानी जाती है. चलिए जानते हैं इनके बारे में

हिंदू धर्म के चार धामों में से एक द्वारका धाम को भगवान श्रीकृष्ण की नगरी कहते हैं. द्वारका धाम गुजरात के काठियावाड क्षेत्र में अरब सागर के समीप स्थित है. श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के जल विलीन होने की कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. चलिए जानते हैं भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के डूबने के पीछे क्या वजह थी?

पहला कारण: गांधारी का श्राप

पौराणिक कथा के अनुसार, जरासंध द्वारा प्रजा पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए भगवान श्री कृष्ण मथुरा को छोड़कर चले गए थे. श्रीकृष्ण ने समुद्र किनारे अपनी एक दिव्य नगरी बसायी. 

इस नगरी का नाम द्वारका रखा. माना जाता है कि महाभारत के 36 वर्ष बाद द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई थी. महाभारत में पांडवों की विजय हुई और सभी कौरवों का नाश हो गया था. इसके बाद जब युधिष्ठिर का हस्तिनापुर में राजतिलक हो रहा था, उस समय श्रीकृष्ण भी वहां मौजूद थे.

तब गांधारी ने श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध का दोषी ठहराते हुए भगवान श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि अगर मैंने अपने आराध्य की सच्चे मन से आराधना की है 

और मैंने अपना पत्नीव्रता धर्म निभाया है तो जो जिस तरह मेरे कुल का नाश हुआ है, उसी तरह तुम्हारे कुल का नाश भी तुम्हारी आंखों के समक्ष होगा. कहते हैं इस श्राप की वजह से श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी पानी में समा गई.

दूसरा कारण: ऋषियों का श्राप

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार महर्षि विश्वामित्र, देव ऋषि नारद, कण्व द्वारका गए, तब यादव वंश के कुछ लड़के ऋषियों के साथ उपहास करने के प्रयोजन से श्री कृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेश में ले गए और ऋषियों से कहा कि यह स्त्री गर्भवती है. 

आप इस के गर्भ में पल रहे शिशु के बारे में बताइए कि क्या जन्म लेगा? ऋषियों ने अपना अपमान होता देख श्राप दिया कि इसके गर्भ से मुसल उत्पन्न होगा और उस मुसल से समस्त यदुवंशी कुल का विनाश होगा.

उसके पश्चात सभी यदुवंशी आपस में लड़-लड़कर मरने लगे थे. सभी यदुवंशियों की मृत्यु के बाद बलराम ने भी अपना शरीर त्याग दिया था. श्रीकृष्ण पर किसी शिकारी ने हिरण समझकर बाण चला दिया था, जिससे भगवान श्रीकृष्ण देवलोक चले गए,

उधर, जब पांडवों को द्वारका में हुई अनहोनी का पता चला तो अर्जुन तुरंत द्वारका गए और श्रीकृष्ण के बचे हुए परिजनों को अपने साथ इंद्रप्रस्थ लेकर चले गए.

 इसके बाद देखते ही देखते पूरी द्वारका नगरी रहस्यमयी तरीके से समुद्र में समा गई.