एक मंदिर ऐसा भी है जहां भोग-प्रसाद के तौर पर दिया जाता है नूडल्स और मोमोज,जाने

हमारे देश में एक ऐसा प्रमुख शहर है जो अपनी पूजा और व्यजंन के लिए पूरे दुनिया में विख्यात है. जी हां! आपने सही अंदाजा लगाया यह शहर है कोलकाता. इसे सिटी ऑफ जॉय के नाम से भी जाना जाता है. कोलकाता के स्ट्रीट फूड्स की तो बात ही अलग है. यहां चाइनीज फूड्स का तकड़ा खूब लगता है और तो और इस शहर में एक मंदिर ऐसा भी है जहां काली मां को भोग-प्रसाद के तौर पर नूडल्स और मोमोज जैसे चटपटे व्यंजन मिलते हैं.

कहां है यह मंदिर?

कोलकाता का यह छोटा मंदिर अपने आप में भारत-चीनी विरासत को समेटे हुए है. यह मंदिर तंगरा में स्थित है, इसे चीनी काली मंदिर के नाम से जाना जाता है.

एक चमत्कार से मंदिर बनने की हुई थी शुरुआत

स्थानीय लोगों का कहना है कि काफी समय पहले एक बड़े पेड़ के पास दो पत्थर थे. लोग उन पर लाल पाउडर लगाते थे और हर दिन प्रार्थना करते थे. बाद में कुछ असाधारण घटना घटित हुई, उस दौर में एक चीनी लड़का बहुत बीमार पड़ गया और उसके इलाज में कोई दवा असर नहीं कर रही थी. ऐसे में परेशान माता-पिता ने उन पत्थरों पर देवी काली से प्रार्थना की, तब चमत्कारिक ढंग से उनका लड़का बेहतर हो गया.

इस मंदिर में शनिवार का दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है, जिसमें देवी के सम्मान में बड़े समारोह आयोजित किए जाते हैं. दिवाली के दौरान यह मंदिर मोमबत्तियों से जगमगा उठता है, लेकिन मान्याताओं के अनुसार यहां बुरी आत्माओं को दूर रखने के लिए भक्त विशेष धूप और कागज भी जलाते हैं.

क्या आप जानते हैं भारत ही नहीं बल्कि इंडोनेशिया में भी 700 सालों से विराजमान हैं गणेश जी की मूर्ति

 लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत ही नहीं बल्कि इंडोनेशिया में भी कई गणेश मंदिर हैं और इंडोनेशिया में एक ज्वालामुखी के मुहाने पर 700 सालों से गणेश जी विराजमान हैं।

इंडोनेशिया में 141 ज्वालामुखियों में से 130 अभी भी सक्रिय हैं और उनमें से एक माउंट ब्रोमो है। यह पूर्वी जावा प्रांत के ब्रोमो टेंगर सेमेरू राष्ट्रीय उद्यान में स्थित है। इंडोनेशिया के सक्रिय ज्वालामुखी माउंट ब्रोमो पर गणपति की एक मूर्ति के बारे में कहा जा रहा है। हालाँकि यह एक लोक कथा है, लेकिन स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि यह मूर्ति 700 सालों से वहाँ है।

यहां मौजूद गणेश मूर्ति की क्या खासियत है?

ब्रोमो का मतलब जावा भाषा में ब्रह्मा होता है, लेकिन इस ज्वालामुखी में गणेश जी का विशेष स्थान है। स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि ज्वालामुखी के मुहाने पर जो मूर्ति है, वह यहां के लोगों की रक्षा करती है। इंडोनेशिया में हिंदू आबादी बहुत ज़्यादा है और यहां मंदिरों की कोई कमी नहीं है। यहां गणेश मंदिर से लेकर शिव मंदिर तक कई भगवान मिल जाएंगे।

जावा प्रांत में जावानीस लोग रहते हैं। उनका मानना ​​है कि उनके पूर्वजों ने इस मूर्ति की स्थापना की थी। यहां गणपति की पूजा कभी बंद नहीं होती। भले ही यहां विस्फोट हो जाए। दरअसल, यह एक परंपरा है, 'यदनया कसाडा' नाम की यह परंपरा साल में एक खास दिन मनाई जाती है। यह 15 दिनों का त्योहार है जो अपनी शुरुआत से ही चला आ रहा है।

ऊपर गणेश जी की मूर्ति में पूजा के साथ बकरे की बलि दी जाती है और प्रसाद के रूप में फल, फूल आदि चढ़ाए जाते हैं। मान्यता है कि अगर ऐसा न किया जाए तो ज्वालामुखी का प्रकोप यहां के लोगों को लील जाएगा।

जानें हल्देश्वर महादेव मंदिर की क्या है कहानी,और भगवान भोलनाथ क्यू प्रकट हुए थे पीपल के पेड़ के नीचे

सावन के पहले सोमवार को देशभर के शिव मंदिरों में भक्तों का तांता लगा हुआ है. वहीं बालोतरा के सिवाना में छप्पन पहाड़ियों के बीच स्थित पौराणिक हल्देश्वर महादेव के दर्शन के लिए श्रद्धालु पहुंचने लगे हैं.

 मिनी माउंट के नाम से मशहूर 7 पहाड़ियों के बीच बना यह मंदिर अपनी खास पहचान रखता है. सावन के महीने में यहां बड़ी संख्या में भक्त महादेव के दर्शन के लिए पहुंचते हैं. यहां दर्शन करने के बाद भक्त अपने परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं.

हल्दिया राक्षस के वध के लिए यहां प्रकट हुए थे भोलेनाथ

पौराणिक मान्यता के अनुसार इन छप्पन पहाड़ियों में हल्दिया नामक राक्षस का आतंक था. राक्षस के आतंक से मुक्ति के लिए ग्रामीणों ने भोलेनाथ से प्रार्थना की. 

परिणामस्वरूप भगवान शिव एक पीपल के पेड़ के नीचे प्रकट हुए और राक्षस का वध कर ग्रामीणों को उसके भय से मुक्ति दिलाई. तभी से यह स्थान हल्देश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है. इस स्थान पर एक पहाड़ी भी है

 जहां गुरु गोरखनाथ की गुफा और धूनी है. गुरु गोरखनाथ ने यहां कई वर्षों तक तपस्या की थी. इसके अलावा महाभारत काल में पांडवों ने अपना अज्ञातवास भी यहीं बिताया था. पास में ही ऊंची पहाड़ी पर मां भवानी का मंदिर भी है लेकिन वहां पहुंचना काफी कठिन है.

हल्देश्वर के रास्ते मे वीर दुर्गादास प्रोल का भी अनूठा इतिहास

हल्देश्वर के रास्ते में पहाड़ियों पर वीर दुर्गादास के जरिए बनवाई गई प्रोल का भी अपना इतिहास है.

 ऐसा माना जाता है कि सत्रहवीं शताब्दी में औरंगजेब के आक्रमण के दौरान जोधपुर राज्य के राजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे अजीत सिंह को राजा मानने से इनकार कर दिया गया 

और षड्यंत्र रचने लगे. ऐसे में वीर दुर्गादास ने नन्हे बालक अजीत सिंह को औरंगजेब से बचाने के लिए इन पहाड़ियों में एक प्रोल बनवाई और अजीत सिंह को वहीं रखा. बाद में उन्हें मेवाड़ भेज दिया गया. दुर्गादास ने इसी प्रोल में औरंगजेब के पोते और पोती को भी छिपाया था, जिन्हें बाद में उन्हें वापस सौंप दिया गया. हालांकि यह प्रोल अब बदहाल स्थिति में है.

कैसे पहुंचे हल्देश्वर महादेव

हल्देश्वर महादेव तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को सिवाना जाना पड़ता है वहां से पिपलून गांव की तलहटी से करीब 7 किलोमीटर की दुगर्म पहाड़ियों के रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है.

पद्मनाभस्वामी मंदिर से करीब एक लाख करोड़ रुपए मूल्य का निकाला गया था खजाना, जाने इस मंदिर की कहानी

केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के प्राचीन पद्मनाभस्वामी मंदिर में मौजूद खजाने और इसके तहखानों का केस सुप्रीम कोर्ट के पास है। जिसमें कोर्ट ने कहा है कि भगवान को किस श्लोक से जगाया जाए, यह आस्था का सवाल है। हम इसे कैसे तय कर सकते हैं। मंदिर के सबसे बड़े पुजारी परमेश्वरन नंबूदरी इसका फैसला करें। बता दें कि 2 हजार साल पुराने इस मंदिर की निगरानी सुप्रीम कोर्ट कर रहा है। 2011 में कैग की निगरानी में पद्मनाभस्वामी मंदिर से करीब एक लाख करोड़ रुपए मूल्य का खजाना निकाला गया था। इसे भारत का सबसे अमीर मंदिर भी कहा जाता है।

क्यों खास है यह मंदिर

गौरतलब है कि पद्मनाभस्वामी मंदिर के पांच तहखानों को खोलने के बाद एक लाख करोड़ रुपए का खजाना मिला था। यह सभी तहखाने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर खोले गए थे। मगर छठे तहखाने के संबंध में मंदिर प्रशासन का कहना है कि भगवान नहीं चाहते कि छठा तहखाना खुले और मंदिर की संपत्ति बाहर जाए।

 मंदिर प्रशासन ने संपत्ति और तहखाने को लेकर दैवीय इच्‍छा जानने के लिए देव प्रश्‍नम आयोजित किया था। कुछ लोगों का कहना है कि अगर छठे तहखाने को खोला गया तो प्राकृतिक आपदा आ सकती है।

क्या है मंदिर की कहानी

भगवान विष्णु को समर्पित पद्मनाभस्वामी मंदिर को त्रावणकोर के राजाओं ने बनाया। इसका जिक्र 9 सदी के ग्रंथों में मिलता है, लेकिन मंदिर के मौजूदा स्वरूप को 18वीं शताब्दी में बनाया गया। मान्यता है कि इस जगह भगवान विष्णु की मूर्ति मिली थी, इसके बाद राजा मार्तण्ड ने यहां मंदिर बनवाया। 

सन् 1750 में महाराज मार्तण्ड ने खुद को पद्मनाभ दास बताया। इसके बाद त्रावणकोर शाही परिवार ने खुद को भगवान के लिए समर्पित कर दिया। माना जाता है कि इसी वजह से त्रावणकोर के राजाओं ने अपनी सारी दौलत पद्मनाभ मंदिर को सौंप दी।

 हालांकि त्रावणकोर के राजाओं ने 1947 तक राज किया। आजादी के बाद इसे भारत में मिला लिया, लेकिन पद्मनाभस्वामी मंदिर को सरकार ने कब्जे में नहीं लिया। इसे त्रावणकोर के शाही परिवार के पास ही रहने दिया। तब से मंदिर का कामकाज शाही परिवार के अधीन एक प्राइवेट ट्रस्ट चलाता आ रहा है।

मंदिर में जाने के नियम

तिरुअनंतपुरम में मौजूद भगवान विष्णु का मंदिर काफी फेमस है। भारत के वैष्णव मंदिरों में शामिल यह ऐतिहासिक मंदिर केरल के पर्यटन और धर्मिक आस्था का केंद्र है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की बड़ी मूर्ति रखी है। इसमें भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन मुद्रा में विराजे हुए हैं। भगवान विष्णु की विश्राम अवस्था को 'पद्मनाभ' कहा जाता है। इसी वजह से मंदिर को पद्मनाभस्वामी और भगवान के 'अनंत' नाग के नाम शहर को तिरुअनंतपुरम नाम मिला था। अपनी भव्यता के लिए मशहूर मंदिर में जाने के लिए पुरुषों को धोती और महिलाओं को साड़ी पहनना जरूरी है।

दिल्ली के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है कालकाजी मंदिर, आइए जानते मंदिर के बारे में खास बातें

कालकाजी का मंदिर दिल्ली के साथ साथ पूरे देश में काफी प्रसिद्ध है। दक्षिण दिल्ली में स्थित यह मंदिर अरावली पर्वत श्रृंखला के सूर्यकूट पर्वत पर है, जहां मां कालका माता के नाम से विराजमान हैं। कालकाजी माता का मंदिर सिद्धपीठों में से एक माना जाता है और नवरात्र के दौरान यहां एक से डेढ़ लाख श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं। मान्यता है कि इस पीठ का स्वरूप हर काल में बदलता रहता है और मां दुर्गा ने यहीं पर महाकाली के रूप में प्रकट होक असुरों का संहा किया था। मान्यताओं के अनुसार मंदिर 3000 साल से अधिक पुराना है। मंदिर में बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चों के मुंडन के लिए भी आते हैं। 

मंदिर का यह है इतिहास

लोटस टेंपल के पास बना यह मंदिर कालका देवी, देवी शक्ति या दुर्गा के अवतार को समर्पित है। कालकाजी मंदिर प्राचीनतम सिद्धपीठों में एक है। मान्यता है कि इसी जगह आद्यशक्ति मां भगवती महाकाली के रूप में प्रकट हुई थीं और असुरों का संहार किया था। मौजूदा मंदिर बाबा बालकनाथ ने स्थापित किया था। ऐसा माना जाता है कि वर्तमान मंदिर के पुराने हिस्से का निर्माण मराठाओं ने 1764 में करवाया था। बाद में 1816 में अकबर टू ने इसका पुनर्निर्माण करवाया।

श्रीकृष्ण ने पांडवों के साथ यहां की थी अराधना

बीसवीं शताब्दी के दौरान दिल्ली में रहने वाले हिन्दू धर्म के अनुयायियों और व्यापारियों ने यहां चारों ओर कई मंदिरों और धर्मशालाओं का निर्माण कराया था। उसी दौरान इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप बनाया गया था। ऐसा भी माना जाता है कि महाभारत काल में युद्ध से पहले भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों के साथ यहां भगवती की अराधना की थी। बाद में बाबा बालकनाथ ने इस पर्वत पर तपस्या की। तब मां भगवती ने उन्हें दर्शन दिए थे।

300 साल पुराना है ऐतिहासिक हवन कुंड

मंदिर पिरामिडनुमा आकार में बना हुआ है। मंदिर का सेंट्रल चैंबर पूरी तरह से संगमरमर के पत्थर से बना हुआ है। मंदिर में काली देवी की एक पत्थर की मूर्ति भी है। मुख्य मंदिर में 12 द्वार हैं। यह 12 महीनों का संकेत देते हैं। हर द्वार के पास माता के अलग-अलग रूपों का चित्रण किया गया है। दुनिया भर के मंदिर ग्रहण के वक्त बंद होते हैं, जबकि कालकाजी मंदिर खुला होता है। अकबर-टू ने इस मंदिर में 84 घंटे लगवाए थे। इनमें से कुछ घंटे अब मौजूद नहीं है। इन घंटों की विशेषता यह है कि हर घंटे की आवाज अलग है। इसके अलावा 300 साल पुराना ऐतिहासिक हवन कुंड भी मंदिर में है और वहां आज भी हवन किए जाते हैं।

दिन में दो बार बदलते हैं मां के शृंगार

मां के शृंगार दिन में दो बार बदले जाते हैं। सुबह के समय मां के 16 शृंगार के साथ फूल, वस्त्र आदि पहनाए जाते हैं, वहीं शाम को शृंगार में आभूषण से लेकर वस्त्र तक बदले जाते हैं। मां की पोशाक के अलावा जूलरी का विशेष महत्व होता है। नवरात्र के दौरान रोजाना मंदिर को 150 किलो फूलों से सजाया जाता है। इनमें से काफी सारे फूल विदेशी होते हैं। मंदिर की सजावट में इस्तेमाल फूल अगले दिन श्रद्धालुओं को प्रसाद के साथ बांटे जाते हैं।

आइए जानते हैं यादगिरिगुट्टा मंदिर का इतिहास ?,

यदागिरिगुट्टा सभी मौसमों में मध्यम जलवायु वाला सबसे अनोखा, सुंदर और सुखद पहाड़ी है और मंदिर तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। राजधानी शहर के पास स्थित होने के कारण मंदिर में पूजा के लिए आने वाले भक्तों / तीर्थयात्रियों का प्रवाह बहुत अधिक है।

 हर दिन औसतन 5000-8000 से कम तीर्थयात्री अपनी मन्नतें मांगने, शाश्वत पूजा, शाश्वत कल्याणम, लक्ष तुलसी पूजा, अभिषेकम आदि करने के लिए इस मंदिर में आते हैं।

 शनिवार, रविवार और अन्य सार्वजनिक छुट्टियों के दौरान भक्तों / तीर्थयात्रियों की भारी भीड़ होती है।

श्री लक्ष्मीनरसिंह स्वामी मंदिर या यदागिरिगुट्टा भगवान विष्णु के अवतार नरसिंह स्वामी का एक लोकप्रिय हिंदू मंदिर है। 

यह तेलंगाना के नालगोंडा जिले में एक पहाड़ी पर स्थित है, यदागिरिगुट्टा रियागिर रेलवे स्टेशन से 6 KM की दूरी पर और भोंगीर शहर से 13 KM की दूरी पर और हैदराबाद शहर से 60 किलोमीटर की दूरी पर है।

कई वर्षों बीत जाने के बाद, भगवान एक जनजाति के बीच एक भक्त महिला के सपने में प्रकट हुए, उसे एक बड़ी गुफा का निर्देश दिया, जहाँ उन्होंने खुद को पांच राजसी अवतारों के रूप में सभी के सामने प्रकट किया। उनकी गहरी भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु के अवतार भगवान नरसिंह उनके सामने पांच अलग-अलग रूपों में प्रकट हुए, श्री ज्वाला नरसिंह, श्री योगानंद, श्री गंडभेरुंड, श्री उग्रा और श्री लक्ष्मी नरसिंह। बाद में उन्होंने स्वयं को उत्कृष्ट मूर्तिकला के रूप में प्रकट किया, जिन्हें बाद में पंच नरसिंह क्षेत्र के रूप में पूजा जाने लगा। 

इस मंदिर के पुराण और पारंपरिक विवरण हैं, जो भक्तों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं। स्कंद पुराण में इस मंदिर की उत्पत्ति के बारे में उल्लेख है, जो प्रसिद्ध 18 पुराणों में से एक है।

इस गुफा मंदिर के गर्भगृह के शिखर पर चमकता हुआ भगवान विष्णु (जिनके अवतार भगवान नरसिंह हैं) का स्वर्ण सुदर्शन चक्र (लगभग 3 फीट x 3 फीट) है, जो श्रंगार के साथ-साथ हथियार का प्रतीक है, इस मंदिर को 6 किमी दूर से भी पहचाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि कई साल पहले चक्र उस दिशा में घूमता था जिस दिशा से भक्त आते थे, मानो एक कम्पास उन्हें मंदिर की ओर मार्गदर्शन कर रहा हो।

 रहस्यमय शक्ति और मूल्य रखने वाला यह चक्र एक अन्य किंवदंती यह भी है कि श्रीमन नारायण ने यदा की तपस्या से प्रसन्न होकर श्री अंजनेय को ऋषि को एक पवित्र स्थान पर निर्देशित करने के लिए भेजा, जहाँ भगवान ने श्री लक्ष्मी नरसिंह के रूप में उन्हें दर्शन दिए। यह स्थान यदागिरी पहाड़ी की तलहटी में स्थित एक मंदिर द्वारा चिह्नित है, और वर्तमान मंदिर से लगभग 5 किमी दूर स्थित है। वहाँ ऋषि ने कई वर्षों तक भगवान की पूजा की।

यदर्षि के मोक्ष प्राप्त करने के बाद, भगवान की उपस्थिति के बारे में सुनकर कई आदिवासी इस मंदिर में उनकी पूजा करने आए। लेकिन, बहुत अधिक विद्वान न होने के कारण, ये भक्त अनुचित पूजा में संलग्न होने लगे।

 इस वजह से, श्री लक्ष्मी नरसिंह पहाड़ियों में चले गए। आदिवासियों ने अपने भगवान को खोजने के लिए कई वर्षों तक खोज की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

कई साल बीत जाने के बाद, भगवान ने जनजाति की एक भक्त महिला के सपने में दर्शन दिए और उसे एक बड़ी गुफा की ओर निर्देशित किया, जहाँ उन्होंने खुद को पाँच राजसी अवतारों के रूप में सभी के सामने प्रकट किया।

इस मंदिर में आराधना और पूजा पंचरात्र आगम के अनुसार की जाती है। पूजा विधान (पूजा प्रक्रिया) स्वर्गीय श्री वंगीपुरम नरसिंहाचार्युलु द्वारा निर्धारित की गई थी, जिन्होंने यदागिरी सुप्रभातम, प्रपत्ति, स्तोत्रम, मंगलशासनम की रचना की और इस मंदिर के स्थानाचार्य के रूप में कार्य किया।

मान्यताएँ

जैसा कि मान्यता है, भगवान नरसिंह ने एक "डॉक्टर" की भूमिका निभाई है और इस मंदिर में उनके भक्त उन्हें "वैद्य नरसिंह" के नाम से जानते हैं, जो कई पुरानी बीमारियों को ठीक करते हैं और बुरे ग्रहों, जादू-टोने और काले जादू के प्रभाव में रहने वालों के लिए 'कल्याणकारी' की भूमिका निभाते हैं। कई उदाहरणों में भगवान के भक्तों के सपनों में प्रकट होने, दवा देने, रोगियों का ऑपरेशन करने और उन्हें अच्छे स्वास्थ्य का आशीर्वाद देने का उल्लेख किया गया है।

 कई भक्त ऐसे स्पष्ट सपनों के बारे में बताते हैं, जिनमें भगवान उन्हें पुरानी या घातक बीमारियों और यहां तक कि मानसिक या भावनात्मक समस्याओं से ठीक करने के लिए आते हैं। कई भक्तों द्वारा लंबे समय से चली आ रही बीमारी या पुरानी बीमारी से ठीक होने के लिए एक मंडल (40 दिन) प्रदक्षिणा बहुत लोकप्रिय है। अक्सर, भगवान ने स्वयं अपने सपनों में चुनिंदा भक्तों को मंत्रोपदेश दिया है।

आगंतुक पुरातनता

कोलनपुका जगददेवुनी नारायण स्वामी मंदिर में एक प्राचीन शिलालेख है जिसमें लिखा है कि ईसा के बाद 1148 में राजा त्रिभुवन मल्लू ने तेलंगाना में बोतल जीती। उन्होंने तेलंगाना में अपनी जीत के सम्मान में भोंगिर में एकशिला पहाड़ी पर एक किला बनवाया। उसी समय उन्होंने कई बार भगवान लक्ष्मी नरसिंह स्वामी के दर्शन किए। 15वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य सम्राट श्री कृष्णदेवरायलु ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि युद्ध पर जाते समय उन्होंने मंदिर का दौरा किया और भगवान से जीत के लिए प्रार्थना की। और भगवान नृसिंह स्वामी की कृपा से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई।

आइए जानते हैं यादगिरिगुट्टा मंदिर का इतिहास ?, यदागिरिगुट्टा सभी मौसमों में मध्यम जलवायु वाला सबसे अनोखा, सुंदर और सुखद पहाड़ी है और मंदिर तेलं
आइए जानते हैं यादगिरिगुट्टा मंदिर का इतिहास

आइए जानते हैं यादगिरिगुट्टा मंदिर का इतिहास

आइए जानते हैं यादगिरिगुट्टा मंदिर का क्या है इतिहास ?

यदागिरिगुट्टा सभी मौसमों में मध्यम जलवायु वाला सबसे अनोखा, सुंदर और सुखद पहाड़ी है और मंदिर तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद से लगभग 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। राजधानी शहर के पास स्थित होने के कारण मंदिर में पूजा के लिए आने वाले भक्तों / तीर्थयात्रियों का प्रवाह बहुत अधिक है।

हर दिन औसतन 5000-8000 से कम तीर्थयात्री अपनी मन्नतें मांगने, शाश्वत पूजा, शाश्वत कल्याणम, लक्ष तुलसी पूजा, अभिषेकम आदि करने के लिए इस मंदिर में आते हैं।

शनिवार, रविवार और अन्य सार्वजनिक छुट्टियों के दौरान भक्तों / तीर्थयात्रियों की भारी भीड़ होती है।

श्री लक्ष्मीनरसिंह स्वामी मंदिर या यदागिरिगुट्टा भगवान विष्णु के अवतार नरसिंह स्वामी का एक लोकप्रिय हिंदू मंदिर है।

यह तेलंगाना के नालगोंडा जिले में एक पहाड़ी पर स्थित है, यदागिरिगुट्टा रियागिर रेलवे स्टेशन से 6 KM की दूरी पर और भोंगीर शहर से 13 KM की दूरी पर और हैदराबाद शहर से 60 किलोमीटर की दूरी पर है।

कई वर्षों बीत जाने के बाद, भगवान एक जनजाति के बीच एक भक्त महिला के सपने में प्रकट हुए, उसे एक बड़ी गुफा का निर्देश दिया, जहाँ उन्होंने खुद को पांच राजसी अवतारों के रूप में सभी के सामने प्रकट किया। उनकी गहरी भक्ति से प्रसन्न होकर, भगवान विष्णु के अवतार भगवान नरसिंह उनके सामने पांच अलग-अलग रूपों में प्रकट हुए, श्री ज्वाला नरसिंह, श्री योगानंद, श्री गंडभेरुंड, श्री उग्रा और श्री लक्ष्मी नरसिंह। बाद में उन्होंने स्वयं को उत्कृष्ट मूर्तिकला के रूप में प्रकट किया, जिन्हें बाद में पंच नरसिंह क्षेत्र के रूप में पूजा जाने लगा।

इस मंदिर के पुराण और पारंपरिक विवरण हैं, जो भक्तों के बीच व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं। स्कंद पुराण में इस मंदिर की उत्पत्ति के बारे में उल्लेख है, जो प्रसिद्ध 18 पुराणों में से एक है।

इस गुफा मंदिर के गर्भगृह के शिखर पर चमकता हुआ भगवान विष्णु (जिनके अवतार भगवान नरसिंह हैं) का स्वर्ण सुदर्शन चक्र (लगभग 3 फीट x 3 फीट) है, जो श्रंगार के साथ-साथ हथियार का प्रतीक है, इस मंदिर को 6 किमी दूर से भी पहचाना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि कई साल पहले चक्र उस दिशा में घूमता था जिस दिशा से भक्त आते थे, मानो एक कम्पास उन्हें मंदिर की ओर मार्गदर्शन कर रहा हो।

रहस्यमय शक्ति और मूल्य रखने वाला यह चक्र एक अन्य किंवदंती यह भी है कि श्रीमन नारायण ने यदा की तपस्या से प्रसन्न होकर श्री अंजनेय को ऋषि को एक पवित्र स्थान पर निर्देशित करने के लिए भेजा, जहाँ भगवान ने श्री लक्ष्मी नरसिंह के रूप में उन्हें दर्शन दिए। यह स्थान यदागिरी पहाड़ी की तलहटी में स्थित एक मंदिर द्वारा चिह्नित है, और वर्तमान मंदिर से लगभग 5 किमी दूर स्थित है। वहाँ ऋषि ने कई वर्षों तक भगवान की पूजा की।

यदर्षि के मोक्ष प्राप्त करने के बाद, भगवान की उपस्थिति के बारे में सुनकर कई आदिवासी इस मंदिर में उनकी पूजा करने आए। लेकिन, बहुत अधिक विद्वान न होने के कारण, ये भक्त अनुचित पूजा में संलग्न होने लगे।

इस वजह से, श्री लक्ष्मी नरसिंह पहाड़ियों में चले गए। आदिवासियों ने अपने भगवान को खोजने के लिए कई वर्षों तक खोज की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

कई साल बीत जाने के बाद, भगवान ने जनजाति की एक भक्त महिला के सपने में दर्शन दिए और उसे एक बड़ी गुफा की ओर निर्देशित किया, जहाँ उन्होंने खुद को पाँच राजसी अवतारों के रूप में सभी के सामने प्रकट किया।

इस मंदिर में आराधना और पूजा पंचरात्र आगम के अनुसार की जाती है। पूजा विधान (पूजा प्रक्रिया) स्वर्गीय श्री वंगीपुरम नरसिंहाचार्युलु द्वारा निर्धारित की गई थी, जिन्होंने यदागिरी सुप्रभातम, प्रपत्ति, स्तोत्रम, मंगलशासनम की रचना की और इस मंदिर के स्थानाचार्य के रूप में कार्य किया।

मान्यताएँ

जैसा कि मान्यता है, भगवान नरसिंह ने एक "डॉक्टर" की भूमिका निभाई है और इस मंदिर में उनके भक्त उन्हें "वैद्य नरसिंह" के नाम से जानते हैं, जो कई पुरानी बीमारियों को ठीक करते हैं और बुरे ग्रहों, जादू-टोने और काले जादू के प्रभाव में रहने वालों के लिए 'कल्याणकारी' की भूमिका निभाते हैं। कई उदाहरणों में भगवान के भक्तों के सपनों में प्रकट होने, दवा देने, रोगियों का ऑपरेशन करने और उन्हें अच्छे स्वास्थ्य का आशीर्वाद देने का उल्लेख किया गया है।

कई भक्त ऐसे स्पष्ट सपनों के बारे में बताते हैं, जिनमें भगवान उन्हें पुरानी या घातक बीमारियों और यहां तक ​​कि मानसिक या भावनात्मक समस्याओं से ठीक करने के लिए आते हैं। कई भक्तों द्वारा लंबे समय से चली आ रही बीमारी या पुरानी बीमारी से ठीक होने के लिए एक मंडल (40 दिन) प्रदक्षिणा बहुत लोकप्रिय है। अक्सर, भगवान ने स्वयं अपने सपनों में चुनिंदा भक्तों को मंत्रोपदेश दिया है।

आगंतुक पुरातनता

कोलनपुका जगददेवुनी नारायण स्वामी मंदिर में एक प्राचीन शिलालेख है जिसमें लिखा है कि ईसा के बाद 1148 में राजा त्रिभुवन मल्लू ने तेलंगाना में बोतल जीती। उन्होंने तेलंगाना में अपनी जीत के सम्मान में भोंगिर में एकशिला पहाड़ी पर एक किला बनवाया। उसी समय उन्होंने कई बार भगवान लक्ष्मी नरसिंह स्वामी के दर्शन किए। 15वीं शताब्दी में विजयनगर साम्राज्य सम्राट श्री कृष्णदेवरायलु ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि युद्ध पर जाते समय उन्होंने मंदिर का दौरा किया और भगवान से जीत के लिए प्रार्थना की। और भगवान नृसिंह स्वामी की कृपा से उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति भी हुई।