क्या सरकार रेल हादसा को रोकने के लिए गंभीर है..?अगर है तो एंटी कॉलिजन सिस्टम (कवच) के लिए आवंटन के बाद भी काम क्यों नही हुआ..?

उड़ीसा के बालासोर में एक साथ तीन ट्रेनों के टक्कर,सैकड़ों लोगों की मौत,हज़ारों घायल के बाद देश दहल गया है। इसके बाद भी कई और छोटी रेल दुर्घटनाएं हो रही है तो कुछ लोको पायलट की सतर्कता के कारण टल रही है।

  

आज मोदी सरकार के उन्नत टेक्नोलॉजी का दावा ,बुलेट ट्रेन का सपना और विश्व के विकसित देशों को टक्कर देने के दिशा में आगे बढ़ रहे नए भारत के सामने यह दुर्घटना कई बड़े सवाल खड़े कर दिया है ।जिसका जवाब सरकार को देना चाहिए।

इस बड़ी हादसा के लिए जिम्मेदार कौन है ..? इसे भी जनता के सामने लाने की ज़रूरत हो गयी है । साथ हीं देश के पूरे सिस्टम और सभी मंत्रालय के काम पर किनका कमांड है।और किनके निर्देशों पर सारे काम हो रहे हैं इस बात को भी सार्वजनिक करने की जरूरत है।

 क्योंकि इस तरह के हादसे में किसकी लापरवाही है यह तय करने के लिए यह बहुत जरूरी है।आज रेल भारत का सबसे बड़ा तंत्र है जिसमे रेल मंत्री को बहुत बड़ी बनती है।वर्तमान रेल मंत्री प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं इस लिए इस मंत्रालय के काम को गंभीरता के साथ लेते हुए इन कमियों को दूर करनी चाहिए,लेकिन ऐसा नही हो पा रहा है।आज जहां-तहां से सिग्नल सिस्टम में गड़बड़ी आ रही है लगातार रेल पटरी से उतर रही है तो गलत ट्रैक पर चली जा रही है ,ऐसा क्यों हो रहा है यह बहुत गंभीर प्रश्न है।जिसपर सरकार को सोचना भी चाहिए और साथ में इस व्यवस्था में सुधार के लिए सरकार क्या करने जा रही है इस पर भी अपनी कार्ययोजना जनता के सामने लाना चाहिए ताकि लोग भरोसे के साथ रेल यात्रा कर सके।

वैसे इस दुर्घटना के बाद पीएम मोदी और रेल मंत्री ने कहा था कि अभी तो इस घटना में घायल यात्रियों की इलाज और उनकी जान बचाना प्राथमिकता है,लेकिन इस हादसे के लिए जो भी जिम्मेवार होगा जांच के बाद उसे भी नही छोड़ा जाएगा।

ठीक है सरकार इस वायदे पर खड़े उतरे इसके लिए पहले दोषी की पहचान हो कि लापरवाही कहाँ से हो रही है।इसके बाद कार्रवाई हो ना कि किसी को भी इस मामले में बलि का बकरा नही बनाया जाय।

 रेल भारत का एक ऐसा सरकारी प्रतिष्ठान है जिस पर सफर करने में देश की जनता पूरा भरोसा करती है।इस उम्मीद और भरोसे के साथ कि यह सबसे ज्यादा सुरक्षित है। 

लेकिन इस तरह के हादसा के बाद लोगों का विश्वास डोलने लगा है। इधर कुछ वर्षों में सरकार लगातार निजीकरण के दिशा में आगे बढ़ने, सभी सरकारी संस्थानों को निजी हाथों में सौपने की होड़ में इतना उलझ गई है कि इन भरोसेमंद संस्थानों के विकास और तकनीकी तौर पर उसे मज़बूत करने के दिशा में कोई कदम ही नही उठा पा रही है।

यह इस लिए भी कहा जा सकता है कि इस तरह की घटना के संकेत रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी ने 3 साल पहले दे दिया था।लेकिन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी ने इसे पूरी तरह अनदेखा कर दिया। इन दिनों सोशल मीडिया में उस रेलवे अधिकारी का पत्र वॉयरल हो रहा है जिसमे रेलवे के वरिष्ठ अधिकारी और दक्षिण पश्चिम रेलवे के चीफ ऑपरेशनल मैनजर हरिशंकर वर्मा ने रेलवे वोर्ड को पत्र लिखकर इंटरलॉकिंग सिस्टम में छेड़ छाड़, और गड़बड़ी बताते हुये बोर्ड को इस तरह के हादसा होने का आगाह किया था।क्योंकि उस समय भी बंगलुरु-दिल्ली सम्पर्क क्रांति एक्सप्रेस को मेन लाइन का सिग्नल देने के बाद भी गलत ट्रैक पर चला गया था।लेकिन लोको पायलट की सतर्कता के कारण हादसा टल गया।लेकिन बोर्ड की चुपी और लापरवाही के कारण फिर बालासोर में यही हुआ।एक ही ट्रैक पर तीन गाड़ी आ गयी और टकरा कर इतनी बड़ी हादसा हो गया।

   इस तरह के हादसा में दोष तो बोर्ड के अधिकारी और मंत्रालय के होते हैं लेकिन चार्जसीट स्टेशन मास्टर, लोको पायलट और अन्य अधिकारी को मिलता है। चाहे वर्ष 2014 मे हुए गोरखधाम एक्सप्रेस का चुरेब का हादसा हो या न्यू फरक्का की दुर्घटना हो सभी दुर्घटना के कारण फूल प्रूफ सिग्नल व्यवस्था की कमी बताई गई है लेकिन जब दुर्घटानाएँ होती है तो इस पर चर्चा होती है।मंत्री से लेकर अधिकारी तक इस पर कार्रवाई की बात करते हैं लेकिन इस व्यवस्था को सुधारने और मजबूत करने में उनकी लापरवाही ज्यों की त्यों बनी रहती है।

दुख तो इस बात की है कि इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिए फंड नही मिलता और मिलता है तो खर्च नही किया जाता है। इसका जिम्मेबार कौन है ? उसकी भी पहचान हो और इसमें लापरवाही बरतने वाले लोगों पर कार्रवाई भी हो।

  अभी ओडिसा रेल दुर्घटना के बाद दो बातों पर ज्यादा चर्चा हो रही है।एक तो सिग्नल और इंटरलॉकिंग व्यवस्था का फुलप्रूफ व्यबस्था की कमी और इसके लिए स्टाफ की कमी और दूसरा ट्रेन हादसा रोकने के लिए एंटी कॉलिजन सिस्टम(कवच) व्यवस्था के प्रति रेलवे बोर्ड की उदासीनता। कवच व्यवस्था को लेकर सरकार ने 2021 में दावा किया था कि एक ऐसा तकनीकी विकसित हो गया कि अगर रेल कभी भी गलत ट्रैक पर चला जायेगा तो कवच के कारण ट्रेन खुद रुक जाएगा और गड़बड़ी का पता चल जाएगा जिस से दुर्घटनायें रुक जाएगी।लेकिन कवच के लिए राशि आवंटित होने के बाद भी काम शुरू नही हुआ।

एक मीडिया हाउस के वित्तीय आंकड़ों की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट से जो जानकारी सामने आई है उसके अनुसार दक्षिण पूर्व क्षेत्रीय रेलवे जहां बालासोर ट्रेन हादसा हुआ, वहां के लिए एंटी कॉलिजन सिस्टम (कवच) के लिए राशि भी आवंटित की गई थी लेकिन उसे खर्च नहीं किया गया ना कवच लगाया गया।

दक्षिण पूर्व रेलवे के लिए कवच व्यवस्था को लागू करने के लिये 468.90 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई थी। जिसमे रेलवे नेटवर्क (1563 आरकेएम) पर स्वदेशी ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली (कवच) के लिए यह पैसा खर्च करने का प्रावधान था लेकिन मार्च 2022 में इसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया।

 इसी तरह इसी जोन के एक अन्य सेक्टर में दक्षिण पूर्व रेलवे में ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली (1563 आरकेएम) (2020-21 होने वाले कार्य) में कम कम आवाजाही वाले रेलवे नेटवर्क पर दीर्घकालिक विकास प्रणाली के लिए लगभग 312 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए थे लेकिन मार्च 2022 तक कोई पैसा खर्च नहीं किया गया और न ही 2022-23 के लिए परिव्यय में इसे लिया गया।

इसी तरह हेडर सिगनलिंग एवं टेलीकम्युनिकेशन के तहत दक्षिण पूर्व रेलवे के लिए 208 करोड़ की स्वीकृत दी गई थी।यह पैसा सबसे ज्यादा अवाजाही वाले रेलवे के रूट पर स्वचालित ब्लॉक सिगनलिंग, केंद्रीकृत यातायात नियंत्रण और ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली ( 2021-22 ) के लिए खर्च होना था लेकिन आज तक कोई पैसा खर्चा नहीं किया गया।

इस मामले में रेल मंत्रालय का बहाना है कि यह बजट इसलिए खर्च नहीं हुआ क्योंकि इस क्षेत्र में अभी तक सुरक्षा कार्यों के लिए कोई टेंडर हीं नहीं निकाले गए। डेटा का विश्लेषण 2023-24 के लिए सरकार के अपने बजट दस्तावेजों से किया गया है। लेकिन इन निष्क्रिय निधियों की स्थिति से पता चलता है कि भारत में सबसे अधिक आवाजाही वाले रेल नेटवर्क में एंटी कॉलिजन सिस्टम (कवच) को लागू करने की प्रक्रिया में बोर्ड की जिस तरह शिथिलता है उसमें काफी समय लग सकता है।

इस कार्य के लिए अनुसंधान डिजाइन और मानक संगठन (आरडीएसओ) ने तीन फर्मों- मेधा सर्वो ड्राइव्स, एचबीएल और केर्नेक्स को भारत में कवच उपकरण प्रदान करने के लिए मंजूरी दी है। बताया जा रहा है कि दो और कंपनियां इस पर काम कर रही हैं।लेकिन इसके वावजूद इस काम के लिए आवंटित निधि को भी खर्च करने और इस काम को जल्द कर इस तरह के हादसा के लिए रेल मंत्रालय,केंद्र सरकार कितना सजग है यह इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार के कार्य प्रणाली और इस हादसा के प्रति उनकी सजगता कितना गंभीर है।

 रेलवे बोर्ड अगर सजग होती,रेल मंत्रालय को अगर रेल पर सफर करने वाले यात्रियों की सुरक्षा की चिंता होती तो टेंडर भी निकल गया होता आवंटित राशि से कवच सिस्टम भी लागू हो जाती,और बालासोर दुर्घटना भी नही होती और लगभग 300 लोगों की जिंदगी भी बच जाती।अब सरकार को यह तय करना पड़ेगा कि सुरक्षा व्यवस्था के लिए आवंटित राशि को खर्च नही किये जाने के लिए जिम्मेबार कौन है ?सुरक्षा के लिए कमी कर्मचारियों को बहाल करने में किनकी लापरवाही है..?और इस हादसा का वजह क्या है..?इसका मंथन कर कार्रवाई हो।

साथ हीं यह सवाल उठने लगा है कि जब एंटी कॉलिजन सिस्टम के लिए पैसा आवंटित किए जाने के बाद भी काम नही हुआ है तो किया सरकार यह स्पष्ट करेगी कि यात्री की सुरक्षा और ट्रेन हादसा को रोकने के लिए सरकार कितना गंभीर है और कबच सिस्टम कब तक दुरुस्त करेगी।

बिहार दिवस पर विशेष:-संघर्ष के बाद बना था बिहार अलग प्रान्त,पर क्या हम बिहारियत की पहचान और अपनी विरासत को संभाल पाए हैं आज भी...?

(विनोद आंनद)


आज बिहार दिवस है ! वह बिहार जिसकी विरासत और प्राचीन परम्पराएं देश ही नही दुनिया के लिए एक अद्भुत और अविस्मणीय था। जो सम्पूर्ण आर्यावर्त के शासन का केंद्र विंदु था....। जो गौतम बुद्ध और बर्धमान महाबीर की धरती थी.....,जहां लिच्छवी गणराज्य के रूप में दुनिया का पहला लोकतंत्र का इज़ाद हुआ....। जहां नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविधालय थे....। आर्यभट्ट,नागार्जुन ,चाणक्य और अनगिनत ऐसे महापुरुष जिसकी बौद्धिक क्षमता और विद्वता ने पूरी दुनिया को एक दिशा दिया। उस बिहार की धरती को सदियों से दमित किया गया।उत्पीड़ित किया गया और कालांतर में यहां आक्रांताओं ने हमारी पहचान हमारे अस्तित्व को रौंदा और हम पिछड़ते गए। हमारी बिहारियत और हमारे अस्तित्व को खत्म करने में मुस्लिम शासक से लेकर ब्रिटिश हुकूमत तक ने कोई कोर कसर नही छोड़ा।और जो पाटलिपुत्र शासन के केंद्र था अंग्रेज ने उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया था। हमारा प्रान्त बंगाल का एक छोटा सा हिस्सा मात्र रह गया था।उपेक्षा और अपने बिहारियत के अस्तित्व को लेकर संगर्ष करता प्रान्त...! जिसको काफी संघर्ष के बाद हमने हासिल किया,पर क्या जिस सोच और बिहारियत कि पहचान को लेकर हमने अपने पूर्वजों की संघर्ष के बाद जिस बिहार को आज से 111 साल पहले पुनः हासिल किया उसे बरकारार रख पाए है हम. ! ये एक सवाल है हमारे सामने ।

 बिहारियत की पहचान और अस्तित्व की रक्षा के लिए आज से 111 साल पहले काफी संघर्ष के बाद बिहार को बंगाल से अलग कर 22 मार्च 1912 में अलग राज्य की स्थापना की गई क्या हम आज उस बिहारियत की पहचान बनाकर रख पाए। यह एक सवाल आज भी फिजा में गुंजायमान हो रहा है।

अगर हम बिहार को अस्तित्व में आने की बात करें तो ब्रिटिश शासन के दौरान 1912 के पहले बिहार -बंगाल एक सयुंक्त प्रान्त था।1765 में पलासी युद्ध के बाद पटना की प्रशासनिक पहचान ही मिट गई थी ।यह क्षेत्र एक मात्र भौगोलिक इकाई बनकर रह गया। अगले सौ साल तक तो बिहार की सांस्कृतिक पहचान तो रही लेकिन प्रांतीय और प्रशासनिक पहचान मिट गई।

सबसे पहले 1870 में मुंगेर से निकलने वाले उर्दू अख़बार ने 'बिहार विहारियों के लिए' नारा देकर इस मुद्दा को उठाया।उसके बाद 1894 में बिहार टाइम्स और बिहार बंधु के सम्पादक केशव भट्ट ने इसे बौद्धिक आंदोलन का रुप देते हुए इस मांग को आगे बढ़ाया। इस तरह अलग बिहार को लेकर संघर्ष बढ़ता गया और बिहार अलग प्रान्त को लेकर आवाज उठने लगी। 

 इसका कारण था।बिहार का लगातार उपेक्षा,बिहारियों को उनके अधिकार से वंचित रखना, प्रभवशाली पदों पर बंगालियों का बर्चस्व बने रहना,यहां के स्थानीय जमींदारों को महत्व नही दिया जाना ,इसके अलावे और कई कारण थे जिसके कारण अलग बिहार प्रान्त की मांग उठती रही

सच्चिदानंद सिन्हा

1900 ईसवी के बाद सच्चिदानंद सिन्हा ने बिहारी शब्द और बिहारियत कि पहचान को लेकर आंदोलन शुरु किया।जिसे बिहार में बंगाली विरोधी आंदोलन के रूप में इसे देख गया। इस दौरान कई विद्वानों ने बिहार के पिछड़ेपन का कारण बंगाल का अंग बने रहना बताया गया। ऐसे विद्वानों में एल एस एस ओ मौली और बीसीपी चौधरी जैसे विद्वान और जानकार लोग थे जिन्होंने स्वीकार किया कि बिहार के पिछड़ेपन का कारण बंगाल का हिस्सा बने रहना बताया गया। 

उस समय बंगाली समुदाय का दबदबा हर प्रशासनिक पदों पर था। बिहार के प्रति अंग्रेज अधिकारी भी लापरवाह दिखे।यहां उधोग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय, और सामाजिक क्षेत्रों में भी पिछड़ापन रहा।उस समय सरकारी कार्यालय से लेकर हर जगह बंगलियों का कब्जा था। जिसके कारण स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना संभव नहीं था। 

स्कूल से लेकर अदालत और सरकारी दफ्तरों में नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व बना हुआ हुआ था।बिहारियों को दोयम दर्जे की नागरिक बना दी गयी थी।

 बिहार बन्धु ने तो यहां तक लिख दिया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियां खा रहे हैं, जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं। सरकारी मत भी यही था कि बंगाली बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं ।

1872 में, तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा कि हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है।

सच तो यह था कि नौकरियों में बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार लेते थे, बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में

एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार से बंगाल को एक तिहाई राजस्व देने के बाद भी यहां सुविधाएं नदारद थी। उस समय बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख थी जो पूरे बंगाल का एक तिहाई राजस्व देते थे। बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से बिहारी सिर्फ 3 थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे। कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था। बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कल-कारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) । 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी।

 इस तरह बिहार की उपेक्षा और पिछड़ापन को लेकर आक्रोश बढ़ता गया। और अंततः सच्चिदानंद सिन्हा सरीखे कुछ युवाओं के निर्णायक लडाई के कारण और इस लड़ाई को कांग्रेस का समर्थन मिल जाने के कारण बिहार प्रान्त बंगाल से अलग होकर 22 मार्च 1912 में अस्तित्व में आयाक्रमश:(शेष अगले अंक में...)

थी।

क्या बिहार में यूट्यूबर मनीष कश्यप पर हो रही करवाई सोशल मीडिया के लिए सबक है या चुनौती....?

(विनोद आनंद)

 बिहार निवासी यूट्यूबर मनीष कश्यप उर्फ त्रिपुरारी कुमार तिवारी,चर्चा में हैं। उन्हें अभी चर्चा में लाने वाले बिहार सरकार और बिहार सरकार की पुलिस प्रशासन है। यू तो अपने स्टाइल और कार्य पद्धति से वे हमेशा चर्चा में रहे लेकिन अभी की चर्चा से उन्हें सहानुभूति भी मिल रही है साथ हीं साथ इस कार्रवाई से जेल से निकलने के बाद मनीष कश्यप के कद और लोकप्रियता बिहार और बिहारी के लिए एक मिथक भी बन जायेगा।साथ हीं साथ यह बहस भी छिड़ जाएगा कि-क्या बिहार में यूट्यूबर मनीष कश्यप पर हो रही करवाई सोशल मीडिया के लिए सबक है या चुनौती....?े

यूँ तो मनीष सिविल इंजीनियरिंग करने के बाद नौकरी में नही गए। रोजगार की जो स्थिति है ऐसे हालात में बीटेक हो या एमटेक, एमबीए हो या कोई अन्य अन्य उच्च डिग्रीधारी।आज ये सारे युवा एक सपना लेकर ये डिग्रियां हासिल करते हैं। लेकिन रोजगार और सरकार की जो व्यवस्था है ये उच्च डिग्रीधारी विवशता में मज़दूरी कर रहे हैं,चाय बेच रहे,पकौडे तल रहे हैं, लिट्टी बेच रहे हैं। कुछ लोग अपने इस व्यवसाय में सफल हो रहें हैं तो कुछ हताश निराश होकर आत्महत्या भी करने को मजबूर हो रहे हैं। यह परिस्थिति सरकार पर एक बड़ा सवाल भी है। और भारत की पूरी व्यवस्था पर चोट भी ।

ऐसे हालात में मनीष ने अगर सिविल इंजीनियरिंग करके भी सड़को पर माइक और कैमरा लेकर जनता के इसी सवाल को उठाने का निर्णय लिया तो कोई गलत काम नही किया। कुछ लोगों को छोड़कर जनता भी यही मानती है और समझती है।

आज मनीष कश्यप जेल में है।उनपर आरोप है कि उसने तमिलनाडू में वहां के स्थानीय लोगों द्वारा बिहारी मज़दूरों पर हमला का झूठा खबर बनाकर अफवाह फैलाया था।जिसके कारण वहां मज़दूरों में भगदड़ मच गयी।

इस खबर में कितनी सच्चाई थी,क्या मज़दूरों के साथ मारपीट हुई या नही यह जांच का विषय है।जिसे दोनो राज्यों की सरकार को करनी चाहिए और सच जो भी हो उसे सामने लाना चाहिए।साथ हीं,अफवाह फैलाने वालों पर भी जो न्यायसंगत करवाई उसे करना चाहिए।इसमे ना तो मुझे आपत्ति है और नही और किसी और को होगी।

क्योंकि यह खबर सिर्फ मनीष कश्यप जैसे यूट्यूबर के वीडियो में नही आया था बल्कि देश भर के समाचार पत्रों में भी सुर्खियां बनी थी।अगर किसी तरह की कोई घटना नही घटी तो किस एजेंसी और किस सूत्र से यह इतना बड़ा खबर देश भर में फैला इसकी भी जांच होनी चाहिए, और उन सभी पर भी इसी तरह की कार्रवाई होनी चाहिए।तभी सरकार की निष्पक्षता,पारदर्शिता सामने आएगी।

   फिलहाल इस तरह की घटना के बाद दो सवाल उठना चाहूंगा कि क्या जो बिहारी मज़दूर पूरे देश के विकास और कल- कारखानों में उत्पादन के रीढ़ है उसका देश भर में उपहास नही उड़ाया जाता है...? 

दूसरा सवाल वर्तमान सरकार और पूर्व की सरकार जो मज़दूरों और दलितों के मसीहा हैं,क्या बिहारियों के लिए ऐसा रणनीति बनाने में सफल रहे जिस से बिहार के लोगों को अपने हीं राज्यों से भाग कर बाहर नही जाना पड़े उन्हें यहां हीं रोजगार मिल सके..?

ऐसा नही हो पाया। लाजमी है इस मामले में सरकार कटघडे में खड़ी हैं। सरकार को राज्य में ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि यहां उधोग लगे,लेकिन सुशासन सरकार के राज्य को आज भी अपराध मुक्त नही किया जा सका इसलिए कोई उधमी इस राज्य में निवेश का साहस नही जुटा पा रहें हैं। प्रशासनिक और सरकारी कर्मचारी की कार्यपद्धति में भी सुधार नही हो सका कि जो उधमी यहां आए तो उन्हें तुरंत सारी सुबिधाएं या उनकी कागजी प्रक्रिया आसानी से हो सके।

  कोरोना काल में बिहारी मज़दूरों का जो हश्र हुआ उसके बाद सरकार ने बड़ी - बड़ी घोषणाएं की जिला स्तर पर रोजगार के अवसर सृजित करने का निर्देश दिया गया । बिहार के पान ,मखान ,आम ,लीची मछली और कई पारम्परिक उत्पाद को अंतरास्ट्रीय मार्केट में ब्रांडिग की योजना बनी,कृषि आधारित और कपड़ा उधोग को बढ़ावा देने और बाहर से आये कुशल-अकुशल मज़दूरों को श्रेणीबद्ध कर उसे रोजगार उपलब्ध कराने के अवसर की बात की गई। उसका क्या हुआ..? सरकार को इसका जवाब देना चाहिए।लेकिन इस दिशा में कुछ भी नही हो रहा है।

  इस में रत्तीभर संदेह नही कि जो बिहार के लोग भारत को मजबूत करने,देश के विकास की रीढ़ के रूप में बिहार और बिहार के बाहर देश भर में काम कर रहे हैं।उनको सम्मान दिए जाने के बजाय उसके साथ हमेशा गलत व्यवहार होता रहा है,उसे मारपीट कर भगाया जाता भी रहा है, उसे नीचा दिखाया जाता भी रहा है। और राजनेता भी उसके बारे में गाहे - बगाहे गलत टिप्पणी करने से नही चुके। इसके लिए अगर उसके सम्मान और हक की बात मनीष कश्यप जैसे लोग करते हैं तो उस पर गर्व होना चाहिए। साथ हीं पूर्वांचल के हर राज्यों के लोगों के लिए अपने राज्यों में हीं ऐसा इंफ्रास्ट्रक्टर डेवलप करना चाहिए कि अधिक से अधिक लोगों को रोजगार मिल सके ना कि सरकार अपनी ताकत मनीष कश्यप जैसे लोगों पर उपयोग करे।

 मनीष कश्यप के पत्रकारिता का स्टाइल का भी हम समर्थन नही कर सकते।लेकिन उसके काम और जज्बा को अनदेखा भी नही किया जा सकता।

मनीष महत्वाकांक्षी युवा है।और वह 2020 में विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुका है। इस घटना के बाद कानूनी प्रक्रिया को उसे हंस कर कबूल कर लेना चाहिए और बिहार सरकार और बिहार पुलिस का शुक्रिया भी अदा करना चाहिए कि उसके लिए 2024 में विधानसभा में जाने का रास्ता साफ कर दिया है। इस घटना के बाद जिस तरह उसकी लोकप्रियता और उस पर देश भर में जिस तरह बहस छिड़ गई है।उसके बाद कुछ पार्टी उसके लिए अभी से टिकट लेकर विधानसभा मे उसे भेजने की योजना बनाने लगे हैं । और मनीष इसके लिए मेहनत कर भी रहे थे। 

   इस मामले में कोर्ट न्याय संगत फैसला लेगा।ये अकेले पत्रकार नही है जिनपर केस हुई है।देश भर में कई पत्रकार हैं जिनपर केस चल रहा है, जेल में हैं भी।लेकिन हमें गर्व है कि हमारी न्याय व्यवस्था इतनी मजबूत है कि देर सबेर ऐसे लोगों को न्याय मिलता है।और सबकुछ ठीक हो जाता है। इसके साथ ही सरकारों पर भी सवाल उठती है कि इसी तरह की तत्परता सभी मामले में उठाये जाये ..? 

इन सारे सवालों का जवाब सरकार को देनी चाहिए। साथ हीं साथ उन सभी सोशल मीडिया के पत्रकारों के लिये ये सबक भी है कि आप किसी भी खबर को पूरे तथ्य और प्रमाण के साथ हीं उठाएं ताकि इस तरह की परिस्थितियां सामने नही आये।आज देखा जा रहा कि लोग अपने सब्सक्राइबर बढ़ाने न्यूज़ के टीआरपी को बढ़ाने के लिए कई तरह के हथकंडा अपनाते हैं।गलत सही खबरों के जरिये अधिक लोगों तक पहुंचने का प्रयास करते हैं इस पर भी अंकुश लगना चाहिए।और इस तरह की कार्रवाई से ऐसे प्रवृति पर रोक लग सकती है।इस से सभी यूट्यूबर और सोशल मीडिया से जुड़े लोगों को सबक भी लेनी चाहिए।

सम्पादकीय:- आपसी भाईचारा और सौहार्द का पर्व है होली ! आइये मिलकर हम स्नेह का दीप जलाएं और अपनों के बीच की दूरियां मिटायें

(विनोद आनंद)

रंगों का त्योहार होली आज है ! यह पर्व उमंग, उल्लास, मस्ती और रोमांच का पर्व है। इस पर्व के बहाने समाज में आपसी भाईचारा और सौहार्द का वातावरण भी बनता है। यह पर्व हमारे भारतीय परंपरा का एक अनूठा पर्व है जो हमे एक दूसरे से जोड़ता है और और प्रेम का आह्वान करता है। 

हमारे भारतीय परंपरा और संस्कृति में हमें कई ऐसे पर्व विरासत में मिला है जो हमारे सामाजिक बंधन को मजबूत बनाता है। हमारे संस्कृति और पर्व के बीच एक ऐसा प्रगाढ संबंध है जो हमें और हमारी सामाजिक व्यवस्था को मजबूत करता आया है। इसलिए हम अलग अलग भाषा, संस्कृति, विभिन्न सामाजिक परिवेश के वाबजूद भी हम सब आज एक हैं।

होली के लेकर हमारी यह मान्यता रही है कि हमारे अंदर की कलुषित भावनाओं का होलिका दहन के साथ समाप्त हो जाता है और नेह की ज्योति जलाते हुए हम सभी एक रंग में रंगकर बंधुत्व को बढ़ाते हैं । होली पर्व का यही संदेश भी है।इस भारतीय पर्व का धमक देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी पहुंच चुका है और पूरे जोश खरोश के साथ लोग इस पर्व को मना रहे हैं। भले हीं विदेशों में मनाई जाने वाली होली मौसम और समय अलग-अलग हो, पर संदेश सभी का एक ही है आपसी प्रेम और भाईचारा।

होली शीत ऋतु की विदाई और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का सांकेतिक पर्व है। इस समय बसंत के बाद पतझड़ के कारण साख से पत्ते टूटकर दूर हो रहे होते हैं। महुए की गंध की मादकता, पलाश और आम की मंजरियों की महक से चमत्कृत कर देने वाला मौसम फाल्गुन मास की निराली बासंती हवाओं में संस्कृति के परंपरागत परिधानों में आंतरिक प्रेमानुभूति सुसज्जित होकर चहुंओर मस्ती की भंग आलम बिखेरती है, जिससे दु:ख-दर्द भूलकर लोग रंगों में डूब जाते हैं।

जब बात होली की हो, तो ब्रज की होली को भला कैसे भुला जा सकता है? ढोलक की थाप और झांझों की झंकार के साथ लोकगीतों की स्वर-लहरियों से वसुधा के कण-कण को प्रेममय क्रीड़ाओं के लिए आकर्षित करने वाली होली ब्रज की गलियों में बड़े ही अद्भूत ढंग से मनाई जाती है। 

फागुन मास में कृष्ण और राधा के मध्य होने वाली प्रेम-लीलाओं के आनंद का त्योहार होली प्रकृति के साथ जनमानस में सकारात्मकता और नवीन ऊर्जा का संचार करने वाला है। 

होली में नायक और नायिका के बीच बढ़ रही चुहलपन,प्रेम और प्रगाढ सम्बन्धों को हिन्दी के कई रचनाधर्मी कवियों ने अपनी रचनाओं में बहुत ही प्रभावी ढंग से ढाला है, वाकई यह सभी प्रसंग बहुत ही अद्भूत है। अनुराग और प्रीति के त्योहार होली का भक्तिकालीन और रीतिकालीन काव्य में सृजनधर्मी रचना प्रेमियों ने बखूबी से चित्रण किया है। आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्तिकालीन कवि सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीरा, कबीर और रीतिकालीन कवि बिहारी, केशव, घनानंद सहित सगुन साकार और निर्गुण निराकर भक्तिमय प्रेम और फाल्गुन का फाग भरा रस सभी के अंतस की अतल गहराइयों को स्पर्श करके गुजरा है।

 सूफी संत अमीर खुसरो ने प्रेम की कितनी उत्कृष्ट व्याख्या की है-

 'खुसरो दरिया प्रेम का, सो उल्टी वाकी धार। जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा हुआ पार।।'

 बेशक, होली का त्योहार मन-प्रणय मिलन और विरह-वेदना के बाद सुखद प्रेमानुभूति के आनंद का प्रतीक है। राग-रंग और अल्हड़पन का झरोखा, नित नूतन आनंद के अतिरेकी उद्गार की छाया, राग-द्वेष का क्षय कर प्रीति के इन्द्रधनुषी रंग बिखेरने वाला होली का त्योहार कितनी ही लोककथाओं और किंवदंतियों में गुंथा हुआ है।

प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कथा जनमानस में सर्वाधिक प्रचलित है। बुराई का प्रतीक होलिका अच्छाई के प्रतीक ईश्वर-श्रद्धा के अनुपम उदाहरण प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं कर सकी। बुराई भले कितनी ही बुरी क्यों न हो, पर अच्छाई के आगे उसका मिटना तय है।

लेकिन इसके विपरीत आज बदलते दौर में होली को मनाने के पारंपरिक तरीकों की जगह आधुनिक अश्लील तरीकों ने ले ली है जिसके फलस्वरूप अब शरीर के अंगों से केसर और चंदन की सुगंध की बजाय गोबर की दुर्गंध आने लग गई है। लोकगीतों में मादकता भरा सुरमय संगीत विलुप्त होने लगा है और अब उसकी जगह अभद्र शब्दों की मुद्राएं भी अंकित दिखलाई पड़ने लगी हैं।

हमे बस यही ख्याल रखना है कि होली के इस महान पर्व को अपने विरासत में मिली परम्परा का निर्वहन करते हुए जिस उधेश्य से इस पर्व को हमारे पूर्वज मानते आए हैं उसे हम बरकरार रखें।

भाईचारा, सौहार्द वातावरण कायम करते हुए हम समाज को संदेश दें कि हमारी संस्कृति हमारी सोच और हमारा समृद्ध परंपरा महान है।

  पिछले दो सालों से वैश्विक महामारी के कारण हम होली या अन्य पर्व को नही ढंग से मना पाए,अपनो से हम कटे रहे,इस बीच थोड़ी दूरी भी बनी ,हम इस होली के अवसर पर हम अपने संबंधों,अपने प्रेम और अपनी भाईचारा के रंगों में रंग कर मज़बूत बनाएं। इसी कामनाओं के साथ होली के अवसर पर स्ट्रीटबज़्ज़ पाठकों को ढेर शुभकामनाएं।