अनुच्छेद–142 न्यूक्लियर मिसाइल बना, राष्ट्रपति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर भड़के धनखड़

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सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समयसीमा तय की थी। इस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि भारत में ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां न्यायाधीश कानून बनाएंगे और कार्यकारी जिम्मेदारी निभाएंगे।

जज 'सुपर संसद' के रूप में काम करेंगे-धनखड़

राज्यसभा के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि एक हालिया फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिया गया है। हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? हमें इसे लेकर बेहद संवेदनशील होने की जरूरत है। हमने इस दिन की कल्पना नहीं की थी, जहां राष्ट्रपति को तय समय में फैसला लेने के लिए कहा जाएगा और अगर वे फैसला नहीं लेंगे तो कानून बन जाएगा।उपराष्ट्रपति ने कहा कि अब जज विधायी चीजों पर फैसला करेंगे। वे ही कार्यकारी जिम्मेदारी निभाएंगे और सुपर संसद के रूप में काम करेंगे। उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं होगी क्योंकि इस देश का कानून उन पर लागू ही नहीं होता।

अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल

उपराष्ट्रपति ने कहा, हम ऐसे हालात नहीं बना सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें। संविधान का अनुच्छेद 142 के तहत मिले कोर्ट को विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24x7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। दरअसल, अनुच्छेद 142 भारत के सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय (कम्पलीट जस्टिस) करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है, चाहे वह किसी भी मामले में हो।

जस्टिस यशवंत वर्मा के मिली नगदी का किया जिक्र

उपराष्ट्रपति ने दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के घर से भारी मात्रा में नकदी मिलने की घटना का जिक्र किया। उन्होंने कहा, '14 और 15 मार्च की रात नई दिल्ली में एक जज के घर पर एक घटना हुई। सात दिनों तक किसी को इसके बारे में पता नहीं चला। हमें खुद से सवाल पूछने होंगे। क्या इस देरी को समझा जा सकता है? क्या इसे माफ किया जा सकता है? क्या इससे कुछ बुनियादी सवाल नहीं उठते? किसी भी सामान्य स्थिति में, और सामान्य स्थितियां कानून के शासन को परिभाषित करती हैं - चीजें अलग होतीं। यह केवल 21 मार्च को एक अखबार द्वारा खुलासा किया गया था, जिससे देश के लोग पहले कभी नहीं इतने हैरान हुए।

क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने?

दरअसल, 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के मामले में ऐतिहासिक फैसला लिया था। अदालत ने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा।

इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। 11 अप्रैल की रात वेबसाइट पर अपलोड किए गए ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है। उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला न्यायपालिका करेगी।

वक्फ कानून के कुछ प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट चिंतित, आज दे सकती है अंतरिम आदेश

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सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वक्फ (संशोधन) अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की अगुवाई वाली बेंच ने बुधवार को साफ संकेत दिए कि कुछ प्रावधानों पर रोक लगाई जा सकती है। खासकर ‘वक्फ बाय यूजर’, गैर-मुस्लिम प्रतिनिधियों की वक्फ बोर्ड में नियुक्ति और जिलाधिकारियों को वक्फ जमीन की स्थिति तय करने का अधिकार। इन पर कोर्ट गंभीरता से विचार कर रहा है। ऐसे में आज सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई काफी अहम है।

“नए कानून के तीन प्रावधान चिंताजनक”

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने बुधवार को तीन मुख्य चिंताएं बताईं। पहली, वक्फ की संपत्तियां जो पहले अदालती आदेशों से वैध घोषित की गई थीं, अब शायद अवैध हो जाएंगी। दूसरी, वक्फ काउंसिल में गैर-मुस्लिमों को बहुमत मिल सकता है। तीसरी, विवादित वक्फ संपत्ति पर कलेक्टर की जांच लंबित रहने तक, यह घोषणा कि इसे वक्फ संपत्ति नहीं माना जाएगा, चिंताजनक है।

“अंतरिम आदेश हिस्सेदारी को संतुलित करेगा”

चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने कहा, हमारा अंतरिम आदेश हिस्सेदारी को संतुलित करेगा। पहला, हम आदेश में कहेंगे कि न्यायालय की ओर से वक्फ घोषित की गई किसी भी संपत्ति को गैर अधिसूचित नहीं किया जाएगा, यानी उसे गैर वक्फ नहीं माना जाएगा, फिर चाहे वह संपत्ति उपयोगकर्ता की ओर से वक्फ की गई हो या विलेख के जरिए। दूसरा, कलेक्टर किसी संपत्ति से संबंधित अपनी जांच की कार्यवाही जारी रख सकता है, पर कानून का यह प्रावधान प्रभावी नहीं होगा कि कार्यवाही के दौरान संपत्ति गैर वक्फ मानी जाए। तीसरा, बोर्ड व परिषद में पदेन सदस्य नियुक्त किए जा सकते हैं, लेकिन अन्य सभी सदस्य मुस्लिम होने चाहिए।

“कुछ प्रावधानों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं”

सीजेआई खन्ना ने कहा कि वक्फ बाय यूजर को गैर-अधिसूचित करने के बहुत गंभीर परिणाम होंगे। उन्होंने यह भी कहा कि अधिनियम के कुछ प्रावधानों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इसलिए, उन्होंने कहा कि बेंच एक अंतरिम आदेश पर विचार करेगी। सीजेआई ने कहा, एकतरफा रोक के संबंध में, हमारे (अदालत) पास कुछ अधिकार हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि आम तौर पर अदालतें विधायिका द्वारा पारित कानून पर प्रवेश स्तर पर रोक लगाने से बचती हैं, लेकिन 'इस मामले में कुछ अपवाद हैं।'

सुनवाई के आखिर में पीठ ने केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के अनुरोध पर बृहस्पतिवार को भी विचार करने का फैसला किया। जिसमें वह तय करेगा कि सुनवाई खुद करेगा या किसी हाईकोर्ट को सौंपेगा। सुप्रीम कोर्ट में ये सिर्फ कानून की बहस नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ की भी परीक्षा है जिसमें वक्फ की परंपरा सदियों से मौजूद रही है।

वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई,सिब्बल और सिंघवी ने दी क्या बड़ी दलीलें

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वक्फ संशोधन कानून के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के वी विश्वनाथन की तीन सदस्यीय पीठ इस मुद्दे पर दायर 73 याचिकाओं पर सुनवाई की। सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्षकारों ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक वक्फ कानून पर रोक लगे। वहीं, मामले की सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने कहा कि यह कानून धार्मिक मामलों में दखल देता है। साथ ही यह बुनियादी जरूरतों का अतिक्रमण करता है। वहीं, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने नए वक्फ कानून का बचाव किया। उन्होंने कहा, यह सिर्फ एक कानून नहीं है, यह जेपीसी द्वारा विचार-विमर्श के बाद आया है। उन्होंने 98 लाख से ज़्यादा ज्ञापनों पर विस्तृत चर्चा की।

सिब्बल ने कहा अनुच्छेद 26 का उल्लंघन

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अपनी दलीलें पेश कीं। सिब्बल ने कहा कि यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन करता है, जो धार्मिक समुदायों को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता देता है। उन्होंने सवाल उठाया, कानून के मुताबिक, मुझे अपने धर्म की आवश्यक प्रथाओं का पालन करने का अधिकार है। सरकार कैसे तय कर सकती है कि वक्फ केवल वही लोग बना सकते हैं, जो पिछले पांच साल से इस्लाम का पालन कर रहे हैं? सिब्बल ने यह भी तर्क दिया कि इस्लाम में उत्तराधिकार मृत्यु के बाद मिलता है, लेकिन यह कानून उससे पहले ही हस्तक्षेप करता है। उन्होंने अधिनियम की धारा 3(सी) का हवाला देते हुए कहा कि इसके तहत सरकारी संपत्ति को वक्फ के रूप में मान्यता नहीं दी जाएगी, जो पहले से वक्फ घोषित थी।

यह पूरी तरह से सरकारी टेकओवर- सिब्बल

कपिल सिब्बल ने कहा कि यह पूरी तरह से सरकारी टेकओवर है। सिब्बल ने राम जन्मभूमि के फैसले का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि धारा 36, आप उपयोगकर्ता द्वारा बना सकते हैं, संपत्ति की कोई आवश्यकता नहीं है। मान लीजिए कि यह मेरी अपनी संपत्ति है और मैं इसका उपयोग करना चाहता हूं, मैं पंजीकरण नहीं करना चाहता।

सीजेआई ने कहा कि पंजीकरण में क्या समस्या है? सिब्बल ने कहा कि मैं कह रहा हूं कि उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ को समाप्त कर दिया गया है, यह मेरे धर्म का अभिन्न अंग है, इसे राम जन्मभूमि फैसले में मान्यता दी गई है। सिब्बल ने कहा कि समस्या यह है कि वे कहेंगे कि यदि वक्फ 3000 साल पहले बनाया गया है तो वे डीड मांगेंगे।

अभिषेक मनु सिंघवी ने क्या कहा?

वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी दलीलें दीं और कहा, हमने सुना है कि संसद की जमीन भी वक्फ की है। वहीं, सीजेआई खन्ना ने जवाब दिया, हम यह नहीं कह रहे कि सभी वक्फ गलत तरीके से पंजीकृत हैं, लेकिन कुछ चिंताएं हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि इस मामले की सुनवाई हाई कोर्ट को सौंपी जा सकती है। इस पर अभिषेक मनुसिंघवी ने कहा कि वक्फ संसोधित अधिनियम के रूल 3( 3)(डीए) में कलेक्टर को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। लोगों को अधिकारी के पास जाने के लिए बनाया गया है। सिंघवी ने कहा कि अनुच्छेद 25 और 26 को पढ़ने से ज्यादा अनुच्छेद 32 क्या है, यह ऐसा मामला नहीं है जहां मीलॉर्ड्स को हमें हाई कोर्ट भेजना चाहिए

जस्टिस बीआर गवई होंगे अगले चीफ जस्टिस, 14 मई को संभालेंगे कार्यभार

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मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना ने आज बुधवार को केंद्र सरकार से अगले सीजेआई के रूप में जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई के नाम की सिफारिश कर दी है। सीजेआई खन्ना के बाद जस्टिस गवई सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ जज हैं। सीजेआई खन्ना 13 मई को रिटायर हो रहे हैं और उनके बाद गवई देश के 52वें सीजेआई बनेंगे। वो देश के अगले सीजेआई के तौर पर 14 मई को शपथ लेंगे।

आपको बता दें कि संजीव खन्ना ने भारत के 51वें सीजेआई के तौर पर पिछले साल 11 नवंबर को शपथ ली थी। उन्हें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शपथ दिलाई थी। उन्होंने पूर्व सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की जगह ली थी। डीवाई चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर हुए थे। नए सीजेआई संजीव खन्ना का कार्यकाल 6 महीने का है। वो 13 मई 2025 तक सीजेआई के पद पर रहेंगे।

जस्टिस बीआर गवई का जन्म 24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ था। उनके पिता आरएस गवई एक प्रसिद्ध राजनेता थे, जो रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (गवई) से सांसद और बाद में राज्यपाल रहे। उनके भाई राजेंद्र गवई भी एक राजनेता हैं। जस्टिस गवई ने अपनी कानून की पढ़ाई नागपुर विश्वविद्यालय से पूरी की और 1985 में वकालत शुरू की। इसके बाद बॉम्बे हाई कोर्ट में उन्‍होंने वकालत से की। 2000 में उन्‍हें बॉम्बे हाई कोर्ट में स्थायी जज बनाया गया। 2019 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया।

जस्‍ट‍िस गवई के अहम फैसले

जस्टिस गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने यूपी में बुल्‍डोजर एक्‍शन पर रोक लगाने वाला फैसला सुनाया था। जस्टिस गवई उन 5 जजों की संविधान पीठ का हिस्सा रहे, जिसने दिसंबर 2023 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त करने के केंद्र के फैसले को सर्वसम्मति से बरकरार रखा था। एक अन्य पांच जजों की संविधान पीठ, जिसमें जस्टिस गवई भी शामिल थे, ने राजनीतिक फंडिंग के लिए चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया था।

इसके अलावा वे 5 जजों वाली उस संविधान पीठ का भी हिस्सा रहे, जिसने 4:1 के बहुमत से 1,000 और 500 रुपये के नोट बंद करने के केंद्र के 2016 के फैसले को अपनी मंजूरी दी थी। जस्टिस गवई 7 जजों वाली उस संविधान पीठ का भी हिस्सा रहे, जिसने 6:1 के बहुमत से स्वीकार किया था कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है।

राज्यपाल के बाद राष्ट्रपति के लिए भी समय सीमा तय, सुप्रीम कोर्ट ने कहा- तीन महीने में हो बिल पर फैसला

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अब राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला करना होगा। अपनी तरह के पहले फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश के राष्ट्रपति के लिए भी समय सीमा तय की है। दरअसल, 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के मामले में ऐतिहासिक फैसला लिया था। अदालत ने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा। इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की।

सुप्रीम कोर्ट का राज्यपाल के मामले में फैसला शुक्रवार को ऑनलाइन अपलोड हो गया है। शीर्ष अदालत की तरफ से तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि की तरफ से राष्ट्रपति के विचार के लिए रोके गए और आरक्षित किए गए 10 विधेयकों को मंजूरी देने और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए सभी राज्यपालों के लिए समयसीमा निर्धारित की थी। फैसला करने के चार दिन बाद, 415 पृष्ठों का निर्णय शुक्रवार को रात 10.54 बजे शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर अपलोड किया गया।

फैसले की न्यायिक समीक्षा

शुक्रवार रात वेबसाइट पर अपलोड किए गए ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने कहा कि अनुच्छेद, 201 के तहत राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है। उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला न्यायपालिका करेगी।

फैसले में देरी के लिए वजह बताना होगा

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, कानून की स्थिति यह है कि जहां किसी कानून के तहत किसी शक्ति के प्रयोग के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, वहां भी उसे उचित समय के भीतर प्रयोग किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों का प्रयोग कानून के इस सामान्य सिद्धांत से अछूता नहीं कहा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने फैसला सुनाया कि अगर राष्ट्रपति किसी विधेयक पर फैसला लेने में तीन महीने से अधिक समय लेते हैं, तो उन्हें देरी के लिए वैलिड वजह बताना चाहिए।

बार-बार लैटा नहीं सकते बिल

अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी।

तमिलनाडु सरकार की याचिका के फैसले पर टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए गए अपने फैसले में यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के पास लंबित 10 विधेयकों को पारित करने का आदेश दिया। ये विधेयक राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजने के चलते लंबित किए हुए थे। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने 8 अप्रैल को राष्ट्रपति के विचार के लिए दूसरे चरण में 10 विधेयकों को आरक्षित करने के फैसले को अवैध और कानून की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण करार देते हुए खारिज कर दिया। कोर्ट ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा था कि जहां राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है और राष्ट्रपति उस पर अपनी सहमति नहीं देते हैं, तो राज्य सरकार के लिए इस न्यायालय के समक्ष ऐसी कार्रवाई करने का अधिकार खुला रहेगा। संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को अपने समक्ष प्रस्तुत विधेयकों पर अपनी सहमति देने, सहमति नहीं देने या राष्ट्रपति के विचार के लिए उसे आरक्षित रखने का अधिकार देता है।

वक्‍फ कानून को लेकर केंद्र भी पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, जानें पूरा मामला

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वक्फ संशोधन एक्ट 2025 के खिलाफ करीब दर्जन भर याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं। इनमें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अलावा राजनेताओं की याचिकाएं शामिल हैं। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी समेत अन्य लोगों ने इस कानून को चुनौती दी है। इस बीच केंद्र सरकार भी वक्फ संशोधन कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची है।

केंद्र सरकार ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कैविएट दाखिल की है। सरकार की ओर से वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आदेश पारित करने से पहले सुनवाई की मांग रखी गई है।कैविएट किसी पक्षकार द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में यह सुनिश्चित करने के लिए दायर की जाती है कि इसे सुने बिना कोई आदेश पारित नहीं किया जाए।

क्या है कैविएट का मतलब?

"केवियट" एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है "सावधान"। दरअसल, "केवियट" एक कानूनी नोटिस है जो किसी एक पार्टी द्वारा दायर किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी मुकदमे या न्यायिक कार्यवाही में कोई आदेश या निर्णय दिए जाने से पहले उन्हें सुनवाई का मौका दिया जाए। सिविल प्रक्रिया संहिता 1963 की धारा 148-ए में कैविएट दर्ज करने का प्रावधान है। कैविएट याचिका दाखिल करने या दर्ज कराने वाले व्यक्ति को कैविएटर कहा जाता है। यानी वक्फ कानून को लेकर दायर की गई याचिका में केंद्र सरकार कैविएटर है।

कैविएट याचिका कौन दाखिल कर सकता है?

कैविएट किसी भी व्यक्ति द्वारा दाखिल किया जा सकता है जो किसी आवेदन पर पारित होने वाले अंतरिम आदेश से प्रभावित होने वाला है, जिसके किसी न्यायालय में दायर या दायर होने वाले किसी मुकदमे या न्यायिक कार्यवाही में किए जाने की संभावना है। कोई भी व्यक्ति जो उपर्युक्त आवेदन की सुनवाई पर न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के अधिकार का दावा करता है, वह इसके संबंध में कैविएट दाखिल कर सकता है।

कैविएट कब दर्ज की जा सकती है?

कोर्ट में सामान्यतः निर्णय सुनाए जाने या आदेश पारित होने के बाद कैविएट दर्ज की जा सकती है। सीपीसी की धारा 148-ए के प्रावधान केवल उन मामलों में लागू हो सकते हैं, जहां आवेदन पर कोई आदेश दिए जाने या दायर किए जाने के प्रस्ताव से पहले कैविएटर को सुनवाई का अधिकार है। सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत कैविएट का कोई फार्मेट निर्धारित नहीं किया गया है, इसलिए इसे एक याचिका के रूप में दायर किया जा सकता है।

वक्फ कानून के खिलाफ दर्जनभर याचिकाएं दायर

बता दें कि वक्फ विधेयक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पहले ही कुल 10 से अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं, इन याचिकाओं में नए बनाए गए कानून की वैधता को चुनौती दी गई है। इनमें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अलावा, केरल की सुन्नी मुस्लिम विद्वानों की संस्था 'समस्त केरल जमीयतुल उलेमा, कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी समेत अन्य लोगों ने इस कानून को चुनौती दी है। याचिका दायर करने वाले वकीलों ने बताया कि याचिकाएं 15 अप्रैल को एक पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किए जाने की संभावना है। हालांकि अभी तक यह शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर नहीं दिखाई दे रहा है।

सुप्रीम कोर्ट की तमिलनाडु राज्यपाल को फटकार, कहा- बिल रोकना मनमान, जानें पूरा मामला


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तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार को मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध बताया है। कोर्ट ने कहा कि यह मनमाना कदम है और कानून के नजरिए से सही नहीं। अदालत ने कहा कि राज्यपाल सहमति रोके बिना विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित नहीं कर सकते। बता दें कि राज्य विधानसभा द्वारा पास किए गए कई विधेयकों को राज्यपाल ने मंजूरी नहीं दी थी। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। इसमें राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से जुड़े विधेयक भी शामिल थे।

कोर्ट ने राज्यपाल को लगाई फटकार

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि के विधेयकों को लंबे समय तक टाले रखने वाले मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा, इन 10 बिलों को लेकर राज्यपाल और राष्ट्रपति ने जो भी कदम उठाए, वे सब कानूनी रूप से अमान्य हैं। कोर्ट ने फैसला दिया कि ये बिल उस तारीख से मंजूर माने जाएंगे, जिस दिन तमिलनाडु विधानसभा ने इन्हें दोबारा पास करके राज्यपाल के पास भेजा था। कोर्ट ने राज्यपाल की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने ईमानदारी से काम नहीं किया। इसका मतलब है कि राज्यपाल ने संविधान के हिसाब से अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई।

“राज्यपालों को राजनीतिक दल की तरफ से संचालित नहीं होना चाहिए”

राज्यपाल को एक दोस्त, दार्शनिक और राह दिखाने वाले की तरह होना चाहिए। आप संविधान की शपथ लेते हैं। आपको किसी राजनीतिक दल की तरफ से संचालित नहीं होना चाहिए। आपको उत्प्रेरक बनना चाहिए, अवरोधक नहीं। राज्यपाल को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई बाधा पैदा न हो।

“राज्यपालों को राजनीतिक कारणों से विधानसभा में बाधा नहीं बनना चाहिए”

अदालत ने कहा कि राज्यपाल को संसदीय लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं के प्रति उचित सम्मान के साथ काम करना चाहिए. साथ ही, विधानसभा के माध्यम से व्यक्त की जा रही लोगों की इच्छा और लोगों के प्रति जवाबदेह निर्वाचित सरकार का सम्मान करना चाहिए। सर्वोच्च अदालत ने सबसे तल्ख टिप्पणी ये की कि राज्यपालों को राजनीतिक कारणों से विधानसभा के कामकाज में बाधा नहीं बनना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किए अधिकार

इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल और राज्य सरकार के अधिकारों को स्पष्ट किया है। कोर्ट ने यह भी बताया है कि राज्यपाल को किस तरह से विधेयकों पर कार्रवाई करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को निर्देश दिया कि उन्हें अपने विकल्पों का इस्तेमाल तय समय-सीमा में करना होगा, वरना उनके उठाए गए कदमों की कानूनी समीक्षा की जाएगी।

कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल बिल रोकें या राष्ट्रपति के पास भेजें, उन्हें यह काम मंत्रिपरिषद की सलाह से एक महीने के अंदर करना होगा। विधानसभा बिल को दोबारा पास कर भेजती है, तो राज्यपाल को एक महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वह राज्यपाल की शक्तियों को कमजोर नहीं कर रहा, लेकिन राज्यपाल की सारी कार्रवाई संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुसार होनी चाहिए।

तमिलनाडु सरकार ने विशेष सत्र में पारित किए गए थे बिल राज्यपाल आरएन रवि ने तमिलनाडु सरकार की ओर से पारित 12 में से 10 बिलों को 13 नवंबर 2023 को बिना कारण बताए विधानसभा में लौटा दिया था और 2 बिलों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। इसके बाद 18 नवंबर को तमिलनाडु विधानसभा के विशेष सत्र में इन 10 बिलों को फिर से पारित किया गया और गवर्नर की मंजूरी के लिए गवर्नर सेक्रेटेरिएट भेजा गया।बिल पर साइन न करने का विवाद नवंबर 2023 में भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच था।

वक्फ संशोधन बिल का मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, कांग्रेस सांसद ने दी चुनौती

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वक्फ संशोधन विधेयक को लेकर देश की राजनीतिक गर्म होती जा रही है। संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद भी वक्फ संशोधन बिल को लेकर विरोध बढ़ता जा रहा है। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद ने वक्फ संशोधन बिल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। बिहार के किशनगंज से कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद ने यह याचिका लगाई है। वक्फ बिल के खिलाफ यह पहली याचिका पेश की गई है।

याचिका दायर कर लगाए ये आरोप

कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद ने वक्फ संशोधन अधिनियम को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। उनका दावा है कि यह मुस्लिम समुदाय के प्रति भेदभावपूर्ण है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। याचिका में कहा गया है, इस्लामी कानून, रीति-रिवाज या मिसाल में इस तरह की सीमा निराधार है और यह अनुच्छेद 25 के तहत धर्म को मानने और उसका पालन करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है। इसके अतिरिक्त, यह प्रतिबंध उन व्यक्तियों के साथ भेदभाव करता है, जिन्होंने हाल ही में इस्लाम धर्म अपनाया है और धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति समर्पित करना चाहते हैं, जिससे अनुच्छेद 15 का उल्लंघन होता है।

याचिका में यह भी कहा गया है कि वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना में संशोधन करके वक्फ प्रशासनिक निकायों में गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करना धार्मिक शासन में एक अनुचित हस्तक्षेप है, जबकि हिंदू धार्मिक बंदोबस्तों का प्रबंधन विभिन्न राज्य अधिनियमों के तहत विशेष रूप से हिंदुओं द्वारा किया जाता है।

जयराम रमेश ने भी कही सुप्रीम कोर्ट जाने की बात

इससे पहले कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने कहा था कि कांग्रेस हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। जयराम रमेश ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस बहुत जल्द ही वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी। कांग्रेस पहले से ही कई कानूनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रही है। इनमें सीएए 2019, आरटीआई एक्ट 2005 में संशोधन और चुनाव नियमों में संशोधन शामिल हैं। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी पूजा स्थल अधिनियम-1991 को बरकरार रखने के लिए अदालत में हस्तक्षेप कर रही है। कांग्रेस के सीएए-2019 को चुनौती देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है। साथ ही आरटीआई अधिनियम, 2005 में 2019 के संशोधनों को चुनौती देने के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।जयराम रमेश ने कहा, हमें पूरा भरोसा है और हम भारत के संविधान में निहित सिद्धांतों, प्रावधानों और प्रथाओं पर मोदी सरकार के सभी हमलों का विरोध करना जारी रखेंगे।

डीएमके भी देगी चुनौती

इससे पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने भी ऐलान किया है कि डीएमके वक्फ (संशोधन) बिल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी। स्टालिन ने कहा कि तमिलनाडु लड़ेगा और इस लड़ाई में उसे सफलता मिलेगी। उन्होंने याद दिलाया कि 27 मार्च को तमिलनाडु विधानसभा ने वक्फ संशोधन विधेयक को वापस लेने का आग्रह करते हुए प्रस्ताव पारित किया था। इसमें कहा गया था कि यह धार्मिक सद्भाव को कमजोर करता है और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय पर उल्टा प्रभाव डालता है।

रेप मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा असंवेदनशील, जानें क्या था हाईकोर्ट का जजमेंट

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नाबालिग लड़की के साथ रेप की कोशिश से जुड़े एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 17 मार्च को दिए विवादित फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया था, जिस पर फैसला आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में की गई टिप्पणियों पर रोक लगाई। कोर्ट ने कहा कि टिप्पणी पूरी तरह असंवेदनशीलता और अमानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश में की गई विवादास्पद टिप्पणियों पर शुरू की गई स्वत: संज्ञान कार्यवाही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र, यूपी सरकार और अन्य को नोटिस जारी किया। बता दें कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि छाती पकड़ना, पायजामा का नाड़ा खींचना दुष्कर्म के प्रयास का अपराध नहीं है।

इस मामले की जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ सुनवाई कर रही थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट के विवादित फैसले के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि निर्णय लेखक की ओर से संवेदनशीलता की कमी दर्शाती है। यह निर्णय तत्काल नहीं लिया गया था और इसे सुरक्षित रखने के 4 महीने बाद सुनाया गया। इस प्रकार इसमें विवेक का प्रयोग किया गया। हम आमतौर पर इस चरण में स्थगन देने में हिचकिचाते हैं, लेकिन चूंकि पैरा 21, 24 और 26 में की गई टिप्पणियां कानून के सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं और अमानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। हम उक्त पैरा में की गई टिप्पणियों पर रोक लगाते हैं।

हाईकोर्ट ने दिआ था विवादित फैसला

इससे पहले हाईकोर्ट ने दो आरोपियों पवन व आकाश के मामले में यह विवादित फैसला दिया था। शुरुआत में, दोनों पर दुष्कर्म और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम की धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे। लेकिन, हाईकोर्ट ने फैसले में कहा था, उनका कृत्य दुष्कर्म या दुष्कर्म का प्रयास माने जाने के योग्य नहीं था।किसी लड़की के निजी अंग पकड़ लेना, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ देना और जबरन उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश से रेप या 'अटेम्प्ट टु रेप' का मामला नहीं बनता।

सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने ये फैसला सुनाते हुए 2 आरोपियों पर लगी धाराएं बदल दीं। वहीं 3 आरोपियों के खिलाफ दायर क्रिमिनल रिवीजन पिटीशन स्वीकार कर ली थी।

क्या है पूरा मामला?

यूपी के कासगंज की एक महिला ने 12 जनवरी, 2022 को कोर्ट में एक शिकायत दर्ज कराई थी। उसने आरोप था लगाया कि 10 नवंबर, 2021 को वह अपनी 14 साल की बेटी के साथ कासगंज के पटियाली में देवरानी के घर गई थीं। उसी दिन शाम को अपने घर लौट रही थीं। रास्ते में गांव के रहने वाले पवन, आकाश और अशोक मिल गए।

पवन ने बेटी को अपनी बाइक पर बैठाकर घर छोड़ने की बात कही। मां ने उस पर भरोसा करते हुए बाइक पर बैठा दिया, लेकिन रास्ते में पवन और आकाश ने लड़की के प्राइवेट पार्ट को पकड़ लिया। आकाश ने उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करते हुए उसके पायजामे की डोरी तोड़ दी।

लड़की की चीख-पुकार सुनकर ट्रैक्टर से गुजर रहे सतीश और भूरे मौके पर पहुंचे। इस पर आरोपियों ने देसी तमंचा दिखाकर दोनों को धमकाया और फरार हो गए।

हाईकोर्ट ने कहा था कि आरोपियों पर ‘अटेम्प्ट टु रेप’ का चार्ज हटाया जाए। उन पर यौन उत्पीड़न की अन्य धाराओं के तहत केस चलाने का आदेश दिया था। जब पीड़ित बच्ची की मां आरोपी पवन के घर शिकायत करने पहुंची, तो पवन के पिता अशोक ने उसके साथ गालीगलौज की और जान से मारने की धमकी दी। महिला अगले दिन थाने में एफआईआर दर्ज कराने गई। जब पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की, तो उसने अदालत का रुख किया।

दिल्ली में मंदिरों पर होगा “बुलडोजर एक्शन”!, सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई से किया इनकार

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दिल्ली के मयूर विहार क्षेत्र में बुधवार रात उस समय भारी हंगामा हो गया। जब बुधवार रात तीन बजे तीन मंदिरों को तोड़ने के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) टीम बुलडोजर लेकर पहुंची। डीडीए के साथ भारी सुरक्षा बल भी मौके पर पहुंचा। स्‍थानीय लोगों को इस मामले की जानकारी होते ही आक्रोश फैल गया। लोगों ने हंगामा शुरू कर दिया। लोगों ने डीडीए टीम का जमकर विरोध किया। हंगामे और नारेबाजी की सूचना पर पूर्वी दिल्ली के पटपड़गंज से भाजपा विधायक रविंद्र सिंह नेगी मौके पर पहुंच गए। इसके बाद विधायक रविंद्र सिंह नेगी सीएम रेखा गुप्ता को मामले की जानकारी दी। इसपर सीएम रेखा गुप्ता ने कार्रवाई को तत्‍काल रोकने का आदेश देकर डीडीए टीम को बैरंग लौटा दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की याचिका

इस बीच डीडीए के नोटिस को लेकर लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। इस मामले पर कोर्ट ने कहा कि आप हाईकोर्ट क्यों नहीं जाते। वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा कि जहांगीर पुरी मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा हाई कोर्ट जाइए। इसी के साथ याचिका खारिज कर दी गई।

देर रात दाखिल हुई याचिका को विशेष अनुरोध पर सुबह 3 जजों की बेंच के सामने सूचीबद्ध किया गया था। बेंच के अध्यक्ष जस्टिस विक्रम नाथ ने शुरू में याचिकाकर्ता के वकील विष्णु शंकर जैन से दोपहर 2 बजे सुनवाई की बात कही। उन्होनें यह भी कहा कि वह अपनी याचिका की कॉपी दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के वकील को दें ताकि वह इस पर पक्ष रख सकें, लेकिन इसके तुरंत बाद जस्टिस विक्रम नाथ ने अपने साथी जजों जस्टिस संजय करोल और संदीप मेहता से बात की और उनका रुख बदल गया। उन्होंने याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि उन्हें हाई कोर्ट जाना चाहिए।

35 साल पुराने हैं मंदिर

वकील विष्णु शंकर जैन के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि बुधवार रात 9 बजे अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक नोटिस चिपकाया गया था। उन्हें सूचित किया गया था कि 20 मार्च 2025 को सुबह चार बजे मंदिरों को ध्वस्त कर दिया जाएगा। याचिका में कहा गया है कि डीडीए के किसी भी अधिकारी या किसी भी धार्मिक समिति द्वारा मंदिरों को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया। याचिका में कहा गया है कि मंदिर 35 साल पुराने हैं।

ग्रीन बेल्ट में बने हैं तीनों मंदिर

दरअसल, दिल्ली के मयूर विहार फेज 2 क्षेत्र स्थित संजय झील पार्क में 3 मंदिर स्‍थापित हैं। स्‍थानीय निवासियों का कहना है कि ये मंदिर 40 साल पुराने हैं। जबकि डीडीए के हॉर्टिकल्चर विभाग इन मंदिरों को अवैध बता रहा है। डीडीए टीम का कहना था कि मंदिरों को ग्रीन बेल्ट में बनाया गया है।

अनुच्छेद–142 न्यूक्लियर मिसाइल बना, राष्ट्रपति को लेकर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर भड़के धनखड़

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सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते राष्ट्रपति और राज्यपालों को बिलों को मंजूरी देने की समयसीमा तय की थी। इस पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि भारत में ऐसे लोकतंत्र की कल्पना नहीं की थी, जहां न्यायाधीश कानून बनाएंगे और कार्यकारी जिम्मेदारी निभाएंगे।

जज 'सुपर संसद' के रूप में काम करेंगे-धनखड़

राज्यसभा के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि एक हालिया फैसले में राष्ट्रपति को निर्देश दिया गया है। हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? हमें इसे लेकर बेहद संवेदनशील होने की जरूरत है। हमने इस दिन की कल्पना नहीं की थी, जहां राष्ट्रपति को तय समय में फैसला लेने के लिए कहा जाएगा और अगर वे फैसला नहीं लेंगे तो कानून बन जाएगा।उपराष्ट्रपति ने कहा कि अब जज विधायी चीजों पर फैसला करेंगे। वे ही कार्यकारी जिम्मेदारी निभाएंगे और सुपर संसद के रूप में काम करेंगे। उनकी कोई जवाबदेही भी नहीं होगी क्योंकि इस देश का कानून उन पर लागू ही नहीं होता।

अनुच्छेद 142 लोकतांत्रिक ताकतों के खिलाफ परमाणु मिसाइल

उपराष्ट्रपति ने कहा, हम ऐसे हालात नहीं बना सकते जहां अदालतें राष्ट्रपति को निर्देश दें। संविधान का अनुच्छेद 142 के तहत मिले कोर्ट को विशेष अधिकार लोकतांत्रिक शक्तियों के खिलाफ 24x7 उपलब्ध न्यूक्लियर मिसाइल बन गया है। दरअसल, अनुच्छेद 142 भारत के सुप्रीम कोर्ट को यह अधिकार देता है कि वह पूर्ण न्याय (कम्पलीट जस्टिस) करने के लिए कोई भी आदेश, निर्देश या फैसला दे सकता है, चाहे वह किसी भी मामले में हो।

जस्टिस यशवंत वर्मा के मिली नगदी का किया जिक्र

उपराष्ट्रपति ने दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश यशवंत वर्मा के घर से भारी मात्रा में नकदी मिलने की घटना का जिक्र किया। उन्होंने कहा, '14 और 15 मार्च की रात नई दिल्ली में एक जज के घर पर एक घटना हुई। सात दिनों तक किसी को इसके बारे में पता नहीं चला। हमें खुद से सवाल पूछने होंगे। क्या इस देरी को समझा जा सकता है? क्या इसे माफ किया जा सकता है? क्या इससे कुछ बुनियादी सवाल नहीं उठते? किसी भी सामान्य स्थिति में, और सामान्य स्थितियां कानून के शासन को परिभाषित करती हैं - चीजें अलग होतीं। यह केवल 21 मार्च को एक अखबार द्वारा खुलासा किया गया था, जिससे देश के लोग पहले कभी नहीं इतने हैरान हुए।

क्या कहा था सुप्रीम कोर्ट ने?

दरअसल, 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के मामले में ऐतिहासिक फैसला लिया था। अदालत ने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा।

इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की। यह ऑर्डर 11 अप्रैल को सार्वजनिक किया गया। 11 अप्रैल की रात वेबसाइट पर अपलोड किए गए ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है। उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला न्यायपालिका करेगी।

वक्फ कानून के कुछ प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट चिंतित, आज दे सकती है अंतरिम आदेश

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सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वक्फ (संशोधन) अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस संजीव खन्ना की अगुवाई वाली बेंच ने बुधवार को साफ संकेत दिए कि कुछ प्रावधानों पर रोक लगाई जा सकती है। खासकर ‘वक्फ बाय यूजर’, गैर-मुस्लिम प्रतिनिधियों की वक्फ बोर्ड में नियुक्ति और जिलाधिकारियों को वक्फ जमीन की स्थिति तय करने का अधिकार। इन पर कोर्ट गंभीरता से विचार कर रहा है। ऐसे में आज सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई काफी अहम है।

“नए कानून के तीन प्रावधान चिंताजनक”

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने बुधवार को तीन मुख्य चिंताएं बताईं। पहली, वक्फ की संपत्तियां जो पहले अदालती आदेशों से वैध घोषित की गई थीं, अब शायद अवैध हो जाएंगी। दूसरी, वक्फ काउंसिल में गैर-मुस्लिमों को बहुमत मिल सकता है। तीसरी, विवादित वक्फ संपत्ति पर कलेक्टर की जांच लंबित रहने तक, यह घोषणा कि इसे वक्फ संपत्ति नहीं माना जाएगा, चिंताजनक है।

“अंतरिम आदेश हिस्सेदारी को संतुलित करेगा”

चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने कहा, हमारा अंतरिम आदेश हिस्सेदारी को संतुलित करेगा। पहला, हम आदेश में कहेंगे कि न्यायालय की ओर से वक्फ घोषित की गई किसी भी संपत्ति को गैर अधिसूचित नहीं किया जाएगा, यानी उसे गैर वक्फ नहीं माना जाएगा, फिर चाहे वह संपत्ति उपयोगकर्ता की ओर से वक्फ की गई हो या विलेख के जरिए। दूसरा, कलेक्टर किसी संपत्ति से संबंधित अपनी जांच की कार्यवाही जारी रख सकता है, पर कानून का यह प्रावधान प्रभावी नहीं होगा कि कार्यवाही के दौरान संपत्ति गैर वक्फ मानी जाए। तीसरा, बोर्ड व परिषद में पदेन सदस्य नियुक्त किए जा सकते हैं, लेकिन अन्य सभी सदस्य मुस्लिम होने चाहिए।

“कुछ प्रावधानों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं”

सीजेआई खन्ना ने कहा कि वक्फ बाय यूजर को गैर-अधिसूचित करने के बहुत गंभीर परिणाम होंगे। उन्होंने यह भी कहा कि अधिनियम के कुछ प्रावधानों के गंभीर परिणाम हो सकते हैं। इसलिए, उन्होंने कहा कि बेंच एक अंतरिम आदेश पर विचार करेगी। सीजेआई ने कहा, एकतरफा रोक के संबंध में, हमारे (अदालत) पास कुछ अधिकार हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि आम तौर पर अदालतें विधायिका द्वारा पारित कानून पर प्रवेश स्तर पर रोक लगाने से बचती हैं, लेकिन 'इस मामले में कुछ अपवाद हैं।'

सुनवाई के आखिर में पीठ ने केंद्र की ओर से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के अनुरोध पर बृहस्पतिवार को भी विचार करने का फैसला किया। जिसमें वह तय करेगा कि सुनवाई खुद करेगा या किसी हाईकोर्ट को सौंपेगा। सुप्रीम कोर्ट में ये सिर्फ कानून की बहस नहीं, बल्कि उस ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भ की भी परीक्षा है जिसमें वक्फ की परंपरा सदियों से मौजूद रही है।

वक्फ कानून पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई,सिब्बल और सिंघवी ने दी क्या बड़ी दलीलें

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वक्फ संशोधन कानून के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के वी विश्वनाथन की तीन सदस्यीय पीठ इस मुद्दे पर दायर 73 याचिकाओं पर सुनवाई की। सुनवाई के दौरान मुस्लिम पक्षकारों ने मांग की है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक वक्फ कानून पर रोक लगे। वहीं, मामले की सुनवाई के दौरान कपिल सिब्बल ने कहा कि यह कानून धार्मिक मामलों में दखल देता है। साथ ही यह बुनियादी जरूरतों का अतिक्रमण करता है। वहीं, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने नए वक्फ कानून का बचाव किया। उन्होंने कहा, यह सिर्फ एक कानून नहीं है, यह जेपीसी द्वारा विचार-विमर्श के बाद आया है। उन्होंने 98 लाख से ज़्यादा ज्ञापनों पर विस्तृत चर्चा की।

सिब्बल ने कहा अनुच्छेद 26 का उल्लंघन

याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने अपनी दलीलें पेश कीं। सिब्बल ने कहा कि यह संशोधन संविधान के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन करता है, जो धार्मिक समुदायों को अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता देता है। उन्होंने सवाल उठाया, कानून के मुताबिक, मुझे अपने धर्म की आवश्यक प्रथाओं का पालन करने का अधिकार है। सरकार कैसे तय कर सकती है कि वक्फ केवल वही लोग बना सकते हैं, जो पिछले पांच साल से इस्लाम का पालन कर रहे हैं? सिब्बल ने यह भी तर्क दिया कि इस्लाम में उत्तराधिकार मृत्यु के बाद मिलता है, लेकिन यह कानून उससे पहले ही हस्तक्षेप करता है। उन्होंने अधिनियम की धारा 3(सी) का हवाला देते हुए कहा कि इसके तहत सरकारी संपत्ति को वक्फ के रूप में मान्यता नहीं दी जाएगी, जो पहले से वक्फ घोषित थी।

यह पूरी तरह से सरकारी टेकओवर- सिब्बल

कपिल सिब्बल ने कहा कि यह पूरी तरह से सरकारी टेकओवर है। सिब्बल ने राम जन्मभूमि के फैसले का भी जिक्र किया। उन्होंने कहा कि धारा 36, आप उपयोगकर्ता द्वारा बना सकते हैं, संपत्ति की कोई आवश्यकता नहीं है। मान लीजिए कि यह मेरी अपनी संपत्ति है और मैं इसका उपयोग करना चाहता हूं, मैं पंजीकरण नहीं करना चाहता।

सीजेआई ने कहा कि पंजीकरण में क्या समस्या है? सिब्बल ने कहा कि मैं कह रहा हूं कि उपयोगकर्ता द्वारा वक्फ को समाप्त कर दिया गया है, यह मेरे धर्म का अभिन्न अंग है, इसे राम जन्मभूमि फैसले में मान्यता दी गई है। सिब्बल ने कहा कि समस्या यह है कि वे कहेंगे कि यदि वक्फ 3000 साल पहले बनाया गया है तो वे डीड मांगेंगे।

अभिषेक मनु सिंघवी ने क्या कहा?

वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने भी दलीलें दीं और कहा, हमने सुना है कि संसद की जमीन भी वक्फ की है। वहीं, सीजेआई खन्ना ने जवाब दिया, हम यह नहीं कह रहे कि सभी वक्फ गलत तरीके से पंजीकृत हैं, लेकिन कुछ चिंताएं हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि इस मामले की सुनवाई हाई कोर्ट को सौंपी जा सकती है। इस पर अभिषेक मनुसिंघवी ने कहा कि वक्फ संसोधित अधिनियम के रूल 3( 3)(डीए) में कलेक्टर को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है। लोगों को अधिकारी के पास जाने के लिए बनाया गया है। सिंघवी ने कहा कि अनुच्छेद 25 और 26 को पढ़ने से ज्यादा अनुच्छेद 32 क्या है, यह ऐसा मामला नहीं है जहां मीलॉर्ड्स को हमें हाई कोर्ट भेजना चाहिए

जस्टिस बीआर गवई होंगे अगले चीफ जस्टिस, 14 मई को संभालेंगे कार्यभार

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मुख्य न्यायाधीश जस्टिस संजीव खन्ना ने आज बुधवार को केंद्र सरकार से अगले सीजेआई के रूप में जस्टिस भूषण रामकृष्ण गवई के नाम की सिफारिश कर दी है। सीजेआई खन्ना के बाद जस्टिस गवई सुप्रीम कोर्ट के दूसरे सबसे वरिष्ठ जज हैं। सीजेआई खन्ना 13 मई को रिटायर हो रहे हैं और उनके बाद गवई देश के 52वें सीजेआई बनेंगे। वो देश के अगले सीजेआई के तौर पर 14 मई को शपथ लेंगे।

आपको बता दें कि संजीव खन्ना ने भारत के 51वें सीजेआई के तौर पर पिछले साल 11 नवंबर को शपथ ली थी। उन्हें राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने शपथ दिलाई थी। उन्होंने पूर्व सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की जगह ली थी। डीवाई चंद्रचूड़ 10 नवंबर को रिटायर हुए थे। नए सीजेआई संजीव खन्ना का कार्यकाल 6 महीने का है। वो 13 मई 2025 तक सीजेआई के पद पर रहेंगे।

जस्टिस बीआर गवई का जन्म 24 नवंबर 1960 को महाराष्ट्र के अमरावती में हुआ था। उनके पिता आरएस गवई एक प्रसिद्ध राजनेता थे, जो रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (गवई) से सांसद और बाद में राज्यपाल रहे। उनके भाई राजेंद्र गवई भी एक राजनेता हैं। जस्टिस गवई ने अपनी कानून की पढ़ाई नागपुर विश्वविद्यालय से पूरी की और 1985 में वकालत शुरू की। इसके बाद बॉम्बे हाई कोर्ट में उन्‍होंने वकालत से की। 2000 में उन्‍हें बॉम्बे हाई कोर्ट में स्थायी जज बनाया गया। 2019 में उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया।

जस्‍ट‍िस गवई के अहम फैसले

जस्टिस गवई और जस्टिस केवी विश्वनाथन की पीठ ने यूपी में बुल्‍डोजर एक्‍शन पर रोक लगाने वाला फैसला सुनाया था। जस्टिस गवई उन 5 जजों की संविधान पीठ का हिस्सा रहे, जिसने दिसंबर 2023 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्य को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त करने के केंद्र के फैसले को सर्वसम्मति से बरकरार रखा था। एक अन्य पांच जजों की संविधान पीठ, जिसमें जस्टिस गवई भी शामिल थे, ने राजनीतिक फंडिंग के लिए चुनावी बॉन्ड योजना को रद्द कर दिया था।

इसके अलावा वे 5 जजों वाली उस संविधान पीठ का भी हिस्सा रहे, जिसने 4:1 के बहुमत से 1,000 और 500 रुपये के नोट बंद करने के केंद्र के 2016 के फैसले को अपनी मंजूरी दी थी। जस्टिस गवई 7 जजों वाली उस संविधान पीठ का भी हिस्सा रहे, जिसने 6:1 के बहुमत से स्वीकार किया था कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है।

राज्यपाल के बाद राष्ट्रपति के लिए भी समय सीमा तय, सुप्रीम कोर्ट ने कहा- तीन महीने में हो बिल पर फैसला

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अब राष्ट्रपति को राज्यपालों द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला करना होगा। अपनी तरह के पहले फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने देश के राष्ट्रपति के लिए भी समय सीमा तय की है। दरअसल, 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के मामले में ऐतिहासिक फैसला लिया था। अदालत ने कहा था कि राज्यपाल को विधानसभा की ओर से भेजे गए बिल पर एक महीने के भीतर फैसला लेना होगा। इसी फैसले के दौरान अदालत ने राज्यपालों की ओर से राष्ट्रपति को भेजे गए बिल पर भी स्थिति स्पष्ट की।

सुप्रीम कोर्ट का राज्यपाल के मामले में फैसला शुक्रवार को ऑनलाइन अपलोड हो गया है। शीर्ष अदालत की तरफ से तमिलनाडु के राज्यपाल आर एन रवि की तरफ से राष्ट्रपति के विचार के लिए रोके गए और आरक्षित किए गए 10 विधेयकों को मंजूरी देने और राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने के लिए सभी राज्यपालों के लिए समयसीमा निर्धारित की थी। फैसला करने के चार दिन बाद, 415 पृष्ठों का निर्णय शुक्रवार को रात 10.54 बजे शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर अपलोड किया गया।

फैसले की न्यायिक समीक्षा

शुक्रवार रात वेबसाइट पर अपलोड किए गए ऑर्डर में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 201 का हवाला दिया। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने कहा कि अनुच्छेद, 201 के तहत राज्यपालों की ओर से भेजे गए बिल के मामले में राष्ट्रपति के पास पूर्ण वीटो या पॉकेट वीटो का अधिकार नहीं है। उनके फैसले की न्यायिक समीक्षा की जा सकती है और न्यायपालिका बिल की संवैधानिकता का फैसला न्यायपालिका करेगी।

फैसले में देरी के लिए वजह बताना होगा

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, कानून की स्थिति यह है कि जहां किसी कानून के तहत किसी शक्ति के प्रयोग के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं है, वहां भी उसे उचित समय के भीतर प्रयोग किया जाना चाहिए। अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों का प्रयोग कानून के इस सामान्य सिद्धांत से अछूता नहीं कहा जा सकता। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने फैसला सुनाया कि अगर राष्ट्रपति किसी विधेयक पर फैसला लेने में तीन महीने से अधिक समय लेते हैं, तो उन्हें देरी के लिए वैलिड वजह बताना चाहिए।

बार-बार लैटा नहीं सकते बिल

अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति किसी बिल को राज्य विधानसभा को संशोधन या पुनर्विचार के लिए वापस भेजते हैं। विधानसभा उसे फिर से पास करती है, तो राष्ट्रपति को उस बिल पर फाइनल डिसीजन लेना होगा और बार-बार बिल को लौटाने की प्रक्रिया रोकनी होगी।

तमिलनाडु सरकार की याचिका के फैसले पर टिप्पणी

सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए गए अपने फैसले में यह टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के पास लंबित 10 विधेयकों को पारित करने का आदेश दिया। ये विधेयक राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास विचारार्थ भेजने के चलते लंबित किए हुए थे। जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने 8 अप्रैल को राष्ट्रपति के विचार के लिए दूसरे चरण में 10 विधेयकों को आरक्षित करने के फैसले को अवैध और कानून की दृष्टि से त्रुटिपूर्ण करार देते हुए खारिज कर दिया। कोर्ट ने बिना किसी लाग-लपेट के कहा था कि जहां राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखता है और राष्ट्रपति उस पर अपनी सहमति नहीं देते हैं, तो राज्य सरकार के लिए इस न्यायालय के समक्ष ऐसी कार्रवाई करने का अधिकार खुला रहेगा। संविधान का अनुच्छेद 200 राज्यपाल को अपने समक्ष प्रस्तुत विधेयकों पर अपनी सहमति देने, सहमति नहीं देने या राष्ट्रपति के विचार के लिए उसे आरक्षित रखने का अधिकार देता है।

वक्‍फ कानून को लेकर केंद्र भी पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, जानें पूरा मामला

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वक्फ संशोधन एक्ट 2025 के खिलाफ करीब दर्जन भर याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं। इनमें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अलावा राजनेताओं की याचिकाएं शामिल हैं। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी समेत अन्य लोगों ने इस कानून को चुनौती दी है। इस बीच केंद्र सरकार भी वक्फ संशोधन कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंची है।

केंद्र सरकार ने वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 को लेकर सुप्रीम कोर्ट में कैविएट दाखिल की है। सरकार की ओर से वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर आदेश पारित करने से पहले सुनवाई की मांग रखी गई है।कैविएट किसी पक्षकार द्वारा हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में यह सुनिश्चित करने के लिए दायर की जाती है कि इसे सुने बिना कोई आदेश पारित नहीं किया जाए।

क्या है कैविएट का मतलब?

"केवियट" एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है "सावधान"। दरअसल, "केवियट" एक कानूनी नोटिस है जो किसी एक पार्टी द्वारा दायर किया जाता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी मुकदमे या न्यायिक कार्यवाही में कोई आदेश या निर्णय दिए जाने से पहले उन्हें सुनवाई का मौका दिया जाए। सिविल प्रक्रिया संहिता 1963 की धारा 148-ए में कैविएट दर्ज करने का प्रावधान है। कैविएट याचिका दाखिल करने या दर्ज कराने वाले व्यक्ति को कैविएटर कहा जाता है। यानी वक्फ कानून को लेकर दायर की गई याचिका में केंद्र सरकार कैविएटर है।

कैविएट याचिका कौन दाखिल कर सकता है?

कैविएट किसी भी व्यक्ति द्वारा दाखिल किया जा सकता है जो किसी आवेदन पर पारित होने वाले अंतरिम आदेश से प्रभावित होने वाला है, जिसके किसी न्यायालय में दायर या दायर होने वाले किसी मुकदमे या न्यायिक कार्यवाही में किए जाने की संभावना है। कोई भी व्यक्ति जो उपर्युक्त आवेदन की सुनवाई पर न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के अधिकार का दावा करता है, वह इसके संबंध में कैविएट दाखिल कर सकता है।

कैविएट कब दर्ज की जा सकती है?

कोर्ट में सामान्यतः निर्णय सुनाए जाने या आदेश पारित होने के बाद कैविएट दर्ज की जा सकती है। सीपीसी की धारा 148-ए के प्रावधान केवल उन मामलों में लागू हो सकते हैं, जहां आवेदन पर कोई आदेश दिए जाने या दायर किए जाने के प्रस्ताव से पहले कैविएटर को सुनवाई का अधिकार है। सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत कैविएट का कोई फार्मेट निर्धारित नहीं किया गया है, इसलिए इसे एक याचिका के रूप में दायर किया जा सकता है।

वक्फ कानून के खिलाफ दर्जनभर याचिकाएं दायर

बता दें कि वक्फ विधेयक के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में पहले ही कुल 10 से अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं, इन याचिकाओं में नए बनाए गए कानून की वैधता को चुनौती दी गई है। इनमें ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और जमीयत उलेमा-ए-हिंद के अलावा, केरल की सुन्नी मुस्लिम विद्वानों की संस्था 'समस्त केरल जमीयतुल उलेमा, कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी समेत अन्य लोगों ने इस कानून को चुनौती दी है। याचिका दायर करने वाले वकीलों ने बताया कि याचिकाएं 15 अप्रैल को एक पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किए जाने की संभावना है। हालांकि अभी तक यह शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर नहीं दिखाई दे रहा है।

सुप्रीम कोर्ट की तमिलनाडु राज्यपाल को फटकार, कहा- बिल रोकना मनमान, जानें पूरा मामला


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तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार को मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत मिली। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 10 जरूरी बिलों को राज्यपाल की ओर से रोके जाने को अवैध बताया है। कोर्ट ने कहा कि यह मनमाना कदम है और कानून के नजरिए से सही नहीं। अदालत ने कहा कि राज्यपाल सहमति रोके बिना विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित नहीं कर सकते। बता दें कि राज्य विधानसभा द्वारा पास किए गए कई विधेयकों को राज्यपाल ने मंजूरी नहीं दी थी। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई थी। इसमें राज्य विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति से जुड़े विधेयक भी शामिल थे।

कोर्ट ने राज्यपाल को लगाई फटकार

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर. एन. रवि के विधेयकों को लंबे समय तक टाले रखने वाले मामले पर फैसला सुनाते हुए कहा, इन 10 बिलों को लेकर राज्यपाल और राष्ट्रपति ने जो भी कदम उठाए, वे सब कानूनी रूप से अमान्य हैं। कोर्ट ने फैसला दिया कि ये बिल उस तारीख से मंजूर माने जाएंगे, जिस दिन तमिलनाडु विधानसभा ने इन्हें दोबारा पास करके राज्यपाल के पास भेजा था। कोर्ट ने राज्यपाल की आलोचना करते हुए कहा कि उन्होंने ईमानदारी से काम नहीं किया। इसका मतलब है कि राज्यपाल ने संविधान के हिसाब से अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई।

“राज्यपालों को राजनीतिक दल की तरफ से संचालित नहीं होना चाहिए”

राज्यपाल को एक दोस्त, दार्शनिक और राह दिखाने वाले की तरह होना चाहिए। आप संविधान की शपथ लेते हैं। आपको किसी राजनीतिक दल की तरफ से संचालित नहीं होना चाहिए। आपको उत्प्रेरक बनना चाहिए, अवरोधक नहीं। राज्यपाल को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कोई बाधा पैदा न हो।

“राज्यपालों को राजनीतिक कारणों से विधानसभा में बाधा नहीं बनना चाहिए”

अदालत ने कहा कि राज्यपाल को संसदीय लोकतंत्र की स्थापित परंपराओं के प्रति उचित सम्मान के साथ काम करना चाहिए. साथ ही, विधानसभा के माध्यम से व्यक्त की जा रही लोगों की इच्छा और लोगों के प्रति जवाबदेह निर्वाचित सरकार का सम्मान करना चाहिए। सर्वोच्च अदालत ने सबसे तल्ख टिप्पणी ये की कि राज्यपालों को राजनीतिक कारणों से विधानसभा के कामकाज में बाधा नहीं बनना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किए अधिकार

इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल और राज्य सरकार के अधिकारों को स्पष्ट किया है। कोर्ट ने यह भी बताया है कि राज्यपाल को किस तरह से विधेयकों पर कार्रवाई करनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल को निर्देश दिया कि उन्हें अपने विकल्पों का इस्तेमाल तय समय-सीमा में करना होगा, वरना उनके उठाए गए कदमों की कानूनी समीक्षा की जाएगी।

कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल बिल रोकें या राष्ट्रपति के पास भेजें, उन्हें यह काम मंत्रिपरिषद की सलाह से एक महीने के अंदर करना होगा। विधानसभा बिल को दोबारा पास कर भेजती है, तो राज्यपाल को एक महीने के अंदर मंजूरी देनी होगी। कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि वह राज्यपाल की शक्तियों को कमजोर नहीं कर रहा, लेकिन राज्यपाल की सारी कार्रवाई संसदीय लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुसार होनी चाहिए।

तमिलनाडु सरकार ने विशेष सत्र में पारित किए गए थे बिल राज्यपाल आरएन रवि ने तमिलनाडु सरकार की ओर से पारित 12 में से 10 बिलों को 13 नवंबर 2023 को बिना कारण बताए विधानसभा में लौटा दिया था और 2 बिलों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया था। इसके बाद 18 नवंबर को तमिलनाडु विधानसभा के विशेष सत्र में इन 10 बिलों को फिर से पारित किया गया और गवर्नर की मंजूरी के लिए गवर्नर सेक्रेटेरिएट भेजा गया।बिल पर साइन न करने का विवाद नवंबर 2023 में भी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच था।

वक्फ संशोधन बिल का मामला पहुंचा सुप्रीम कोर्ट, कांग्रेस सांसद ने दी चुनौती

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वक्फ संशोधन विधेयक को लेकर देश की राजनीतिक गर्म होती जा रही है। संसद के दोनों सदनों से पास होने के बाद भी वक्फ संशोधन बिल को लेकर विरोध बढ़ता जा रहा है। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद ने वक्फ संशोधन बिल के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। बिहार के किशनगंज से कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद ने यह याचिका लगाई है। वक्फ बिल के खिलाफ यह पहली याचिका पेश की गई है।

याचिका दायर कर लगाए ये आरोप

कांग्रेस सांसद मोहम्मद जावेद ने वक्फ संशोधन अधिनियम को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। उनका दावा है कि यह मुस्लिम समुदाय के प्रति भेदभावपूर्ण है और उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है। याचिका में कहा गया है, इस्लामी कानून, रीति-रिवाज या मिसाल में इस तरह की सीमा निराधार है और यह अनुच्छेद 25 के तहत धर्म को मानने और उसका पालन करने के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करती है। इसके अतिरिक्त, यह प्रतिबंध उन व्यक्तियों के साथ भेदभाव करता है, जिन्होंने हाल ही में इस्लाम धर्म अपनाया है और धार्मिक या धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए संपत्ति समर्पित करना चाहते हैं, जिससे अनुच्छेद 15 का उल्लंघन होता है।

याचिका में यह भी कहा गया है कि वक्फ बोर्ड और केंद्रीय वक्फ परिषद की संरचना में संशोधन करके वक्फ प्रशासनिक निकायों में गैर-मुस्लिम सदस्यों को शामिल करना धार्मिक शासन में एक अनुचित हस्तक्षेप है, जबकि हिंदू धार्मिक बंदोबस्तों का प्रबंधन विभिन्न राज्य अधिनियमों के तहत विशेष रूप से हिंदुओं द्वारा किया जाता है।

जयराम रमेश ने भी कही सुप्रीम कोर्ट जाने की बात

इससे पहले कांग्रेस सांसद जयराम रमेश ने कहा था कि कांग्रेस हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। जयराम रमेश ने सोशल मीडिया पर पोस्ट किया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस बहुत जल्द ही वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 की संवैधानिकता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी। कांग्रेस पहले से ही कई कानूनों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रही है। इनमें सीएए 2019, आरटीआई एक्ट 2005 में संशोधन और चुनाव नियमों में संशोधन शामिल हैं। इसके अलावा कांग्रेस पार्टी पूजा स्थल अधिनियम-1991 को बरकरार रखने के लिए अदालत में हस्तक्षेप कर रही है। कांग्रेस के सीएए-2019 को चुनौती देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हो रही है। साथ ही आरटीआई अधिनियम, 2005 में 2019 के संशोधनों को चुनौती देने के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है।जयराम रमेश ने कहा, हमें पूरा भरोसा है और हम भारत के संविधान में निहित सिद्धांतों, प्रावधानों और प्रथाओं पर मोदी सरकार के सभी हमलों का विरोध करना जारी रखेंगे।

डीएमके भी देगी चुनौती

इससे पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने भी ऐलान किया है कि डीएमके वक्फ (संशोधन) बिल को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी। स्टालिन ने कहा कि तमिलनाडु लड़ेगा और इस लड़ाई में उसे सफलता मिलेगी। उन्होंने याद दिलाया कि 27 मार्च को तमिलनाडु विधानसभा ने वक्फ संशोधन विधेयक को वापस लेने का आग्रह करते हुए प्रस्ताव पारित किया था। इसमें कहा गया था कि यह धार्मिक सद्भाव को कमजोर करता है और अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय पर उल्टा प्रभाव डालता है।

रेप मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा असंवेदनशील, जानें क्या था हाईकोर्ट का जजमेंट

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नाबालिग लड़की के साथ रेप की कोशिश से जुड़े एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट के 17 मार्च को दिए विवादित फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लिया था, जिस पर फैसला आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में की गई टिप्पणियों पर रोक लगाई। कोर्ट ने कहा कि टिप्पणी पूरी तरह असंवेदनशीलता और अमानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश में की गई विवादास्पद टिप्पणियों पर शुरू की गई स्वत: संज्ञान कार्यवाही में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र, यूपी सरकार और अन्य को नोटिस जारी किया। बता दें कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि छाती पकड़ना, पायजामा का नाड़ा खींचना दुष्कर्म के प्रयास का अपराध नहीं है।

इस मामले की जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ सुनवाई कर रही थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट के विवादित फैसले के मसले पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि निर्णय लेखक की ओर से संवेदनशीलता की कमी दर्शाती है। यह निर्णय तत्काल नहीं लिया गया था और इसे सुरक्षित रखने के 4 महीने बाद सुनाया गया। इस प्रकार इसमें विवेक का प्रयोग किया गया। हम आमतौर पर इस चरण में स्थगन देने में हिचकिचाते हैं, लेकिन चूंकि पैरा 21, 24 और 26 में की गई टिप्पणियां कानून के सिद्धांतों से अनभिज्ञ हैं और अमानवीय दृष्टिकोण को दर्शाती हैं। हम उक्त पैरा में की गई टिप्पणियों पर रोक लगाते हैं।

हाईकोर्ट ने दिआ था विवादित फैसला

इससे पहले हाईकोर्ट ने दो आरोपियों पवन व आकाश के मामले में यह विवादित फैसला दिया था। शुरुआत में, दोनों पर दुष्कर्म और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम की धाराओं के तहत आरोप लगाए गए थे। लेकिन, हाईकोर्ट ने फैसले में कहा था, उनका कृत्य दुष्कर्म या दुष्कर्म का प्रयास माने जाने के योग्य नहीं था।किसी लड़की के निजी अंग पकड़ लेना, उसके पायजामे का नाड़ा तोड़ देना और जबरन उसे पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश से रेप या 'अटेम्प्ट टु रेप' का मामला नहीं बनता।

सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस राम मनोहर नारायण मिश्रा ने ये फैसला सुनाते हुए 2 आरोपियों पर लगी धाराएं बदल दीं। वहीं 3 आरोपियों के खिलाफ दायर क्रिमिनल रिवीजन पिटीशन स्वीकार कर ली थी।

क्या है पूरा मामला?

यूपी के कासगंज की एक महिला ने 12 जनवरी, 2022 को कोर्ट में एक शिकायत दर्ज कराई थी। उसने आरोप था लगाया कि 10 नवंबर, 2021 को वह अपनी 14 साल की बेटी के साथ कासगंज के पटियाली में देवरानी के घर गई थीं। उसी दिन शाम को अपने घर लौट रही थीं। रास्ते में गांव के रहने वाले पवन, आकाश और अशोक मिल गए।

पवन ने बेटी को अपनी बाइक पर बैठाकर घर छोड़ने की बात कही। मां ने उस पर भरोसा करते हुए बाइक पर बैठा दिया, लेकिन रास्ते में पवन और आकाश ने लड़की के प्राइवेट पार्ट को पकड़ लिया। आकाश ने उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करते हुए उसके पायजामे की डोरी तोड़ दी।

लड़की की चीख-पुकार सुनकर ट्रैक्टर से गुजर रहे सतीश और भूरे मौके पर पहुंचे। इस पर आरोपियों ने देसी तमंचा दिखाकर दोनों को धमकाया और फरार हो गए।

हाईकोर्ट ने कहा था कि आरोपियों पर ‘अटेम्प्ट टु रेप’ का चार्ज हटाया जाए। उन पर यौन उत्पीड़न की अन्य धाराओं के तहत केस चलाने का आदेश दिया था। जब पीड़ित बच्ची की मां आरोपी पवन के घर शिकायत करने पहुंची, तो पवन के पिता अशोक ने उसके साथ गालीगलौज की और जान से मारने की धमकी दी। महिला अगले दिन थाने में एफआईआर दर्ज कराने गई। जब पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की, तो उसने अदालत का रुख किया।

दिल्ली में मंदिरों पर होगा “बुलडोजर एक्शन”!, सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई से किया इनकार

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दिल्ली के मयूर विहार क्षेत्र में बुधवार रात उस समय भारी हंगामा हो गया। जब बुधवार रात तीन बजे तीन मंदिरों को तोड़ने के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) टीम बुलडोजर लेकर पहुंची। डीडीए के साथ भारी सुरक्षा बल भी मौके पर पहुंचा। स्‍थानीय लोगों को इस मामले की जानकारी होते ही आक्रोश फैल गया। लोगों ने हंगामा शुरू कर दिया। लोगों ने डीडीए टीम का जमकर विरोध किया। हंगामे और नारेबाजी की सूचना पर पूर्वी दिल्ली के पटपड़गंज से भाजपा विधायक रविंद्र सिंह नेगी मौके पर पहुंच गए। इसके बाद विधायक रविंद्र सिंह नेगी सीएम रेखा गुप्ता को मामले की जानकारी दी। इसपर सीएम रेखा गुप्ता ने कार्रवाई को तत्‍काल रोकने का आदेश देकर डीडीए टीम को बैरंग लौटा दिया।

सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की याचिका

इस बीच डीडीए के नोटिस को लेकर लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। इस मामले पर कोर्ट ने कहा कि आप हाईकोर्ट क्यों नहीं जाते। वकील विष्णु शंकर जैन ने कहा कि जहांगीर पुरी मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कहा हाई कोर्ट जाइए। इसी के साथ याचिका खारिज कर दी गई।

देर रात दाखिल हुई याचिका को विशेष अनुरोध पर सुबह 3 जजों की बेंच के सामने सूचीबद्ध किया गया था। बेंच के अध्यक्ष जस्टिस विक्रम नाथ ने शुरू में याचिकाकर्ता के वकील विष्णु शंकर जैन से दोपहर 2 बजे सुनवाई की बात कही। उन्होनें यह भी कहा कि वह अपनी याचिका की कॉपी दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) के वकील को दें ताकि वह इस पर पक्ष रख सकें, लेकिन इसके तुरंत बाद जस्टिस विक्रम नाथ ने अपने साथी जजों जस्टिस संजय करोल और संदीप मेहता से बात की और उनका रुख बदल गया। उन्होंने याचिकाकर्ता के वकील से कहा कि उन्हें हाई कोर्ट जाना चाहिए।

35 साल पुराने हैं मंदिर

वकील विष्णु शंकर जैन के माध्यम से दायर याचिका में कहा गया है कि बुधवार रात 9 बजे अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक नोटिस चिपकाया गया था। उन्हें सूचित किया गया था कि 20 मार्च 2025 को सुबह चार बजे मंदिरों को ध्वस्त कर दिया जाएगा। याचिका में कहा गया है कि डीडीए के किसी भी अधिकारी या किसी भी धार्मिक समिति द्वारा मंदिरों को सुनवाई का कोई अवसर नहीं दिया गया। याचिका में कहा गया है कि मंदिर 35 साल पुराने हैं।

ग्रीन बेल्ट में बने हैं तीनों मंदिर

दरअसल, दिल्ली के मयूर विहार फेज 2 क्षेत्र स्थित संजय झील पार्क में 3 मंदिर स्‍थापित हैं। स्‍थानीय निवासियों का कहना है कि ये मंदिर 40 साल पुराने हैं। जबकि डीडीए के हॉर्टिकल्चर विभाग इन मंदिरों को अवैध बता रहा है। डीडीए टीम का कहना था कि मंदिरों को ग्रीन बेल्ट में बनाया गया है।