त्वरित टिप्पणी :- क्या झामुमो से अलग होकर चम्पई सोरेन की राजनीतिक डगर आसान है ..?
- विनोद आनंद
झारखण्ड के पूर्व सीएम चंपई सोरेन ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा से बगावत कर अंततः अपनी एक अलग पार्टी बनाने की घोषणा कर दी.
पिछले दिन जेल जाने से पूर्व हेमंत सोरेन ने चम्पाई सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर इस उम्मीद से आसीन करा दिया था कि जब वे जेल से छूट कर वापस आएंगे तो आसानी से चम्पाई जी कुर्सी छोड़ देंगे और फिर वे सीएम बन जायेंगें.
हुआ भी कुछ ऐसा हीं, लेकिन कुर्सी बहुत बुरी चीज है.जब इसकी लत लग जाती है तो बहुत आसानी से नहीं छुटता,वह भी सीएम कि कुर्सी..!
खैर! चर्चा हम इस पर करेंगें कि चम्पाई सोरेन ने जो कदम उठाया उससे उन्हें आने वाले दिनों में कितना राजनितिक लाभ मिलेगा.और झारखण्ड की राजनीती में वे कितने मज़बूती से उभर पाएंगे. क्योंकि अलग पार्टी बना लेना और फिर स्थापित हो जाना बहुत आसान नहीं है. चम्पई सोरेन का कोल्हान के अपने विधान सभा में जरूर प्रभाव रहा होगा. लेकिन पुरे झारखण्ड में अभी उनकी जमीन तैयार नहीं हो पायी है. हाँ इतना जरूर हुआ है कि सीएम बनने के बाद पुरे झारखण्ड में लोग उन्हें जान जरूर गए हैं.
वैसे उन्हें जेएमएम के कोल्हान क्षेत्र के सबसे बड़े नेता के रूप में अधिमान्यता थी.वे साल 1991 से विधायक बनते रहे हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा में कई बार विभाजन के बाद भी वो शिबू सोरेन के साथ डटे रहें थे. हालांकि उनके साथ कितना वोट बैंक है इसका टेस्ट अभी आने वाले विधानसभा चुनाव में हो जाएगा.
वैसे पिछले कुछ दिनों से यह चर्चा जरूर थी कि वे बीजेपी में शामिल होंगे.लेकिन बात नहीं बनी. शायद बीजेपी में जाना उनके लिए ज्यादा बेहतर होता. लेकिन बीजेपी से बात नहीं बनी.
अंततः उन्होंने तीसरा रास्ता निकला, उनके पास और कोई उपाय भी नहीं था. अब देखना है कि इस रास्ते से अपनी राजनितिक सफर का रास्ता उनके लिए कितना आसान है.
वैसे अगर हम पुराना इतिहास देखें तो जेएमएम से विद्रोह कर अलग पार्टी बनने वालों या अन्य पार्टी में शामिल होने वाले बहुत कम लोग सफल हो पाएं हैं.
झारखण्ड मुक्तिमोर्चा की राजनिति का केंद्र विन्दु आदिवासी और कुर्मी वोट रहा है.थोड़ा बहुत मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक का वोट भी है. चूकीं शिबू सोरेन का परिवार संथाल समाज से आते हैं और संथाल समाज का वे सर्व मान्य नेता हैं,इसी लिए संथाल का समर्थन झामुमो के साथ रहा, चम्पई को भी इसी लिए संथाल या अन्य आदिवासी मत मिलते थे कि वे झामुमो के नेता थे.
झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना ए.के. रॉय, बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने की थी. बाद के दिनों में जेएमएम ने संसदीय राजनीति में हिस्सा लिया. पार्टी में समय-समय पर टूट होती रही है. साल 1993 में पार्टी के 2 सांसद और 9 विधायक बिनोद बिहारी महतो के बेटे राजकिशोर महतो और कृष्णा मार्डी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था. बाद के दिनों में जेएमएम मार्डी गुट का अस्तित्व खत्म हो गया और कृष्णा मार्डी और राजकिशोर महतो लंबे समय तक राजनीतिक के नैपथ्य में रहे.
कोल्हान और संथाल के बड़े नेता भी जेएमएम से अलग होकर नहीं बचा पाए अपना अस्तित्व
कोल्हान के क्षेत्र में एक दौर में शैलेंद्र महतो बेहद कद्दावार नेता माने जाते थे. शैलेंद्र महतो बेहद पढ़े लिखे नेता रहे हैं. हालांकि सांसद रिश्वत कांड के बाद उन्होंने देश की संसद में जेएमएम पर गंभीर आरोप लगाते हुए जेएमएम छोड़ दिया था. बाद में उनकी पत्नी आभा महतो जमशेदपुर से कई बार सांसद बनी हालांकि अब वो और उनका परिवार सक्रिय राजनीति से लगभग दूर है.
इसी तरह संथाल के क्षेत्र में भी राजमहल से कई बार सांसद बनने वाले साइमन मरांडी और हेमलाल मूर्मू ने भी विद्रोह किया. लेकिन दोनों ही नेताओं को बाद में वापस जेएमएम में आना पड़ा. स्टीफन मरांडी को पार्टी ने विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था. हालांकि बाद में दुमका विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने को लेकर हुए टकराव के बाद उन्होंने जेएमएम छोड़ दिया था. बाद में फिर उनकी जेएमएम में वापसी हो गयी.
कभी शिबू सोरेन के थिंक टैंक कहे जाने वाले सूरज मंडल आज हो गए गुमनाम
एक दौर में जेएमएम की राजनीति में सूरज मंडल को शिबू सोरेन के बाद दूसरा सबसे कद्दावर नेता माना जाता था. सच तो यह था कि सूरज मंडल को झामुमो में चाणक्य माना जाता था. लेकिन सूरज मंडल ने भी जेएमएम से विद्रोह कर के रामदयाल मुंडा के साथ मिलकर झारखंड विकास दल का गठन किया था. उनकी राजनीति भी लगभग खत्म हो गयी. और वे आज गुमनामी कि जिंदगी जी रहे हैं.
भाजपा का दामन थाम कर आज बचाये हुए हैं कुछ नेता
जेएमएम से विद्रोह करने वाले अधिकतर नेताओं की या तो राजनीति खत्म हो गयी है या बाद में वो फिर जेएमएम में वापस आ गए हैं. लेकिन इन सबके बीच अर्जुन मुंडा और विद्युत वरण महतो अपवाद की तरह हैं. जो आज भाजपा का दामन थाम कर अपनी राजनितिक जमीन बचा पाए. अर्जुन मुंडा पहली बार जेएमएम की टिकट पर चुनाव जीते थे. बाद में बीजेपी में शामिल हो गए. अर्जुन मुंडा कई बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने और केंद्र में भी उन्हें मंत्री बनाया गया. इसी तरह विद्युत वरण महतो भी जेएमएम से बीजेपी में शामिल हुए और लगातार तीसरी बार वो जमशेदपुर से चुनाव जीतने में सफल रहे हैं. ये दोनों नेता अपवाद की तरह हैं जिन्होंने जेएमएम छोड़ने के बाद भी अपनी राजनीति को बचाया है.
झारखंड की राजनीती की दिशा आदिवासी-कुर्मी वोट करती है तय
झारखण्ड मुक्तिमोर्चा हो या अन्य दल झारखंड की राजनीतिक में सत्ता के सोपान पर पहुँचने के लिए आदिवासी और कुर्मी वोटर्स का सहारा जरुरी हो जाता है. वहीं
अल्पसंख्यक वोटर्स की संख्या भी यहाँ अच्छी खासी रही है. जिसका समर्थन कांग्रेस और झामुमो को मिलती रही है.पिछले चुनाव में आदिवासी और मुस्लिम मतों की गोलबंदी और महतो वोट बैंक में भी सेंध लगाकर जेएमएम ने सफलता हासिल की थी. अब सवाल उठता है की चम्पाई क्या आदिवासियों के कोल्हान में सर्वमान्य नेता बन पाएंगे, आदिवासी और कर्मी वोटों का सेंधमारी कर पाएंगे.क्योंकि चम्पाई और हेमंत दोनों संथाल समाज से आते हैं. और संताल के साथ अन्य आदिवासियों का समर्थन आज भी झामुमो के साथ है. इस लिए झारखण्ड के राजीनीति में झारखण्ड से अलग होकर अपनी नयी पार्टी के साथ चम्पाई का डगर बहुत आसान नहीं है. लेकिन इतना वे जरूर करंगे की किउक वोट इंडिया एलाइंस का काट कर भाजपा के डगर को जरूर आसान बना देंगे. आगे देखिये झारखण्ड की राजनीती में क्या होता है.
Sep 02 2024, 09:33