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संपादकीय:झारखंड में एक कांग्रेसी विधायक द्वारा बांग्लादेशी घुसपैठियों को काउंटर करने के लिए बिहारी घुसपैठियों का सवाल उठाना कितना सही है...?

विनोद आनंद

झारखण्ड में इन दिनों बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण जनसंख्यां में हो रहे बदलाव को लेकर चर्चा छिड़ी हुई है.

घुसपैठी यहां आदिवासी बेटियों से विवाह कर दान के रूप में जमीन हासिल कर स्थायी रूप से बस रहे हैं , यहां ग्राम पंचयात का सदस्य बनकर अपनी स्थिति मजबूत कर रहे हैं ,आदिवासी लड़कियों से शादी के बाद उसका धर्मान्तरण के साथ हीं क्षेत्र में अपराध को भी अंजाम दे रहे हैं .यह एक ऐसी समस्या है जिससे आने वाले दिनों ना सिर्फ झारखण्ड के लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी बल्कि देश के आंतरिक सुरक्षा पर भी खतरा बढ़ जायेगा. 

आज इस समस्या का भले हीं झारखण्ड के लोग और सरकार नज़रअंदाज़ करे कि ये रोजी रोटी के लिए घुसपैठ कर रहे हैं, लेकिन देश विरोधी ताकत और हमारे दुश्मन देश जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं इन घुसपैठियों को बहुत हीं आसानी से अपने प्रभाव में ले सकते और हमें और हमारी सुरक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर सकते. ऐसे समस्या को कतई राजनितिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए. और न इस पर राजनीती होनी चाहिए.लेकिन दुर्भाग्य वश इस राजनीति हो रही है.

भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया  तो सत्ताधारी दल यह स्वीकार करने के लिए तैयार नही है कि यहां बांग्लादेशी घुसपैठ हो रही है. इधर सत्ताधारी दल के एक कांग्रेस विधायक ने तो हद ही कर दी.उन्होंने तर्क दिया कि झारखण्ड में बिहारियों की घुसपैठ से यहां का डेमोग्राफी बदल गया है.

बिहारियों कि तुलना बंगालदेशी घुसपैठ से करना कोंग्रेसी विधायक के लिए कितना उचित है, इस बयान से कांग्रेस को कितना लाभ होगा, एक राष्ट्रीय पार्टी की इस सोच का प्रभाव अन्य प्रदेश और झारखण्ड के अन्य सीटों के वोट बैंक पर क्या होगा यह तो आने वाला समय तय करेगा. लेकिन ऐसी हीं बयानों और भाषणों के कारण आज कांग्रेस की ऐसी स्थिति हो गयी की कांग्रेस बैसाखी के सहारे आज चल रही है.

सच तो यह है कि कांग्रेस के अंदर ना तो एक आइडियोलोजी रहा जिसके आधार पर कांग्रेस के सभी कार्यकर्त्ता और चुने गए जनप्रतिनिधि के विचार और नीति में एकरूपता हो,और नहीं नेतृत्व का प्रभाव रहा. कांग्रेस के वर्तमान स्थिति के लिए सबसे बड़ा कारण यही है.

 तभी तो बंगला देशी घुसपैठ को काउंटर करने का प्रयास किया जा रहा है तो संसद में एक पंजाब से चुने गए सांसद ने खालिस्तान समर्थक के पक्ष में बात कर रहें है.

 बात करें झारखंड की तो 2000 से पहले झारखण्ड बिहार था, और बिहार के लोग अपने प्रदेश में हर जगह पढ़ने, नौकरी और व्यापार करने, और साथ में रोजगार के अनुरूप बसने के लिए आये. इसमें कही भी संबैधानिक अड़चन नहीं था. आज तकनीकी रूप से सक्षम, मेहनती बिहारी देश के हर हिस्से में है. लोग काम करते हुए वहीं बस गए, दिल्ली, मुंबई बगलुरु, कोलकाता और असम आप जहाँ भी जाएँ बिहार के लोग अपने मेहनत और कठोर परिश्रम से इन महानगरों का तकदीर और तस्बीर को बदला है.

 एक समय था जब यहां के स्थानीय लोग खदान या अन्य परियोजनाओं में काम नही करना चाहते थे.खदानों के अंदर घुस कर बहुत कम लोग काम करते थे.

टाटा स्टील बीसीसीएल और अन्य यहां स्थापित उद्योगों में भी तकनीकी के जानकार लोगों को बाहर से लाकर बसया गया और काम लिया गया.तब मौज़ूदा झारखण्ड बना, जंगलो, पहाड़ो से अच्छादित एक विकसित झारखण्ड को बनाने में यही बिहारी और देश के अन्य हिस्सों से आकर यहां बसें लोगों का योगदान रहा.ये कई पीढ़ी से यहीं के होकर यहां रह गये.उसके तीन से चार पीढ़ी से यहीं बसें हैं, फिर उस पर यह सवाल उठाना और बांग्ला देशी घुसपैठ से तुलना करना सही है या गलत तो इसे कांग्रेस के प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व को तय करना चाहिए और कोई भी जनप्रतिनिधि सिर्फ राजनीति करने के लिए ऐसा बयान दे या नही यह भी तय करना चाहिए.

और अगर उनके विधायक द्वारा उठाया गया यह सवाल सही है तो कांग्रेस के सभी झारखण्ड के गैर खतियानी पदाधिकारी को बोरिया विस्तर समेट कर अपने पद को छोड़कर यहां से चला जाना चाहिए ताकि यहां का डेमोग्राफी सही हो सके.

   इस तरह के बयान और सोच से देश नहीं चलता है, कुछ क्षेत्रीय दल भी इसी तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं .जिससे ना तो देश चल सकता है नहीं देश का विकास हो सकता है. जब किसी भी प्रतिनिधि को जनता चुनकर किसी भी सबैधानिक संस्थाओं में भेजती है तो संविधान की मर्यादा, और कानून की जो व्यवस्था है उसको याद रखना चाहिए.

 बंगालदेशी घुसपैठ और बिहारी की आवादी या देश के किसी हिस्से के लोगों का बसना को एक तराजू पर नहीं तौला जा सकता. हां यह अलग मुद्दा है कि स्थानीय किसे माना जाय और उसका मानदंड क्या हो यह हमारा आंतरिक मुद्दा है जिस पर हम बहस कर सकते हैं.लेकिन किसी विदेशी घुसपैठ को काउंटर करने के लिए देश के किसी भी भाग से आकर यहां बसे लोगों पर इस तरह बयानबाजी सही नही है.

बंगला देशी घुसपैठ एक गंभीर समस्या है.उसे अपने वोट बैंक के नजरिये से कोई भी राजनीतिक दल नही देखें,बल्कि आपसी सहमति के साथ इसके लिए जो भी बैधानिक रास्ता है उस पर काम करे।झारखंड में इस समस्या के लिए केंद्र और राज्य दोनों जिम्मेबार है।इसके लिए ठोस कानून बनाये और इसे रोके नाकि इस पर राजनीति करे।

सम्पादकीय: सरकार धर्म को लेकर राजनीति करने के बजाय देश के विकास और जनता की बुनियादी समस्यायों के निराकरण के लिए काम करे

-विनोद आनंद

शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का एक बयान सुन रहा था।वे एक मीडिया हाउस से बात करते हुए कह रहे थे-धर्म क्या है, समाज में धर्म का प्रचार और धर्म की मर्यादा का रक्षा करना धर्म गुरु का काम है, राजनेता इसमें ना हस्तक्षेप करे तो ज्यादा बेहतर है।

उसी तरह धर्म गुरु को भी राजनीति में हस्तक्षेप करने की जरूरत नही है। उनका तात्पर्य है कि धर्म का राजनीतिकरण नही हो।राजनेता धर्म का सहारा लेकर लोगो की भावनाओं को ना भड़काए, ना उसका दुरुपयोग करें।

 उन्होंने संसद में राहुल गांधी के हिंदू वाले बयान के बाद उसका राजनीतिकरण पर भी प्रतिक्रिया दिया। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी का संसद में दिए गए बयान को मैंने सुना,उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म में हिंसा का स्थान नही है।भाजपा के ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि जो लोग हिन्दू होंने का दाबा करते हैं वे हिंसा की बात करते हैं।उनका इशारा था भाजपा के ओर ।लेकिन उसको पूरे हिन्दू समाज से जोड़ देना अपराध है।

नि:संदेह धर्म और राजनीति को बिल्कुल अलग रखना चाहिए।धर्म का मतलब हमारे जीवन पद्धति, हमारे संस्कार, हमारी भावनाओं से है। और राजनीति का जुड़ाव हमारे जीवन को बेहतर बनाने के लिए एक ऐसी व्यवस्था से है जिसमे राज नेताओं को हम अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनकर भेजते हैं और वे बहुमत से जीतकर जाने वाले राजनीति दल सरकार बनाते और कम संख्यां में जानेवाले दल जो सत्ता से बाहर हैं विपक्ष की भूमिका निभाते हैं।

जनता को यह कभी नही भूलना चाहिए कि इस राजनीतिक व्यवस्था में दोनों हीं जनता के हित में जरूरी है।हमारे लिए जितना प्रिय सत्ताधारी दल है ,उतना ही प्रिय विपक्ष में बैठे लोग हैं। किसी भी लोकतंत्रिक परम्परा में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।अगर विपक्ष के प्रतिनिधि नही होंगे जो सरकार से सवाल करे, उनके किसी भी गलत निर्णय का विरोध करे,और हमारी आवाज को संसद में पहुंचाए तो सत्ताधारी दल निरंकुश हो जायेगी, और हमारे ऊपर तानाशाही करेगी। अगर हम इन दोनों व्यवस्थाओं को नही स्वीकार करेंगे तो हमे राजतंत्र के लिए तैयार रहना चाहिए।

खैर यह बहुत गंभीर विषय है जिसे हम अगले अंक में उठाएंगे आज का विषय हमारा है धर्म और राजनीति।आज धर्म का अपने राजनीति के लिए दुरुपयोग करना सही नही है।क्योंकि धर्म बहुत हीं संवेदनशील विषय है। हमारे और आपके जनभावनाओं से जुड़ा हुआ है।हमारा भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है ।यहां सभी धर्म, सम्प्रदाय के लोग हैं जो भाईचारा और तालमेल से रहते हैं। हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष संविधान है।और जब हम अपने प्रतिनिधि को सरकार बनाने के लिए भेजते हैं तो वे इसी संविधान की शपथ लेकर इस बात को दोहराते हैं हम इस संविधान की रक्षा करेंगे और इसमें उल्लेखित नियमो के अनुरूप सभी धर्म सम्प्रदाय के हित के लिए काम करेंगे।

लेकिन मौजूदा समय में जिस तरह माहौल हमारे पवित्र संसद में धर्म और एक दूसरे को नीचे दिखाने के लिए अनर्गल विषयों पर बहस होती है वह दुर्भाग्यपूर्ण है।आज संसद में बहस होनी चाहिए कि हमपर जिन जनताओं ने भरोसा जताया उसके हित के लिए हमे किया करना है,..?

देश के युवाओं के रोजगार,शिक्षा,स्वास्थ्य,और भारत को आगे ले जाने के लिए किस तरह की नीति बनानी है..?और विकसित देशों के श्रेणी में अपने को खड़ा करने के लिए हमे किस तरह प्रबंधित नीतियां बनानी है।इस पर चर्चा ना कर सत्ताधारी दल बात करेंगे कि पहले जिन लोगों ने सत्ता सम्भाली थी उसने देश को डूबा दिया, कानून व्यवस्था खराब कर दी, देश का विकास नही हुआ..बेगैरह बेगैरह!

यह सब सरासर बकवास है। जिसे नही तो हम जनता को सुननी है और नही उस पर बहस करनी है।उसने नही किया इसी लिए हम जनता ने आप को मौका दिया आप क्या कर रहे हो उसका रिजल्ट दो। बस जनता को इसी से मतलब रखना चाहिए।और सरकार को भी आलोचना प्रतिलोचना के बजाय काम कर बेहतर रिजल्ट दिखाना चाहिए।

धर्म और उसकी राजनीति से ज्यादा जरूरी देश की जनता को उनकी बुनियादी जरूरत से है।और राजनेताओं को हम चुने जाने के बाद उन्हें सारी सुविधाएं देते है, हमारे पैसा से वे राजसुख भोग रहे हैं,और हमारी जीवन को सही ढंग से प्रबंधित करने के लिए वह कितने कुशलता के साथ काम करते हैं इसके आधार पर हमें मूल्यांकन करना चाहिए।

अंत में मैं राजनेताओं से कहूंगा धर्म के लिए नीति निर्धारण धर्म गुरु को करने दीजिए,देश की व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए आप अपनी क्षमताओं को लगाइए,बस तभी भारत आगे बढ़ पायेगा।

संपादकीय: क्या बिहार की जनता किसी तीसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश में है,क्या उठने लगा है तेजस्वी और नीतीश से भरोसा...?

विनोद आनंद

बिहार में पिछले तीन दशक से जिस राजनितिक नेतृत्व पर जनता ने भरोसा किया वह भरोसा अब टूटता हुआ दिख रहा है।जनता अब नए राजनितिक विकल्प की तलाश में हैं जिसे वह जनादेश देकर अपने भविष्य को लेकर ताना बाना बुनना शुरू कर दिया हैं।

  एक दौर था जब बिहार में सवर्ण का दबदबा था। कांग्रेस की राजनीती का वह दौर जब पिछड़े वर्गों के विकास और उसके हक़ को दवाया जा रहा था। राजनीती हो या नौकरशाह सभी में स्वर्णोँ का वर्चस्व था, इक्के दुक्के लोग राजनीती में या अच्छे जगहों पर जरूर थे लेकिन जो उस समय की सामाजिक स्थिति थी उस स्थिति में वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। उसी दौर में कर्पूरी ठाकुर जैसे कुछ समाजवादी नेता जरूर हुए लेकिन सामाजिक परिवर्तन और दबे कुचले वर्गों के लिए दबंगता के साथ आगे नहीं आ सके।

  देश में इंदिरा गाँधी की सरकार ने 25 जून 1975 को इमरजेंसी लगायी। इस इमरजेंसी के पीछे जो भी उद्देश्य इंदिरा का रहा हो,उस पर हम अभी चर्चा नही करेंगे लेकिन यह दौर था जिसमे कई चेहरे आगे आये। उन चेहरों में सभी वर्ग के लोग थे ।पिछड़े समाज के भी, दलित समाज के भी । 

इसी दौर में लालू प्रसाद यादव , नीतीश कुमार जैसे कई नेता सामने आये।और जनता को सामाजिक परिवर्तन के साथ विकास की उम्मीद बंधी। बिहार में पिछले 3 दशक से लालू प्रसाद यादव,राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की पार्टी सत्ता में रही,इस दौर में सत्ता में पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों को कुछ भागीदारी जरूर मिली।लेकिन लोग अब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के पार्टी से ऊबने लगे हैं।बिहार के लोग किसी तीसरे विकल्प की तलाश में हैं।क्योंकि इतने दिनों में सामाजिक न्याय और राज्य के विकास के नाम पर जो कुछ भी हुआ जनता उससे संतुष्ट नही हैं।

बिहार में आज तक ये दोनों पार्टी सत्ता की धुरी में जरूर रहे लेकिन ना तो यहाँ कोई इंडस्ट्रीज लग पाये, नही किसी रोजगार का सृजन हुआ।बिहार के लोग की क्या हालत है, जाकर महानगरों में देखिए। कोरोना काल में लॉकडॉन का वह मंजर,देश के कोने से बिहारी मज़दूरों की हालत,बिहार की नीतीश सरकार को मज़दूरों को अपने घर वापसी में बरती गई लापरवाही।कई ऐसे पल हैं जिसकी टीस बिहार की जनता के दिलों में आज भी है।इसी लिए पिछले चुनाव में बिहार के वोटों का जो बंटवारा हुआ।जिस तरह लोगों का रुझान निर्दलीय प्रत्याशी के लिए बढ़ा उससे तो यही प्रतीत होता है कि राज्य की जनता तीसरे विकल्प की तलाश में है।

इसी लिए यह संभावना है कि 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की राजनीति में कोई बड़ा उलटफेर हो तो कोई आश्चर्य नही।रुपौली उपचुनाव रिजल्ट के बाद कुछ ऐसा हीं महसूस किए जाने लगे हैं।जिस तरह रुपौली में एनडीए और इंडिया गठबंधन को नक्कारते हुए जनता ने निर्दलीय प्रत्याशी को अहमियत दिया।यह संकेत तो यही बता रहा है कि नही तो लोग नीतीश के सुशासन छवि से संतुष्ट हैं और नही तेजस्वी के युवा तुर्क से।

 वैसे पूर्णिया लोकसभा चुनाव में तेजस्वी ने जिस तरह अपने हल्केपन का परिचय दिया।पप्पू यादव को हराने के लिए कमजोर चेहरा के बल पर अपने प्रभाव और शख्शियत का प्रभाव का परीक्षा लिया,पूरी ताकत झोंकने के बाद भी अपने प्रत्याशी की जमानत तक नही बचा पाए।यहां तक चुनावी सभा में कह दिया कि इंडिया नही तो एनडीए को वोट दे दो लेकिन निर्दलीय को नही, इसके वाबजूद वे पप्पू यादव को नही हरा पाए।यहीं इनके राजनीतिक प्रभाव का क्षरण होना शुरू हो गया।

 लोकसभा चुनाव 2024 की बात करें तो एनडीए को 9 सीटों का नुकसान बिहार में उठाना पड़ा। दूसरी ओर इंडी गठबंधन को अपेक्षा के अनुसार खास बढ़त नहीं मिली। इससे साफ है कि जनता अब किसी भी पार्टी के बहकावे में नहीं आने वाली है और राज्य के विकास के लिए नए चेहरों को मौका देने के लिए तैयार है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 में से 39 सीटें जीतने वाले एनडीए को इस बार सिर्फ 30 सीटों से संतोष करना पड़ा। कई सीटों पर तो एनडीए उम्मीदवार मामूली अंतर से जीते।

दूसरी तरफ, इडी अलायंस को भी जनता ने कोई खास पसंद नहीं किया। 2019 में एक भी सीट नहीं जीत पाने वाली आरजेडी को इस बार सिर्फ 4 सीटें मिली। कांग्रेस को 3 और लेफ्ट को 2 सीट से संतोष करना पड़ा। 

लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि बिहार की जनता ने एनडीए और महागठबंधन दोनों पर ही कम भरोसा जताया है।

 पूर्णिया लोकसभा और रुपौली विधानसभा उपचुनाव के नतीजे बताते हैं कि बिहार की जनता अब एक नया विकल्प तलाश रही है। राज्य की कई लोकसभा सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी। काराकाट से निर्दलीय उम्मीदवार और भोजपुरी अभिनेता पवन सिंह ने इंडी अलायंस और एनडीए, दोनों के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी। 

जहानाबाद में भी बसपा उम्मीदवार ने एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी।

इन नतीजों से साफ है कि बिहार की जनता अब नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' वाली छवि और तेजस्वी यादव की 'युवा नेता' वाली छवि से ऊब चुकी है।

 जनता को अगर कोई नया विकल्प मिलता है तो वह उसे ही चुनने के लिए तैयार है। सियासी पंडित कहते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लोकप्रियता कम होने का सबसे बड़ा कारण है उनका बार-बार पाला बदलना। अपने चार कार्यकालों में नीतीश कुमार रिकॉर्ड 9 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। वह कभी राजद तो कभी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाते रहे हैं। लेकिन विकास के नाम पर राज्य में जो कुछ भी हुआ जनता निराश हैं।

ऐसे में बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है। जनता बदलाव चाहती है और अगर उसे कोई नया और बेहतर विकल्प मिलता है तो वह उसे चुनने से पीछे नहीं हटेगी।

सम्पादकीय: पटना में छात्र हर्षराज की हत्या से पुलिस,सरकार के साथ कॉलेज प्रशासन भी कटघड़े में, इस तरह की घटना पर शख्त कार्रवाई की है जरूरत


विनोद आनंद

पटना विश्वविधालय के लॉ कॉलेज के थर्ड ईयर का छात्र हर्ष राज की हत्या कॉलेज परिसर में पीट पीट कर ,कर दी जाती है।वह बीएन कॉलेज में परीक्षा दें रहा था।परीक्षा देकर ज्योहीं कक्षा से बाहर निकला कि कॉलेज परिसर में घात लगाए कुछ लोगों ने उनपर हमला कर दिया।

ईट और लाठी से पीट पीट कर उसे बेहोश कर दिया। उसे इतने बेरहमी से पीटा गया कि अस्पताल जाते -जाते उसने दम तोड़ दिया।

इस हत्याकांड ने बिहार की शासन व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर दिया है। जिस तरह परीक्षा के दौरान कॉलेज परिसर में पीट पीट कर हत्या कर दी गयी। ना तो कॉलेज प्रशासन द्वारा उस छात्र को बचाने का प्रयास किया गया और नही स्थानीय पुलिस को सूचना देकर उस छात्र की जीवन रक्षा की गई।इस मामले में सरकार, पुलिस व्यवस्था के साथ कॉलेज के प्रचार्य,विश्वविधालय के उप कुलपति भी दोषी है।और अपराधियों के साथ साथ इन पर भी कार्रवाई की जरूरत है।

हालांकि राज्यपाल ने इसे सज्ञान में लिया है और पटना विश्वविद्यालय के उप कुलपति को तलब किया गया है। लेकिन आंदोलित छात्रों की मांग है कि इनपर भी कार्रवाई हो।प्रचार्य और भी सी को बर्खास्त किया जाए और दोषी हत्यारा को फांसी की सजा मिले।इस मामले में पुलिस ने चंदन यादव को गिरफ्तार किया है,जिसे मुख्य आरोपी बताया जा रहा है। 

यूं तो बिहार में हत्या और हत्यारा को खुले आम पुलिस पकड़ से बाहर घूमना कोई नई बात नही है। इसके पूर्व भी कवि कुमार नामक छात्र की हत्या कॉलेज परिसर में हो चुकी है।उसे गाड़ी से कुचल कर मार डाला गया था।

बेगूसराय के बखरी निवासी कवि कुमार की हत्या पटना के बोरिंग रोड स्थित एएन कॉलेज के कैंपस में अपराधियों ने स्कॉर्पियो गाड़ी से कुचल कर की थी। 

एएन कॉलेज कैंपस के अंदर ही श्री कृष्णापुरी थाना भी है। थाने से कुछ ही दूर पर यह हत्या हुई थी।इस हत्या के बाद बेगूसराय से लेकर पटना तक छात्र कवि कुमार को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन करते रहे, लेकिन, कवि कुमार हत्याकांड में भी कुछ नहीं हुआ।जबकि पुलिस के पास सीसीटीबी फुटेज है,स्कार्पियो भी बरामद हुआ पर हत्यारा आजाद है।

हालांकि अभी चुनाव का समय है आचार सहिंता लागू है इस लिए पुलिस ने तत्परता दिखलायी और चंदन यादव गिरफ्तार हुए लेकिन पुलिस नीतीश सरकार के शासनकाल में इस घटना में संलिप्त और अपराधियों को पकड़ पाती है और उसे कठोर से कठोर सजा दिला पाती है या कवि कुमार के तरह इसे भी ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है यह तो बक्त बताएगा।

 कवि कुमार हो या हर्ष राज की हत्या बिहार के पुलिस व्यवस्था के साथ ही सरकार भी कटघडे में है।

क्योंकि गिरफ्तार चंदन कुमार महागठबंधन के उम्मीदवार का प्रचार करते देखे गए।कम्युनिष्ट संघटन से जुड़ा हुआ है।इस लिए पुलिस को यह अनुसंधान करना पड़ेगा कि हर्षराज की हत्या का कारण क्या है,इसके पीछे कहीं और तार तो नही जुड़े हुए हैं।और इन विन्दुओं पर पुलिस कितना ईमानदारी से काम कर पायेगी यह तो समय बताएगा।लेकिन नीतीश सरकार इस तरह की घटना के बाद पुलिस को शक्त हिदायत दे तो शायद दोषी को सजा मिल सकती है।

आज 5 माह गुजर गए कवि कुमार के पिता को अपने बेटे की हत्यारे को पकड़े जाने की उम्मीद नही रही।इसी तरह पत्रकार अजीत कुमार को अपने बेटा हर्षराज को न्याय मिल पायेगा इस पर संशय है।

हर्षराज ने लोजपा प्रत्याशी शांभवी के लिए प्रचार भी किया था।उसे वह अपना बहन मानता है इस ख्याल से इस मामले में सरकार में शामिल भाजपा को सज्ञान लेकर अपराधी को कठोर सजा मिले इसके लिए पहल करना चाहिए।साथ ही प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी की भी यह कोशिश होनी चाहिए कि कोई भी हो किसी भी पार्टी का हिस्सा हो इस तरह के अपराध करने वाले को कठोर सजा मिले।इसके लिए उन्हें भी सरकार पर दवाब बनाना चाहिए। 

आज बिहार ने इसी अपराध और आतंक के कारण बहुत कुछ खोया है।देश भर में अपना छवि बिगड़ा, शिथिल पुलिस व्यवस्था,सरकारी ऑफिस में भ्रष्ट कर्मचारी,अपराधियों का आतंक,जैसे कारण है कि बिहार में कोई निवेशक यहां उधोग नही लगाना चाहता। लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ता है।

इसलिए अपराध पर नियंत्रण के लिए ऐसे अपराधी जिस से राज्य में आतंक बढ़ता है, वह किसी भी जाति वर्ग, पार्टी या संघठन से जुड़ा हो उसे नही बख्सा जाना चाहिए।

संपादकीय: क्या 7 वीं की छात्रा मनीषा का पूर्व सीएम हेमन्त सोरेन के नाम मार्मिक पत्र उनके पॉजिटिव काम का इफेक्ट है......?

पलामू के सीएम ऑफ एक्सीलेंस स्कूल के 7 वीं क्लास की छात्रा मनीषा पांडेय ने पूर्व सीएम हेमन्त सोरेन के नाम एक खत लिखी जो काफी वायरल हो रहा है। उसका वह खत काफी भावुक अंदाज़ में लिखा गया जिसमें उसने लिखा कि आप थे तो हम छात्राओं में हौसला था।उम्मीद थी कि हमलोग पढ़ लेंगें। हमने अब रोना छोड़ दिया है।

कहने को तो यह एक छात्रा की भावुकता में लिखा गया पत्र लगता है, लेकिन उसके साथ हीं इस पत्र से राज्य के बच्चों की एक पीड़ा भी झलकती है कि पिछले 24 सालों में कई सरकारें आयी।लेकिन राज्य में शिक्षा व्यवस्था सुधार के लिए कुछ नही किया गया।

अगर सच कहें तो राज्य सरकार के सरकारी स्कूलों में जो शिक्षा व्यवस्था थी उसपर उस स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षकों को भी भरोसा नही था।वे भी अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते हैं।जहां शिक्षा के नाम पर मोटी रकम की वसूली,तरह तरह के इवेंट के नाम पर अलग फीस ली जाती है।साथ ही फीस नही चुकता करने वाले बच्चों को जिस मानसिक प्रताड़ना से गुजड़ना पड़ता है उससे वे आत्म हत्या के लिए भी विवश हो जाते हैं।ऐसी कई घटनाएं सामने आई है।स्कूल संचालन करने वाले इतने रसूख वाले होते हैं जिनका इन घटनाओं के बाद बाल भी बांका नही होता है।

 मनीषा ने प्राइवेट स्कूल का दर्द महसुस किया है। उसने खत में लिखा भी किस तरह प्राइवेट स्कूल से सीएम स्कूल ऑफ एक्सीलेंस तक का सफर तय की।उसने किस तरह देखा कि उसकी कुछ दीदी ने प्राइवेट स्कूल का फीस नही चुका पाने के कारण स्कूल छोड़ दी।और इन पीड़ा से गुजर रही मनीषा जैसी छात्राओं में सीएम स्कूल ऑफ एक्सीलेंस से एक उम्मीद जगी।

हेमन्त सोरेन के फोटो स्कूलों से हटाए जाने पर पीड़ा महसूस की ओर संवेदनाओं से वशीभूत इस तरह के पत्र लिख कर अपनी पीड़ा व्यक्त की।

अब हम बात करें इस बार पूर्ण बहुमत से आये हेमन्त सरकार के काम काज की तो पिछले 24 सालों से आये सभी सरकारों से वे ठीक जा रहे थे।

 इसका दो कारण था। एक तो इतने दिनों से राजनीति के उठापटक और सियासत के मैदान में संघर्ष से एक परिपक्व राजनेता के रूप में उभर कर सामने आए थे। दूसरी बात मुख्यमंत्री बनने के बाद वे दिल्ली जाकर केजरीवाल मॉडल को भी समझने का प्रयास किया और शिक्षा , स्वास्थ्य जैसे बुनियादी व्यवस्था को बदलने के दिशा में काम करना शुरू किया।जिसके कारण यहां के प्रतिभाशाली बच्चों को उन्होंने सरकारी खर्च पर विदेश पढ़ने के लिए भेजा।सीएम स्कूल ऑफ एक्सीलेंस बनाकर एक मॉडल पर एक्सपेरिमेंट शुरू किया। और साथ हीं सरकार के विभिन्न योजनाओं को सीधे जनता तक पहुंचाने के लिए सरकार आपके द्वार कार्यक्रम की शुरुआत की।

हेमन्त सोरेन की सरकार ने राज्य की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने, युवाओं को स्वरोजगार के लिए प्रेरित करने,स्थानीय उधोगो में 75 प्रतिशत स्थानीय युवाओं को रोजगार दिलाने,तथा रोजगार मेला लगाकर लोगों को ऑफर लेटर देकर उसे रोजगार उपलब्ध कराने जैसे कई पहल की सराहना की गई।

कुछ उनके करीबी,और कुछ अपनी राजनीति चमकाने में लगे लोगों ने1932 खतियान के नाम पर उन्हें सियासी पेंच में जरूर उलझाया, जिसको कई मौके पर हेमन्त सोरेन ने एक परिपक्व राजनेता के तरह अपने लोगों को समझाने का प्रयास भी किया कि यह व्यवहारिक नही है , आगे कानूनी पेंच में उलझ कर रह जाएगा,और ऐसा हुआ भी।

 इसके वावजूद हेमन्त सोरेन एक मैच्यूओर नेता के रूप में उभर रहे आदिवासी युवक के रूप में झारखंड का बागडोर संभाला और वे बेहतर कर रहे थे।लेकिन सियासी भवँर में उन्हें उलझा कर सत्ता से बेदखल कर दिया गया। जिसका पीड़ा मनीषा जैसे छात्रा को भी है।

इसीलिए हेमन्त सोरेन की गिरफ्तारी,और मुख्यमंत्री परिवर्तन के बाद चम्पई सोरेन के मुख्यमंत्री बनने के बाद उक्त स्कूलों से पूर्व सीएम सोरेन की तस्वीर उतारी जा रही थी और उसके जगह चम्पई सोरेन का तस्वीर लगाया जा रहा था।

 7 वीं की वह अबोध छात्रा यह नही जानती है कि हेमंत को क्यों मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा।वह यह भी नही जानती की उनकी गिरफ्तारी एक राजनीति का हिस्सा है या वास्तव में कथित घोटाले में उनकी कोई भूमिका है।

लेकिन वह सिर्फ यह जानती है कि उन्होंने यह स्कूल बनाया।और प्राइवेट स्कूल की फीस तथा अन्य खर्चों के बोझ तले दबे उनके अभिभावक इस स्कूल में भेज कर इस भार से मुक्त हुए।

 जिससे वे प्रभावित थे और उसके लिए यह असहनीय था। क्योंकि मनीषा ने देखी थी कि उसकी कई सहेली इस कारण पढ़ाई छोड़ दी थी।कि उसके अभिभावक प्राइवेट स्कूल के भार नही उठा पाए।

इसी लिए मनीषा ने अपने पत्र में लिखी कि आप के लिए अब मैं नही रोउंगी। लेकिन आप थे तो हौसला था। पढ़ाई की हिम्मत बढ़ी थी। हमारे जैसे लड़कियां पढ़ पा रही थी। लेकिन स्कूल से आप का तस्वीर उतारा जा रहा है इसका दर्द हमें है।

एक बच्ची की इस भावना से स्वाभाविक तौर पर हेमन्त सोरेन की लोकप्रियता और उनके काम से पॉजिटिव इम्पेक्ट झलकता है।

पिछले 24 साल हो गए झारखंड अलग राज्य गठन का।सरकार भाजपा की भी रही जेएमएम की भी रही।लेकिन सच पूछिए तो जिस उम्मीद और आकांक्षाओं को लेकर इस क्षेत्र को बिहार से अलग कर एक अलग राज्य का दर्जा दिया गया था उस कसौटी पर कोई सरकार खड़ी नही उतरी।

पहली बार हेमंत सोरेन की सरकार कुछ खामियां को दरकिनार कर दें तो सही दिशा में जा रही थी।

फिलहाल मनीषा जैसे बच्ची के मार्मिक पत्र, आदिवासियों की सहानुभूति से हेमंत सोरेन का कद बरकरार है और अच्छे काम को जनता महसूस कर रही है।अब देखना है कि यह इफेक्ट अगले चुनाव में कितना काम आ सकता है....!

त्वरित टिप्पणी: भाजपा की रणनीति हुई फेल झारखंड में महागठबंधन की मज़बूत सरकार के साथ हेमंत के प्रति उमड़ा जनता में भी सहानुभूति

(विनोद आनंद)

एक बार झारखंड में भाजपा की रणनीति फिर फेल हो गयी। चम्पई सोरेन की सरकार 43 के जगह 47 विधायकों के समर्थन से एक बार फिर मजबूत सरकार बन गयी जबकि भाजपा अपने 31 विधयकों को भी नही जुटा पाई । उनके मात्र 29 विधायक हीं फ्लोर टेस्ट में उपस्थित हुए।

झारखंड के इस एकजुटता और भाजपा की रणनीति के फेल होने से भाजपा की फजीहत हो गयी है।उन पर आदिवासी विरोधी होने का ठप्पा भी लग गया है। साथ ही झारखंड में लोगो का भाजपा के प्रति आक्रोश और हेमन्त सोरेन के प्रति जनता में सहानुभूति से आने वाले 2024 के चुनाव में भाजपा को क्षति भी उठानी पर सकती है।

भाजपा को उम्मीद थी कि हेमंत सोरेन के गिरफ्तारी से झारखंड में  मुख्यमंत्री चेहरा को लेकर अंतर्कलह शुरु हो जाएगा ,जेएमएम और कांग्रेस के विधायक टूट जाएंगे और झारखंड में 2024 के चुनाव से पहले भाजपा की सरकार बन जाएगी।

ऐसा भाजपा सांसद दीपक प्रकाश और निशिकांत दुबे दावा भी कर रहे थे। यह भी सच था कि जेएमएम में अंतर्कलह भी है,सीता सोरेन, लोविंन हेम्ब्रम,की नाराजगी से सियासी गलियारों में यह कयास लगाया जा रहा था कि कुछ खेला होगा।लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ और गठबंधन एकजूट रही। 

राजभवन को चम्पई सोरेन ने 43 विधायकों के समर्थन का लिस्ट सौंपा लेकिन फ्लोर टेस्ट में चम्पई सोरेन को साथ 47 विधायकों का समर्थन मिला।

आज यह पहली बार हुआ है कि एक मुख्यमंत्री के पद पर आसीन व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया। वह भी उस आरोप में जिसका कोई साक्ष्य उसके विरोध में नही है।ईडी एक स्वतंत्र एजेंसी के रूप में काम नही कर रही है यह धारणा भी आम लोगों में बनती जा रही है।

 हेमन्त सोरेन ने गिरफ्तारी के बाद भी यह दावा किया है कि जिस जमीन घोटले के नाम पर उन्हें गिरफ्तार किया गया अगर ईडी या भाजपा की सरकार यह सावित कर दे कि इस में मेरी कहीं संलिप्ता है तो मैं राजनीति से सन्यास ले लूंगा।

 हेमन्त सोरेन का दावा है कि उस जमीन का मेरे नाम से कोई डीड नही है,कोई भी साक्ष्य नही है।ईडी को पूछताछ में हमने सब बता दिया है।लेकिन मेरी गिरफ्तारी के लिए जाल बुना गया।उसके लिए सुनियोजित साजिश की गई।

उन्होंने इस में राजभवन की भी भूमिका होने का आरोप लगाया।  

बहरहाल हेमन्त सोरेन की गिरफ्तारी, और ईडी की भूमिका,पर सवाल उठ रहे हैं। इस सियासी घटना के बाद बीजेपी को 2024 के चुनाव में कितना लाभ मिलेगा यह तो समय तय करेगा।लेकिन इतना जरूर है कि हेमंत सोरेन के प्रति जनता में सहानुभूति है। और भाजपा के प्रति आक्रोश।यहां भाजपा के चाणक्य का रणनीति फेल होता दिख रहा है।

सम्पादकीय:आइये हम लें संकल्प, गुजरे वर्ष से सबक लेकर बनाएंगे नए वर्ष को बेहतर.....!


विनोद आनंद

हम नई आशाओं के साथ वर्ष 2024 में प्रवेश कर रहे हैं। गुजरे साल पूरी दुनियां टकराव, हिंसा और हादसों से गुजरा, रूस- यूक्रेन युद्ध, इज़राइल- पिलिस्तीन युद्ध ने पुरे दुनियां को प्रभावित किया ,साथ हीं वैश्विक महामारी के बाद उभर रही दुनियां को फिर एक नई आशंकाओं से घेर लिया कि कहीं विश्व युद्ध की संकट से ना पूरी दुनिया को गुजरना पड़े।

मगर भारत के लिए 2023 आर्थिक-राजनीतिक स्थिरता की दिशा में बढ़ने का साल रहा है।हमारी अर्थव्यवस्था संभली और ऊंची विकास दर पाने की राह पर लौटी है । इसका श्रेय केंद्र सरकार को जाता है।

 2023 में हमारे देश में कुछ हादसे और घटनाएं हमारे लिए दुखद रहा। उड़ीसा रेल हादसा में कई लोग मारे गये साथ ही साथ हमें यह सबक दिया कि सरकार इन हादसों से सबक ले और सभी विभाग के प्रबंधकीय व्यवस्था को दुरुस्त करे।चाहे उत्तरखंड का टनल में मज़दूरों को फंसने की घटना हो या रेल दुर्घटना यह सारी घटनाएं हमारे चूक का प्रतिफल था।

 पिछले कुछ वर्षों में राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा के दौर में कई सीमाएं टूटी है। राजनेताओं ने मर्यादा भी खोया है। यह सही नही है।इस से हमारी सहिष्णुता और हमारा संस्कार जिसे आज तक सराहा गया है उस पर सवाल उठने लगेगी। साथ हीं सत्ता पक्ष या विपक्ष को कोई ऐसा काम नही करना चाहिये जिससे हमारी संसदीय व्यवस्था पर अंगुली उठे।

भारत का पवित्र लोकतंत्र दुनियां के लिए एक उदाहरण है। उसकी मर्यादा और सीमाओं का उलंघन नही हो इस बात का ख्याल हमेशा रखा जाना चाहिए।क्योंकि देश के लिए जितना जरूरी सरकार है उतना विपक्ष भी।दोनों की अपनी अपनी भूमिकाएं होती है। और पूरी शासन व्यवस्था को संतुलित करने के लिए दोनों एक दूसरे के पूरक हैं

वर्ष 2024 में हमे इन सब चीजों को सुधारने की जरूरत है। जिसपर राजनेताओं को ध्यान देना चाहिए । साथ हीं हमें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि देश का विकास और आमजन की बेहतरी हमारे किसी कृत से प्रभावित न हो, यह सुनिश्चित करना सबका कर्तव्य है। 

यह गर्व की बात है कि हम दुनियां के पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं। तेज़ी से बढ़ते अर्थव्यवस्था के इस दौर में यह भी सच है कि हमारे देश में बेरोजगारी बढ़ी है।हम गरीबी और भुखमरी के इंडेक्स में भी आगे हैं।हमारे ऊपर कर्ज़ का भार भी बढ़ा है। और आज भी लोगों को सस्ते अनाज देकर सरकार जिंदा रखने की जरूरत पड़ रही है।हमें इससे निकलना है।कैसे और क्यों ..? इस पर सरकार को मंथन करने की जरूरत है।

अब 2024 की बात करें तो हम एक संकल्प के साथ इस वर्ष को बेहतर बानाने की योजना कर लें।शांति सद्भाव और आपसी भाईचारा के साथ देश के विकास और अपनी स्थिति को सुदृढ बनाने के दिशा में हमारी कोशिश हो।गुजरे वर्ष से सबक लेने और नए वर्ष को बेहतर बनाने बनाने की कोशिश हीं हमे सफलता के मुकाम पर पहुंचा सकती है।

नववर्ष पर स्ट्रीटबज़्ज़ के पाठक,विज्ञापन दाता, अपने सहकर्मी सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं।साथ हीं हमारी कोशिश होगी कि स्ट्रीटबज़्ज़ आप के लिए तात्कालिक सूचनाओं को आप तक पहुंचा सके, आप के विचार और आपके आवाज को एक बेहतर मंच प्रदान कर सके।इन्ही आकांक्षाओं के साथ नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर जरूरत है स्वास्थ्य विभाग को सजग होने और ठोस नियम बनाने की,नही तो यह बनेगा तबाही का कारण

   -:विनोद आनंद


चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में आनेवाले दिनों में एक बहुत बड़ी संकट आनेवाली है। अगर हम आज सजग नही हुए,सरकार और चिकित्सक इस मामले को लेकर गंभीर नही हुए, और जनता को भी जागरूक नही किया गया, तो इस संकट से बहुत बड़ी तबाही हो सकती है। 

क्योंकि जिस तरह लोगों के  शरीर में एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस विकसित हो रहा है उससे साधारण इंफेक्टशन से भी लोगों की मौत हो सकती है। 

क्योंकि इससे शरीर में प्रवेश किये हुए बैक्टेरिया इतना मजबूत हो जाएगा कि ।एंटिवयेटिक दवाएं बेअसर हो जाएगी । साधारण इंफेक्शन से भी लोगों की मौत हो जाएगी।इस लिए इन दवाओं के उपयोग और डोज को लेकर ठोस नियम बनाने की जरुरत है।

  

आज हम विज्ञान की खोज और नवीन तकनीकी से आगे बढ़ने की कवायद में जितना व्यस्त हो जाएं लेकिन प्रकृति के कुछ ठोस सिद्धान्त है उसका उलघन नही किया जा सकता है। मानव शरीर की सरंचना भी प्रकृति ने अपने अनुकूल किया है।उसके अंदर भी अपनी इम्युनिटी है किसी बीमारी और बैक्टेरिया से लड़ने का। लेकिन आज जैसे चिकित्सक अंधाधुंध एन्टीवायोटिक् का उपयोग कर रहे हैं और जरूरत से ज्यादा एन्टीवायोटिक किसी मर्ज में दे रहे हैं, केमिस्ट के लिए भी कोई ठोस नियम नही है, बिना प्रिस्क्रिप्शन के धड़ल्ले से एन्टीवायोटिक बेचा जा रहा है। लोग भी बिना चिकित्सक के सलाह के एंटीवायोटिक का उपयोग कर रहे हैं। यह प्रकृति द्वारा प्रदत मानव शरीर पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।और इसका असर दिखना शुरू हो गया है।
 
इसके साथ हीं साथ चिकन या अन्य फशुओं के खाद्य पदार्थों में एन्टीवायोटिक मोल्युकूल का उपयोग किया जा रहा है,और हम उस मीट, दूध का उपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं इसके प्ररिणाम स्वरूप हमारे शरीर में सुपरबग्ग डेवलप हो रहा है और हमारे शरीर के अंदर जाने वाले कोई भी वायरस इतना मजबूत हो रहा है कि कोई भी एन्टीवायोटिक दवा किसी वायरस से लड़ने के लिए बेअसर हो जाएगी।

इस संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य संघठन का चौकाने वाला रिपोर्ट भी सामने आया है। एक अनुमान के मुताबिक एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस यानी दवाओं के बेअसर होने की वजह से हर साल दुनिया में 10 लाख से ज्यादा लोग मारे जा रहे हैं। 

दक्षिण एशियाई देशों में 4 लाखx लोगों की मौत ऐसे खतरनाक इंफेक्शन से हो रही है जिन पर कोई दवा असर नहीं कर रही है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आंकलन किया है कि जिस स्तर पर आज समस्या नजर आ रही है। अगर इन परिस्थियों को हल नहीं किया गया तो 2050 तक दुनिया में एक करोड़ लोग इस वजह से मारे जाएंगे क्योंकि उन पर दवाएं असर नहीं कर रही होंगी। आज एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस इंसान की जान पर बने दस सबसे बड़े खतरों में शामिल है।

वर्ल्ड बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने की वजह से अगले पच्चीस सालों में ग्लोबल एक्सपोर्ट में 3.8% की कमी आ सकती है, हर साल पैदा होने वाला लाइव स्टॉक जैसे मीट और डेयरी प्रॉडक्टस सालाना 7.5% की दर से कम हो सकते हैं और स्वास्थ्य पर आने वाले खर्च में 1 ट्रिलियन डॉलर की बढ़त हो जाएगी। एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस का मतलब है इंफेक्शन से लड़ने वाली ज़रुरी दवाओं का बेअसर हो जाना है।

इन दवाओं को बेअसर होने के पीछे जो कारण है वह यह है कि सर्जरी के दौरान होने वाले इंफेक्शन, कैंसर के इलाज के दौरान चल रही कीमोथेरेपी से होने वाले इंफेक्शन को रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं की एक तय डोज दी जाती है लेकिन लंबे समय तक बार बार इन दवाओं को इस्तेमाल करते रहने से इन दवाओं का असर कम होने लगता है।

इस मामले में भारत के बड़े चिकित्सा संस्थान एम्स ने भी एनालिसिस किया है जिसके अनुसार देश भर के आईसीयू में भर्ती गंभीर इंफेक्शन के शिकार कई मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही है। ऐसे मरीजों के बेमौत मारे जाने का खतरा बढ़ गया है।

एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होते चले जाने का हाल ये हो गया है कि सबसे लेटेस्ट दवा जिसे विश्व स्वास्थय संगठन ने रिजर्व कैटेगरी में रखा है वो भी अब कई बार काम नहीं कर रही। रिजर्व कैटेगरी की दवा का मतलब होता है कि इसे चुनिंदा मौकों पर ही इस्तेमाल किया जाए।

लेकिन देखा गया कि सबसे असरदार एंटीबायोटिक भी केवल 20 परसेंट मामलों में ही कारगर पाए जा रहे हैं। यानी बाकी बचे 60 से 80 परसेंट मरीज खतरे में हैं और उनकी जान जा सकती है। इसकी वजह धड़ल्ले से मरीजों और डॉक्टरों का मनमर्जी से एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करना है। 

भारत की सबसे बड़ी मेडिकल रिसर्च संस्था आईसीएमआर ने पिछले वर्ष जनवरी से लेकर दिसंबर तक देश के 21 अस्पतालों से डाटा इकट्ठा किया। इन अस्पतालों में आईसीयू में भर्ती मरीजों के 1 लाख सैंपल्स इकट्ठे किए गए। इस जांच में 1747 तरह के इंफेक्शन वाले बैक्टीरिया मिले। इन सभी में दो बैक्टीरिया - ई कोलाई बैक्टीरिया और क्लैबसेला निमोनिया के बैक्टीरिया सबसे ज्यादा जिद्दी हो चुके हैं। इन बैक्टीरिया के शिकार मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही थी। 

2017 में ई कोलाई बैक्टीरिया के शिकार 10 में से 8 मरीजों पर दवाओं ने काम किया था लेकिन 2022 में 10 में से केवल 6 मरीजों पर दवाओं ने काम किया। 2017 में क्लैबसेला निमोनिया इंफेक्शन के शिकार 10 में से 6 मरीजों पर दवाओं ने काम किया लेकिन 2022 में 10 में से केवल 4 मरीजों पर दवाएं काम कर रही थी। इंफेक्शन मरीजों के ब्लड तक पहुंच कर उन्हें बीमार से और बीमार कर रहा है।

एंटीबायोटिक दवाओं के काम ना करने की समस्या केवल अस्पताल में भर्ती गंभीर मरीजों तक सीमित नहीं है। पेट खराब होने के मामलों में ली जाने वाली कॉमन एंटीबायोटिक दवाएं भी मरीजों पर बेअसर साबित हो रही हैं।

स्थिति तो यह पैदा हो गयी है कि बैक्टेरिया फैलने के मामले में अस्पताल भी कमजोर इम्युनिटी वालों के लिए सुरक्षित नही है। आईसीयू में, मरीज को लगाए जाने वाले कैथेटर, कैन्युला और दूसरे डिवाइस में भी कई बैक्टीरिया और जीवाणु पनपते रहते हैं। ये इंफेक्शन पहले से बीमार और कमजोर इम्युनिटी वाले मरीजों को और बीमार करने लगते हैं। लंबे समय तक आईसीयू में भर्ती मरीजों को ऐसे इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है। 

अब ये इंफेक्शन खून में पहुंच रहे हैं। खून में पहुंचने का मतलब है कि पूरे शरीर में सेप्सिस होने का खतरा - इस कंडीशन के गंभीर होने पर धीरे धीरे मरीज के अंग काम करना बंद करने लगते हैं। जिसे मल्टी ऑर्गन फेल्यर कहा जाता है। कैसे हो सकता है एंटीबायोटिक रेजिसटेंस की समस्या का हल?

अस्पतालों और डॉक्टरों के लिए आईसीएमआर की गाइडलाइंस हैं कि किन मामलों में एंटीबायोटिक दवाएं इस्तेमाल की जाएं और किन मामलों में नहीं, लेकिन इनका पालन नहीं किया जाता। पोल्ट्री यानी मुर्गे, बकरे और गाय भैंस से मिलने वाले मीट, दूध और अंडों के जरिए एंटीबायोटिक अंजाने में लोगों को मिल जाते हैं। अस्पताल और इंडस्ट्री के वेस्ट के जरिए ग्राउंड वॉटर में एंटीबायोटिक घुलने की पुष्टि भी कई रिसर्च में हो चुकी है।

खुद मरीजों के केमिस्ट से सीधे एंटीबायोटिक दवाएं लेकर खा लेने और आधा कोर्स करके उसे छोड़ देने की वजह से भी ये दवाएं बेअसर हो रही हैं। अस्पतालों में इंफेक्शन वाले बैक्टीरिया जिन्हें सुपरबग्स का नाम भी दिया गया है, उन पर लगाम लगाने के लिए इंफेक्शन कंट्रोल पर भी काम किया जा रहा है। हालांकि पूरे देश के छोटे बड़े अस्पतालों में उस नेटवर्क को तैयार होने और पूरी तरह से काम करने में कई साल लग सकते हैं। इसी प्रत्येक देश की सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन को इस मामले में कुछ ठोस नियम और गाइड लाइन जारी करने की जरूरत है।
सम्पादकीय:- क्यों दो बक्त के रोटी के लिए बिहार के लोगों को राज्य से बाहर करना पड़ता है पलायन...?

- विनोद आनंद

पिछले कुछ दिनों से उत्तरकाशी के टनल में फंसे 41 मज़दूरों को लेकर चर्चा हो रही है। ये जिंदगी मौत के बीच कई दिनों से झूल रहे हैं।इन 41 मज़दूरों में 5 बिहार के और 15 झारखंड के भी मज़दूर हैं। 

इस बीच एक खबर गुजरात के सूरत से आयी जहां 5 बिहारी मज़दूर कपड़ा रंगाई करने वाले फैक्टरी में रंग के टंकी में काम करने के लिए उतरे और उसमें जहरीली गैस के कारण मौत के आगोश में चले गए। यह मात्र एक छोटा सा उदहारण है।

इस तरह की घटना सिर्फ गुजरात और उत्तरकाशी से हीं नही देश के विभिन्न भागों से आती रहती है जहां बिहारी मज़दूर दो बक्त के रोटी और अपने परिवार के पालन पोषण के लिए जोखिम उठाकर मज़दूरी करते हैं। और अपने जिंदगी से हाथ भी धो बैठते हैं।

जो बच रहे हैं वे अपने परिवार और बच्चों से दूर.....। जिंदगी के जद्दोजहद से संघर्ष करते....बंजारा सा जिंदगी जीते हैं। ये महज़ 15 से 20 हज़ार की नौकरी के लिए जिस हालात और परिस्थियों से गुजरते हैं अगर उसे देखकर रूह कांप जाता है। ये बिहार के लोग अपनी मेहनत और श्रम से महानगरों के विकासके लिए तकदीर जरूर गढ़ते हैं लेकिन इसके वाबजूद इन्हें जिस प्रताड़ना, उपेक्षा ,हेय दृष्टि से महानगर के अभिजात्य वर्गों द्वारा देखा जाता है।जिन नामों से इन्हें सम्बोधित किया जाता है यह देखकर आत्मग्लानि होने लगता है।

 गुजरात हो या तमिलनाडु, दिल्ली हो या मुम्बई कश्मीर हो या असम देश का कोई हिस्सा नही है जहां बिहारी मज़दूर आप को नही मिल जाएंगे।इन सभी जगह गाहे बगाहे ऐसी घटनाएं भी आती हैं जहां बिहार के लोग बेमौत मारे जाते हैं।

इन सारे परिस्थियों में एक सवाल तो बनता है कि - क्यों यह परिस्थिति पैदा हुई कि बिहार के लोगों को अपने राज्य अपने घर और क्षेत्र से बाहर जाकर, घर परिवार से दूर होकर पलायन करना पड़ता है...?

 क्यों बिहार में बिहार सरकार पिछले 70 सालों में इस तरह का कोई इंफ्रास्ट्रक्टर खड़ा नही कर पाई कि इन मज़दूरों को अपने राज्यों से बाहर जाने की जरूरत ना हो , इन्हें अपने राज्य में ही रोजगार मिल जाये ताकी अपने बच्चे और परिवार के साथ ये रहकर दो बक्त का रोटी जुटा पाए।

 कोरोना त्रासदी के समय जब लॉकडाउन लगा तो बिहार के मज़दूरों का क्या हालत हुए, किस तरह बिहार सरकार ने हाथ पर हाथ धर कर बैठ गयी और मज़दूर दिल्ली मुम्बई और देश के सुदूरवर्ती इलाकों से पैदल चलने को विवश हुए।

रास्ते में कहीं पुलिस की लाठी तो कहीं किसी राज्य में नही घुसने देने की कवायद,कहीं रेल के पटरी पर लाश के चीथड़ों में तब्दील होते तो कहीं भूख और अभाव में बच्चे समेत पूरा परिवार फांसी के फंदे पर झूलते नज़र आये।

उस समय पूरी दुनिया के सामने बिहारी मज़दूरों की हकीकत, बिहार सरकार के विकासनीति और पिछले 70 सालों में भारत किस मुकाम पर है इसकी पोल खुल गयी।

जब प्रवासी बिहारी मज़दूरों ने कसम खायी थी कि भूखे मर जायेंगे लेकिन बिहार से बाहर नही जाएंगे।तत्काल बिहार सरकार ने भी यह दिखाने का प्रयास किया कि बाहर से आये मज़दूरों के स्किल के हिसाब से कुटीर  उधोग के लिए उन्हें आर्थिक सहयोग कर अपने क्षेत्र में हीं उसे रोजगार दिलाया जाएगा।कुछ जगहों पर जहां के अधिकारी ईमानदार थे इसके सार्थक परिणाम भी सामने आए।

उस समय बड़ी बड़ी बातें की गई।मखाना का ब्रांडिंग कर उसे देश भर में बेचा जाएगा।उसका निर्यात भी किया जाएगा। फ़ूड प्रोसेसिंग के जरिये कृषि उत्पाद को  उधोग के रूप में डेवेलोप किया जाएगा। लेकिन बिहार सरकार कुछ दिन में हीं शिथिल हो गयी।मज़दूरों का पलायन फिर शुरू हो गया।

 इतने दिनों में मैने जो महसूस किया कि बिहार सरकार के पास नही तो कोई इक्क्षा शक्ति है और नही यहां उधमी को निवेश कराकर रोजगार सृजन कराने के लिए कोई योजना है।बस सत्ता में बने रहना सत्ता का सुख भोगना, जाति धर्म की राजनीति करना। यही उधेश्य है।

     अगर बिहार को आगे बढ़ना है ,आर्थिक रूप से मजबूत करना है तो सरकार को ठोस उधोगनीति बंनानी होगी। ईमानदारी से राज्य में निवेश और रोजगार सृजन के लिए अनुकूल बनाना होगा।राज्य में अफसरशाही खत्म करनी होगी।भरस्टाचार पर अंकुश लगाना होगा।और राज्य में गुंडातंत्र पर अंकुश लगाना होगा। और अगर सरकार इस पर ठोस नीति नही बनाती है तो जनता को सोचना होगा कि हम किसे अपने राज्य का दायित्व सौंपे जो इस दिशा में पहल करे।

सम्पादकीय:- सामाजिक परम्परा और रूढ़िवाद की भेंट चढ़ी बुधनी मझियाइंन पर संथाल समाज को गर्व कर अपने भूल सुधारने की है जरूरत

 - विनोद आनंद

बुधनी नही रही! शुक्रवार को उसने अंतिम सांस ली। शनिवार को उसके शव को फूलों से सुसज्जित कर वाहन से पंचेत डेम के आसपास क्षेत्रो में घुमाया गया। फिर सीआईएसएफ के जवानो , डीवीसी के अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ आसपास के गणमान्य लोगों ने श्रद्धांजलि दी। उसके बाद शनिवार को अंतिम संस्कार कर दिया गया।

बुधनी मझियाइंन की मौत के बाद यह सम्मान और उनकी चर्चा पर आप के मन में यह जिज्ञासा जग गया होगा कि यह बुधनी मझियाइंन कौन है...? जिसकी इतनी चर्चा हो रही है।देश भर की मीडिया में उसकी मौत की खबर को जगह मिली। बुधनी के इस सम्मान से सभी अभिभूत हैं लेकिन अभिभूत नही है तो उसका समाज, जिसने उसे तिरस्कृत कर दिया।

यह कोई नई बात नही है।आज हमारे देश के लोगों की रूढ़िवादी सोच,समाज की परम्पराएं और मान्यताएं इतनी गहरी पैठ बना ली है कि कई समाज की बुधनी इसके शिकार होते रहे।

   बुधनी की बात करें तो यह आदिवासी संथाल समाज की बेटी थी। बात 6 दिसम्बर 1959 की है। अमेरिका के टीनेसी घाटी परियोजना से प्रभावित होकर भारत में भी बाढ़ पर नियंत्रण के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दामोदर नदी पर बांध बनाकर एक तरफ बाढ़ पर नियंत्रण की योजना बनाई तो दूसरी तरफ उसी बांध से बिजली उत्पादन शुरु कर दिया इसके तहत दामोदर वैली कारपोरेशन का गठन किया गया

इस परियोजना के तहत पंचेत डेम और मैथन डेम तैयार हुआ। 6 दिसम्बर 1959 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पंचेत डेम के उद्घाटन करने पहुंचे। इस अवसर पर अधिकारियों ने पीएम के स्वागत के लिए तत्कालीन विस्थापित परिवार की सदस्या तथा दैनिक मज़दूर 15 वर्षीय बुधनी मझियाइंन को चुना। उसने पारम्परिक ढंग से पीएम को टिका लगाया और गले में माला पहना कर उसका स्वागत किया।पीएम नेहरू भी अभिभूत हो गए उस बुधनी के गले में भी माला पहना कर उसका स्वागत किया और पंचेत डेम का स्विच ऑन बुधनी से कराकर डेम का उद्धाटन बुधनी से कराया।

उस समय भी देश में मीडिया के लिए बुधनी एक चर्चित विषय बनी।बुधनी के भाग्य,नेहरू जी की उदारता पर चर्चा हुई।लेकिन बुधनी के इस शौभाग्य से उनका समाज खफा हो गया। किसी पर पुरुष के गले में इस 15 वर्षीय बच्ची द्वारा माला पहनाया जाना आदिवासी समाज को रास नही आया।गांव में समाज की बैठक हुई और समाज के प्रमुख ने फैसला सुना दिया कि अब बुधनी का विवाह नेहरू जी से हो गया। दूसरे जाति से विवाह के लिए उसे समाज और गांव से निष्काषित कर दिया गया।

उसकी जमीन पंचेत डेम के डूब क्षेत्र में चली गयी और उसका परिवार और कहीं चला गया।एक तरफ विस्थापन का दंश तो दूसरी तरफ समाज का तिरस्कार।

बुधनी का यह दुर्भाग्य बन गया। बुधनी 15 साल की उम्र में भी डेम निर्माण के समय दैनिक मज़दूर के रूप में काम किया था, लेकिन सरकारी नियमों के बंधन के कारण उसे  डीवीसी में नौकरी नही मिली । उसे 1962 में उसे4 काम से निकाल दिया गया।  

दूसरी तरफ समाज के तिरस्कार के कारण समाज मे जगह भी नही मिला। इसके बाद उसकी अभिशप्त जीवन की शुरुआत हो गयी । काम के तलाश में वह भटकने लगी। बेसहारा स्थिति में उसे सहारा दिया सुधीर दत्ता नामक एक युवक, उससे बुधनी की विधिवत शादी तो नही हुयी लेकिन बुधनी उसके साथ पत्नी की तरह रहने लगी । उससे एक बेटी हुई। रत्ना दत्त, जिसकी भी शादी हो चुकी है।

बाद में 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सज्ञान में बुधनी के दुर्भाग्य और उसकी स्थिति की जानकारी किसी ने राजीव गांधी को दी। उन्होंने 1985 में डीवीसी को अधिकारी को निर्देश दिया गया कि बुधनी जहां भी है उसे खोज कर नौकरी दिया जाए। तब उसे डीवीसी में नौकरी मिली तो जिंदगी आसान हुआ।

बुधनी आज नही रही लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज भी उसके संथाल समाज ने उसके समाज से निष्काषन वापस नही लिया । समय बदला, लोगों की सोच बदली। आज आदिवासी समाज के लोग संवेधानिक पदों पर भी आसीन हैं।आईएएस और आईपीएस भी हैं लेकिन समाज मे आज भी कई परम्पराए हैं जिस आदिवासी समाज नही निकल पाई।

  बुधनी इसी सामाजिक परम्परा की भेंट चढ़ी। कितने मुसीबत और मानसिक प्रताड़न से वह गुजरी। जिस घटना को लेकर समाज और इस क्षेत्र के लोगों को अभिमान करना चाहिए वह बुधनी के जीवन में ग्रहण बनकर रह गया।आज मौत के बाद भी यह सम्मान अभिभूत करने वाला है।डीवीसी के अधिकारियों और क्षेत्र के लोगों को इसके लिए जितनी सराहना की जाए कम है।

इसके साथ हीं संथाल समाज से भी हमारी गुजारिश है कि आप को अपनी सोच से बाहर निकल कर बुधनी की मौत के बाद भी उसका निष्काषन वापस लें और समाज के एक ऐसी बेटी के रूप में स्वीकार कर उसका सम्मान करें कि समाज की एक बेटी जिसका स्वागत माला पहना कर नेहरू ने किया और दामोदर घाटी निगम का उद्घाटन कराया। निसंदेह झारखंड सरकार, बंगाल सरकार , संथाल समाज और डीवीसी को यह भी पहल करनी चाहिए कि बुधनी की एक प्रतिमा स्थापित कर उसे वह सम्मान दिया जाना चाहिये जिसकी वह हकदार है।उसने डीवीसी के प्राम्भिक मज़दूर के रूप में इसके निर्माण में योगदान दिया, इसके उद्धाटन में सहयोग कर अपने समाज का तिरस्कार झेला।अपना जमीन और घर खोकर विस्थापन का दर्द झेला। इसी लिए उसकी त्याग,श्रम और सम्मान को एक प्रतीक के रूप में जिंदा रखने के लिए प्रतिमा स्थापित कर नई पीढ़ी के बीच उसे जिंदा रखा जाना जरूरी है। इसके लिए संथाल समाज को पहल कर अपनी भूल सुधारने की है जरूरत है।