संपादकीय: क्या बिहार की जनता किसी तीसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश में है,क्या उठने लगा है तेजस्वी और नीतीश से भरोसा...?
विनोद आनंद
बिहार में पिछले तीन दशक से जिस राजनितिक नेतृत्व पर जनता ने भरोसा किया वह भरोसा अब टूटता हुआ दिख रहा है।जनता अब नए राजनितिक विकल्प की तलाश में हैं जिसे वह जनादेश देकर अपने भविष्य को लेकर ताना बाना बुनना शुरू कर दिया हैं।
एक दौर था जब बिहार में सवर्ण का दबदबा था। कांग्रेस की राजनीती का वह दौर जब पिछड़े वर्गों के विकास और उसके हक़ को दवाया जा रहा था। राजनीती हो या नौकरशाह सभी में स्वर्णोँ का वर्चस्व था, इक्के दुक्के लोग राजनीती में या अच्छे जगहों पर जरूर थे लेकिन जो उस समय की सामाजिक स्थिति थी उस स्थिति में वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। उसी दौर में कर्पूरी ठाकुर जैसे कुछ समाजवादी नेता जरूर हुए लेकिन सामाजिक परिवर्तन और दबे कुचले वर्गों के लिए दबंगता के साथ आगे नहीं आ सके।
देश में इंदिरा गाँधी की सरकार ने 25 जून 1975 को इमरजेंसी लगायी। इस इमरजेंसी के पीछे जो भी उद्देश्य इंदिरा का रहा हो,उस पर हम अभी चर्चा नही करेंगे लेकिन यह दौर था जिसमे कई चेहरे आगे आये। उन चेहरों में सभी वर्ग के लोग थे ।पिछड़े समाज के भी, दलित समाज के भी ।
इसी दौर में लालू प्रसाद यादव , नीतीश कुमार जैसे कई नेता सामने आये।और जनता को सामाजिक परिवर्तन के साथ विकास की उम्मीद बंधी। बिहार में पिछले 3 दशक से लालू प्रसाद यादव,राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की पार्टी सत्ता में रही,इस दौर में सत्ता में पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों को कुछ भागीदारी जरूर मिली।लेकिन लोग अब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के पार्टी से ऊबने लगे हैं।बिहार के लोग किसी तीसरे विकल्प की तलाश में हैं।क्योंकि इतने दिनों में सामाजिक न्याय और राज्य के विकास के नाम पर जो कुछ भी हुआ जनता उससे संतुष्ट नही हैं।
बिहार में आज तक ये दोनों पार्टी सत्ता की धुरी में जरूर रहे लेकिन ना तो यहाँ कोई इंडस्ट्रीज लग पाये, नही किसी रोजगार का सृजन हुआ।बिहार के लोग की क्या हालत है, जाकर महानगरों में देखिए। कोरोना काल में लॉकडॉन का वह मंजर,देश के कोने से बिहारी मज़दूरों की हालत,बिहार की नीतीश सरकार को मज़दूरों को अपने घर वापसी में बरती गई लापरवाही।कई ऐसे पल हैं जिसकी टीस बिहार की जनता के दिलों में आज भी है।इसी लिए पिछले चुनाव में बिहार के वोटों का जो बंटवारा हुआ।जिस तरह लोगों का रुझान निर्दलीय प्रत्याशी के लिए बढ़ा उससे तो यही प्रतीत होता है कि राज्य की जनता तीसरे विकल्प की तलाश में है।
इसी लिए यह संभावना है कि 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की राजनीति में कोई बड़ा उलटफेर हो तो कोई आश्चर्य नही।रुपौली उपचुनाव रिजल्ट के बाद कुछ ऐसा हीं महसूस किए जाने लगे हैं।जिस तरह रुपौली में एनडीए और इंडिया गठबंधन को नक्कारते हुए जनता ने निर्दलीय प्रत्याशी को अहमियत दिया।यह संकेत तो यही बता रहा है कि नही तो लोग नीतीश के सुशासन छवि से संतुष्ट हैं और नही तेजस्वी के युवा तुर्क से।
वैसे पूर्णिया लोकसभा चुनाव में तेजस्वी ने जिस तरह अपने हल्केपन का परिचय दिया।पप्पू यादव को हराने के लिए कमजोर चेहरा के बल पर अपने प्रभाव और शख्शियत का प्रभाव का परीक्षा लिया,पूरी ताकत झोंकने के बाद भी अपने प्रत्याशी की जमानत तक नही बचा पाए।यहां तक चुनावी सभा में कह दिया कि इंडिया नही तो एनडीए को वोट दे दो लेकिन निर्दलीय को नही, इसके वाबजूद वे पप्पू यादव को नही हरा पाए।यहीं इनके राजनीतिक प्रभाव का क्षरण होना शुरू हो गया।
लोकसभा चुनाव 2024 की बात करें तो एनडीए को 9 सीटों का नुकसान बिहार में उठाना पड़ा। दूसरी ओर इंडी गठबंधन को अपेक्षा के अनुसार खास बढ़त नहीं मिली। इससे साफ है कि जनता अब किसी भी पार्टी के बहकावे में नहीं आने वाली है और राज्य के विकास के लिए नए चेहरों को मौका देने के लिए तैयार है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 में से 39 सीटें जीतने वाले एनडीए को इस बार सिर्फ 30 सीटों से संतोष करना पड़ा। कई सीटों पर तो एनडीए उम्मीदवार मामूली अंतर से जीते।
दूसरी तरफ, इडी अलायंस को भी जनता ने कोई खास पसंद नहीं किया। 2019 में एक भी सीट नहीं जीत पाने वाली आरजेडी को इस बार सिर्फ 4 सीटें मिली। कांग्रेस को 3 और लेफ्ट को 2 सीट से संतोष करना पड़ा।
लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि बिहार की जनता ने एनडीए और महागठबंधन दोनों पर ही कम भरोसा जताया है।
पूर्णिया लोकसभा और रुपौली विधानसभा उपचुनाव के नतीजे बताते हैं कि बिहार की जनता अब एक नया विकल्प तलाश रही है। राज्य की कई लोकसभा सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी। काराकाट से निर्दलीय उम्मीदवार और भोजपुरी अभिनेता पवन सिंह ने इंडी अलायंस और एनडीए, दोनों के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी।
जहानाबाद में भी बसपा उम्मीदवार ने एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी।
इन नतीजों से साफ है कि बिहार की जनता अब नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' वाली छवि और तेजस्वी यादव की 'युवा नेता' वाली छवि से ऊब चुकी है।
जनता को अगर कोई नया विकल्प मिलता है तो वह उसे ही चुनने के लिए तैयार है। सियासी पंडित कहते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लोकप्रियता कम होने का सबसे बड़ा कारण है उनका बार-बार पाला बदलना। अपने चार कार्यकालों में नीतीश कुमार रिकॉर्ड 9 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। वह कभी राजद तो कभी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाते रहे हैं। लेकिन विकास के नाम पर राज्य में जो कुछ भी हुआ जनता निराश हैं।
ऐसे में बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है। जनता बदलाव चाहती है और अगर उसे कोई नया और बेहतर विकल्प मिलता है तो वह उसे चुनने से पीछे नहीं हटेगी।
Jul 19 2024, 08:21