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आख़िर क्या है भगवान जगन्नाथ पुरी की अधूरी प्रतिमाओं’ का राज,जानें

देश के पूर्वी छोर पर बंगाल की खाड़ी के किनारे बसा पुरी आस्था और पर्यटन का संगम है, जो ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 60 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। पुरी को देश के चार धामों में से एक माना जाता है। स्थानीय मान्यता है कि कई वर्ष पूर्व नीलांचल पर्वत पर स्वयं भगवान नीलमाधव (जगन्नाथ) निवास करते थे। एक दिन राजा इंद्रद्युम्न को रात में भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन देकर कहा कि नीलांचल पर्वत की एक गुफा के अंदर मेरी एक प्रतिमा है, जिसे नीलमाधव कहते हैं।

प्रभु बोले, ‘‘तुम एक मंदिर बनवाओ और उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो।’’

नीलांचल पर्वत पर सबर कबीला था, जिसका मुखिया विश्ववसु भगवान नीलमाधव का उपासक था और उसने मूर्ति को गुफा में छुपा कर रखा था। वह गुफा में उसकी पूजा करता था। राजा इंद्रद्युम्न ने अपने सेवक ब्राह्मण विद्यापति को मूर्ति लाने का कार्य सौंपा।

विद्यापति ने मुखिया विश्ववसु की पुत्री से विवाह कर लिया। कुछ दिनों के बाद विद्यापति ने अपने ससुर विश्ववसु से भगवान नील माधव के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। पहले तो विश्ववसु ने मना कर दिया परंतु बाद में बेटी की जिद के कारण हां कर दी। विश्ववसु, विद्यापति की आंख पर पट्टी बांध कर भगवान नील माधव के दर्शन कराने ले गया।

विद्यापति चतुराई करके जाते समय रास्ते में सरसों के दाने गिराता गया और बाद में सरसों के दानों के जरिए गुफा से मूर्ति चुराकर राजा को दे दी। विश्ववसु भगवान नीलमाधव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख को देखकर भगवान भी दुखी हो गए और उसी गुफा में वापस लौट गए।

जाते समय उन्होंने राजा इंद्रद्युम्न से वादा किया कि वह उनका एक विशाल मंदिर बनवा देगा तो वे उनके पास जरूर लौट आएंगे। 

राजा इंद्रद्युम्न ने एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए प्रार्थना की। भगवान ने कहा कि द्वारका से बड़ा टुकड़ा समुद्र में तैरकर पुरी तक आ गया है, उससे तुम मेरी मूर्ति बनवाओ।

राजा के सेवकों ने टुकड़े को तो ढूंढ लिया पर वे सब मिल कर उसे उठा नहीं पाए। तब राजा ने सबर कबीले के मुखिया नीलमाधव के अनन्य भक्त विश्ववसु को उस भारी टुकड़े को लाने के लिए प्रार्थना की। सबको बहुत आश्चर्य हुआ जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।

राजा इंद्रद्युम्न में उस लकड़ी के टुकड़े की प्रतिमा बनाने के लिए कई कुशल कारीगर लगाए, पर उन कारीगरों में से कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब सृजन के देवता भगवान विश्वकर्मा एक बुजुर्ग व्यक्ति का रूप धरकर आए।

उन्होंने राजा से भगवान नीलमाधव की मूर्ति बनाने की इच्छा व्यक्त की और अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति को एकांत में बनाएंगे, उन्हें कोई मूर्ति बनाते हुए नहीं देख सकता। राजा ने उनकी शर्त सहर्ष स्वीकार कर ली।

अब लोगों को कमरे के अंदर से आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें सुनाई दे रही थीं। इसी बीच रानी गुंडिचा, जो राजा इंद्रद्युम्न की रानी थी, दरवाजे के पास गई पर उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। उसे लगा कि वह बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने घबरा कर राजा को इसकी सूचना भिजवाई कि अंदर से किसी प्रकार की कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही।

राजा इंद्रद्युम्न भी चिंतित हो गए। उन्होंने शर्त की अनदेखी करते हुए कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति कहीं दिखाई नहीं दिया और कमरे में 3 अधूरी मूर्तियां प्राप्त हुईं। भगवान नीलमाधव (जगन्नाथ) और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं बनी थी और सुभद्रा जी के तो हाथ-पांव ही नहीं बने थे।

भगवान जगन्नाथ ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि वे अब से काष्ठ की मूर्ति में ही प्रकट होकर भक्तों को दर्शन दिया करेंगे।

राजा इंद्रद्युम्न ने इसे भगवान जगन्नाथ की इच्छा मानकर इन अपूर्व प्रतिमाओं को मंदिर में स्थापित कर दिया। इस प्रकार तब से भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन इसी रूप में भक्तों को दर्शन दे रहे हैं।   

क्या थी वजह की अधूरी रह गई रानी रूपमती और राजा बाज बहादुर की प्रेम कहानी, जानें

भारत देश अपनी अमर प्रेम कहानियों के लिए जाना जाता है। जहां लोग एक-दूसरे के प्यार में जान देने को भी तैयार रहते हैं। मध्य प्रदेश का मांडू नगर भी ऐसी ही प्रसिद्ध प्रेम कहानी का साक्षी है। 

यह कहानी है मांडू नगर के राजा बाज बहादुर और रानी रूपमती की। इस प्रेमी जोड़े का नाम मांडू के इतिहास में बड़े ही गर्व के साथ लिया जाता है। राजा और राजा की यह प्रेम कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है, जहां युद्ध, प्रेम, संगीत और विरह जैसी सभी भाव मौजूद हैं।

कौन थीं रानी रूपमती?

इतिहास के अनुसार रानी रूपमती राज्य के किसान की बेटी थीं, जो कि गाना गाया करती थीं। रानी बिल्कुल अपने नाम की तरह ही खूबसूरत और गुणी थीं। एक बार राजा उन्हें अपने दरबार में बतौर गायिका बुलाया, 

वहीं दोनों के बीच प्यार की शुरुआत हुई। जिसके साथ ही दोनों का अंतर्धार्मिक विवाह हुआ। राजा और रानी दोनों खुशी-खुशी साथ रहने लगे।

रानी पर मोहित हुए बादशाह अकबर-

रानी और राजा की यह कहानी अधूरी ही रही। इतिहास में इसका कारण बादशाह अकबर को माना गया। माना जाता है कि जब रानी की खूबियों के बारे में बादशाह अकबर को पता लगा, तो वो रानी रूपमती पर मोहित हो गए और उन्होंने रानी को पाने की इच्छा जाहिर की।

अकबर और राजा बाज बहादुर के बीच हुआ युद्ध-

रानी रूपमती को पाने के लिए बादशाह अकबर ने बाज बहादुर को एक पत्र लिखा। 

जिसमें उन्होंने रानी को दिल्ली के दरबार भेजने का आदेश दिया। यह सुनकर राजा बाज बहादुर गुस्से में आगबबूला हो गए।

 साथ ही जवाब में राजा ने बादशाह अकबर की रानी को मांडू भिजवाने की बात कह दी। पत्र का ऐसा जवाब सुनकर अकबर ने गुस्से में सिपहसालार आदम खां को मालवा पर हमला करने का आदेश दे दिया।

राजा बाज बहादुर हार गए युद्ध-

राजा बाज बहादुर ने अपनी छोटी सी सेना के साथ अकबर की सेना से युद्ध किया। लेकिन युद्ध में राजा को हार मिली और आदम खां ने बाज बहादुर को बंदी बना लिया। 

राजा के युद्ध हारते ही अकबर की सेना रानी रूपमती को लेने के लिए निकल पड़ी, लेकिन रानी को जैसे ही इस बात की भनक लगी उन्होंने हीरा निगल कर अपने प्राण त्याग दिए।

पछतावे की आग में जले बादशाह अकबर-

जब बादशाह अकबर तक रानी के मृत्यु की खबर पहुंची, तो उन्हें इस बात का बहुत पछतावा हुआ। जिस कारण उन्होंने राजा बाज बहादुर को आजाद कर दिया। 

रिहा होने के बाद राजा बाज बहादुर ने मांडू की राजधानी सारंगपुर जाने की इच्छा जाहिर की, वहां पर रानी की कब्र मौजूद थी।

राजा ने रानी की कब्र पर सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे दी।

 इस घटना ने बादशाह अकबर पर गहरा प्रभाव डाला, उसका पश्चाताप करने के लिए बादशाह ने 1568 में एक मकबरे का निर्माण करवाया। जहां राजा बाज बहादुर के मकबरे पर आशिक-ए-सादिक और रूपमती की समाधि पर शहीद-ए-वफा लिखवाया। कुछ इस तरह से इस प्रेम कहानी के खत्म होने का कारण बादशाह अकबर रहे।

आइए जानते हैं कुतुब मीनार का इतिहास, महत्व और विशेषताएं

सैकड़ों साल से दिल्ली की पहचान का हिस्सा रही कुतुब मीनार पर रार छिड़ी हुई है. कुतुब मीनार ने अपने वजूद में आने के बाद जाने कितने ही दौर देखे हैं. लेकिन इस मीनार की ज़िंदगी में ये दावेदारियों का दौर है. वो दौर जब कुतुब मीनार को लेकर दो पक्ष अपनी-अपनी दावेदारियां पेश कर रहे हैं. कुतुब मीनार से जुड़ा सैकड़ों साल पुराना इतिहास खंगाला जा रहा है. कुतुब मीनार के दरो-दीवार को बारीकी से जांचा-परखा जा रहा है. लेकिन कुतुब मीनार तो अपनी पहचान की कहानी खुद बयान करती है. दक्षिणी दिल्ली के महरौली इलाके में मौजूद ये मीनार शुरुआत से भारत की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतों में से एक है.

कुतुब मीनार को जानिए-

करीब 238 फीट की ऊंचाई वाला कुतुब मीनार भारत का सबसे ऊंचा पत्थरों का स्तंभ है. इसके शीर्ष का डायमीटर लगभग 9 फीट है. तो इसकी नींव का डायमीटर 46.9 फीट है. कुतुब मीनार में कुल 379 सीढ़ियां हैं. इसकी चौथी और पांचवीं मंज़िल पर बालकनी मौजूद है. पूरी मीनार को लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से तैयार किया गया है. कुतुब मीनार इसके आसपास मौजूद कई दूसरे स्मारकों से घिरा हुआ है और इस पूरे परिसर को कुतुब मीनार परिसर कहते हैं.

कुतुब मीनार का निर्माण-

इतिहास कहता है कि कुतुब मीनार 12वीं सदी के अंत और तेरहवीं सदी की शुरुआत में वजूद में आया था. माना जाता है कि कुतुब मीनार का निर्माण 1199 से 1220 के दौरान कराया गया था. कुतुब मीनार को बनाने की शुरुआत कुतुबुद्दीन-ऐबक ने की थी और उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसका निर्मण पूरा करवाया था. कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गोरी का पसंदीदा गुलाम और सेनापति था. गोरी ऐबक को दिल्ली और अजमेर का शासन सौंपकर वापस लौट गया था. 1206 में गोरी की मौत के बाद ऐबक आज़ाद शासक बन गया और उसने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की और साथ ही कुतुब मीनार का निर्माण भी करवाया.

कुतुब मीनार को नुकसान-

बताया जाता है कि 14वीं और 15वीं सदी में बिजली गिरने और भूकंप से कुतुब मीनार को नुकसान पहुंचा था. जिसके बाद फिरोज शाह तुगलक ने मीनार की शीर्ष दो मंजिलों की मरम्मत करवाई थी. जबकि 1505 में सिकंदर लोदी ने बड़े पैमाने पर कुतुब मीनार की मरम्मत कराई थी और इसकी ऊपरी दो मंजिलों का विस्तार करवाया था. 1803 में आए एक भूकंप से कुतुब मीनार को फिर से नुकसान पहुंचा. तब साल 1814 में इसके प्रभावित हिस्सों को ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के मेजर रॉबर्ट स्मिथ ने रिपेयर कराया था.

विष्णु स्तंभ होने का दावा-

लेकिन हाल ही में हिंदू संगठनों ने इस इतिहास को नकार दिया और विवाद उठा तो कुतुब मीनार की पहचान की एक नई कहानी निकलकर सामने आई. हिंदू संगठन युनाइटेड हिंदू फ्रंट ने ये दावा कर दिया कि कुतुब मीनार विष्णु मंदिर के ऊपर बनी है और इसलिए इसका नाम बदल कर विष्णु स्तंभ रखा जाना चाहिए. साथ ही ये दावा किया गया कि कुतुब मीनार को 27 जैन और हिंदू मंदिरों को तोड़कर बनाया गया था, परिसर में मौजूद हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों का जीर्णोद्वार होना चाहिए और हिंदुओं को परिसर में पूजा करने की इजाज़त मिलनी चाहिए. मामले ने तूल तब पकड़ा, जब 10 मई को बिना किसी इजाज़त के महाकाल मानव सेना के कार्यकर्ताओं ने कुतुब मीनार परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ शुरू कर दिया.

मीनार परिसर में मस्जिद-

कुतुब मीनार परिसर में मौजूद कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण भी कुतुबुद्दीन ऐबक ने कराया था. बताया जाता है कि इस मस्जिद में सदियों पुराने मंदिरों का भी एक बड़ा हिस्सा शामिल है. 

देवी-देवताओं की मूर्तियां और मंदिर की वास्तुकला अभी भी आंगन के चारों ओर के खंभों और दीवारों पर स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं.

कुतुब मीनार के नाम पर भी दावे-

वैसे आपको बता दें कि सिर्फ़ कुतुब मीनार के वजूद को लेकर ही नहीं बल्कि उसके नाम को लेकर भी इतिहास में अलग-अलग दावे हैं. यह धारणा प्रचलित रही है कि कि कुतुब मीनार का नाम उस कुतुबद्दीन ऐबक के नाम पर रखा गया है, जिसने इसका निर्माण शुरू किया था. लेकिन वास्तव में इतिहास में पुख्ता तौर पर कहीं इसका ज़िक्र नहीं है. एक दावा ये भी है कि इसका नाम मशहूर मुस्लिम सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर पड़ा है. तो वहीं कुछ इतिहासकारों का कहना है कि कुतुब या कुटुब मीनार नाम ब्रिटिश पीरियड में प्रचलित हुआ था. यानि नाम और निर्माण से लेकर कुतुब मीनार से जुड़े तमाम पहलुओं पर आज सवाल उठ रहे हैं.

विक्रमादित्य ने बनवाया था मीनार- दावा

जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ता गया कुतुब मीनार को लेकर तमाम तरह के दावे सामने आते चले गए. और हर दावा इतिहास की किताबों में अब तक बताई गई कुतुब मीनार की कहानी को नकार रहा था. विष्णु स्तंभ और मंदिरों के अवशेष पर मस्जिद होने के दावे के बाद एक और थ्योरी सामने आई. जिसमें कहा गया कि कुतुब मीनार एक सन टावर है, जिसे 5वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के विक्रमादित्य ने बनवाया था. दावे में कहा गया कि मीनार में 25 इंच का झुकाव है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इसे सूर्य का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था. 21 जून को जब सूर्य आकाश में जगह बदलता है तो भी कुतुब मीनार की उस जगह पर आधे घंटे तक छाया नहीं पड़ती. मीनार के दरवाजे नॉर्थ फेसिंग हैं, ताकि इससे रात में ध्रुव तारा देखा जा सके.

लौह स्तंभ पर दावा-

कुतुब मीनार परिसर में मौजूद लौह स्तंभ को लेकर दूसरा दावा किया गया है. दरअसल इस लोहे के खंभे का इतिहास भी बहुत रोचक है. इस लौह स्तंभ की लंबाई 23.8 फीट है, जिनमें से 3.8 फीट जमीन के अंदर है. जबकि इसका वजन 600 किलो से ज्यादा है. बाताया जाता है कि इस स्तंभ का निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय ने 375 से 415 ईस्वी के दौरान करवाया था. करीब 1600 सालों बाद भी इस लौह स्तंभ में जंग नहीं लगी है. इतिहास में ज़िक्र मिलता है कि इस स्तंभ को मध्य प्रदेश के विदिशा में उदयगिरी गुफाओं के बाहर लगाया गया था, जहां से 11वीं शताब्दी में तोमर राजा अनंगपाल इसे महरौली ले आए थे. हालांकि कुछ इतिहासकार दावा करते हैं कि इस स्तंभ को मुस्लिम शासकों ने लगवाया था. उनका मानना है कि मुस्लिम शासकों ने इस स्तंभ को अपनी विजय के प्रतीक के तौर पर कुतुब मीनार परिसर में लगवाया था.

परिसर से गणेश मूर्ति हटाने पर रोक-

वैसे आपको बता दें कि इस वर्ल्ड हेरिटेज साइट को लेकर विवादों का सिलसिला अब लंबा हो चुका है. इस साल अप्रैल में नेशनल म्यूजियम अथॉरिटी यानी NMA ने ASI को कुतुब कॉम्प्लेक्स से गणेश जी की दो मूर्तियों को हटाने और नेशनल म्यूजियम में उनके लिए सम्मानजनक जगह खोजने के लिए कहा था. इसके बाद यह विवाद अदालत तक भी पहुंच गया. अदालत ने मामले में आदेश दिया कि फिलहाल कोई कार्रवाई न करते हुए मामले की सुनवाई तक कॉम्प्लेक्स से मूर्तियां नहीं हटाई जाएं.

इसके अलावा विश्व हिंदू परिषद भी 73 मीटर ऊंची मीनार के विष्णु स्तंभ होने का दावा कर चुका है.

इसके अलावा मामले को लेकर इसी साल फरवरी एक और याचिक दायर की गई. जिसमें कहा गया कि इस बात में कोई विवाद नहीं है कि यहां मंदिरों को नष्ट किया गया है. इसलिए उन्हें यहां पूजा करने का अधिकार दिया जाए. याचिका में ये भी कहा गया है कि इस मस्जिद में पिछले 800 सालों से नमाज नहीं अदा की गई है.

भाग्‍यमती कौन थी,क्या था हैदराबाद से उनका रिश्ता? जानें

हैदराबाद। मूसी नदी के तट पर बसे निजामों के शहर हैदराबाद की तंग गलियों मे आज भी इतिहास के कुछ राज़ दफ्न हैं। कुछ ऐसे राज़ जो सदियाँ बीत जाने के बावजूद लोगों के लिए कौतूहल का कारण बने हुए हैं। इस राज़ से पर्दा उठाने की कोशिशें तो बहुत हुईं लेकिन हर बार राज़ और भी गहराता गया। ये राज़ निजामों के इस शहर के अस्तित्व से जुड़ा हुआ है।

दरअसल पुराने हैदराबाद शहर की तंग गालियों मे आज तकरीबन 600 साल बाद भी एक अनूठी प्रेम कहानी की मिसालें लोगों की जुबान पर हैं। ये प्रेम कहानी जोधा-अकबर तथा शाहजहाँ और मुमताज़ महल की प्रेम कहानियों से भी पुरानी है। 

धर्म और इलाकों के बंधनों से अलग इस प्रेम कहानी का क्लाइमेक्स ही बाद मे चल कर एक विशाल नगर की स्थापना का कारण बनता है।

 

दरअसल, पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के दौरान दक्कन का पठार और आन्ध्र की भूमि बहमनी सुल्तान अलाउद्दीन हसन बहमन शाह के अधीन थी, जो प्राचीन विजयनगरम साम्राज्य के समान ही वैभवशाली और ताकतवर सल्तनतों के रूप मे पहचानी जाती थी। हालांकि, 1518 ई० आते-आते बहमनी सल्तनत पाँच टुकड़ों मे विभाजित हो गया। ये पांचो हिस्से यानी- अहमदनगर की निजामशाही, गोलकुंडा की कुतुबशाही, बीदर की बारीदशाही, बेरार की ईमादशाही और बीजापुर की आदिलशाही के रूप मे चर्चित हुई। इन्हीं मे से एक गोलकुंडा की कुतुबशाही ने मूसी नदी के पश्चिमी तरफ स्थित प्राचीन काकतीय वंश के किले गोलकुंडा के पुनर्निर्माण कराया, जिसका नाम उसने मुहम्मदनगर रखा। 

कुली शाह और भाग्‍यमती

तकरीबन 80 सालों तक गोलकुंडा से मुहम्मदनगर का शासन संभालने वाले कुतुबशाही वंश का 14 वर्षीय वारिस सुल्तान मोहम्मद कुतुब कुली शाह बना, जिसे मूसी नदी के दूसरी तरफ चिचलम नामक गाँव (वर्तमान मे चारमीनार के समीप) मे रहने वाली एक बला की खूबसूरत हिन्दू युवती भाग्‍यमती से प्रेम हो गया। इसके बाद शुरू हुई आज के आधुनिक हैदराबाद की सबसे पहली प्रेम गाथा। सुल्तान और भाग्‍यमती का प्यार वक्त के साथ परवान चढ़ने लगा। फिर क्या था, सुल्तान अब हर शाम चिचलम अपनी प्रेयसी भाग्‍यमती से मिलने पहुँचने लगा।

 

तेज बारिश वाली वो शाम...  

कहते हैं एक बार सुल्तान भाग्‍यमती से मिलने चिचलम के लिए गोलकुंडा किले से रवाना हुआ, लेकिन उस शाम शुरू हुई मूसलाधार बारिश से मूसी नदी पूरे उफान पर थी। नदी मे वेग इतना था की उसके किनारों पर बसे कई मकान नदी की धारा मे बह गए। बावजूद इसके, सुल्तान अपनी खूबसूरत प्रेयसी से मिलने को बेकरार था। अंगरक्षकों और सलाहकारों की तमाम आपत्तियों तथा नाव के बिना भी सुल्तान नदी पार करने की जिद पर अड़ गया। 

हद तो तब हो गयी जब वह मूसी की तेज धार में बगैर नाव के और जान की परवाह किए ही अपने घोड़े के साथ कूद पड़ा, जिसे देख कर उसके अंगरक्षक और सलाहकारों मे चीख-पुकार मच गयी। मगर उस शाम जैसे सच्चे प्रेम की हिफाजत करने आसमान से फरिश्ते उतर आए थे और बिना किसी नुकसान के सुल्तान और उसका घोड़ा नदी के दूसरे किनारे पर पहुँच चुके थे। बताते हैं की अपने बेटे के दिल मे किसी लड़की के लिए बेशुमार मोहब्बत देख कर कुली शाह के पिता इब्राहिम कुली कुतुब शाह ने मूसी नदी पर एक पुल का निर्माण कराया, जिसे आज भी पुराने पुल के नाम से जाना जाता है। 

भाग्‍यनगरम और हैदराबाद

कुछ समय बाद ही कुलीशाह ने शहर का नाम बादल कर अपनी प्रेयसी भाग्‍यमती के नाम पर भाग्‍यनगरम रखा। हालांकि, कुली शाह से सन 1589 मे निकाह के बाद भाग्‍यमती ने इस्लाम कबूल कर लिया और उसका नाम हैदर महल रखा गया। जिसके बाद कुतुब कुली शाह ने शहर का नाम दुबारा से बदल कर अपनी प्रिय रानी हैदर महल के नाम पर हैदराबाद रखा

पहली सेल्फी का इतिहास, आइए जानते हैं किसने ली थी पहली सेल्फी

अगर आप सोच रहे हैं की सेल्फी आज कल की खोज है तो आप गलत हैं।

 सेल्फी की खोज आज से लगभग 200 साल पहले हो गई थी। साल 1839 में 30 वर्षीय रॉबर्ट कॉर्नेलियस ने फिलाडेल्फिया में अपनी सेल्फी ली थी। 

रॉबर्ट ने अपने पिता की दुकान के पीछे वाले हिस्से में कैमरा सेटअप किया। 

इसके बाद उन्होंने लेंस कैप बाहर निकाले, फ्रेम के सामने 5 मिनट दिए और लेंस कैप दोबारा लगा दिया। 

उसके बाद जो तस्वीर निकलकर आई, उसे पहला सेल्फ-पोर्ट्रेट और अब की भाषा में 'सेल्फी' कहा गया। 

इसके बाद रॉबर्ट एक मशहूर फोटॉग्रफर के तौर पर पहचाने जाने लगे। उनके पिता का लैंप का बिजनेस था, जिसे उन्होंने 20 सालों तक चलाया।

 बाद में अमेरिका के सबसे बड़े लैंप व्यवसाय के तौर पर रॉबर्ट ने अपने बिजनेस को एक नई पहचान दी। 

कुछ जानकारों का यह भी मानना है कि रॉबर्ट को पहली 'सेल्फी' लेने में 3 मिनट लगे थे। तस्वीर आने के बाद उन्होंने लिखा था, "The first light picture ever taken"

अमेरिकी अंतरिक्ष वैज्ञानिक बज एलड्रिन ने साल 1966 में जेमिनी 12 मिशन के दौरान अंतरिक्ष से सेल्फी ली थी।

 कुछ लोगों का मानना है कि दरअसल, 'पहली सेल्फी' यही थी। बज़ ऐल्ड्रिन, अपनी इस उपलब्धि को ट्वीट कर बता चुके हैं कि उन्होंने स्पेस से पहली सेल्फी ली थी। 

इस सेल्फी में उनके अलावा बैकग्राउंड में धरती दिख रही है। एक मीडिया चैनल से बातचीत में उन्होंने बताया था, मुझे उस वक्त बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि मैं एक सेल्फी ले रहा हू । 1966 के अपने ट्रेनिंग मिशन में ऐल्ड्रिन एक्सट्रा व्हीक्युलर ऐक्टिविटी की जांच कर रहे थे। उन्होंने अंतरिक्ष यात्री के तौर पर अपना करियर साल 1963 में शुरू किया था।

साल 2013 में मिली Selfiee को मिली पहचान

साल 2013 में प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में सेल्फी शब्द को शामिल किया गया। सेल्फी को कुछ यूं परिभाषित किया गया।

 ''एक फोटोग्राफ, जिसे किसी ने खुद लिया है या अपने स्मार्टफोन या वेबकैम से ली गई अपनी ही तस्वीर, जिसे किसी सोशल मीडिया वेबसाइट पर पोस्ट किया गया हो।'' 

'Selfiee' को साल 2013 में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी ने Word of the Year का खिताब भी दिया था।