सम्पादकीय:- सामाजिक परम्परा और रूढ़िवाद की भेंट चढ़ी बुधनी मझियाइंन पर संथाल समाज को गर्व कर अपने भूल सुधारने की है जरूरत
- विनोद आनंद
बुधनी नही रही! शुक्रवार को उसने अंतिम सांस ली। शनिवार को उसके शव को फूलों से सुसज्जित कर वाहन से पंचेत डेम के आसपास क्षेत्रो में घुमाया गया। फिर सीआईएसएफ के जवानो , डीवीसी के अधिकारियों और कर्मचारियों के साथ आसपास के गणमान्य लोगों ने श्रद्धांजलि दी। उसके बाद शनिवार को अंतिम संस्कार कर दिया गया।
बुधनी मझियाइंन की मौत के बाद यह सम्मान और उनकी चर्चा पर आप के मन में यह जिज्ञासा जग गया होगा कि यह बुधनी मझियाइंन कौन है...? जिसकी इतनी चर्चा हो रही है।देश भर की मीडिया में उसकी मौत की खबर को जगह मिली। बुधनी के इस सम्मान से सभी अभिभूत हैं लेकिन अभिभूत नही है तो उसका समाज, जिसने उसे तिरस्कृत कर दिया।
यह कोई नई बात नही है।आज हमारे देश के लोगों की रूढ़िवादी सोच,समाज की परम्पराएं और मान्यताएं इतनी गहरी पैठ बना ली है कि कई समाज की बुधनी इसके शिकार होते रहे।
बुधनी की बात करें तो यह आदिवासी संथाल समाज की बेटी थी। बात 6 दिसम्बर 1959 की है। अमेरिका के टीनेसी घाटी परियोजना से प्रभावित होकर भारत में भी बाढ़ पर नियंत्रण के लिए देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने दामोदर नदी पर बांध बनाकर एक तरफ बाढ़ पर नियंत्रण की योजना बनाई तो दूसरी तरफ उसी बांध से बिजली उत्पादन शुरु कर दिया इसके तहत दामोदर वैली कारपोरेशन का गठन किया गया
इस परियोजना के तहत पंचेत डेम और मैथन डेम तैयार हुआ। 6 दिसम्बर 1959 को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पंचेत डेम के उद्घाटन करने पहुंचे। इस अवसर पर अधिकारियों ने पीएम के स्वागत के लिए तत्कालीन विस्थापित परिवार की सदस्या तथा दैनिक मज़दूर 15 वर्षीय बुधनी मझियाइंन को चुना। उसने पारम्परिक ढंग से पीएम को टिका लगाया और गले में माला पहना कर उसका स्वागत किया।पीएम नेहरू भी अभिभूत हो गए उस बुधनी के गले में भी माला पहना कर उसका स्वागत किया और पंचेत डेम का स्विच ऑन बुधनी से कराकर डेम का उद्धाटन बुधनी से कराया।
उस समय भी देश में मीडिया के लिए बुधनी एक चर्चित विषय बनी।बुधनी के भाग्य,नेहरू जी की उदारता पर चर्चा हुई।लेकिन बुधनी के इस शौभाग्य से उनका समाज खफा हो गया। किसी पर पुरुष के गले में इस 15 वर्षीय बच्ची द्वारा माला पहनाया जाना आदिवासी समाज को रास नही आया।गांव में समाज की बैठक हुई और समाज के प्रमुख ने फैसला सुना दिया कि अब बुधनी का विवाह नेहरू जी से हो गया। दूसरे जाति से विवाह के लिए उसे समाज और गांव से निष्काषित कर दिया गया।
उसकी जमीन पंचेत डेम के डूब क्षेत्र में चली गयी और उसका परिवार और कहीं चला गया।एक तरफ विस्थापन का दंश तो दूसरी तरफ समाज का तिरस्कार।
बुधनी का यह दुर्भाग्य बन गया। बुधनी 15 साल की उम्र में भी डेम निर्माण के समय दैनिक मज़दूर के रूप में काम किया था, लेकिन सरकारी नियमों के बंधन के कारण उसे डीवीसी में नौकरी नही मिली । उसे 1962 में उसे4 काम से निकाल दिया गया।
दूसरी तरफ समाज के तिरस्कार के कारण समाज मे जगह भी नही मिला। इसके बाद उसकी अभिशप्त जीवन की शुरुआत हो गयी । काम के तलाश में वह भटकने लगी। बेसहारा स्थिति में उसे सहारा दिया सुधीर दत्ता नामक एक युवक, उससे बुधनी की विधिवत शादी तो नही हुयी लेकिन बुधनी उसके साथ पत्नी की तरह रहने लगी । उससे एक बेटी हुई। रत्ना दत्त, जिसकी भी शादी हो चुकी है।
बाद में 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सज्ञान में बुधनी के दुर्भाग्य और उसकी स्थिति की जानकारी किसी ने राजीव गांधी को दी। उन्होंने 1985 में डीवीसी को अधिकारी को निर्देश दिया गया कि बुधनी जहां भी है उसे खोज कर नौकरी दिया जाए। तब उसे डीवीसी में नौकरी मिली तो जिंदगी आसान हुआ।
बुधनी आज नही रही लेकिन दुर्भाग्य की बात तो यह है कि आज भी उसके संथाल समाज ने उसके समाज से निष्काषन वापस नही लिया । समय बदला, लोगों की सोच बदली। आज आदिवासी समाज के लोग संवेधानिक पदों पर भी आसीन हैं।आईएएस और आईपीएस भी हैं लेकिन समाज मे आज भी कई परम्पराए हैं जिस आदिवासी समाज नही निकल पाई।
बुधनी इसी सामाजिक परम्परा की भेंट चढ़ी। कितने मुसीबत और मानसिक प्रताड़न से वह गुजरी। जिस घटना को लेकर समाज और इस क्षेत्र के लोगों को अभिमान करना चाहिए वह बुधनी के जीवन में ग्रहण बनकर रह गया।आज मौत के बाद भी यह सम्मान अभिभूत करने वाला है।डीवीसी के अधिकारियों और क्षेत्र के लोगों को इसके लिए जितनी सराहना की जाए कम है।
इसके साथ हीं संथाल समाज से भी हमारी गुजारिश है कि आप को अपनी सोच से बाहर निकल कर बुधनी की मौत के बाद भी उसका निष्काषन वापस लें और समाज के एक ऐसी बेटी के रूप में स्वीकार कर उसका सम्मान करें कि समाज की एक बेटी जिसका स्वागत माला पहना कर नेहरू ने किया और दामोदर घाटी निगम का उद्घाटन कराया। निसंदेह झारखंड सरकार, बंगाल सरकार , संथाल समाज और डीवीसी को यह भी पहल करनी चाहिए कि बुधनी की एक प्रतिमा स्थापित कर उसे वह सम्मान दिया जाना चाहिये जिसकी वह हकदार है।उसने डीवीसी के प्राम्भिक मज़दूर के रूप में इसके निर्माण में योगदान दिया, इसके उद्धाटन में सहयोग कर अपने समाज का तिरस्कार झेला।अपना जमीन और घर खोकर विस्थापन का दर्द झेला। इसी लिए उसकी त्याग,श्रम और सम्मान को एक प्रतीक के रूप में जिंदा रखने के लिए प्रतिमा स्थापित कर नई पीढ़ी के बीच उसे जिंदा रखा जाना जरूरी है। इसके लिए संथाल समाज को पहल कर अपनी भूल सुधारने की है जरूरत है।
Nov 22 2023, 08:01