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त्वरित टिप्पणी: रघुवर दास को राज्यपाल बनाये जाने के पीछे क्या है भाजपा का निहितार्थ ...?

  - विनोद आनंद

राजनीति में कोई भी घटना अप्रत्याशित नही होती,हर घटनाक्रम के पीछे कोई न कोई वजह जरूर होता है। राजनीतिक विश्लेषक अपने तरीके से इन घटनाओं को अपने नजरिये से परखने की कोशिश करते हैं।

कुछ ऐसी ही घटनाक्रम झारखंड में भी हो रही है जिस पर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।

वह घटना है रघुवर दास को उड़ीसा का राज्यपाल बनाया जाना। 

रघुवर दास भाजपा के कद्दावर नेता रहे हैं। मज़दूर राजनीति से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने वाले रघुवर दास की पकड़ संघ में भी मज़बूत रही है।और इन समीकरणों के वजह से उन्हें झारखंड में भाजपा की सरकार में मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। वे झारखंड के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने। पांच साल तक सरकार को सफलता पूर्वक चलाया भी।

रघुवर दास ने उस मिथक को तोड़ दिया कि सिर्फ झारखंड में आदिवासी हीं मुख्यमंत्री बन सकते हैं।

 दरअसल जब से झारखंड अलग हुआ एक परिपाटी सी बन गयी थी कि यहां आदिवासी चेहरा हीं सीएम बन रहे थे ।रघुवर दास ने इस मिथक को तोड़ा।वे स्थायी सरकार के पांच साल तक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री रहे।

अब प्रश्न उठता है कि सीएम के रूप में भाजपा को सफल सरकार देने वाले रघुवर दास को अचानक सक्रिय राजनीति से अलग कर उड़ीसा का राज्यपाल बनाने के पीछे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की मंशा क्या है ..?

 यह समझा जाता रहा है कि जब किसी राजनेता को सक्रिय राजनीति से अलग करना हो तो उसे राज्यपाल बनाकर किसी राज्य में बैठा दिया जाता रहा है। इसके दो परिणाम होते हैं वे जब किसी दूसरे राज्य में इस दायित्व को संभाल रहे होते हैं तो उनके अपने कार्यकर्ताओं के बीच कुछ प्रोटोकॉल के कारण खास सम्पर्क नही बना रह पाता है। कार्यकर्ता भी अपने को उस क्षेत्र के जो नए नेता बनते हैं उनके साथ अपने को एडजस्ट कर लेते हैं। तो क्या कोल्हान में यही होने वाला है।कोल्हान के एक बड़ा चेहरा रघुवर दास अब अपने नए दायित्व में उलझ कर अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन करेंगे। और पार्टी की रणनीतिकर किसी नए चेहरा को यहां प्रमोट कर अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का रास्ता साफ कर लेंगे। 

 

इस बात को इस लिए भी बल मिल रहा है कि भाजपा 2024 में कहीं भी कोई रिस्क नही लेना चाहती है। जिसमे झारखंड भी एक है। इसका कारण है सरयू राय।सरयू राय भाजपा के नेता रहे।भाजपा की रघुवर सरकार में वे मंत्री भी रहे लेकिन रघुवर दास से उनकी कभी पटी नही,रघुवर सरकार के काम काज से खिन्न भी रहे और आवाज भी उठाते रहे। जिसके कारण उन्हें रघुवर दास ने 2019 के विधान सभा चुनाव में पार्टी से टिकट नही देने दिया।परिणाम स्वरूप वे रघुवर दास के विरुद्ध ही पूर्वी जमशेदपुर से खड़े हो गए। और रघुवर दास को हराकर विधानसभा पहुंचे।

भले हीं शीर्ष नेतृत्व ने इसे प्रदर्शित नही किया लेकिन रघुवर दास से बहुत ज्यादा खुश भी नही थे। इस वार 2024 के चुनाव में भाजपा कोई रिस्क नही लेना चाहती है। 

   कयास लगाया जा रहा है कि भाजपा ने इसी सोच के कारण रघुवर दास को राज्यपाल बनाकर पूर्वी जमशेदपुर सीट पर किसी तरह का पार्टी के अंदरूनी टकराहट को रोकने उपाय खोज लिया। एक तरफ रघुवर दास को राज्यपाल बनाकर उन्हें और उनके कार्यकर्ताओं को सतुष्ट कर दिया तो दूसरी तरफ अपने ही दल के एक नाराज ताकतवर नेता और वर्तमान निर्दलीय विधायक सरयू राय के लिए पार्टी में वापसी के लिए रास्ता साफ कर दिया।

इस बात को इस लिए भी बल मिलता है कि अचानक जमशेदपुर पूर्वी के विधायक सरयू राय की सक्रियता कुछ बढ़ सिबगयी है। वे भाजपा नेताओं से वे मिलने लगे हैं।अभी हाल हीं में महीनों से जेल में बंद रहे अभय सिंह से सरयू राय ने शिष्टाचार मुलाकात की है। जिसके बाद इस बात पर चर्चा होने लगी है कि क्या सरयू राय कि घर वापसी की तैयारी हो रही है।

   सरयू राय की अदावत सिर्फ रघुवर दास के साथ रही।पार्टी के अन्य कार्यकर्ताओं से उनकी कोई अदावत नही रही।और नही कभी उन्होंने पार्टी के कार्यक्रम और नीति का आलोचना ही किया है।

इससे इस बात को बल मिलने लगा है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का कहीं रघुवर दास को राज्यपाल बनाने के पीछे सरयू राय को पार्टी में वापसी के लिए माहौल तैयार करने की रणनीति तो नही बना रहे हैं।

   इससे पार्टी को दो फायदे होंगे एक तो पार्टी के अंदर का अंतर्कलह बंद हो जाएगा।दूसरी ओर सरयू राय जैसे नेता की भाजपा में पुनर्वापसी हो जाएगी। अब देखिए पार्टी आगे इस दिशा में क्या कदम उठाती है और सरयू राय क्या निर्णय लेते हैं।लेकिन पिछले कुछ दिनों से झारखंड की राजनीति में जिस तरह सरयू राय ने अपनी मज़बूत पकड़ बनाई है उससे सरयू राय जैसे नेता भाजपा के लिए जरूरी हो गया है। इसी लिए कितने समीकरण बदलते है।

विपक्ष द्वारा 14 टीबी एंकरों के कार्यकर्मो का बहिष्कार से मीडिया की निष्पक्षता पर उठ रहे सवाल,और उसके साइड इफेक्ट..?

(विनोद आनंद)

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ प्रेस है।प्रेस को निष्पक्ष होकर अपनी बातों को रखने और सत्ता हो या विपक्ष उनसे सवाल करने का अधिकार है।

प्रेस की भूमिका हमेशा निष्पक्ष होकर उन सारी सूचनाओं को आम जनता तक पहुंचाने का है जो जनता को जानना चाहिए।

 लेकिन क्या आज प्रेस अपनी भूमिका और अपने कर्तव्य का सही ढंग से पालन कर रहा है...?,

क्या प्रेस की भूमिका को पालन करने में सरकारी तंत्र या सामाजिक स्तर पर वह स्पोर्ट और सहयोग मिल रहा है जो मिलना चाहिए।यह आज एक बड़ा सवाल बन गया है ,और इस पर बहस भी हो रही।

इस बहस को तब और बल मिल गया है जब विपक्ष की गठबंधन इंडिया(I .N .D. I .A.) ने देश के 14 प्रसिद्ध टी वी एंकरों के शो का वहिष्कार करने का निर्णय लिया है। 

अब विपक्ष इन एंकरों के कार्यक्रम में अपने प्रवक्ताओं को नही भेजेंगे। विपक्ष द्वारा इन एंकरों का सूची भी जारी कर दिया गया है। ये 14 एंकर हैं अदिति त्यागी,अमन चोपड़ा,अमिष देवगन,आनंद नरसिम्हन,अर्णव गोस्वामी,अशोक श्रीवास्तव,चित्रा त्रिपाठी,गौरव सावंत,नाविका कुमार,प्राची पराशर,रुविका लियाकत,शिव अरुर, सुधीर चौधरी और सुशांत सिन्हा।

विपक्ष द्वारा इन सभी एंकरों के शो से दूरी बनाने की इस करवाई के बाद वे अपने तर्क से विपक्ष की कारबाई को गलत बता रहे हैं,इसे आपातकाल बताकर विपक्ष को कोष रहे हैं , इस कदम पर भाजपा की भी प्रतिक्रिया आ रही है।वे उदाहरण दे रहे हैं कि जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक प्रेस की स्वतंत्रता को कांग्रेस ने रौंदा है। लेकिन भाजपा सरकार के दौरान कितने पत्रकार को सरकार या मौजूदा सिस्टम पर सवाल उठाने से जेल जाना पड़ा। उन्हें दवाब पर मीडिया संस्थानों से निकाला गया इस पर कोई चर्चा नही हो रही है। जो होनी चाहिए।

मैं ना तो विपक्ष के इस कदम का समर्थन कर रहा हूँ और नही उन पत्रकारों के शो के बहिष्कार का पक्ष ले रहा हूँ। लेकिन एक सवाल जरूर पूछना चाहूंगा उन चंद पत्रकारों से जिन पर अंगुली उठते रहे हैं। 

क्या आप अपनी आत्मा से पूछिए कि आप अब तक जो करते आ रहे थे क्या वह आप के स्वयं का निर्णय था या संस्थान का निर्देश..? अगर आप की अंतरात्मा की यह निर्णय रही है तो आप को यह आत्ममंथन करने की जरूरत है कि आप क्या पत्रकारिता के धर्म का पालन कर रहे हैं...?, क्या भारत के मजबूत लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं..?

  

एक मजबूत लोकतंत्र के लिए जितना सरकार जरूरी है उतना ही मज़बूत विपक्ष भी।सरकार के कार्यों में संतुलन और उसे सही निर्णय लेने के लिए उसकी आलोचना भी जरूरी है। 

मीडिया का काम भी है कि सरकार से सवाल पूछे ना कि उसकी हां में हां मिलाए।सरकार का भी काम है अपनी आलोचना को सुने,उसपर मंथन करे और अगर उनके कोई निर्णय गलत हो रहा है तो उसे सुधार करें । तभी किसी के निरकुंश प्रवृति को रोका जा सकता है। 

आज मीडिया संस्थानों को भी कॉरपरेट घराने चला रहे हैं।इन मीडिया संस्थानों के आड़ में सरकार को खुश करना और उसके सहारे सरकार के विभिन्न प्रतिष्ठानो से काम लेकर व्यवसाय करना रह गया है।

इन संस्थानों का दवाब भी उस कथित पत्रकारों पर होता है कि उन्हें क्या करना है, किन सवालों को पूछना है, किस पार्टी को तरजीह देना है।इस लिए ऐसे संस्थानों की निष्पक्षता और पत्रकारों की विवशता को भी समझा जा सकता है। और उससे निष्पक्ष होकर काम की उम्मीद नही की जा सकती है।

लेकिन विपक्ष के इस कदम और तेवर से एक बार जरूर इन मीडिया संस्थानों में भी डर बैठ गया है ।

इसके कई साइड इफेक्ट पर भी चर्चा हो रही है कि जिन राज्यों में विपक्ष की सरकार है अगर गोदी मीडिया के आरोप लगे इन संस्थानों को सरकारी विज्ञापन उस राज्य की सरकार बंद कर दे तो इन्हें भी बहुत बड़ा नुकशान उठाना पड़ सकता है।और आने वाले दिनों में जब केंद्र में इनकी सरकार बनती है तो भी इसके इफेक्ट पड़ सकते हैं।

वैसे भी इन संस्थानों को यह भी समझना चाहिए कि आज एक पार्टी की सरकार है, कल हो सकता है दूसरी पार्टी की सरकार हो जाये तो उनके इस एजेंडे से उन्हें कितना नुकसान उठाना होगा। इस पर भी उन्हें मंथन करने की जरूरत है। इस लिए समय रहते आत्ममंथन कीजिये और इस कदम के बाद निष्पक्ष होकर स्वतंत्र पत्रकारिता को जिंदा कीजिये।

त्वरित टिप्पणी:मणिपुर की शर्मसार घटना,दोषी कौन..? क्या हर समस्या का समाधान सरकार की चुपी है..!

 ;(विनोद आनंद)

मणिपुर में एक वीडियो सामने आया जिसमे दो महिला को निर्वस्त्र कर भीड़ के सामने घुमाया गया फिर उसे खेत में ले जाकर उसके साथ उसका उत्पीड़न किया गया।

  उस महिला का सिर्फ दोष इतना था कि वह जिस दो समुदाय में हिंसक झड़प हो रही थी उस में से वह एक ऐसे समुदाय की थी जहां यह घटना घाटी वहां उसकी आबादी कम थी।

यह घटना मानवता को तार - तार करने वाली थी,उस घटना के समय वहां उपस्थित लोगों में एक भी आदमी ऐसा नही था जो इस जघन्य अपराध को रोके। मना करे कि यह अपराध मानवीय मूल्य को कम करने वाली है।इस घटना के कारण देश शर्मसार हुआ।और सरकार, शासन को भी कठघड़े में खड़ा कर दिया। साथ ही एक सवाल भी उठने लगा कि इस तरह के घटना के लिए दोषी कौन है। क्या वे लोग जिसके सामने इस तरह की घटना घटी या  शासन व्यवस्था जो ईस तरह के स्थिति में लोगों की सुरक्षा नही कर सकी,या अगर ऐसे मामले पुलिस की सज्ञान में आई भी तो कारबाई में इतनी देरी हुई। कई सवाल हैं जिसका जवाब देना चाहिए।

इस घटना की जीरो एफआईआर अन्य थाना में करने की भी बात सामने आ रही है फिर भी दोषी पर कार्रवाई में इतनी देर क्यों हुई, और अब कार्रवाई भी तब हो रही है जब यह वीडियो वायरल हुआ।

वीडियो वॉयरल होने और हर ओर से प्रतिक्रिया आने के बाद कारबाई भी शुरू हुई। देश के पीएम और मंत्री भी इस पर टिप्पणी कर रहे हैं।और कारबाई कि बात भी कर रहे हैं।

यह घटना और मणिपुर की हालात पर देश की केंद्र तथा मणिपुर की राज्य सरकार पर सवाल तो उठता है कि जनता जिस ईमानदारी और उम्मीद से आप को सत्ता में भेजती है, सुरक्षा,सुशासन,और जनता के दुख दर्द को दूर करने के लिए जो जिम्मेदारी आप को जनता देती है, अपने टैक्स और गाढ़ी कमाई से आप को राज सुख, पर्याप्त वेतन , भत्ता और राजशाही जिंदगी जनता आप को दे रही है क्या आप उसका सही से निर्वहन करते हैं। इस पर आप को मंथन करना होगा ,साथ ही उन जनता को भी मंथन करना होगा कि जिस उम्मीद के साथ आप अपने वोट से चुनकर जिन लोगों को गद्दी पर बैठा रहे हैं वह आप के कसौटी पर कितना खड़ा उतर रहा है..?

वैसे इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वतः सज्ञान लिया है। केंद्र और राज्य सरकार से जवाब भी मांगा है।सरकार क्या जवाब देती है यह तो बक्त बताएगा।लेकिन यह सरकार की पूरी तरह विफलता है। जो एक्शन सरकार को लेनी चाहिए नही ली गयी। इस तरह के मामले को जिस संजीदगी के साथ हल करना चाहिए उसे नही किया जा सका।

अगर मामले की तह और इस घटना के स्थितियों पर चर्चा करें तो जिस आग से मणिपुर जल रहा है उस पर सरकार की रहस्यमय चुपी और एक्शन में शिथिलता कई सवाल खड़े करते हैं।

मणिपुर हिंसा में अगर मीडिया रिपोर्ट की बात माने तो 120 लोगों की जान गई,3000 से ज्यादा लोग घायल हुए, 50,000 लोग अपने घर बार छोड़कर रिलीफ कैम्प में रहने को बाध्य हैं। 

मणिपुर में 3 मई से हिंसा शुरू हुई और लंबे समय तक चली।पूरे राज्य की व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी,हालात युद्धग्रस्त लीबिया और सीरिया जैसे हो गया।भीड़ ने केंद्रीय मंत्री के घर तक को फूंक दिये कितने घर जले, दुकाने लूटी गई , राज्य के हालात इतने बदतर हो गए कि वहां सेना भी तैनात करना पड़ा।इसके वाबजूद केंद्र सरकार किसी तरह राज्य के हालात को काबू पाने के लिये हस्तक्षेप नही किया।

क्या इस तरह के हालात किसी गैर भाजपा शासित राज्य में होता तो फिर भी केंद्र सरकार चुप रहती..? कई सवाल हैं जो जनता के बीच है।

मणिपुर के हालात पर भारत समेत दुनिया में चर्चा होने लगी।भारत सरकार पर अंगुली भी उठने लगे,फिर भी केंद्र की चुपी नही टूटी।अब जब कि यह जघन्य मामला सामने आया है तो पीएम मोदी ने छत्तीसगढ़ और राजस्थान को टैग करते हुए मणिपुर की घटना पर चर्चा किया इस जघन्य अपराध पर दुख व्यक्त किया, कार्रवाई की बात भी कही।

किंतु बहुत देर हो गई ,अब ना तो देश की उस बेटी की पीड़ा को कम किया जा सकता है जो इस हालात से गुजरी और नही 120 लोगों की जिंदगी लौटाई जा सकती है जो इस घटना में मारे गए।

इस घटना का कोई बहुत बड़ा कारण भी नही था, अगर सरकार सजग होती। जिस आरक्षण को लेकर आक्रोश बढ़ा उसके लिए दोनों समुदाय से राज्य सरकार या केंद्र सरकार बात करती, केंद्र सरकार भी हस्तक्षेप कर सकारात्मक पहल करती तो स्थिति इतना नही बिगड़ता।

लेकिन मौजूदा सरकार हमेशा अपनी जिम्मेबारी और जनता की समस्या का हल मौन होकर करती है।इन्हें कौन बताए कि हर समस्या का समाधान चुपी नही है। बल्कि सरकार संवाद के जरिये जनता का विश्वास जीत सकती,उनके गुस्से को शांत कर सकती और अपनी स्थिति भी मजबूत कर सकती।

पता नही मौजूदा सरकार के नीति निर्धारण और कार्यशैली के लिए यह सलाह कौन देता..?,किसके हिसाब से सरकार चलती और लगातार जनता का विश्वास खोती जा रही है, यहां हम सरकार की उस सभी गलतियों का जिक्र नही करना चाहेंगे जिस के कारण आज लगातार जनता के बीच मौजूदा सरकार के लिए निगेटिव सोच बनती जा रही है।लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि सरकार अगर अपनी अहंकार त्याग कर जनता के लिए ली गयी जिम्मेबारी का निर्वहन करती तो हालात इतने नही बिगड़ती।और नही इतना क्षति होता।

(अगले एपिशोड में पढ़िए मणिपुर हिंसा का कारण,व्यवस्था की कमी ,और उसकी विसंगतियां और समाधान पर स्ट्रीटबज़्ज़ का दृष्टिकोण)

Editor
अर्थव्यवस्था की दौर में तेजी से छलांग लगा रहे भारत से क्यों पलायन कर रहे हैं करोड़पति..? (भाग - 2)


(विनोद आनंद)


जैसा कि पिछले अंक में आपने पढ़ा कि भारत के करीब 65 हज़ार ऐसे करोड़पति व्यवसायी 2023 में भारत छोड़कर विदेशों में बसने जा रहे हैं जो यहां एक मिलियन डॉलर निवेश कर हज़ारों लोगों के लिए रोजगार सृजित कर सकते थे और भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत भी कर सकते थे।

देश छोड़ कर विदेश में बसने की प्रवृति काफी समय से भारत के लोगों में रही है। इसका कारण है भारत में यहां के परिवेश और व्यवस्था से निराशा। इनके विदेशों में बसने का मूल कारण उन्हें एक अच्छा परिवेश, रोजगार की अपार सम्भावनायें, सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था और उनके लिए अनुकूल माहौल...!

पिछले वर्ष 2022 में भी 7500 लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ विदेशों में बस गए हैं।

अगर आंकड़ो की बात करें तो

2015 से 2022 तक का आंकड़ा देखे तो भारत की नागरिकता छोड़ विदेशों में बसने वाले कि शंख्या इस प्रकार है

वर्ष:-     भारत छोड़ने वाले

2015:-     131,489

2015:-     131,489

2015:-     131,489

2015:-     131,489

2016:-     141,603

2017:-     133,409

2018:-     134,561

2019:-     144,017

2020:-     085,256

:2021     163,370

2022:-     2,25,620

सिर्फ वर्तमान सरकार के शासन काल में ही नही भारत से लोगों का पलायन हुआ बल्कि इसके पूर्व भी लोग यहां से जाकर विदेशो में बसते रहे हैं।

अगर बात करें हम 2011 से अब तक 16,63,440 लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी और दुनिया के 135 देशों में जाकर बस गए।

अगर वैश्विक आंकड़ो की बात करें कि उस देश की परिस्थिति और वहां के कई स्थानीय कारणों से लोग अपने देश को छोड़ कर विदेशों में बसने लगे हैं। 2023 कि ही बात करें तो पलायन की प्रवृति में चीन पहले स्थान पर है जहां से इस वर्ष करोड़पति व्यवसायी 13500,पलायन करने के तैयारी में है, वहीं दूसरे नंबर पर भारत है जहां से 6500 लोग पलायन कर रहे हैं वहीं तीसरे नंबर पर ब्रिटेन 3200 और चौथे नंबर पर रूस है जहां से 3000 करोड़पति इस वर्ष पलायन कर रहे हैं।

    संविधान के अनुसार भारत में एकल नागरिकता का प्रावधान है।एक बक्त में भारत के कोई नागरिक एक ही देश की नागरिकता रख सकते हैं।अगर वे किसी अन्य देश की नागरिकता लेते हैं तो भारत की नागरिकता स्वतः हीं समाप्त हो जाती है।

 इस तरह भारत की नागरिकता छोड़ने की बात करें तो 2021 में 1.63 लाख और 2022 में 2.25 लाख लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी है।

पलायन के कारण और मौज़ूदा हालात पर क्या है अर्थशास्त्रियों की राय...?

भारत में लगातार बड़े व्यापारियों और प्रतिभाशालियों के पलायन को चिंतनीय बताते हुए विश्व बैंक के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट और मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में काम कर चुके जाने माने अर्घशास्त्री कौशिक बसु ने इसे चिंता का विषय बताते हुए कहा कि जिस तरह भारत में ग्रमीण उपभोग की बस्तु की खपत कम हुई है। विकास दर और बेरोजगारी जिस रफ्तार से बढ़ी है, तथा हर सकते के जो आंकड़े आ रहे हैं वह चिंता का विषय है। इस पर सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए।निवेश को भारत में आकर्षित करना चाहिए और रोजगार सृजन के दिशा में नीतिगत फैसले लेने चाहिए। कौशिक बसु 2009 से 2012 तक भारत के आर्थिक सलाहकार के रूप में भी काम किया है।

वहीं विश्व बैंक की सीनियर अर्थशास्त्री इंदिरा संतोष ने भी भारत में लगातार लोगों की छीनती रोजगार और बढ़ते बेरोजगारी की दर पर भी चिंता जाहिर की है।उनका कहना है कि भारत के माध्यम वर्ग की बड़ी आवादी गरीबी रेखा से ऊपर आयी है लेकिन जिस तरह उनका रोजगार छीन रहा फिर वे गरीबी रेखा की ओर जा रहे हैं।

    

इस तरह कई आर्थिक विशेषज्ञ ने माना है कि भारत जिस दौर में भले हीं जहां पहुंचा हो लेकिन इसे झुठलाया भी नही जा सकता है कि भारत में बेरोजगारी बढ़ी है।लोगों के सामने रोजगार की चिंता, बच्चों के बेहतर भविष्य की चिंता,काम के अनुकूल वातावरण की कमी, श्रम के अनुसार आय की कमी और सरकार के अकुशल प्रबधन के अभाव में लोग खासकर व्यापारी वर्ग ज्यादा असुरक्षित महसूस करने लगे हैं।इसीलिए सरकार को इस दिशा में नीतिगत फैसले लेने की जरूरत है। और रोजगार के अवसर सृजित करने और व्यापारियों को अनुकूल माहौल देकर उन्हें भरोसे में लेने की जरूरत है।

अर्थव्यवस्था की दौर में तेजी से छलांग लगा रहे भारत से क्यों पलायन कर रहे हैं करोड़पति...?


(विनोद आनंद)


हेनले प्राइवेट वेल्थ माइग्रेशन के  2023 की रिपोर्ट के अनुसार भारत से 6500 करोड़पति भारत छोड़कर विदेशों में बसने जा रहे हैं। ये करोड़पति ऐसे लोग हैं जो एक मिलियन डॉलर भारत में निवेश कर सकते हैं जिससे भारतीय इकोनॉमी का और ग्रोथ हो सकता है,इससे लोगों के लिए रोजगार भी सृजित हो सकते हैं जिसकी भारत को आज जरूरत है।

पिछले साल भी 7500 सौ करोड़पतियों ने भारत छोड़ा था जो विदेशों में जाकर बस गए हैं, और यह सिलसिला पिछले कई वर्षो से लगातार जारी है जिसका आंकड़ा हम आगे देंगे और इस पर चर्चा करेंगे।

लेकिन हम यह सवाल उठाना चाहेंगे कि अगर भारत आज विश्व में तेज़ी से उभड़ता हुआ इकोनॉमी है । मोदी सरकार के भारत का विश्व में डंका बज रहा है तो भारत के लोगों के इस पलायन को रोकने में सरकार क्यों कामयाब नही हो पा रही है....?

इस पलायन को रोकने के लिए सरकार को क्या करना चाहिए इस पर विश्लेषण करने की जरूरत है।जिसे सरकार को गंभीरता से करना चाहिए।

आज अगर विश्व के एजेंसियों की रिपोर्ट और आंकड़ो की बात करे तो भारत विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है । इसके आगे अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी हैं। भारत ने पिछले 10 सालों में शानदार आर्थिक विकास दर हासिल की है और जहां एक दशक पहले भारत दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी इकोनॉमी था वहीं अब ये 6 स्थान आगे बढ़कर 5 वें स्थान पर आ गया है। यह भारत के लिए बहुत उपलब्धि मानी जा सकती है।

इसके साथ हीं अब भारत से ऐसे लोगों का लगातार पलायन जो भारत की इकोनॉमी को और मजबूत कर सकता है इस पर सरकार को चिंता करने की जरूरत है।

  वैसे भारत से प्रतिभाशाली लोगों और उधमियों का पलायन कोई नई बात नही है। चाहे पूर्व में कांग्रेस की सरकार रही हो या वर्तमान में भाजपा की सरकार कोई भी सरकार इस तरह की नीति नही बना पाई की लोगों के पलायन को रोक सके। आज भारत से पलायन का मुख्य वजह है कि यहां सरकार किसी की भी रही हो,वे नही तो प्रतिभाशाली युवाओं के लिए उनके अनुकूल रोजगार और आकर्षक वेतन की व्यवस्था कर पाए हैं और नही यहां के उधमियों के लिए अनुकूल वातावरण दे पाए हैं।

 आज भी भारत में उधोग के लिए अनुकूल वातावरण नही है।उधमियों की सुरक्षा,उनके लिये सुगम टैक्सेशन की व्यवस्था, सरकारी ऑफिस के बाबुओं की असहयोगात्मक नीति और उपर् से राजनेताओं का चंदा,गुंडों की धमकी,मज़दूर संघटन का दवाब और कई तरह की विसंगतियां है जो यहां के उद्यमियों को हताश और निराश किया है।परिणाम स्वरूप लोग यहां से पलायन के लिए विवश होते रहे हैं।

   तेजी से विकास के पायदान पर आगे बढ़ते भारत के लिए यह यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है। आज भारत भले हीं आंकड़ो और सर्वे में एक बड़ा इकोनॉमी बन गया हो लेकिन भारत सरकार ना तो सरकारी तंत्र को भ्रस्ट्राचार मुक्त कर पाई और नही देश के विधि व्यवस्था को मज़बूत कर पायी।

 जिसका शिकार देश के माध्यम और छोटे स्तर के उधमी हो रहे हैं।आज एक के बाद एक उधोग बंद होते चले गए। सरकार का पूरा ध्यान दो चार घरानों तक सीमित रह गया है जिन्हें सभी ठेका और सरकारी विभागों का काम हासिल हो रहा है जबकि स्थानीय स्तर पर छोटे उधमियों को फलने फूलने का अवसर मिलना चाहिए। वह नही हो पा रहा है।वहीं सरकार की नीति उधमियों से अधिक से अधिक टैक्स वसूली की रही है। जीएसटी के कारण छोटे छोटे व्यापारी और दुकानदार भी प्रभावित हुए। यहां तक सरकार ने आम उपभोग की वस्तु को भी नही छोड़ा।अभी स्थिति यह है कि आम लोग परेशान हैं और अगर कुछ लोग सक्षम हैं जो नए सिरे से अपने पैर जमा सके तो वे अपनी जमा पूंजी को लेकर एक बेहतर भविष्य के लिए विदेशों में भाग रहे हैं।

 भारत से इसी तरह प्रतिभएँ भी विदेश भाग रहे हैं दुनियां भर के कई विदेशी संस्थाओं में काम करने वाले वैज्ञानिक इंजीनियर, डॉक्टर और वैज्ञनिक भारतीय हैं।

इसमें अधिकतर लोग विदेशों में बस गए हैं।इस एपिसोड में भारत से विदेश भागने वाले लोगों में 

सरकार की कमियां का जिक्र कर रहे हैं अगले एपिसोड में पलायन की प्रवृति और भारत से विदेश भागने वाले आंकड़ो पर हम चर्चा करेंगे।।

( क्रमश)

(अगले अंक में पढ़िए 2012 से अब तक भारत से कितने लोगों का पलायन हुआ उसकी प्रवृति,देश पर उसका प्रभाव और अर्थ शास्त्रियों का राय)

देश में चल रही मज़बूत विपक्ष की कवायद में मिलेगी कितनी सफलता,क्या हो पाएंगे क्षेत्रीय दल एकजूट...? (भाग -2)

(विनोद आनंद)

जैसा कि पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा कि क्या 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में विपक्ष एकजूट हो पाएंगे।

इसका जवाब यही है कि कुछ दल भले ही एक साथ हों लेकिन कई ऐसे क्षेत्रीय पार्टी हैं जो वर्तमान सरकार के बदलाव की सोच तो रखते हैं,लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा और अपना क्षेत्रीय हित उनको इस एकजूटता के लिए बाधक बन रही है । ऐसे लोग चुनाव से पहले गठबंधन का हिस्सा नही बन पाएंगे।चुनाव परिणाम के बाद जीत की स्थिति और तात्कालिक परिस्थितियों के अनुकूल वे निर्णय ले सकते हैं।ऐसे स्थिति में राजनीति में सब कुछ होता है।वे या तो विपक्ष के साथ हो सकते हैं तो कुछ पक्ष के साथ भी।

इसका संकेत तेलंगना के केसीआर,उड़ीसा के नवीन पटनायक ने पहले हीं दे दिया है।लेकिन संदेह ममता बनर्जी और अरबिंद केजरीवाल पर भी है।

इधर केसीआर और नवीन पटनायक ने तो यह साफ तौर पर कह दिया है कि वे अपनी क्षेत्रीय आकांक्षाओं को लेकर राजनीति करते हैं। इसीलिए 23 जून को नीतीश कुमार द्वारा पटना में बुलाई गई बैठक में भाग लेने से उन्होंने मना कर दिया। 

ऐसे हालात में कांग्रेस को सभी विपक्ष को एक जूट करना बहुत आसान नही होगा । उन्हें कुछ दल को साथ लेने के लिए भी बहुत ज्यादा समझौता करना होगा।

इस परिस्थिति में लोकसभा चुनाव में भाजपा के वर्चस्व की काट खोजना विपक्षी दलों के लिए राजनीतिक तिलिस्म से कम नहीं होगा।

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पिछले दो बार से लोकसभा चुनाव में जिस तरह से बोलबाला रहा है और 2024 में जो संभावना है, इसके लिहाज से बीजेपी को केंद्रीय स्तर पर टक्कर देने के लिए एक ऐसा विपक्ष चाहिए जो बिखरा हुआ नहीं हो। इसके लिए पिछले कुछ महीनों से नीतीश कुमार प्रयास में जुटे भी हैं। इस बीच राजनीति के दिग्गज माने जाने वाले शरद पवार ने भी ये जता दिया है कि बिना एकजुट हुए 2024 में बीजेपी को हराना बहुत मुश्किल है। 

अब सवाल उठता है कि राष्ट्रीय स्तर पर क्या इस तरह की कोई विपक्षी एकता बन सकती है, जिसके तहत देश की ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर बीजेपी को सीधा टक्कर दी जा सके। 

कर्नाटक चुनाव से पहले इसको लेकर कोई साफ तस्वीर नहीं बन पा रही थी, लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस को मिली बड़ी जीत के बाद विपक्षी एकता के मुहिम को फिर से मज़बूत करने के लिए पहल शुरू हो गयी है।

अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि विपक्षी एकता के लिए बने गठबंधन का नेतृत्व कौन करे ..? 

इस मुद्दा पर देश के कुछ पार्टियों को ये समझ मे। आने लगी है कि गैर-कांग्रेस विपक्षी मोर्चा एक तरह से बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित होगा। बीजेपी अभी केंद्रीय स्तर पर जितनी बड़ी राजनीतिक ताकत है, उसको 2024 में तभी चुनौती तभी दिया जा सकता है , जब उसके खिलाफ लोकसभा की ज्यादातर सीटों पर सीधा टक्कर दिया जाए। इसके लिए कांग्रेस का नेतृत्व को कुछ लोग स्वीकार करने के लिए तैयार दिख रहे हैं।

इसके साथ वे ये भी चाहते हैं कि राज्य विशेष में उनकी पार्टी के हितों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे और कांग्रेस इसके लिए त्याग करने में अपनी उदारता दिखाए। ममता बनर्जी ने तो कांग्रेस को यह खुलकर संकेत दे दिया है।

सच तो यह है कि विपक्षी दलों में कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते अब गेंद कांग्रेस के पाले में है। अब ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि आने वाले वक्त में वो कैसे 2024 चुनाव से पहले बीजेपी के सामने मजबूत चुनौती पेश करने के लिए बिखरे विपक्ष को कांग्रेस एक साथ कर पाती है।

अगर कांग्रेस सही रणनीति और थोड़ी उदारता के साथ इस चुनौती को स्वीकार कर लेते हैं, तो 2024  चुनाव में सबसे बड़ी ताकत बन सकती है।

कांग्रेस के साथ ही विपक्षी एकता की संभावना तलाशने के बीच जिन नेताओं का जिक्र ज्यादा हो रहा है, उनमें ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल, एम के स्टालिन और के चंद्रशेखर के साथ ही लेफ्ट दलों के नेता शामिल है। इनके अलावा मायावती, नवीन पटनायक जैसे नेता भी है जिनको विपक्ष के गठबंधन में शामिल करने की कोशिश होगी।

ये जितने भी नेता हैं, उनकी पार्टी की भले ही राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा जनाधार नहीं है, लेकिन राज्य विशेष में इनमें से कुछ पार्टी सबसे बड़ी ताकत हैं तो कुछ दलों का राज्य की सत्ता में नहीं रहने के बावजूद अच्छा-खासा प्रभाव है। 

फिलहाल पंजाब और दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को लेकर भी संशय बना ही रहेगा। इसका मुख्य कारण है कि केजरीवाल की पार्टी दिल्ली और पंजाब के साथ ही जिस तरह से धीरे-धीरे बाकी राज्यों में बढ़ रहा है, उसका आधार ही कांग्रेस के कमजोर होने पर टिका है। ऐसे में केजरीवाल कतई नहीं चाहेंगे कि विपक्षी एकता की मदद से कांग्रेस एक बार फिर अपना खोया हुआ ताकत प्राप्त कर ले

 महाराष्ट्र का सवाल है तो एनसीपी प्रमुख शरद पवार ही विपक्ष में एक ऐसा नेता हैं, जो शुरू से कहते आ रहे हैं कि 2024 में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी मोर्चा बनेगा, तभी सही मायने में उससे बीजेपी को चुनौती मिल सकती है। उद्धव ठाकरे की ओर से भी कांग्रेस के नेतृत्व पर कोई ज्यादा सवाल खड़ा नहीं होने वाला है। लोकसभा सीटों के लिहाज से महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर आने वाला राज्य है। यहां कुल 48 लोकसभा सीटें हैं। शरद पवार और उद्धव ठाकरे के रुख को देखते हुए महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिए सीट बंटवारे के गणित को साधने में ज्यादा परेशानी नहीं आने वाली है।

इसी तरह तमिलनाडु में भी कांग्रेस और डीएमके के बीच की जुगलबंदी पुरानी रही है और अभी भी स्टालिन की पार्टी के साथ मिलकर उनकी सरकार है, कांग्रेस उसका हिस्सा है. ऐसे भी यहां डीएमके का 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह का प्रदर्शन रहा है, उसको देखते हुए कांग्रेस 2024 में सीट को लेकर डीएमके से उलझने वाली नहीं है. 2019 के लोकसभा चुनाव में यहां की कुल 39 में से 38 सीटों पर डीएमके की अगुवाई वाले गठबंधन को जीत मिली थी, जिसमें डीएमके के खाते में 20 सीटें और कांग्रेस के खाते में 8 सीटें गई थी। वहीं 2021 के विधानसभा चुनाव में कुल 234 में से डीएमके को अकेले 133 सीटों पर और उसके सहयोगी कांग्रेस को 18 सीटों पर जीत मिली थी।

तमिलनाडु में 2019 में कांग्रेस 9 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी और डीएमके के साथ उसका जिस तरह का तालमेल है, इसकी पूरी संभावना है कि 2024 में भी सीटों को लेकर दोनों के बीच कोई समस्या पैदा नहीं होने वाली है। ये भी तय है कि देशव्यापी स्तर पर विपक्ष का गठबंधन बने या न बने, तमिलनाडु में कांग्रेस और डीएमके मिलकर ही चुनाव लडेंगे।

अब तेलंगाना की चर्चा पूर्व में भी कर चुका हूं यहां के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव बार-बार गैर-कांग्रेसी विपक्षी मोर्चा की बात ही करते रहे हैं। 

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत पर विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं ने इसके लिए कांग्रेस को बधाई दी और उनमें से कुछ नेताओं ने विपक्ष की लामबंदी में कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया। लेकिन बड़े नेताओं में एकमात्र केसीआर ही ऐसे नेता हैं, जिन्होंने कर्नाटक में कांग्रेस की जीत को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। 

उन्होंने तो इतना तक कह डाला कि कर्नाटक में कांग्रेस का चुनाव जीतना कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। पार्टी नेताओं के साथ बैठक में 17 मई को केसीआर ने कहा कि कांग्रेस ने कई दशकों तक शासन करने के बाद देश को सभी मोर्चों पर विफल कर दिया। उन्होंने कहा कि तेलंगाना में कांग्रेस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। 

साथ केसीआर ने अपने पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को कर्नाटक के नतीजों को बहुत गंभीरता से नहीं लेने की भी नसीहत दे डाली।

फिलहाल केसीआर का जो रुख है, उसके हिसाब से कांग्रेस की अगुवाई वाले किसी भी गठबंधन में उनकी भागीदारी नज़र नहीं आती है। लेकिन आने वाले कुछ महीनों में उनका रुख बदल सकता है. ये इस साल के आखिर में तेलंगाना में होने वाले विधानसभा चुनाव नतीजों पर बहुत हद तक निर्भर करेगा। अगर उसमें केसीआर अपनी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब होते हैं, तब तो उनकी सोच में ज्यादा बदलाव की संभावना नहीं है। 

लेकिन जिस तरह से बीजेपी पिछले कुछ सालों में तेलंगाना में अपना जनाधार धीरे-धीरे बढ़ाने में कामयाब हुई है, उसको देखते हुए अगर विधानसभा चुनाव में बीजेपी केसीआर को सत्ता से हटाने में कामयाब हो जाती है, तो शायद केसीआर का रुख 2024 के चुनाव को लेकर बदल सकता है। 

 ऐसे भी तेलंगाना में लोकसभा की 17 सीट ही है और थोड़ी-सी भी संभावना बनती है तो 2024 में केसीआर वहां कांग्रेस को एक या दो से ज्यादा सीटें नहीं दे सकते हैं।

कांग्रेस के लिए बिखरे विपक्ष को एक साथ करने में सबसे ज्यादा चुनौती 4 राज्यों पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और केरल में आने वाला है। पश्चिम बंगाल में 42, उत्तर प्रदेश में 80, बिहार में 40 और केरल में 20 लोकसभा सीटें हैं। 

 इन चारों राज्यों को मिला दें तो कुल सीटें 182 हो जाती हैं। जिस तरह का रुख ममता और अखिलेश यादव का है, ये दोनों ही 2024 में कांग्रेस के साथ तालमेल करने पर इसी शर्त पर राजी होंगे कि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बेहद कम या फिर कहें कि इक्का-दुक्का सीटों पर चुनाव लड़े।

ममता बनर्जी ने तो कर्नाटक नतीजों के बाद साफ ही कर दिया है कि अगर कांग्रेस चाहती है कि बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों का एक मजबूत गठबंधन बने तो उसके लिए कांग्रेस को कुछ राज्यों में कुर्बानी देनी होगी। जिन राज्यों का जिक्र ममता बनर्जी ने किया था, वे वहीं राज्य हैं, जिनका विवरण ऊपर दिया गया है। ममता बनर्जी के कहने का आशय है कि मौजूदा वक्त में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ ही लेफ्ट दलों का भी कोई ख़ास जनाधार नहीं रह गया है। 

2019 में तो कांग्रेस सिर्फ दो ही लोकसभा सीट जीत पाई थी और सीपीएम का तो खाता भी नहीं खुला था। वहीं इसके बाद मार्च-अप्रैल 2021 में हुए विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस और सीपीएम दोनों ही एक-एक सीट जीतने के लिए तरस गए थे।

ममता बनर्जी को ये एहसास हो गया है कि यहां बीजेपी विरोधी वोटों का बंटवारा टीएमसी, कांग्रेस-सीपीएम में होने पर सीधे सीधे नुकसान उनकी पार्टी को है और इसका लाभ उठाकर बीजेपी यहां सबसे ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब न हो जाए। इसलिए वो चाहती हैं कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल में 2024 में पूरी तरह से टीएमसी का साथ दे और इसके लिए कांग्रेस यहां को लेकर खुद के राजनीतिक मंसूबों के साथ समझौता कर ले।

अब ऐसे में ममता बनर्जी की पार्टी को साधने के लिए कांग्रेस को न सिर्फ़ खुद बलिदान देने के लिए तैयार रहना होगा। साथ ही लेफ्ट दलों को भी मनाना पड़ेगा कि पश्चिम बंगाल की ज्यादातर सीटों पर बीजेपी से सीधा मुकाबला टीएमसी का हो। 

कांग्रेस के लिए ये इतना आसान नहीं होगा। लेफ्ट दल ख़ासकर सीपीएम के लिए भी ये मानना बेहद मुश्किल है। भले ही सीपीएम पश्चिम बंगाल में 2019 आम चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव में कोई सीट नहीं जीती हो, लेकिन दोनों ही चुनाव में वोट शेयर के मामले में सीपीएम कांग्रेस से बेहतर स्थिति में थी। 

इसके साथ ही अब सीपीएम अगर पश्चिम बंगाल से भी मोह-माया त्याग देगी को भविष्य में उसकी राजनीति सिर्फ़ केरल तक ही सिमट कर रह जाएगी।

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जो केंद्र में सरकार बनाने के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण है। 2014 और 2019 दोनों ही आम चुनावों में बीजेपी की बड़ी जीत में उत्तर प्रदेश का काफी योगदान रहा था।

 2014 में जहां बीजेपी ने सहयोगियों के साथ मिलकर यहां की 80 में से 73 सीटों पर कब्जा किया था, वहीं 2019 में बीजेपी और सहयोगियों की सीटें 64 रही थी।

 उत्तर प्रदेश में 2014 में कांग्रेस को दो और 2019 में महज़ एक लोकसभा सीट पर जीत मिली थी। वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस को सिर्फ 7 सीटें और 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने पर महज़ दो सीटें मिली थी। 

2022 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर सिर्फ़ 2.33% रहा था. 2019 के लोकसभा चुनाव में ये आंकड़ा 6.36% था।

ऐसे में अगर विपक्षी गठबंधन में अखिलेश यादव को साथ लाना है तो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश का मोह-माया भी छोड़ना होगा। अखिलेश यादव चाहेंगे कि उनकी पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े। उनके पास कांग्रेस के साथ मिलकर 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ने का अनुभव उतना अच्छा नहीं रहा। वहीं 2022 में कांग्रेस के बिना विधानसभा चुनाव लड़ी तो समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन पिछली बार के मुकाबले काफी बेहतर रहा।

 समाजवादी पार्टी 64 सीटों के फायदे के साथ 111 विधानसभा सीटों पर जीतने में सफल रही। अखिलेश चाहेंगे कि 2024 में समाजवादी पार्टी यूपी की ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े और कांग्रेस की जो हालत है वो चंद सीटों पर अपनी दावेदारी जताए। 

इस तरह से पश्चिम बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बिखरे विपक्ष को साधने में सबसे ज्यादा पसीना बहाना होगा।

जहां तक बात रही बिहार की तो यहां कांग्रेस, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ सरकार में शामिल है। इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटों पर महागठबंधन की जीत को सुनिश्चित करने और बीजेपी को ज्यादा नुकसान पहुंचाने के नजरिए से न तो तेजस्वी और न ही नीतीश कांग्रेस को मनमुताबिक सीटें देने को राजी होंगे। 

पिछले विधानसभा चुनाव में मिले अनुभव को देखते हुए तेजस्वी ख़ासकर वो ग़लती नहीं दोहराना चाहेंगे। बिहार में भी उत्तर प्रदेश की तरह ही कांग्रेस की स्थिति उतनी मजबूत नहीं है. 2014 में यहां कांग्रेस को 2 और 2019 में महज़ एक लोकसभा सीट पर जीत मिली थी। 

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में आरजेडी के साथ गठबंधन के तहत कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें सिर्फ़ 19 पर उसे जीत मिली थी। वहीं आरजेडी 144 सीटों पर लड़कर 75 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी। उस वक्त नतीजों के बाद ये भी चर्चा का विषय था कि अगर तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को इतनी ज्यादा सीटें चुनाव लड़ने के लिए न दी होती तो शायद वहां बीजेपी-जेडीयू की बजाय महागठबंधन को बहुमत हासिल हो सकता था। 

इन सब पहलू और नीतीश की पार्टी की सीटों पर हिस्सेदारी को देखते हुए बिहार में 2024 में कांग्रेस को अपने पंजे समेट कर रखना पड़ेगा, अगर वो देशव्यापी विपक्षी गठबंधन चाहती है।

झारखंड में कांग्रेस को हेमंत सोरेन के साथ तालमेल बनाने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी, वहां कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा पहले से ही गठबंधन के तहत चुनाव लड़ते आए हैं। हालांकि फिलहाल झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार है, जिसमें कांग्रेस भी भागीदार है, लेकिन पिछले तीन लोकसभा चुनाव में साथ रहने के बावजूद कांग्रेस-जेएमएम कुछ ज्यादा हासिल नहीं कर पाए थे। 2009 में इस गठबंधन को झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से सिर्फ़ 3 पर जीत मिली थी। वहीं 2014 और 2019 में ये आंकड़ा और कम होकर सिर्फ 2 ही रहा था।

विपक्ष को एक जूट करने में केरल राज्य की भी अहम भूमिका है। केरल में 20 लोकसभा सीटें हैं. सबसे बड़ी समस्या है कि केरल में कांग्रेस और सीपीएम एक-दूसरे के विरोधी हैं और इस राज्य में राजनीति की धुरी कांग्रेस की अगुवाई वाली यूडीएफ और सीपीएम की अगुवाई वाली एलडीएफ के बीच मुकाबले के इर्द-गिर्द घूमती है।

केरल में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत फिलहाल लोकसभा चुनाव में जीत के नजरिए से नहीं के बराबर है। ऐसे भी सीपीएम के नजरिए से त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल खोने के बाद केरल एकमात्र राज्य है, जहां उसकी सत्ता है।

 अगर यहां देशव्यापी गठबंधन के लिए कांग्रेस और सीपीएम 2024 के लोकसभा चुनाव में हाथ मिला लेते हैं, तो ये एक तरह से केरल में बीजेपी को जनाधार बढ़ाने का मौका मिल जाएगा। न तो सीपीएम ऐसा चाहेगी और न ही कांग्रेस। सीपीएम की तो राजनीति ही दांव पर आ जाएगी। यानी केरल में कांग्रेस और सीपीएम पहले की तरह ही 2024 में भी एक दूसरे को चुनौती देंगे, ये करीब-करीब तय है।

ऊपर जिन राज्यों का जिक्र किया गया है, उनको छोड़कर विपक्षी गठबंधन के तहत जिन राज्यों में कांग्रेस के पास ज्यादा सीटों की दावेदारी बच जाती है, उनमें मोटे तौर पर बड़े राज्यों में राजस्थान की 25, गुजरात की 26, मध्य प्रदेश की 29, छत्तीसगढ़ की 11, ओडिशा की 21, असम की 14, तेलंगाना की 17, आंध्र प्रदेश की 25, कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटें बच जाती हैं। इनके अलावा हिमाचल प्रदेश की 4, उत्तराखंड की 5 और हरियाणा की 10 सीटें भी हैं, जहां विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस की दावेदारी ज्यादातर सीटों पर रह सकती है।

 इन 12 राज्यों में कुल 215 लोकसभा सीटें हैं। देश के अलग-अलग राज्यों में जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, उसको देखते हुए विपक्षी गठबंधन बनने पर सीट बंटवारे के फॉर्मूले के तहत कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा मुफीद राज्य यही होंगे और ममता बनर्जी भी अपने बयानों से यही संकेत देना चाहती होंगी।

सारे विश्लेषण के बाद यह कहा जा सकता है कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं है। न तो बिखरे विपक्ष को एक साथ लाने के मोर्चे पर और न ही खुद के कई बड़े राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करने के लिहाज से। 

इसके वावजूद कांग्रेस को सभी  विपक्ष को एक मंच पर लाने के लिए प्रयास करना होगा। जिससे 2024 में बीजेपी को चुनौती दिया जा सके।  

आज विपक्ष विकास, अर्थव्यवस्था, साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबंदी और वोटों का ध्रुवीकरण जैसे बाकी तमाम मुद्दों के साथ बिखरा हुआ है।जिसे एक साथ करना कठिन है,इसके वावजूद कांग्रेस के पास इस बार जिस तरह सभी राजनीतिक दल भाजपा से खफा हैं, इसके साथ केंद्र सरकार के कई चूक के कारण एक बहुत बड़ा आवादी नाराज चल रहे हैं कांग्रेस को इस से बेहतर मौका नही मिलेगा।

देश में चल रही मज़बूत विपक्ष की कवायद में मिलेगी कितनी सफलता,क्या हो पाएंगे क्षेत्रीय दल एकजूट...?


(विनोद आनंद)


आगामी 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को देखते हुए देश में यह कवायद चल रही है कि भाजपा विरोधी सभी क्षेत्रीय दल एकजूट हो जाएं और लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन को कड़ी चुनौती देकर नरेंद्र मोदी की सरकार को सत्ता से बे-दखल कर दें ।

 इसके लिए कुछ क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने पहल भी शुरू कर दी है। वे सभी क्षेत्रीय दलों से मिल रहे हैं । लेकिन इस पहल में कुछ राजनीतिक दलों की अपनी महत्वाकांक्षायें भी आड़े आ रही है , तो कुछ आगे की सोच रहे हैं। 

इस अभियान में कुछ महत्वाकांक्षी नेताओं ने अपने को पीएम चेहरा के रूप में भी प्रोजेक्ट करने में लगे हुए हैं ऐसे नेताओं में बिहार के नीतीश कुमार ,बंगाल के ममता बनर्जी,महाराष्ट्र के शरद पवार, तेलंगना के चंद्रशेखर राव और दिल्ली के अरबिंद केजरीवाल हैं।

 इसमें अरबिंद केजरीवाल,चंद्रशेखर राव और ममता बनर्जी चाहती है कि कांग्रेस भाजपा को अलग कर एक थर्ड फ्रंट बने। ताकि देश के पीएम बनने का उनका सपना पूरा हो और अपने प्रदेश में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ सीटों का बटवारा नही करना पड़े। 

ठीक है। इनकी अपनी हित और राजनीतिक लाभ के लिए यह सोचना वाजिब है, लेकिन क्या यह सवाल उठता है कि कांग्रेस के विना मज़बूत विपक्ष की कल्पना की जा सकती है...? क्या सभी क्षेत्रीय दल अपने अपने हित और अपनी महत्वकांक्षाओं के साथ एकजूट रह पाएंगे और अगर सरकार बनाने का मौका मिले तो पांच साल तक एकजूट रह पाएंगे।इस पर भी आत्मविश्लेषण करने की जरूरत है।

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है। लंबे समय तक उसने शासन किया है।उनके साथ आज भी कई ऐसे प्रशासनिक चेहरे हैं जिन्होंने अपने अपने विभाग में बेहतर प्रदर्शन किया।आज भी कई योजनाएं है जिसका भले ही नाम बदल दिया गया हो लेकिन नरेंद्र मोदी को उन योजनाओं को चलाना पड़ रहा है। इस लिए यह कहना कि कांग्रेस के पास कोई चेहरा नही है, जनता के बीच अब उनका वोट बैंक नही है और कांग्रेस को अलग कर हम एक थर्ड फ्रंट मजबूत विपक्ष बना लेंगे यह तत्काल मुश्किल दिख रहा है।

जहां तक लोकसभा चुनाव में 2014 के प्रदर्शन की बात करे तो 2014 से पूर्व लगातार सत्ता में रहते हुए कांग्रेस के अंदर की आत्मगुमान और एक के बाद एक गलत फैसले के कारण इस पार्टी को लोगों के आक्रोश का शिकार होना पड़ा, अन्ना आंदोलन,लोकपाल का मुद्द और कई प्रायोजित स्केम के कारण कांगेस लोगों के गुस्से के शिकार हुए। और सत्ता से बेदखल होना पड़ा। हालांकि लोकपाल का गठन , भ्रष्टाचार मुक्त शासन , कालाधन वापसी,और रोजगार तथा महंगाई से निजात दिलाने के नाम पर सत्ता में आई भाजपा की सरकार ने एक भी वायदा पूरा नही कर पाये यह अलग बात है जिस पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे। लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी का जादू चल पड़ा।और वे पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गये।

2014 के लोकसभा चुनाव में कूल 336 सीटें राजग के पक्ष में आये। इसमे भाजपा को अपना 282 सीट और उनके साथ के गठबंधन दल का बाकी का सीट था।

 अगर वोट के प्रतिशत की बात करें तो कूल वोट 66.38% मतदान हुआ जिसमें भाजपा के पक्ष में 31% मतदान हुआ जबकि एनडीए (राजग) के पक्ष में कूल वोट 38.5% रहा।

    उस समय माहौल कांगेस के विरोध में था इसी लिए मात्र 44 सीटों पर ही उसे संतोष करना पड़ा। जबकि कांग्रेस गठबंधन के साथ उसका कूल सीट 59 था।

2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने कई एजेंडे से देश की जनता के बीच अपनी स्थिति को और मजबूत कर ली। इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा के स्वयं का सीट 303 हो गया जबकि राजग गठबंधन का भाजपा को मिलाकर कूल सीट 353 हो गया।यह प्रदर्शन पहले से भी बेहतर था।

जबकि कांग्रेस के स्थिति में भी थोड़ी सुधार हुई। कांग्रेस का अपना सीट 52 रहा जबकि उनके गठबंधन दलों के साथ मिलाकर कूल सीटें 97 हो गयी। वोट प्रतिशत की बात करें तो 2019 में कुल मतदान 60.37% हुआ जिसमें भाजपा और उनके गठबंधन के पक्ष में 45% मतदान गया जबकि कांग्रेस गठबंधन के पक्ष में 26% रहा।

वर्तमान में देश के 29 राज्यों में से कांग्रेस गठबंधन का आज भी 7 राज्यों में सरकार है।जिसमे छत्तीसग़ढ,राजस्थान,हिमांचल और कर्नाटक में कांग्रेस का अपना सरकार है जबकि बिहार झारखंड, तमिलनाडु में गठबंधन दलों के साथ कांग्रेस की सरकार चल रही है। कांग्रेस के हाथ में महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सरकार थी लेकिन तोड़ फोड़ की राजनीति और राजनेताओं के स्वार्थ की राजनीति की भेंट चढ़ गई।

 वर्तमान में बीजेपी की 11 राज्यों में सरकार चल रही है। बांकी जगहों पर क्षेत्रीय दलों का शासन है।

  ऐसी स्थिति में विपक्षी एकता का क्या गणित होगा, और उसमें कौन बाधक और कौन सहयोगी बनेंगे इस पर हम अगले भाग में हम चर्चा करेंगे!

(क्रमश: शेष अगले एपिशोड में)

क्या सरकार रेल हादसा को रोकने के लिए गंभीर है..?अगर है तो एंटी कॉलिजन सिस्टम (कवच) के लिए आवंटन के बाद भी काम क्यों नही हुआ..?

उड़ीसा के बालासोर में एक साथ तीन ट्रेनों के टक्कर,सैकड़ों लोगों की मौत,हज़ारों घायल के बाद देश दहल गया है। इसके बाद भी कई और छोटी रेल दुर्घटनाएं हो रही है तो कुछ लोको पायलट की सतर्कता के कारण टल रही है।

  

आज मोदी सरकार के उन्नत टेक्नोलॉजी का दावा ,बुलेट ट्रेन का सपना और विश्व के विकसित देशों को टक्कर देने के दिशा में आगे बढ़ रहे नए भारत के सामने यह दुर्घटना कई बड़े सवाल खड़े कर दिया है ।जिसका जवाब सरकार को देना चाहिए।

इस बड़ी हादसा के लिए जिम्मेदार कौन है ..? इसे भी जनता के सामने लाने की ज़रूरत हो गयी है । साथ हीं देश के पूरे सिस्टम और सभी मंत्रालय के काम पर किनका कमांड है।और किनके निर्देशों पर सारे काम हो रहे हैं इस बात को भी सार्वजनिक करने की जरूरत है।

 क्योंकि इस तरह के हादसे में किसकी लापरवाही है यह तय करने के लिए यह बहुत जरूरी है।आज रेल भारत का सबसे बड़ा तंत्र है जिसमे रेल मंत्री को बहुत बड़ी बनती है।वर्तमान रेल मंत्री प्रशासनिक अधिकारी रहे हैं इस लिए इस मंत्रालय के काम को गंभीरता के साथ लेते हुए इन कमियों को दूर करनी चाहिए,लेकिन ऐसा नही हो पा रहा है।आज जहां-तहां से सिग्नल सिस्टम में गड़बड़ी आ रही है लगातार रेल पटरी से उतर रही है तो गलत ट्रैक पर चली जा रही है ,ऐसा क्यों हो रहा है यह बहुत गंभीर प्रश्न है।जिसपर सरकार को सोचना भी चाहिए और साथ में इस व्यवस्था में सुधार के लिए सरकार क्या करने जा रही है इस पर भी अपनी कार्ययोजना जनता के सामने लाना चाहिए ताकि लोग भरोसे के साथ रेल यात्रा कर सके।

वैसे इस दुर्घटना के बाद पीएम मोदी और रेल मंत्री ने कहा था कि अभी तो इस घटना में घायल यात्रियों की इलाज और उनकी जान बचाना प्राथमिकता है,लेकिन इस हादसे के लिए जो भी जिम्मेवार होगा जांच के बाद उसे भी नही छोड़ा जाएगा।

ठीक है सरकार इस वायदे पर खड़े उतरे इसके लिए पहले दोषी की पहचान हो कि लापरवाही कहाँ से हो रही है।इसके बाद कार्रवाई हो ना कि किसी को भी इस मामले में बलि का बकरा नही बनाया जाय।

 रेल भारत का एक ऐसा सरकारी प्रतिष्ठान है जिस पर सफर करने में देश की जनता पूरा भरोसा करती है।इस उम्मीद और भरोसे के साथ कि यह सबसे ज्यादा सुरक्षित है। 

लेकिन इस तरह के हादसा के बाद लोगों का विश्वास डोलने लगा है। इधर कुछ वर्षों में सरकार लगातार निजीकरण के दिशा में आगे बढ़ने, सभी सरकारी संस्थानों को निजी हाथों में सौपने की होड़ में इतना उलझ गई है कि इन भरोसेमंद संस्थानों के विकास और तकनीकी तौर पर उसे मज़बूत करने के दिशा में कोई कदम ही नही उठा पा रही है।

यह इस लिए भी कहा जा सकता है कि इस तरह की घटना के संकेत रेलवे के एक वरिष्ठ अधिकारी ने 3 साल पहले दे दिया था।लेकिन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी ने इसे पूरी तरह अनदेखा कर दिया। इन दिनों सोशल मीडिया में उस रेलवे अधिकारी का पत्र वॉयरल हो रहा है जिसमे रेलवे के वरिष्ठ अधिकारी और दक्षिण पश्चिम रेलवे के चीफ ऑपरेशनल मैनजर हरिशंकर वर्मा ने रेलवे वोर्ड को पत्र लिखकर इंटरलॉकिंग सिस्टम में छेड़ छाड़, और गड़बड़ी बताते हुये बोर्ड को इस तरह के हादसा होने का आगाह किया था।क्योंकि उस समय भी बंगलुरु-दिल्ली सम्पर्क क्रांति एक्सप्रेस को मेन लाइन का सिग्नल देने के बाद भी गलत ट्रैक पर चला गया था।लेकिन लोको पायलट की सतर्कता के कारण हादसा टल गया।लेकिन बोर्ड की चुपी और लापरवाही के कारण फिर बालासोर में यही हुआ।एक ही ट्रैक पर तीन गाड़ी आ गयी और टकरा कर इतनी बड़ी हादसा हो गया।

   इस तरह के हादसा में दोष तो बोर्ड के अधिकारी और मंत्रालय के होते हैं लेकिन चार्जसीट स्टेशन मास्टर, लोको पायलट और अन्य अधिकारी को मिलता है। चाहे वर्ष 2014 मे हुए गोरखधाम एक्सप्रेस का चुरेब का हादसा हो या न्यू फरक्का की दुर्घटना हो सभी दुर्घटना के कारण फूल प्रूफ सिग्नल व्यवस्था की कमी बताई गई है लेकिन जब दुर्घटानाएँ होती है तो इस पर चर्चा होती है।मंत्री से लेकर अधिकारी तक इस पर कार्रवाई की बात करते हैं लेकिन इस व्यवस्था को सुधारने और मजबूत करने में उनकी लापरवाही ज्यों की त्यों बनी रहती है।

दुख तो इस बात की है कि इस तरह की दुर्घटनाओं को रोकने के लिए फंड नही मिलता और मिलता है तो खर्च नही किया जाता है। इसका जिम्मेबार कौन है ? उसकी भी पहचान हो और इसमें लापरवाही बरतने वाले लोगों पर कार्रवाई भी हो।

  अभी ओडिसा रेल दुर्घटना के बाद दो बातों पर ज्यादा चर्चा हो रही है।एक तो सिग्नल और इंटरलॉकिंग व्यवस्था का फुलप्रूफ व्यबस्था की कमी और इसके लिए स्टाफ की कमी और दूसरा ट्रेन हादसा रोकने के लिए एंटी कॉलिजन सिस्टम(कवच) व्यवस्था के प्रति रेलवे बोर्ड की उदासीनता। कवच व्यवस्था को लेकर सरकार ने 2021 में दावा किया था कि एक ऐसा तकनीकी विकसित हो गया कि अगर रेल कभी भी गलत ट्रैक पर चला जायेगा तो कवच के कारण ट्रेन खुद रुक जाएगा और गड़बड़ी का पता चल जाएगा जिस से दुर्घटनायें रुक जाएगी।लेकिन कवच के लिए राशि आवंटित होने के बाद भी काम शुरू नही हुआ।

एक मीडिया हाउस के वित्तीय आंकड़ों की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट से जो जानकारी सामने आई है उसके अनुसार दक्षिण पूर्व क्षेत्रीय रेलवे जहां बालासोर ट्रेन हादसा हुआ, वहां के लिए एंटी कॉलिजन सिस्टम (कवच) के लिए राशि भी आवंटित की गई थी लेकिन उसे खर्च नहीं किया गया ना कवच लगाया गया।

दक्षिण पूर्व रेलवे के लिए कवच व्यवस्था को लागू करने के लिये 468.90 करोड़ रुपये की मंजूरी दी गई थी। जिसमे रेलवे नेटवर्क (1563 आरकेएम) पर स्वदेशी ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली (कवच) के लिए यह पैसा खर्च करने का प्रावधान था लेकिन मार्च 2022 में इसमें से एक रुपया भी खर्च नहीं किया गया।

 इसी तरह इसी जोन के एक अन्य सेक्टर में दक्षिण पूर्व रेलवे में ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली (1563 आरकेएम) (2020-21 होने वाले कार्य) में कम कम आवाजाही वाले रेलवे नेटवर्क पर दीर्घकालिक विकास प्रणाली के लिए लगभग 312 करोड़ रुपये स्वीकृत किए गए थे लेकिन मार्च 2022 तक कोई पैसा खर्च नहीं किया गया और न ही 2022-23 के लिए परिव्यय में इसे लिया गया।

इसी तरह हेडर सिगनलिंग एवं टेलीकम्युनिकेशन के तहत दक्षिण पूर्व रेलवे के लिए 208 करोड़ की स्वीकृत दी गई थी।यह पैसा सबसे ज्यादा अवाजाही वाले रेलवे के रूट पर स्वचालित ब्लॉक सिगनलिंग, केंद्रीकृत यातायात नियंत्रण और ट्रेन टक्कर बचाव प्रणाली ( 2021-22 ) के लिए खर्च होना था लेकिन आज तक कोई पैसा खर्चा नहीं किया गया।

इस मामले में रेल मंत्रालय का बहाना है कि यह बजट इसलिए खर्च नहीं हुआ क्योंकि इस क्षेत्र में अभी तक सुरक्षा कार्यों के लिए कोई टेंडर हीं नहीं निकाले गए। डेटा का विश्लेषण 2023-24 के लिए सरकार के अपने बजट दस्तावेजों से किया गया है। लेकिन इन निष्क्रिय निधियों की स्थिति से पता चलता है कि भारत में सबसे अधिक आवाजाही वाले रेल नेटवर्क में एंटी कॉलिजन सिस्टम (कवच) को लागू करने की प्रक्रिया में बोर्ड की जिस तरह शिथिलता है उसमें काफी समय लग सकता है।

इस कार्य के लिए अनुसंधान डिजाइन और मानक संगठन (आरडीएसओ) ने तीन फर्मों- मेधा सर्वो ड्राइव्स, एचबीएल और केर्नेक्स को भारत में कवच उपकरण प्रदान करने के लिए मंजूरी दी है। बताया जा रहा है कि दो और कंपनियां इस पर काम कर रही हैं।लेकिन इसके वावजूद इस काम के लिए आवंटित निधि को भी खर्च करने और इस काम को जल्द कर इस तरह के हादसा के लिए रेल मंत्रालय,केंद्र सरकार कितना सजग है यह इस बात पर निर्भर करता है कि सरकार के कार्य प्रणाली और इस हादसा के प्रति उनकी सजगता कितना गंभीर है।

 रेलवे बोर्ड अगर सजग होती,रेल मंत्रालय को अगर रेल पर सफर करने वाले यात्रियों की सुरक्षा की चिंता होती तो टेंडर भी निकल गया होता आवंटित राशि से कवच सिस्टम भी लागू हो जाती,और बालासोर दुर्घटना भी नही होती और लगभग 300 लोगों की जिंदगी भी बच जाती।अब सरकार को यह तय करना पड़ेगा कि सुरक्षा व्यवस्था के लिए आवंटित राशि को खर्च नही किये जाने के लिए जिम्मेबार कौन है ?सुरक्षा के लिए कमी कर्मचारियों को बहाल करने में किनकी लापरवाही है..?और इस हादसा का वजह क्या है..?इसका मंथन कर कार्रवाई हो।

साथ हीं यह सवाल उठने लगा है कि जब एंटी कॉलिजन सिस्टम के लिए पैसा आवंटित किए जाने के बाद भी काम नही हुआ है तो किया सरकार यह स्पष्ट करेगी कि यात्री की सुरक्षा और ट्रेन हादसा को रोकने के लिए सरकार कितना गंभीर है और कबच सिस्टम कब तक दुरुस्त करेगी।

बिहार दिवस पर विशेष:-संघर्ष के बाद बना था बिहार अलग प्रान्त,पर क्या हम बिहारियत की पहचान और अपनी विरासत को संभाल पाए हैं आज भी...?

(विनोद आंनद)


आज बिहार दिवस है ! वह बिहार जिसकी विरासत और प्राचीन परम्पराएं देश ही नही दुनिया के लिए एक अद्भुत और अविस्मणीय था। जो सम्पूर्ण आर्यावर्त के शासन का केंद्र विंदु था....। जो गौतम बुद्ध और बर्धमान महाबीर की धरती थी.....,जहां लिच्छवी गणराज्य के रूप में दुनिया का पहला लोकतंत्र का इज़ाद हुआ....। जहां नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविधालय थे....। आर्यभट्ट,नागार्जुन ,चाणक्य और अनगिनत ऐसे महापुरुष जिसकी बौद्धिक क्षमता और विद्वता ने पूरी दुनिया को एक दिशा दिया। उस बिहार की धरती को सदियों से दमित किया गया।उत्पीड़ित किया गया और कालांतर में यहां आक्रांताओं ने हमारी पहचान हमारे अस्तित्व को रौंदा और हम पिछड़ते गए। हमारी बिहारियत और हमारे अस्तित्व को खत्म करने में मुस्लिम शासक से लेकर ब्रिटिश हुकूमत तक ने कोई कोर कसर नही छोड़ा।और जो पाटलिपुत्र शासन के केंद्र था अंग्रेज ने उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया था। हमारा प्रान्त बंगाल का एक छोटा सा हिस्सा मात्र रह गया था।उपेक्षा और अपने बिहारियत के अस्तित्व को लेकर संगर्ष करता प्रान्त...! जिसको काफी संघर्ष के बाद हमने हासिल किया,पर क्या जिस सोच और बिहारियत कि पहचान को लेकर हमने अपने पूर्वजों की संघर्ष के बाद जिस बिहार को आज से 111 साल पहले पुनः हासिल किया उसे बरकारार रख पाए है हम. ! ये एक सवाल है हमारे सामने ।

 बिहारियत की पहचान और अस्तित्व की रक्षा के लिए आज से 111 साल पहले काफी संघर्ष के बाद बिहार को बंगाल से अलग कर 22 मार्च 1912 में अलग राज्य की स्थापना की गई क्या हम आज उस बिहारियत की पहचान बनाकर रख पाए। यह एक सवाल आज भी फिजा में गुंजायमान हो रहा है।

अगर हम बिहार को अस्तित्व में आने की बात करें तो ब्रिटिश शासन के दौरान 1912 के पहले बिहार -बंगाल एक सयुंक्त प्रान्त था।1765 में पलासी युद्ध के बाद पटना की प्रशासनिक पहचान ही मिट गई थी ।यह क्षेत्र एक मात्र भौगोलिक इकाई बनकर रह गया। अगले सौ साल तक तो बिहार की सांस्कृतिक पहचान तो रही लेकिन प्रांतीय और प्रशासनिक पहचान मिट गई।

सबसे पहले 1870 में मुंगेर से निकलने वाले उर्दू अख़बार ने 'बिहार विहारियों के लिए' नारा देकर इस मुद्दा को उठाया।उसके बाद 1894 में बिहार टाइम्स और बिहार बंधु के सम्पादक केशव भट्ट ने इसे बौद्धिक आंदोलन का रुप देते हुए इस मांग को आगे बढ़ाया। इस तरह अलग बिहार को लेकर संघर्ष बढ़ता गया और बिहार अलग प्रान्त को लेकर आवाज उठने लगी। 

 इसका कारण था।बिहार का लगातार उपेक्षा,बिहारियों को उनके अधिकार से वंचित रखना, प्रभवशाली पदों पर बंगालियों का बर्चस्व बने रहना,यहां के स्थानीय जमींदारों को महत्व नही दिया जाना ,इसके अलावे और कई कारण थे जिसके कारण अलग बिहार प्रान्त की मांग उठती रही

सच्चिदानंद सिन्हा

1900 ईसवी के बाद सच्चिदानंद सिन्हा ने बिहारी शब्द और बिहारियत कि पहचान को लेकर आंदोलन शुरु किया।जिसे बिहार में बंगाली विरोधी आंदोलन के रूप में इसे देख गया। इस दौरान कई विद्वानों ने बिहार के पिछड़ेपन का कारण बंगाल का अंग बने रहना बताया गया। ऐसे विद्वानों में एल एस एस ओ मौली और बीसीपी चौधरी जैसे विद्वान और जानकार लोग थे जिन्होंने स्वीकार किया कि बिहार के पिछड़ेपन का कारण बंगाल का हिस्सा बने रहना बताया गया। 

उस समय बंगाली समुदाय का दबदबा हर प्रशासनिक पदों पर था। बिहार के प्रति अंग्रेज अधिकारी भी लापरवाह दिखे।यहां उधोग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय, और सामाजिक क्षेत्रों में भी पिछड़ापन रहा।उस समय सरकारी कार्यालय से लेकर हर जगह बंगलियों का कब्जा था। जिसके कारण स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना संभव नहीं था। 

स्कूल से लेकर अदालत और सरकारी दफ्तरों में नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व बना हुआ हुआ था।बिहारियों को दोयम दर्जे की नागरिक बना दी गयी थी।

 बिहार बन्धु ने तो यहां तक लिख दिया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियां खा रहे हैं, जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं। सरकारी मत भी यही था कि बंगाली बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं ।

1872 में, तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा कि हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है।

सच तो यह था कि नौकरियों में बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार लेते थे, बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में

एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार से बंगाल को एक तिहाई राजस्व देने के बाद भी यहां सुविधाएं नदारद थी। उस समय बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख थी जो पूरे बंगाल का एक तिहाई राजस्व देते थे। बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से बिहारी सिर्फ 3 थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे। कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था। बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कल-कारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) । 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी।

 इस तरह बिहार की उपेक्षा और पिछड़ापन को लेकर आक्रोश बढ़ता गया। और अंततः सच्चिदानंद सिन्हा सरीखे कुछ युवाओं के निर्णायक लडाई के कारण और इस लड़ाई को कांग्रेस का समर्थन मिल जाने के कारण बिहार प्रान्त बंगाल से अलग होकर 22 मार्च 1912 में अस्तित्व में आयाक्रमश:(शेष अगले अंक में...)

थी।