बिहार दिवस पर विशेष:-संघर्ष के बाद बना था बिहार अलग प्रान्त,पर क्या हम बिहारियत की पहचान और अपनी विरासत को संभाल पाए हैं आज भी...?
(विनोद आंनद)
आज बिहार दिवस है ! वह बिहार जिसकी विरासत और प्राचीन परम्पराएं देश ही नही दुनिया के लिए एक अद्भुत और अविस्मणीय था। जो सम्पूर्ण आर्यावर्त के शासन का केंद्र विंदु था....। जो गौतम बुद्ध और बर्धमान महाबीर की धरती थी.....,जहां लिच्छवी गणराज्य के रूप में दुनिया का पहला लोकतंत्र का इज़ाद हुआ....। जहां नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविधालय थे....। आर्यभट्ट,नागार्जुन ,चाणक्य और अनगिनत ऐसे महापुरुष जिसकी बौद्धिक क्षमता और विद्वता ने पूरी दुनिया को एक दिशा दिया। उस बिहार की धरती को सदियों से दमित किया गया।उत्पीड़ित किया गया और कालांतर में यहां आक्रांताओं ने हमारी पहचान हमारे अस्तित्व को रौंदा और हम पिछड़ते गए। हमारी बिहारियत और हमारे अस्तित्व को खत्म करने में मुस्लिम शासक से लेकर ब्रिटिश हुकूमत तक ने कोई कोर कसर नही छोड़ा।और जो पाटलिपुत्र शासन के केंद्र था अंग्रेज ने उसके अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया था। हमारा प्रान्त बंगाल का एक छोटा सा हिस्सा मात्र रह गया था।उपेक्षा और अपने बिहारियत के अस्तित्व को लेकर संगर्ष करता प्रान्त...! जिसको काफी संघर्ष के बाद हमने हासिल किया,पर क्या जिस सोच और बिहारियत कि पहचान को लेकर हमने अपने पूर्वजों की संघर्ष के बाद जिस बिहार को आज से 111 साल पहले पुनः हासिल किया उसे बरकारार रख पाए है हम. ! ये एक सवाल है हमारे सामने ।
बिहारियत की पहचान और अस्तित्व की रक्षा के लिए आज से 111 साल पहले काफी संघर्ष के बाद बिहार को बंगाल से अलग कर 22 मार्च 1912 में अलग राज्य की स्थापना की गई क्या हम आज उस बिहारियत की पहचान बनाकर रख पाए। यह एक सवाल आज भी फिजा में गुंजायमान हो रहा है।
अगर हम बिहार को अस्तित्व में आने की बात करें तो ब्रिटिश शासन के दौरान 1912 के पहले बिहार -बंगाल एक सयुंक्त प्रान्त था।1765 में पलासी युद्ध के बाद पटना की प्रशासनिक पहचान ही मिट गई थी ।यह क्षेत्र एक मात्र भौगोलिक इकाई बनकर रह गया। अगले सौ साल तक तो बिहार की सांस्कृतिक पहचान तो रही लेकिन प्रांतीय और प्रशासनिक पहचान मिट गई।
सबसे पहले 1870 में मुंगेर से निकलने वाले उर्दू अख़बार ने 'बिहार विहारियों के लिए' नारा देकर इस मुद्दा को उठाया।उसके बाद 1894 में बिहार टाइम्स और बिहार बंधु के सम्पादक केशव भट्ट ने इसे बौद्धिक आंदोलन का रुप देते हुए इस मांग को आगे बढ़ाया। इस तरह अलग बिहार को लेकर संघर्ष बढ़ता गया और बिहार अलग प्रान्त को लेकर आवाज उठने लगी।
इसका कारण था।बिहार का लगातार उपेक्षा,बिहारियों को उनके अधिकार से वंचित रखना, प्रभवशाली पदों पर बंगालियों का बर्चस्व बने रहना,यहां के स्थानीय जमींदारों को महत्व नही दिया जाना ,इसके अलावे और कई कारण थे जिसके कारण अलग बिहार प्रान्त की मांग उठती रही
सच्चिदानंद सिन्हा
1900 ईसवी के बाद सच्चिदानंद सिन्हा ने बिहारी शब्द और बिहारियत कि पहचान को लेकर आंदोलन शुरु किया।जिसे बिहार में बंगाली विरोधी आंदोलन के रूप में इसे देख गया। इस दौरान कई विद्वानों ने बिहार के पिछड़ेपन का कारण बंगाल का अंग बने रहना बताया गया। ऐसे विद्वानों में एल एस एस ओ मौली और बीसीपी चौधरी जैसे विद्वान और जानकार लोग थे जिन्होंने स्वीकार किया कि बिहार के पिछड़ेपन का कारण बंगाल का हिस्सा बने रहना बताया गया।
उस समय बंगाली समुदाय का दबदबा हर प्रशासनिक पदों पर था। बिहार के प्रति अंग्रेज अधिकारी भी लापरवाह दिखे।यहां उधोग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय, और सामाजिक क्षेत्रों में भी पिछड़ापन रहा।उस समय सरकारी कार्यालय से लेकर हर जगह बंगलियों का कब्जा था। जिसके कारण स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना संभव नहीं था।
स्कूल से लेकर अदालत और सरकारी दफ्तरों में नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व बना हुआ हुआ था।बिहारियों को दोयम दर्जे की नागरिक बना दी गयी थी।
बिहार बन्धु ने तो यहां तक लिख दिया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियां खा रहे हैं, जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं। सरकारी मत भी यही था कि बंगाली बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं ।
1872 में, तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा कि हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है।
सच तो यह था कि नौकरियों में बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार लेते थे, बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में
एक रिपोर्ट के अनुसार बिहार से बंगाल को एक तिहाई राजस्व देने के बाद भी यहां सुविधाएं नदारद थी। उस समय बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख थी जो पूरे बंगाल का एक तिहाई राजस्व देते थे। बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से बिहारी सिर्फ 3 थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे। कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था। बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कल-कारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) । 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी।
इस तरह बिहार की उपेक्षा और पिछड़ापन को लेकर आक्रोश बढ़ता गया। और अंततः सच्चिदानंद सिन्हा सरीखे कुछ युवाओं के निर्णायक लडाई के कारण और इस लड़ाई को कांग्रेस का समर्थन मिल जाने के कारण बिहार प्रान्त बंगाल से अलग होकर 22 मार्च 1912 में अस्तित्व में आयाक्रमशशेष अगले अंक में...)
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Jun 09 2023, 10:40