मजदूर दिवस विशेष : धनबाद यहां मजदूरों के कंधों पर चलती हैं दबंगों की दुकानें
धनबाद। विश्व पटल पर अपनी पहचान रखने वाला देश की कोयला राजधानी धनबाद के लिए वही कोयला अब मानो अभिशाप बन गया हो। यह सुनने में थोड़ा अटपटा जरूर लगे पर वर्तमान समय में काले नगरी का कड़वा सच भी सम्मुख है। 1972 में कोलियरियों के राष्ट्रीयकरण होने के बाद लोगों को ऐसा लगा था की बस अब कोयलांचल का सारा दुःख दर्द खत्म हो गया लेकिन उस समय से अब तक कोयलांचलवासी आज तक अच्छे दिन के इन्तजार में पलकें बिछाए अब तक अपनी बेबसी को सिर्फ उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं।
मुद्दा कुछ भी हो छले गए सिर्फ यहां के लोग। और विशेषकर असंगठित मजदूर। चाहे कोयला राजधानी धनबाद में काले हीरे पर वर्चस्व को लेकर खूनी संघर्ष की बात हो, या फिर मजदूरों के मुंह मे जाने वाले निवाले की लेकिन इन सब के बीच पिसते है सिर्फ और सिर्फ मजदूर ही। 2005 के बाद इस काले हीरे के लिए खून से लाल होती धरती पर एक नया अध्याय जुड़ गया जो कि अब अवैध कमाई का मुख्य बाजार बन गया है।
यूं तो बीसीसीएल ने राष्ट्रीयकरण के बाद से ही अपने दम पर 100 से ज्यादा अंडरग्राउंड खदानों से कोयले का उत्पादन कर देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन खदानों के गैर मशीनीकरण, व्यापार, संघवाद में बेतहाशा बृद्धि एंव कोयला उत्पादन प्रक्रिया के खर्च में लगातार वृद्धि सहित कई कारणों से 1990 के दशक की शुरुआत से ही बीसीसीएल को घाटे का सामना करना पड़ा और इस घाटे की खाई वर्ष दर वर्ष बढ़ती रही। बीसीसीएल के पूर्व सीएमडी एस भट्टाचार्य के कार्यकाल के दौरान बीसीसीएल के बिगड़ते हुए आर्थिक स्वास्थ्य को सुधारने के लिए कई ठोस कदम उठाए गए इसी क्रम में कोयले की ई नीलामी प्रक्रिया भी शुरू हुई साथ-साथ 2005 में बीसीसीएल के कोयला खदानों को ओपेनकास्ट कर निजी कंपनियों द्वारा कोयले का उत्पादन करवाने का भी निर्णय लिया गया।
निश्चित तौर पर ये निर्णय पूरे बीसीसीएल को घाटे से उबारने के लिए मील का पत्थर साबित हुआ लेकिन इसके साइड इफेक्ट की शुरूआत यही से हो चुकी थी कोयला उत्पादन करने वाली निजी कंपनियों पर अलग-अलग गुटों के द्वारा अपना वर्चस्व कायम करने के लिए समय-समय पर खूनी संघर्ष की दास्ताँ बन गई।
इस निर्णय के बाद बीसीसीएल के स्वास्थ्य में तो पूरी तरह सुधार हो गयी कंपनी मिनीरत्न से महारत्न के दौड में पहुंच गई पर धनबाद कई रोगों से ग्रसित होकर आज के समय मे कराह रहा है।
क्यों और कैसे होती है यह वर्चस्व की जंग
बताया जाता है की जब भी कोई नई उत्खनन परियोजना की शुरुआत होती है, दबंग व राजनीतिक पहुंच रखने वाले लोग पहले छोटे छोटे कुनबे बना कर निजी कंपनी पर स्थानीय लोगों को रोजगार दिलाने के नाम पर धरना प्रदर्शन कर प्रेशर की राजनीति शुरू करते हैं। फिर वार्ता कर अपने अपने लोगों की परियोजना में बहाली करवाते हैं और यहीं से शुरू होता वर्चस्व का जंग। कोयलांचल के बड़े बड़े राजनीतिक पंडितों का आशीर्वाद प्राप्त किये लोग मजदूरों को उनके निवाले पर पहले लड़वाते हैं फिर भी बात नही बनी तो खूनी संघर्ष की जमीन तैयार।
दूसरे हिसाब से देखा जाए तो इस खेल में सबसे ज्यादा इस्तेमाल होते हैं असंगठित मजदूर। जी हां वही असंगठित मजदुर जो दिन भर जिले के विभिन्न कोयला लोडिंग पॉइंट में पूरा दिन ट्रकों पर कोयला लोड कर अपने परिवार की जीविका चलाते हैं। अगर एक दिन काम न मिले तो घर मे चूल्हा न जले। इसी का फायदा उठा कर अपने आकाओं को फायदा पहुंचाने के लिए यह छोटे छोटे गैंग पहले मजदूरों को लड़वाते हैं फिर इन्हें काम दिलाने के नाम प्रबंधन से वार्ता कर वाहवाही लूट असंगठित मजदूरों की कमाई का एक मोटा हिस्सा अपने नाम करते हैं। इन्हीं हिस्सों के कुछ भाग अपने आकाओं को भेंट कर उन्हें खुश रखते हैं। इस काम का एवज में इन छोटे छोटे गैंगों को अपने आकाओं से हर प्रकार का संरक्षण प्राप्त होता है।
May 02 2023, 11:51