नवरात्र में प्रकाशित हुआ डॉ विद्यासागर उपाध्याय का दार्शनिक ग्रंथ 'अथातो मृत्यु जिज्ञासा'
संजीव सिंहबलिया।
नवरात्र के अवसर पर प्रबुद्ध दर्शन शास्त्री डॉ विद्यासागर उपाध्याय की नवीन ग्रंथ अथातो मृत्यु जिज्ञासा के प्रकाशन से बुद्धिजीवी समाज में हर्ष व्याप्त है। पुस्तक पर चर्चा करते हुए डॉ उपाध्याय ने बताया कि सोचिए , जब आप मधुर संगीत सुनते हैं,,आनंद आता है, तो आँखें धीरे - धीरे बंद होने लगती हैं।कभी भी जब आनन्द आता है तो आँखें बंद होती हैं।लेकिन जब परमानन्द आता है तो आँखें सदैव के लिए बन्द हो जाती हैं। मृत्यु परमानंद है ऐसा मेरा मत है।मृत्यु कैसी है इसे जानने के लिए मरना होगा और जो मर गया वो अपना अनुभव बताने आज तक नहीं आया।फिर करें तो क्या करें। ऐसी दशा में हम दर्शन का आश्रय लेते हैं। ज्ञान,भक्ति,कर्म,सेवा,गुरु,संन्यास इत्यादि से हम परम सत्य को जानना चाहते हैं।अभी कुम्भ मेले में एक आईआईटीयन बाबा को देखकर भारत-देश की जनता विस्मय-विमुग्ध हो गई। इन्होंने इससे पहले कोई शिक्षित संन्यासी नहीं देखा था?व्यास से लेकर कृष्ण तक, आदि गुरु शंकराचार्य से लेकर महावीर तक, महर्षि अरविन्द - सभी उच्च-शिक्षित थे।कृष्णमूर्ति, रजनीश, अरविन्द, चिन्मयानंद सभी उच्च शिक्षित।वास्तव में, अत्यन्त मेधावी होना संन्यासी होने की पहली शर्त है।जबसे मनुष्य जाति के अंदर चिंतन की योग्यता आयी हुई तबसे वो शंका में है।हर वस्तु और विचार को तर्क की कसौटी पर कसने हेतु व्याकुल है।उसकी सबसे बड़ी जिज्ञासा है कि मृत्यु क्या है?जीवन क्या है?सृष्टि कैसे हुई है?इसका रचनाकार कैसा है?इसी जिज्ञासा ने अनेक दार्शनिक,विचारक,चिंतक,पैगम्बर,अवतार उत्पन्न किए हैं।किसी ने कहा ईश्वर है,किसी ने ईश्वर के अस्तित्व को नकार दिया।किसी ने कहा सृष्टि ईश्वर की रचना है तो किसी ने इसे प्रकृति के नियमों के अधीन माना।हजारों विचारधाराओं के टकराव के बावजूद सबने स्वीकार किया कि अंतिम सत्य तो मृत्यु ही है।संसार में किसी की गारंटी नहीं है लेकिन मृत्यु की गारंटी है।मृत्यु आनी ही है।आप रोए,चिल्लाए, स्वयं की खूब सुरक्षित करें लेकिन मृत्यु आएगी जरूर।दुर्भाग्य से जिस दिन शरीर छूट जाता है उसी को लोग मृत्यु समझते है लेकिन सच तो ये है कि जिस क्षण आपका जन्म हुआ उसी दिन से मृत्यु का आरंभ हो गया।एक - एक क्षण आप एक्सपायर हो रहे हैं अर्थात मर रहे है।जन्म दिन पर मोमबत्ती बुझाते है अर्थात आपकी एक वर्ष की जीवन ज्योति बुझ गई।अगले साल एक और दीपक बुझेगा।एक दिन अंतिम दीपक भी बुझ जाएगा। हर व्यक्ति मृत्यु से भयभीत होता है। श्मशान घाट पर बैठा हर व्यक्ति घबराने लगता है।किसी असाध्य रोग की सूचना मिलते ही खून सूखने लगता है।यह भय बड़ा भयानक है।क्यों ना इस भय को मार डाला जाय।आप जानते है कि किसी विषय से आप जितना डरते है वो उतना ही डराता है।इस ग्रन्थ के प्रणयन का एकमात्र उद्देश्य है मनुष्य जाति से मृत्यु का भय समाप्त करना ।उसे बताना कि मृत्यु एक साधारण घटना मात्र है।मृत्यु नए जीवन का प्रवेश द्वार है।नया जन्म,नया शरीर,नई उमंग के लिए मृत्यु एक सामान्य प्रक्रिया है।जैसे सांप अपनी केंचुली छोड़ कर आनंदित होता है वैसे ही आपको भी इस नश्वर शरीर का त्याग कर नवीन शरीर का आनंद लेना है। जीवन गंगा की तरह प्रवाहमान है।गंगा गंगोत्री से निकलती है और गंगासागर में मिलती है।गंगोत्री जन्म है और गंगासागर मृत्यु।गंगोत्री और गंगासागर अलग नहीं है बल्कि एक ही प्रवाह के दो छोर हैं।मृत्यु ही वो माध्यम है जो नव जीवन का मार्ग प्रशस्त करती है। मृत्यु से भय इसलिए होता है क्योंकि शरीर और संसार से आपको मोह है।जब आप जन्म लिए तो केवल हाथ पैर ही लेकर पैदा नहीं हुए बल्कि भूख प्यास काम क्रोध और अहम वृत्ति भी लेकर पैदा हुए।ये जो अहम वृत्ति है यही बंधन का कारण है।अहम वृत्ति अर्थात ये शरीर मेरा है,घर मेरा है,परिवार मेरा है,धरती मेरी है। जिस दिन ज्ञान हो जाएगा कि ये कुछ भी मेरा नहीं है,शरीर तो छूटेगा ही बाकी सब कुछ छूट जाना है,उसी दिन इस अहम वृत्ति का नाश हो जाएगा।जिसके अहम वृत्ति का नाश होगा वहीं विजेता होगा , मृत्यु को हंसते हुए वरण करेगा।सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिलाचार्य के अनुसार यदि दर्पण गोरे आदमी को देख कर उसे अपना प्रतिबिंब माने और खुश हो जाय तथा काले आदमी को देख कर दुखी हो जाय तो माना जायेगा कि दर्पण पुरुष है जो प्रकृति के बंधन में जकड़ा हुआ है।जिस दिन दर्पण अर्थात पुरुष को यह ज्ञात हो जायेगा कि मैं तो केवल दर्पण हूं, प्रतिबिंब से मेरा कोई नाता नहीं है उसी दिन पुरुष प्रकृति के बंधन को तोड़कर अलग हो जायेगा जिसे मोक्ष कहा जाता है। अभी तो हम जिस तरह से हैं, उससे हमको ये लगता है कि ये एक खराब चीज़ है, पर अगर हम हज़ार साल तक जीवित रहें तो मृत्यु हमारे लिये एक बड़ी राहत होगी। अगर हम बहुत ज्यादा समय तक जीवित रहें तो लोग सोचने लगेंगे कि हम कब मरेंगे? मृत्यु एक जबरदस्त राहत है। बस, बात इतनी ही है कि ये अकाल न हो, समय से पहले न हो।मृत्यु कोई घटना नहीं है यह तो एक यात्रा है, जिसकी शुरुआत जन्म के साथ होती है। मृत्यु परम सत्य है जबकि जीवन तो क्षणभंगुर है, आज है तो कल नहीं है। मृत्यु सदैव साथ चलती है, किसी भी पल मृत्यु उपलब्ध हो सकती है। जो मृत्यु का उत्सव मना सकता है वही जीवन का आनंद ले सकता है। शेष लोग तो भयभीत हैं कि पता नहीं कब प्राण निकल जाए और जीवन रूपी स्वप्न का तथा स्वयं के जीवित होने के अहंकार का अंत हो जाए। जीवन को शाश्वत मानकर व्यक्ति अपने "मैं" को सघन बना लेता है, और भूल जाता है कि वह कौन है। उसके लिए मृत्यु उस "मैं" का अंत है जिसे उसने जीवन भर विकसित किया है। मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, मेरी संपत्ति, मेरा सम्मान, मेरा पद, मेरी प्रतिष्ठा आदि ना जाने कितने सारे "मैं" उसके साथ जुड़ जाते हैं कि फिर स्वयं से जुड़ने का विचार भी नहीं आता है। लेकिन यह मृत्यु ही है जो सारे भ्रमों का समापन कर देती है।श्रीपाद शंकराचार्य के शब्दों में बुद्धिमान मनुष्य को जीवन की नश्वरता का नित्य स्मरण करना चाहिए । अतएव क्षण - क्षण ईश्वर के स्मरण में ही व्यतीत कीजिए, क्या पता कौन सा क्षण अंतिम हो? पल पल मृत्यु की और बढ़ रहे हैं और संसार में बेहोश हैं। मृत्यु क्या है? मृत्यु के पूर्व जीवन तो है परंतु उसके पूर्व क्या है? मृत्यु के समय कैसा अनुभव होता है? मृत्यु के बाद क्या होता? है यह प्रश्न अनादिकाल से मनुष्य के समक्ष खड़ा है। मृत्यु मनुष्य को कितना भयभीत करती है, कितना ज्यादा कष्ट उत्पन्न करवाती है और कितना तनाव देती है यह अनुभव लगभग प्रत्येक व्यक्ति को है। हर मनुष्य जीवन में किसी ना किसी व्यक्ति के मृत्यु का साक्षी अवश्य होता है। उस समय मृत्यु के संबंध में असंख्य विचार उठते हैं कि मृत्यु की वास्तविकता है क्या? मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए हर व्यक्ति उत्सुक है लेकिन उसका रहस्य ना खुलने के कारण वही का वही अटका पड़ा है। बहुत बड़ा प्रश्न है कि मैं कौन हूं? जन्म से पूर्व मैं क्या था? मृत्यु के बाद क्या होना है? यह हाथ मेरा है, लेकिन मैं हाथ नहीं हूं। यह पैर मेरा है, लेकिन मैं पैर नहीं हूं। यह शरीर मेरा है, लेकिन मैं शरीर नहीं हूं, तो आखिर मैं कौन हूं?मैं बहन के पास जाता हूं तो भाई बन जाता हूं। मां के पास जाता हूं तो पुत्र बन जाता हूं।गुरु के पास शिष्य और शिष्य के पास गुरु बन जाता हूं ।आखिर मैं कौन हूं?शरीर तो मर जाता है लेकिन इस मै का क्या होता है?इस प्रश्न ने मानव जाति को हमेशा उलझा के रखा।मृत्यु को देखकर ही बुद्ध ने गृह त्याग किया। मृत्यु को जानकर ही परीक्षित और शुकदेव जी के द्वारा भागवत महापुराण की रचना हुई।आप ये भी जानते हैं कि मृत्यु हमेशा कष्टदाई नहीं होती। कई बार तो जीवन और मृत्यु के बीच कौन सुखद है, यह चुनने में मनुष्य को मौत के पक्ष में अपना निर्णय देना पड़ता है। प्रसंग जीवन और मरण में से वरिष्ठता किसे दी जाए यह निर्णय करने का है। यहाँ सब कुछ सापेक्ष ही ठहरता है। उपयोगिता ही प्रधान है। न जीवन ही सदा सर्वदा उत्तम समझा जा सकता है और न मृत्यु को ही सर्वथा हेय ठहराया जा सकता है। दोनों ही अपने-अपने स्थान पर गुण-दोष की कसौटी पर कसे जाने के उपरान्त श्रेष्ठ समझे जा सकते हैं। आवश्यकता मृत्यु से डरने की नहीं है और न ही उस अनिवार्य वास्तविकता की उपेक्षा करने की है। मृत्यु निश्चित है, और जो निश्चित है, उसकी चिन्ता कैसी? कहते हैं कि कायर रोज मरते हैं जबकि वीर की मृत्यु एक बार होती है।जीवन को जीवन जाना और मृत्यु को जीवन से पृथक और विपरीत जाना, तो चूक गए। फिर बार-बार भटकना होगा और साधक उसे भी न पहचान पाएगा जो दोनों के पार है। एक क्षण पहले या बाद में मृत्यु नहीं हो सकती है। यदि आयु या काल पूरा नहीं हुआ है तो सैकड़ों गोली लगने के बाद भी मृत्यु नहीं होती है। यदि आयु समाप्त हो तो फूल लगने या कुशा के चुभ जाने मात्र से भी मृत्यु हो जाती है। प्रस्तुत ग्रन्थ दर्शन विधायक है।चूंकि दर्शन का शाब्दिक अर्थ होता है दृष्टि और सबकी दृष्टि और दृष्टिकोण भिन्न भिन्न होता है। इसलिए प्रत्येक महापुरुष ने अपने - अपने दृष्टिकोण से इस सर्वोच्च प्रश्न का उत्तर दिया है। प्रस्तुत पुस्तक में मृत्यु को जानने हेतु अनेक महापुरुषों का मत, विभिन्न दृष्टिकोण, सनातन वैदिक वांग्मय, विभिन्न पंथों के मत, स्थानीय विधियों इत्यादि का सहारा लिया गया है। ज्ञान पिपासु पाठक इसे विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफॉर्म से संपूर्ण विश्व में कहीं भी प्राप्त कर अपनी जिज्ञासा शांत कर सकते हैं।उक्त दार्शनिक ग्रंथ के प्रकाशन पर चिन्मय वेदान्त मिशन के संस्थापक श्री कौशिक चैतन्य जी महाराज, अध्यक्ष शंकराचार्य परिषद स्वामी आनन्द स्वरूप जी महाराज,महामंडलेश्वर डॉ सुमनानंद जी महाराज,महामंडलेश्वर राधाशरण सरस्वती जी, इस्कॉन बेंगलुरु के अध्यक्ष श्री मधु पंडित दास,श्री कृष्ण संकीर्तन धाम न्यूयार्क अमेरिका के संस्थापक पण्डित सत्यनिवास वशिष्ठ आदि विद्वत जन ने लेखक को बधाई दी है।
Mar 31 2025, 14:16