रूह अफ़ज़ा बनाने वाले हकीम अब्दुल हमीद की दवा कैसे बनी शरबत? जानिए, इसकी पूरी कहानी
डेस्क:–योगगुरु रामदेव के बयान से रूह अफ़ज़ा एक बार फिर चर्चा में आ गया है. बाबा ने इसे पीने वालों को सचेत किया है. अब जब रूह अफ़ज़ा बीच बहस में है , तो उसका इतिहास भी खंगाला जा रहा. वो हकीम हफीज़ अब्दुल मजीद याद किए जा रहे हैं , जिन्होंने 1907 की गर्मी में डिहाइड्रेशन से जूझते अपने मरीजों के लिए फल, जड़ी-बूटियों, गुलाब, केवड़े और खसखस के मेल से एक गाढ़ा लाल सिरप तैयार किया. जानिए, इसकी पूरी कहानी.
तपिश में सुकून देने वाला रूहअफ़ज़ा फिलहाल बाबा रामदेव के बयान की गर्मी की चपेट में है. जुबां को मिठास का लुत्फ़ और शरीर को तरावट देने वाले एक सदी से पुराने इस शरबत की आमदनी के इस्तेमाल पर बाबा ने सवाल किए हैं. बेशक उन्होंने नाम नहीं लिया लेकिन निशाना कहां है , इसे समझने में लोगों को देर नहीं लगी. मंदिर-मस्जिद के नुस्खे राजनीति में खूब असर दिखाते रहे हैं. अब व्यापार में भी इन्हें आजमाया जा रहा है. बाबा ने इसे पीने वालों को सचेत किया है. अब जब रूह अफ़ज़ा बीच बहस में है , तो उसका इतिहास भी खंगाला जा रहा. वो हकीम हफीज़ अब्दुल मजीद याद किए जा रहे हैं , जिन्होंने 1907 की गर्मी में डिहाइड्रेशन से जूझते अपने मरीजों के लिए फल, जड़ी-बूटियों, गुलाब, केवड़े और खसखस के मेल से एक गाढ़ा लाल सिरप तैयार किया. जो आगे चलकर तमाम घरों के किचन और डाइनिंग टेबल की जरूरत बन गया.
इस पेय को लोकप्रियता की बुलंदियों पर पहुंचाने वाले हाफ़िज़ पद्मभूषण हकीम अब्दुल हमीद की खासतौर पर चर्चा हो रही है, जिनका नाम यूनानी चिकित्सा प्रणाली की पढ़ाई और रिसर्च के साथ ही शिक्षा के प्रसार और समाज कल्याण से जुड़ी अनेक संस्थाओं के साथ जुड़ा हुआ है. पढ़िए, रूह अफ़ज़ा और उसे तमाम आबादी की पसंद बनाने वाले हकीम अब्दुल हमीद की कोशिशों के किस्से.
मरीजों की एक दवा जो बन गई शरबत
1906 में दिल्ली के लाल कुआं बाजार में हकीम हफीज अब्दुल मजीद ने हमदर्द नाम से दवाखाना खोला था. गर्मी से बेहाल मरीज शरीर में पानी की कमी के चलते सुस्ती-कमजोरी की शिकायत लेकर पहुंचते थे. यूनानी पद्धति से इलाज करने वाले हकीम ने ऐसे नुस्खे पर काम करना शुरू किया जो शरीर को ठंडक और पोषण दोनों दे. हकीम को जल्द ही कामयाबी मिली. फल जड़ी-बूटियों, गुलाब, केवड़ा और खसखस जैसी चीजों को मिलाकर तैयार सिरप उनके मरीजों के शरीर और मन दोनों को खूब भाया. हकीम मजीद का भी हौसला बढ़ा. उन्होंने इसे रूह अफ़ज़ा नाम दिया. रूह यानि आत्मा और अफ़ज़ा मतलब ताजगी देने वाला. 1907 में यह दवा थी. धीरे-धीरे यह शरबत बन गर्मी के मौसम में तमाम घर और परिवारों की की जरूरत बन गई.
चौदह साल की उम्र में संभाली जिम्मेदारी
1922 में हकीम अब्दुल मजीद का निधन हुआ. लेकिन उस वक्त तक उनका डेढ़ दशक पहले शुरू हुआ छोटा सा हमदर्द दवाखाना रूह अफ़ज़ा की बदौलत काफी विस्तार हासिल कर चुका था. 1910 में रूह अफजा को बोतल में मार्केटिंग के लिए बंबई में रंग-बिरंगा लेबल तैयार कराया गया.
दिलचस्प है कि रूह अफ़ज़ा ने अपने लंबे सफ़र में अपने स्वाद के साथ ही इस लेबल को भी बरकार रखा है. 1908 में हकीम अब्दुल हमीद का जन्म हुआ. पिता अब्दुल मजीद के निधन के समय उम्र सिर्फ 14 साल के थे. लेकिन कम उम्र में ही उन्होंने मां राबिया बेगम के साथ हमदर्द कंपनी की जिम्मेदारी संभाल ली. आगे उनके छोटे भाई मोहम्मद सईद भी कारोबार में साथ जुड़ गए.
देश बंटा-परिवार बंटा
1947 में देश के विभाजन के साथ हकीम अब्दुल हमीद का परिवार भी विभाजित हुआ. छोटे भाई मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान चुना. बड़े भाई हकीम अब्दुल हमीद भारत में ही रहे. लेकिन परिवार के बिखराव ने हमदर्द और रूह अफ़ज़ा की तरक्की में कोई रुकावट नहीं पैदा की. अब्दुल हमीद भारत में इसके विस्तार में लगातार कामयाब रहे. दूसरी ओर मोहम्मद सईद ने पाकिस्तान में रूह अफ़ज़ा का उत्पादन शुरू वहां भी इसे लोकप्रिय बना दिया. 1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद वहां भी रूह अफ़ज़ा
का उत्पादन शुरू हो गया. फिलहाल रूह अफ़ज़ा की पहुंच चालीस देशों तक है. दो चम्मच रूह अफज़ा सिर्फ पानी में मिलाकर शरबत के तौर पर ही नहीं दूध, लस्सी, कुल्फी-फालूदा में घुल उन्हें खास लज्जत दे देता है. बाजार में तमाम विकल्पों के बीच भी रूह अफ़ज़ा का जलवा बरकरार है.
सिर्फ कारोबार नहीं , तमाम नेक कोशिशों से जुड़ाव
हमदर्द के जरिए कारोबार की दुनिया में मुकाम हासिल करने वाले हकीम अब्दुल हमीद का ध्यान मुस्लिम समाज के बड़े हिस्से में तालीम की कमी और गरीबी की ओर भी रहा. उन्हें जरूरी लगा कि इस दिशा में कुछ ठोस काम किया जाए. दिल्ली का भीड़ भरा आज का संगम बिहार उन दिनों जंगल हुआ करता था. हकीम हमीद ने उसी दौर में बड़ी जमीन खरीदी. इसी भूमि पर हमदर्द एजुकेशन सोसाइटी के सफर की शुरुआत हुई और फिर इस कैंपस को तालीमाबाद नाम मिला.
हमदर्द एजुकेशन सोसाइटी यहां से कई स्कूल, कोचिंग सेंटर और हमदर्द स्टडी सर्किल चलाती है. सोसाइटी मुख्य रूप से अल्पसंख्यकों की शिक्षा और कल्याणकारी उपायों के लिए काम करती है. हकीम अब्दुल हमीद को हमदर्द चैरिटेबल ट्रस्ट और हमदर्द नेशनल फाउंडेशन की स्थापना का भी श्रेय प्राप्त है. उन्होंने अपनी मां राबिया बेगम की याद में बालिकाओं की पढ़ाई के लिए राबिया गर्ल्स पब्लिक स्कूल की भी स्थापना की. एलोपैथी के विस्तार के बीच भी यूनानी चिकित्सा पद्धति को बचाए रखने के लिए उन्होंने जामिया के फार्मेसी कॉलेज की स्थापना भी की.
हकीम अब्दुल हमीद का निजी जीवन सादगी से भरपूर था. हमदर्द की कामयाबी की लगातार कोशिशों के बीच वे तमाम संस्थाओं के जरिए खासतौर पर पिछड़े अल्पसंख्यकों की बेहतरी की कोशिशों में लगे रहे. जो लोग उनके सीधे संपर्क में रहे, वे उनकी विनम्रता से प्रभावित रहे. समाज के लिए उनके योगदान को सरकार ने भी सम्मान दिया. वे पद्मश्री और पद्मभूषण से भी अलंकृत किए गए. उनके प्रशंसकों की लंबी सूची में राजीव गांधी भी शामिल थे. जामिया हमदर्द के एक दीक्षांत एपीजे अब्दुल कलाम ने मजरूह सुल्तानपुरी का मशहूर शेर दोहराते हुए उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया था,” मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग मिलते गए और कारवां बन गया.
Apr 18 2025, 11:30