क्या कुंभ की भीड़ आजादी की जंग से जुड़ेगी? जानें पंडित नेहरू को किस बात की शंका थी
पंडित नेहरू धार्मिक कर्मकाण्डों और पूजा-पाठ में भरोसा नहीं करते थे. उनकी जन्मभूमि इलाहाबाद थी. गंगा नदी से उन्हें लगाव था लेकिन इसके पीछे वे कोई धार्मिक कारण नहीं मानते थे. 1930 में कुंभ था. जनवरी महीने में नेहरू इलाहाबाद में थे. लाखों की भीड़ उमड़ रही थी. इस भीड़ को देखते नेहरू सोच रहे थे कि क्या इस भीड़ को आजादी के आंदोलन और 26 जनवरी 1930 तक भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देने के आह्वान की जानकारी है? क्या ये भीड़ ऐसा ही उत्साह आजादी की लड़ाई से जुड़ने में भी दिखाएगी?
अपनी आत्मकथा में उन्होंने शंका जाहिर की कि कहीं ऐसा तो नहीं कि लोगों में कर्मकांड और दकियानूसी विचार इतना भर गए हैं कि दूसरे विचारों के लिए गुंजाइश ही नहीं है. हालांकि, इस भीड़ के तमाम लोग जब नेहरू से मिलते थे और आजादी से जुड़े सवाल करते थे या फिर भीड़ में आंदोलन के नारे गूंजते थे तो उन्हें उम्मीद बंधती थी. भरोसा होता था कि देश जाग रहा है.
गंगा के प्रति लोगों की आस्था चकित करती
कांग्रेस के 1929 के लाहौर अधिवेशन में अंग्रेजों को 26 जनवरी 1930 तक भारत को पूर्ण स्वतंत्र करने का अल्टीमेटम दिया गया था. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इस अधिवेशन की अध्यक्षता की थी. कांग्रेस की चेतावनी में साफ किया गया था कि अगर अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया तो देश वासी खुद को स्वतंत्र घोषित कर देंगे. कांग्रेस की कोशिश ज्यादा से ज्यादा लोगों को आंदोलन से जोड़ने की थी. जनवरी महीने की शुरुआत में पंडित नेहरू इलाहाबाद में थे.
यह कुंभ का साल था. लाखों हिन्दू नर-नारी प्रयागराज में संगम पर स्नान के लिए उमड़ रहे थे. नेहरू उनके उत्साह पर मुग्ध थे. उन्हें आश्चर्य होता था कि हजारों साल से लोगों का विश्वास गंगा मैया में स्नान के लिए उन्हें इलाहाबाद खींच लाता है.
धर्म के अलावा भी लोग क्या कुछ सोच रहे ?
उस भीड़ को देखते नेहरू के दिमाग में कुछ और ही चल रहा था. उनकी सोच का विषय इस भीड़ के धार्मिक विश्वास और गंगा मैया के प्रति उनकी आस्था नहीं थी. वे फिक्रमंद थे कांग्रेस के देश को पूर्ण स्वतंत्र घोषित करने के अल्टीमेटम की कामयाबी को लेकर. कांग्रेस जनता से हर साल 26 जनवरी को स्वाधीनता दिवस मनाने की अपील कर चुकी थी. अंग्रेजों को जनता की ताकत का अहसास दिलाने के लिए जरूरी था कि स्वाधीनता दिवस के कार्यक्रम में जनता ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी करे. कुंभ की भीड़ को निहारते नेहरू सोच रहे थे कि क्या इसमें शामिल लोगों को इसकी जानकारी है? क्या वे जैसा उत्साह गंगा मैया में स्नान के लिए दिखा रहे हैं, वैसा ही आजादी के आंदोलन से जुड़ने में ही दिखाएंगे? यह सब सोचते नेहरू को इस बात की शंका थी कि कहीं कर्मकांडों और दकियानूसी विचारों ने लोगों के दिमागों पर ऐसा पहरा तो नहीं लगा दिया है कि उसमें दूसरे विषयों के बारे में सोचने की गुंजाइश ही नहीं बची हो?
क्या सत्याग्रह में भी देंगे साथ?
पंडित नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “जनवरी के शुरू में मैं इलाहाबाद में था. यह एक बड़े भारी मेले का वक्त था. शायद यह कुम्भ का साल था और लाखों स्त्री-पुरुष लगातार इलाहाबाद या यात्रियों की भाषा में प्रयागराज आ रहे थे. इसमें सब तरह के लोग थे. इनमें खासतौर पर किसान थे. मजदूर, दुकानदार, कारीगर, व्यापारी, औद्योगिक और ऊंचे पेशे वाले भी लोग थे.
वास्तव में हिंदुओं में से सभी तरह के लोग आए थे. जब मैं इस बड़ी भीड़ को संगम की ओर जाते और आते अटूट धारा को देखता तो मैं सोचा करता कि ये लोग सत्याग्रह और शान्तिपूर्ण सीधे हमले की पुकार का कितना साथ देंगे? इनमें से कितने लाहौर के प्रस्तावों को जानते हैं या उनकी परवाह करेंगे? उनका यह विश्वास कितना आश्चर्यजनक और मजबूत था, जिसमें वे और बुजुर्ग हजारों वर्षों से हिंदुस्तान के हर हिस्से से पवित्र गंगा मैया में स्नान करने के लिए चले आते रहे. क्या वे इस अदम्य उत्साह को अपनी जिंदगी सुधारने के लिए राजनीतिक और आर्थिक कार्य में नही लगा सकते? या उनके दिमागों में कर्मकांड और दकियानूसी इतनी भर चुकी है कि दूसरे विचारों की गुंजाइश ही नही रही ?
संगम पर मालवीय के साथ
कुंभ से ही जुड़े एक दूसरे प्रसंग से भी साफ होता है कि गंगा स्नान से किसी प्रकार के पुण्य लाभ में नेहरू का भरोसा नहीं था. यह 1930 के पहले के 1924 के अर्धकुंभ का अवसर था. फिसलन और सुरक्षा के नाम पर अधिकारियों ने संगम स्नान पर रोक लगा दी थी. इस रोक के लिए पुलिस की तैनाती और बैरिकेडिंग भी की गई थी. प्रतिबंध के खिलाफ पंडित मदन मोहन मालवीय संगम पर पहुंचकर धरने पर बैठ गए थे. तीर्थ यात्रियों को संगम पर स्नान की उनकी मांग थी. उन दिनों नेहरू इलाहाबाद नगर निगम के अध्यक्ष थे. जानकारी मिलने पर नेहरू भी वहां पहुंच गए थे.
गंगा में नहा पुण्य कमाने की इच्छा नहीं
इस मौके पर जो कुछ घटित हुआ उसका अपनी आत्मकथा “मेरी कहानी” में उल्लेख करते हुए नेहरू ने लिखा, “खबर पढ़ने के बाद मैं संगम के लिए निकल गया. मेरा स्नान का कोई इरादा नहीं था, क्योंकि ऐसे मौकों पर गंगा नहाकर पुण्य कमाने की चाह मुझे नहीं थी. मेला पहुंचने पर मैंने देखा कि मालवीय जिला मजिस्ट्रेट के आदेश के खिलाफ जल सत्याग्रह कर रहे हैं. 200 लोग उनके साथ थे. जोश में आकर मैं भी सत्याग्रह दल में शामिल हो गया. मैदान के उस पार लकड़ियों का बड़ा सा घेरा बनाया गया था, ताकि लोग संगम नहीं पहुंच सकें. हम आगे बढ़े, तो पुलिस ने रोका, हमारे हाथ से सीढ़ी छीन ली. विरोध में हम रेत पर बैठकर धरना देने लगे. धूप बढ़ती जा रही थी. दोनों तरफ पैदल और घुड़सवार पुलिस खड़ी थी.
मेरा धैर्य अब टूटने लगा था. इसी बीच घुड़सवार पुलिस को कुछ ऑर्डर दिया गया. मुझे लगा कि ये लोग कहीं हमें कुचल न दें. पीटना न शुरू कर दें. मैंने सोचा क्यों न हम घेरे के ऊपर से ही फांद जाएं. मेरे साथ बीसों आदमी चढ़ गए. कुछ लोगों ने बल्लियां भी निकाल लीं. इससे रास्ता जैसा बन गया. मुझे बहुत गर्मी लग रही थी, सो मैंने गंगा में गोता लगा दिया.”
नहा के निकलने के बाद भी नेहरू ने दिखा कि मालवीय का धरना जारी था. वे काफी खिन्न थे. एक बार फिर नेहरू उनके साथ बैठ गए. नेहरू ने आगे लिखा,”अचानक बिना किसी से कुछ कहे मालवीय उठे और पुलिस के बीच से निकलकर गंगा में कूद पड़े. मालवीय जैसे दुर्बल और बूढ़े शरीर वाले व्यक्ति को इस तरह गोता लगाते देखकर मैं हैरान रह गया. इसके बाद तो पूरी भीड़ गंगा में डुबकी लगाने के लिए टूट पड़ी. हमें लग रहा था कि सरकार कुछ करेगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. “
राख गंगा में बहा देना
गंगा-जमुना से नेहरू का लगाव लेकिन उसके पीछे कोई धार्मिक आधार न होने का उल्लेख पंडित नेहरू ने अपनी वसीयत में भी किया है. मृत्यु के लगभग एक दशक पहले लिखी अपनी वसीयत में नेहरू ने लिखा था कि उनके मरने के बाद कोई धार्मिक अनुष्ठान न किए जाएं, क्योंकि ऐसा करना पाखंड और अपने को धोखा देना होगा. विदेश में मरने पर दाह संस्कार वहीं कर देने लेकिन राख इलाहाबाद भेज दिए जाने की उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी.
राख का ज्यादातर हिस्सा हवाई जहाज से देश के खेतों में बिखेरने के लिए उन्होंने लिखा, क्योंकि उस मिट्टी से उन्हें बहुत प्यार था. मुट्ठी भर राख इलाहाबाद में गंगा जी में प्रवाहित करने की उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी. लेकिन उन्होंने साफ किया,ऐसा करने के पीछे कोई धार्मिक महत्व नहीं है. मुझे बचपन से गंगा और जमुना से लगाव रहा और जैसे-जैसे में बड़ा हुआ मेरा ये लगाव लगातार बढ़ता गया.
बेशक नेहरू का धार्मिक अनुष्ठानों में भरोसा न रहा हो और अपनी मृत्यु बाद भी उन्होंने ऐसा करने की मनाही की हो. लेकिन ऐसा मुमकिन नहीं हुआ. दिल्ली में उनका अंतिम संस्कार हिन्दू धर्म के विधि विधान के साथ पूर्ण हुआ. अनुष्ठानों के लिए काशी के पंडित बुलाए गए. संगम पर अस्थि विसर्जन भी पूजा-पाठ और मंत्रोच्चारण के बीच हुआ था.
Jan 26 2025, 14:08