उत्तराखंड का वो गांव जो 64 साल पहले हुई एक दर्दनाक घटना के बाद आज भी भूतिया गांव के रूप में जाना जाता है, जानें इनकी पूरी कहानी

21वीं सदी में ये बातें भले ही आपको अब बकवास लगे लेकिन इस गांव से पलायन कर चुके लोगों का यही कहना है कि यहां कुछ अजीब सा है। जानिए, ऐसा क्या हुआ था

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से 265 किलोमीटर दूर चंपावत जिले के स्वाला गांव को लोग आज भूत गांव के रुप में जानते हैं। टनकपुर से चंपावत की ओर जाते हुए यह गांव मध्य में आता है। 64 साल पहले यहां ऐसा नहीं था। सबकुछ ठीक था। अन्य गांवों की तरह यहां भी चहल-पहल थी। लेकिन एक हादसे ने इस गांव को भूतों का अड्डा बना दिया।

गांव के बुजुर्ग लोग बताते हैं कि 1952 में 10 से 12 पीएसी जवानों से भरी एक मिनी बस गांव के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गई थी। जवानों ने ग्रामीणों से मदद की पुकार लगाई। कहते हैं कि ग्रामीण आए लेकिन जवानों की मदद करने के बजाय उनका सामान लूटकर चले गए। जवान मदद के लिए चिल्लाते रहे लेकिन किसी ने उनकी मदद नहीं की। इलाज न मिल पाने से जवानों ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। उस वक्त गांव में 20 से 25 परिवार रहते थे। कहा जाता है कि उसके बाद गांव में अजीबोगरीब घटनाएं हुई, जिसके बाद ग्रामीण आतंकित हो गए।

अजीबोगरीब घटनाओं के खौफजदा ग्रामीणों ने धीरे-धीरे गांव छोड़ दिया। आज पूरा गांव खाली हो चुका है। ग्रामीणों के परपौत्र-पौत्र जो अब आस-पास बस चुके हैं, उनकी जमीनें गांव में अभी भी हैं, लेकिन कोई वहां जाने की हिम्मत नहीं करता। जहां पीएसी के जवानों की हादसे में मौत हो गई थी, वहां एक मंदिर भी स्थापित किया गया है। इस सड़क से जाने वाला हर वाहन मंदिर में रुकता है। मान्यता है कि ऐसा करने से उनके साथ कुछ गलत घटनाएं नहीं होती।

स्वाला गांव से पलायन कर चुके ग्रामीणों के पौत्रों में कुछ भूत से डरकर गांव छोड़ने की बात से इंकार करते हैं।

 वे कहते हैं कि पलायन करने की वजह सुविधाओं का अभाव रहा। वे कहते हैं कि स्वाला गांव में सुविधाओं के नाम पर सड़क भी नहीं है। इसलिए पलायन हुआ।

आइए जानते हैं भगवान विष्णु के विठ्ठल अवतार की कहानी, जानें कैसे पड़ा यह नाम

त्रिदेव मे से एक भगवान विष्णु को सृष्टि के रक्षक के रूप में पूजा जाता है. क्योंकि इन्होंने धरती और धर्म की रक्षा के लिए 10 अवतार लिए. इन अवतारों को दशावतार कहा जाता है. जिसमें से एक भगवान विष्णु का एक अवतार श्री हरी विठ्ठल है. खास तौर पर भगवान विष्णु को इस नाम से महाराष्ट्र और कर्नाटक में जाना जाता है.विठ्ठल को अक्सर ‘विठोबा’ के नाम से भी पुकारा जाता है. यहां भगवान विठ्ठल के कई मंदिर हैं. जहां पूरे भक्ति भाव से लोग भगवान विठ्ठल की पूजा करते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि भगवान विष्णु को यह नाम कैसे मिला और क्या है इसकी कहानी आइए जानते हैं.

श्रीहरि विठ्ठल की कथा

कथा के अनुसार, एक बार देवी रुक्मिणी, भगवान विष्णु से किसी बात पर नाराज होकर द्वारका से चली गई. जिसके बाद भगवान विष्णु उन्हें ढूंढते हुए दिंडी वन पहुंचे, जहां उन्हें देवी रुक्मिणी मिलीं और उनका क्रोध शांत हुआ. उसी समय वहां एक आश्रम में भगवान विष्णु का भक्त रहता था, जिसका नाम था पुंडलिक. वह अपने माता-पिता की बहुत सेवा करता था. भगवान विष्णु, पुंडलिक की भक्ति से प्रसन्न होकर, देवी रुक्मिणी के साथ उसके आश्रम गए. लेकिन तब पुंडलिक अपने माता-पिता की सेवा में व्यस्त था और ऐसे में जब श्रीहरि ने पुंडलिक से मिलने की बात कही तो पुंडलिक ने भगवान को थोड़ा इंतजार करने को कहा...

ईट पर खड़े होकर किया इंतजार

पुंडलिक ने भगवान विष्णु के पास एक ईंट फेंककर कहा कि वह उस पर खड़े रहें और इंतजार करें. जिसके बाद भगवान ने अपने भक्त की बात मानी और ईंट पर खड़े होकर उसका इंतजार करने लगे. साथ में देवी ररुक्मिणी भी ईंट पर ही खड़े होकर प्रतीक्षा करनी लगीं. माता-पिता की सेवा करने के बाद जब पुंडलिक उनके पास आया तो भगवान विष्णु ने उससे वरदान मांगने को कहा.

पुंडलिक ने किया निवेदन

भगवान विष्णु ने जब पुंडलिक से वरदान मांगने को कहा तब पुंडलिक ने श्रीहरि से निवेदन किया कि वह यहीं रुक जाए. जिसके बाद भक्त की इस श्रद्धा को देख श्रीहरि उसी ईंट पर खड़े होकर, कमर पर हाथ रखकर, प्रसन्न मुद्रा में खड़े हो गए. कहा जाता है कि यह मुद्दा ही विठ्ठल अवतार कहलाई. क्योंकि ईंट को मराठी में विट कहते हैं तो ईंट ओर खड़े होने के कारण प्रभु का नाम विट्ठल पड़ा.

Disclaimer: इस खबर में दी गई जानकारी धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. हम इसकी पुष्टि नहीं करता है.

काले कुत्ते को क्यों माना जाता है काल भैरव का वाहन? जानें इसके पीछे की कहानी और धार्मिक मान्यताएं.

भगवान शिव के रौद्र रूप को काल भैरव कहा जाता है. जहां भगवान शिव का वाहन नंदी बैल है. वहीं काल भैरव का वाहन एक काल कुत्ता है. वैसे तो सभी देवी-देवताओं का कोई न कोई वाहन जरूर होता है. जिनके पीछे कोई न कहानी जरूर होती है. क्या आपकों पता है कि भगवान काल भैरव ने एक कुत्ते को ही अपना वाहन क्यों बनाया. आखिर इसके पीछे क्या वहज हैं.

काला कुत्ता कैसे बना भैरव का वाहन?

धर्मिक ग्रंथों के अनुसार, काला कुत्ता काल भैरव का वाहन है. काल भैरव जहां भी जाते हैं. उनका वाहन हमेशा उनके साथ रहता है. लेकिन काल भैरव कभी भी उसकी सवारी नहीं करते बल्कि काला कुत्ता हमेशा उनके साथ चलाता है. मान्यता है कि काल भैरव ने काले कुत्ते को अपना वाहन इसलिए चुना क्योंकि काल भैरव का स्वरूप उग्र है और कुत्ते को भी उग्र पशु के रूप में देखा जाता है. कुत्ता कभी भय नहीं रखता. वह न तो रात के अंधेरे से डरता है. लेकिन जैसे ही कोई उसपर हमला करता है तो वह उससे अधिक उग्र होकर हमला करता है.

साथ ही कुत्ते को तेज बुद्धि के साथ सबसे वफादार और रक्षा करने वाला एक पशु माना जाता है. कुत्तों को लेकर यह भी माना जाता है कि कुत्ते में बुरी आत्माओं और नकारात्मक शक्तियों से भी रक्षा करने की क्षमता होती है. कुत्ता सूक्ष्म जगत की आत्माओं को देख सकता है. भैरव को श्मशान निवासी बताया गया है. श्मशान में पशु के रूप में केवल कुत्ते ही दिखाई देते हैं. ऐसे में कुत्ता भैरव का साथी बना.

काल भैरव पूजन का महत्व

तंत्र शास्त्र में काल भैरव का विशेष स्थान प्राप्त है. मान्यात है कि काले कुत्ते को कला भैरव का वाहन मानकर उसकी पूजा करने स बुरी शक्तियों से मुक्ति मिलती है. इसके अलावा कालाष्टमी के दिन काले कुत्ते को रोटी खिलाने से कालभैरव प्रसन्न होते हैं और व्यक्ति आकस्मिक मृत्यु के भय से दूर रहता है.

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रहस्यमयी रोशनी: पश्चिम बंगाल के दलदली इलाकों में दिखाई देती है भूतों की रोशनी!, जानें वैज्ञानिक क्या कहते हैं

भारत में कई रोचक और रोमांचक देखने को मिलता है। उनमें से कई के पीछे तो वैज्ञानिक कारण रहते हैं और कुछ अभी भी रहस्य बने हुए हैं। इस बार हम आपको बता रहे हैं ऐसी रहस्यमी रोशनी के बारे में जिसे लेकर पश्‍चिम बंगाल के स्थानीय लोगों की मान्यता है कि यह मछुआरों की आत्माएं हैं, परंतु सच क्या है यह तो वैज्ञानिक ही जानते हैं।

पश्चिम बंगाल के दलदली इलाकों में कई बार रहस्यमयी रोशनी देखे जाने की स्थानीय लोगों में मान्यता प्रचतलित है। स्थानीय लोगों के मुताबिक, यह उन मछुआरों की आत्माएं हैं, जो मछली पकड़ते वक्त किसी वजह से मर गए थे। लोग इन्हें भूतों की रोशनी भी कहते हैं। 

 

ऐसा भी कहा जाता है कि जिन मछुआरों को यह रोशनी दिखती है, वे या तो रास्ता भटक जाते हैं या ज्यादा दिन जिंदा नहीं रह पाते। बाद में उनकी आत्माएं भटकती रहती है।

लोग इसे भूतों की रोशनी भी कहते हैं। यह रोशनी इन इलाकों में केवल रात के समय में ही दिखाई देती है और खास तौर पर दुर्गम स्थानों पर दिखती देती है।

इन दलदली क्षेत्रों से कई मछुआरों की लाशें भी मिली हैं, लेकिन स्थानीय प्रशासन यह मानने को तैयार नहीं कि यह भूतों के चलते ऐसा हुआ। हालांकि अभी तक इस रहस्य से भरी गुत्थी सुलझ नहीं पाई है।

इन घटनाओं के पीछे यह भी कारण हो सकता है कि इन भयानक दलदली इलाकों में यदि कोई इंसान वहां पर चला भी जाए तो भी वह उस दलदल में मर सकता है। यहां जाना किसी इंसान के बस की बात नहीं है और यह रोशनी ऐसे ही दलदली स्थानों पर दिखाई देती है जहां पर भयानक दलदल होता है। 

 

 यह रहस्यमयी रोशनी वास्तव में सिर्फ बंगाल तक ही सीमित नहीं हैं ऐसी ही रोशनी यूके, एस्टोनिया, फिनलैंड, लाटविया, उत्तरी और दक्षिण अमेरिका के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया के कई शहरों में भी देखी जा सकती है। यहां के लोग इस रोशनी को छिपे हुए खजाने के रहस्य के साथ जोड़कर देखते हैं। 

वैज्ञानिकों को अंदेशा है कि दलदली क्षेत्रों में अक्सर मीथेन गैस बनती है और वे किसी तत्व के संपर्क में आने से रोशनी पैदा करती है।

यमराज का अनोखा मंदिर: जहां आत्माओं की पेशी होती है और स्वर्ग-नर्क का होता है फैसला

यमराज के नाम से ही मृत्यु का भय मन में आ जाता है. जिसके लिए हर साल लोग दिवाली से पहले नरक चतुर्दशी की शाम को यम का दीपक जलाया जाता है. मान्यता है कि ऐसा करने से परिवार में किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती है. लेकिन धरती पर एक ऐसा मंदिर भी है जहां यमराज का दरबार लगता है. यहां मृत्यु के बाद आत्माओं की पेशी होती है और उनको कर्म के अनुसार स्वर्ग या नरक में भेजा जाता है. इसके अलावा चित्रगुप्त हर एक इंसान के अच्छे-बुरे हर एक कर्म का हिसाब रखते हैं. आइए जानते हैं इस अनोखे मंदिर के बारे में.

कहां है यमराज का मंदिर?

यमराज का यह अनोखा मंदिर हिमाचल प्रदेश के चंब जिले के भरमौर में स्थित है. इस मंदिर से जुड़ी कई मान्यताएं और कहानियां प्रचलित हैं. इस मंदिर के बारे में यह भी कहा जाता है कि इस मंदिर में लोग बाहर से ही यम देवता के हाथ जोड़ लेते हैं. ये मंदिर एक घर की तरह दिखाता है. जहां एक खाली कमरा मौजूद है, मान्यता है इस कमरे में ही यम देवता विराजमान हैं. यहां पर एक और कमरा है, जिसे चित्रगुप्त का कक्ष कहा जाता है.

यम का दरबार

मान्यता है कि हिमाचल के इस प्राचीन मंदिर में यमराज का दरबार लगता है. जहां यम के दूत आत्माओं को यमराज के सामने पेश करते हैं. जहा चित्रगुप्त उन आत्माओं के कर्मों का हिसाब कर लेखा-जोखा पेश करते हैं. उसके बाद यमराज कर्मों के हिसाब से फैसला करते हैं कि कौन सी आत्मा स्वर्ग जाएगी और किस आत्मा को नरग को घोर दुख भोगना होगा. उसके बाद ही आत्माओं को स्वर्ग या नरक भेजा जाता है.

इन दरवाजों से जाती है आत्मा

गरुड़ पुराण में भी यमराज के दरबार में चार दिशाओं में चार द्वार बताए गए हैं. मान्यता है कि उसी तरह यमराज के इस मंदिर में चार अदृश्य दरवाजे हैं. जो कि सोने, चांदी, तांबे और लोहे के बने हुए हैं. इन चार दरवाजों से होकर ही आत्मा स्वर्ग और नरक जाती है. कहा जाता है कि जिन लोगों ने अपने जीवन में अच्छे काम किए होते हैं और जो भी पुण्य आत्माएं होती है. वह सभी सोने से बने दरवाजे से होते हुए स्वर्ग जाती है. वहीं जिन लोगों के जीवन भर पाप किया होता है, उनकी आत्मा लोहे के दरवाजे से नरक भेजा जाता है

Disclaimer:इस खबर में दी गई जानकारी धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है. हम इसकी पुष्टि नहीं करता है.

एक ऐसा रेलवे स्टेशन जहां उतरने से भी डरते हैं यात्री, दर्दनाक है इसकी कहानी, जानें

प्रयागराज: आप लोगों ने तरह-तरह की भूतियां कहानियां तो जरूर सुनी होंगी, लेकिन क्या आपने कभी भूतहा रेलवे स्टेशन के बारे में सुना है? आज हम आप लोगों को एक ऐसे रेलवे स्टेशन के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसकी कहानी डरावनी है. आइए जानते हैं भारत में यह रेलवे स्‍टेशन कहां पर है?

आज हम आपको यूपी के एक भूतहा रेलवे स्टेशन के बारे में बताने जा रहे हैं. हम जिस रेलवे स्टेशन की बात कर रहे हैं उसका नाम नैनी जंक्शन है. यह रेलवे स्टेशन प्रयागराज से करीब 10km दूरी पर स्थिति है. नैनी रेलवे स्टेशन को लेकर तरह-तरह की बातें फेमस हैं.

कहा जाता है कि नैनी जेल के पास स्थित नैनी स्टेशन ‘भूतहा’ जगहों में से एक है. इस जेल के बारे में कहा जाता है कि ब्रिटिश काल के दौरान अधिकारियों द्वारा पीटे जाने से कई स्‍वतंत्रता सेनानियों की मौत हो गई थी. नैनी रेलवे स्टेशन इस जेल से ज्यादा दूर नहीं है.

नैनी स्टेशन पर रात में घूमती हैं कई बुरी आत्माएं ?लोगों का दावा है कि जिन सेनानियों की जेल में मौत हुई थी, उनकी आत्माएं नैनी स्टेशन पर रात में घूमती हैं. कई लोगों का कहना है कि इस थाना क्षेत्र में अजीबोगरीब घटनाएं होती हैं. इसलिए सन्नाटे में या अंधेरे में यहां आने से कुछ लोग कतराते हैं.

लोगों का है यह दावाइस रेलवे स्टेशन पर आने वाले यात्रियों और आस-पास रहने वाले लोगों का दावा है कि उन्हें यहां लोगों की अजीबो गरीब आवाजें सुनाई देती हैं. उनका कहना है कि ये आवाजें उन्हीं स्वतन्त्रता सेनानियों की हैं जो ब्रिटिश काल में मारे गए थे.

ब्रिटिश अफसर का साया आज भी शिमला की बरोग सुरंग में मंडराता है!, जानें क्या है इनकी इतिहास

शिमला की खूबसूरती यकीनन मंत्रमुग्ध कर देने वाली है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसे हिल स्टेशनों की रानी कहा जाता है। शिमला में देखने के लिए कई चीजें हैं, जिनमें से एक है ट्रेन की सवारी, जो पहाड़ों की कई सुरंगों से होकर गुजरती है। सबसे लंबी सुरंगों में से एक शिमला-कालका मार्ग पर है जो एक सीधी सुरंग है, जिसे पार करने में करीबन 2 मिनट का समय लगता है। सुरंग से बाहर निकलते ही आप बरोग रेलवे स्टेशन पहुंचेंगे। ये हिल स्टेशन अपने भूतिया किस्सों के लिए जाना जाता है। जी हां, स्थानीय लोगों का कहना है कि इस सुरंग को बनाने वाले इंजीनयर की यहां मौत हो गई, जिसके बाद कई असामान्य घटनाएं यहां देखी जाती हैं। चलिए आपको इस सुरंग से जुड़ी इस भूतिया कहानी के बारे में बताते हैं।

शिमला के बरोग गांव के बारे में -

बरोग एक छोटा सा गांव है, जो हिमाचल प्रदेश में कालका-शिमला राजमार्ग पर पड़ता है। हालांकि ये जगह अंग्रेजों के जमाने में हुई एक अजीब घटना की वजह से आज डरावनी कहानी के साथ लोगों के बीच फैली हुई है। ये कहानी पूर्व ब्रिटिश इंजीनियर, कर्नल बरोग की है, जिनके नाम पर कालका-शिमला रेलवे की सबसे लंबी सुरंग का नाम रखा गया है।

कर्नल को सुरंग बनाने का दिया गया था काम -

ऐसा कहा जाता है कि, इस सुरंग को बनने की जिम्मेदारी कर्नल बरोग को सौंपी गई थी। सुरंग को बनने के लिए कर्नल ने सबसे पहले पहाड़ का इंस्पेक्शन कर दो छोर पर मार्क लगाए और मजदूरों को दोनों छोरों से सुरंग खोदने के आर्डर दे दिए। उनका अंदाजा था कि खुदाई करते-करते दोनों सुरंगे बीच में आकर मिल जाएंगी। लेकिन उनका गलत था और ऐसा नहीं हो पाया।

कैसे खुद को मारी गोली -

कर्नल की ये गलती ब्रिटिश सरकार को रास नहीं आई और उन्होंने उसे नौकरी से निकाल दिया। साथ ही, पैसे की बर्बादी करने पर उन्होंने उस पर 1 रुपए का जुर्माना भी लगा दिया। अपने ऊपर लगे जुर्माने और इल्जामों को लेकर बरोग परेशान रहने लगा और एक दिन सुबह अपने कुत्ते के साथ टहलने के लिए निकल पड़ा। सुरंग के नजदीक जाते ही उसने खुद को गोली मार ली।

इसे पूरा किया गया एक और इंजीनियर से -

कर्नल बड़ोग की मौत के बाद 1900 में सुरंग पर एचएस हर्लिंग्टन ने फिर से काम शुरू किया और 1903 में सुरंग पूरी तरह कर दी गई। ब्रिटिश सरकार ने इंजीनियर के नाम से ही सुरंग का नाम बरोग सुरंग रख दिया। ऐसा कहा जाता है कि एचएस हर्लिंगटन भी इस सुरंग को बना नहीं पा रहे थे। आखिर में चायल के रहने वाले बाबा भलकू ने इस काम को पूरा करवाया। बाबा भलकू ने इस लाइन पर कई अन्य सुरंगें खोदने में ब्रिटिश सरकार की मदद की थी।

होती हैं कई असामान्य घटनाएं -

ऐसा कहा जाता है कि कर्नल बरोग आज भी सुरंग के आसपास घूमता है। लोगों ने उसकी आत्मा आज को बात करते हुए देखा है। कई स्थानीय लोगों ने यहां पूजा-पाठ भी करवाया है, लेकिन इंजीनियर की आत्मा तब भी दिखाई देती है। लोगों ने उसके चिल्लाने की आवाजें भी सुनी हैं।

डिस्क्लेमर: ये लेख सामान्य जानकारियों के उद्देश्य से प्रकाशित किया गया है। यहां बताई गई चीजों की हम पुष्टि नहीं करते हैं।

भारत का भूतिया हिल स्टेशन जहां को लेकर कही जाती हैं ये डरावनी कहानियां

ऐसा कहा जाता है कि डाउ हिल के जंगलों में बडी संख्या में लोगों ने आत्म हत्याएं की थी. स्थानीय लोगों के अनुसार इस जंगल में इंसानी हड्डियों का दिखना किसी जमाने में आम था. ये ही वजह है कि इस जगह को रहस्यमय और डरावनी माना जाता है. ऐसा भी कहा जाता है कि दिसंबर से लेकर मार्च तक यहां विक्टोरिया बॉयज स्कूल में किसी के पैरों की आहट सुनाई देती है. कई लोग सिर कटी लाश को देखने का भी दावा करते हैं. रात के वक्त डाउ हिल के जंगलों में जाने की मनाही है

और ऐसा कहा जाता है कि अगर कोई जाता है तो उसकी मौत हो जाती है. हालांकि इन सारी बातों को कोई प्रमाण नहीं है लेकिन यह चारों तरफ फैली हुई हैं. इन बातों के पीछे की सच्चाई कह पाना काफी मुश्किल है पर ये बातें इस जगह को लेकर न जाने कब से कही जाती है जिस वजह से ये जगह भूतिया और रहस्यमय मानी जाती है.

कहां है डाउ हिल?

डाउ हिल पश्चिम बंगाल में स्थित है. दार्जिलिंग में स्थित कुर्सेओंग हिल स्टेशन के पास डाउ हिल है. इसे भारत का सबसे डरावना हिल स्टेशन माना जाता है. कुर्सेओंग बेहद खूबसूरत जगह है जहां डाउ हिल भी है. डाउ हिल सुंदर होने के साथ ही डरावनी कहानियों के लिए भी प्रसिद्ध है. दार्जिलिंग से डाउ हिल की दूरी करीब 30 किलोमीटर है.

सुनने और पढ़ने में जरूर अजीब लग सकता है लेकिन स्थानीय लोगों के मुताबिक, इस हिल स्टेशन पर सैलानियों को सिर कटे हुए बच्चे का भूत दिखाई देता है. ऐसा भी कहा जाता है कि डाउ हिल के जंगलों में कई लोगों ने भूत को भटकते हुए देखा है.

जहां एक तरफ कुर्सेओंग हिल स्टेशन अपने पर्यटक स्थलों और सुंदरता के लिए मशहूर है वहीं दूसरी तरफ यहां स्थित डाउ हिल को लेकर कई डरावनी कहानियां प्रचलित हैं.

डाउ हिल्स कुर्सेओंग शहर के शीर्ष पर स्थित है. यहां तपेदिक सेनेटोरियम भी है. यहां बेहद पुराना विक्टोरिया बॉइज हाई स्कूल है. स्कूल सर्दियों में बंद रहता है क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान यहां कई आवाजें सुनाई देती हैं.

भगवान हनुमान को नहीं, निंबा दैत्य को पूजते हैं यहां के लोग,और मारुति की गाड़ियों पर प्रतिबंध,जानें इसके पीछे की कहानी

भगवान श्री राम के भक्त और परम मित्र हनुमान को हर हिंदू पूजता है. लेकिन क्या आप जानते हैं महाराष्ट्र के एक गांव में हनुमान भगवान को नहीं बल्कि उनके परम शत्रु निंबा दैत्य को पूजते हैं. इस गांव का बच्चा-बच्चा निंबा दैत्य का भक्त है. यह गांव मुंबई से 350 किलोमीटर दूर अहमदनगर में स्थित है. यहां के लोग निंबा दैत्य को ही आदिपुरुष मानते हैं.

यहां चारों तरफ उस दैत्य का ही राज्य है. इस गांव में भगवान हनुमान जैसे महाबली का नाम भी लेना घोर पाप है. हनुमान, बजरंग बली, मारुति जैसे नाम से लोग यहां नफरत करते हैं. इस गांव के लोगों का मानना है कि भगवान हनुमान जिस पर्वत को संजीवनी बूटी के लिए उठाकर ले गए थे, वह यहीं स्थित था. यही वजह है कि यहां के लोग हनुमानजी से नाराज हैं.

यहां तक कि इस गावं के निवासी लाल झंडा तक नहीं लगा सकते. उनका कहना है कि जिस समय भगवान हनुमान संजीवनी बूटी लेने आए थे, तब पहाड़ देवता साधना कर रहे थे. हनुमान जी ने इसके लिए अनुमति तक नहीं मांगी और न ही उनकी साधना पूरी होने का इंतजार किया. भगवान हनुमान ने पहाड़ देवता की साधना भी भंग कर दी. इतना ही नहीं हनुमान ने द्रोणागिरी पर्वत ले जाते समय पहाड़ देवता की दाई भुजा भी उखाड़ दी.

पर्वत से लाल रंग बहता है

मान्यता है कि आज भी पर्वत से लाल रंग का रक्त बह रहा है. यही वजह है कि द्रोणागिरी गांव के लोग भगवान हनुमान की पूजा नहीं करते और न ही लाल रंग का ध्वज लगाते हैं. इस गांव के लोग अपनी बेटियों की शादी भी ऐसे गांव में नहीं करते जहां भगवान हनुमान की पूजा होती है. गांव में कोई भी शुभ काम करने से पहले निंबा दैत्य महाराज की पूजा की जाती है.

मारुति की गाड़ियां बैन

यहां आप कोई भी गाड़ी लेकर आ सकते हो, शर्त ये है कि वो मारुति कंपनी की गाड़ी नहीं होनी चाहिए. अगर कोई इंसान मारुति की गाड़ी लेकर इस गांव में एंट्री मारता है तो उसकी गाड़ी को तोड़ दिया जाता है. दरअसल, भगवान हनुमान का दूसरा नाम मारुति है. यही वजह है कि द्रोणागिरी गांव के लोग इस नाम को सुनना भी पसंद नहीं करते.

एक ऐसा ऐतिहासिक महल जो आज भी किसी की दर्द भरी आवाज सुनाई देती है, जानें क्या है रहस्य

हिंदुस्तान के अन्य कोनों में भले ही लोग शनिवार वाड़ा के बारे में न जानते हों, लेकिन मराठी लोग इसके बारे में बखूबी जानते हैं। दरअसल, यह एक एतिहासिक महल है, जो कभी मराठा साम्राज्य की आन-बान और शान हुआ करता था, लेकिन आज से करीब 246 साल पहले इस महल में एक ऐसी घटना घटी थी, जिसकी गूंज आज भी सुनाई देती है। इस घटना की वजह से ही लोग इस महल को रहस्यमय मानते हैं। तो चलिए जानते हैं शनिवार वाड़ा की वो रहस्यमय कहानी, जो लोगों को आज भी डराती है...

शनिवार वाड़ा महाराष्ट्र के पुणे में स्थित है, जिसका निर्माण मराठा-पेशवा साम्राज्य को बुलंदियों पर ले जाने वाले बाजीराव पेशवा ने करवाया था। वर्ष 1732 में यह पूरी तरह बनकर तैयार हो गया था। कहा जाता है कि उस समय इसे बनाने में करीब 16 हजार रुपये खर्च हुए थे। तब के समय में यह राशि बहुत अधिक थी। उस समय इस महल में करीब 1000 लोग रहते थे।

कहते हैं कि इस महल की नींव शनिवार के दिन रखी गई थी, इसी वजह से इसका नाम 'शनिवार वाड़ा' पड़ था। करीब 85 साल तक यह महल पेशवाओं के अधिकार में रहा था, लेकिन 1818 ईस्वी में इसपर अंग्रजों ने अपना अधिकार जमा लिया और भारत की आजादी तक यह उनके ही अधिकार में रहा।

कहते हैं कि इसी महल में 30 अगस्त 1773 की रात 18 वर्षीय नारायण राव की षडयंत्र करके हत्या कर दी गई थी, जो मराठा साम्राज्य के नौवें पेशवा बने थे। कहा जाता है कि उनके चाचा ने ही उनकी हत्या करवाई थी। स्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी अमावस्या की रात महल से किसी की दर्द भरी आवाज सुनाई देती है, जो बचाओ-बचाओ चिल्लाती है। ये आवाज नारायण राव की ही है

शनिवार वाड़ा से जुड़ा एक और रहस्य है, जो आज तक अनसुलझा है। वर्ष 1828 में इस महल में भयंकर आग लगी थी, जो सात दिनों तक जलती रही थी। इसकी वजह से महल का बड़ा हिस्सा जल गया था। अब यह आग कैसे लगी थी, ये आज भी एक सवाल ही बना हुआ है। इसके बारे में कोई नहीं जानता।