त्वरित टिप्पणी: झारखंड में महागठबंधन की जीत के हैं क्या मायने,जानिये भाजपा से कहाँ हुई चूक और रणनीतिक भूल...!

विनोद आनंद 

झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन करते हुए बहुमत हासिल किया। 81 सीटों वाली विधानसभा में झामुमो और उसके सहयोगियों ने स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया है। 

यह जीत राज्य के विकास के लिए उनके प्रयासों पर जनता की मुहर मानी जा रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो ने रोजगार, शिक्षा और आदिवासी अधिकारों को चुनावी मुद्दा बनाया।

चुनाव प्रचार के दौरान झामुमो ने स्थानीय समस्याओं, जैसे कि खनिज संपत्तियों के बेहतर उपयोग, आदिवासी क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की कमी और पलायन जैसे मुद्दों को उठाया। इस जीत के बाद हेमंत सोरेन ने कहा कि यह जनता की समस्याओं को हल करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

 झारखंड की जनता ने झामुमो के कामकाज और उनके स्थानीय मुद्दों पर फोकस को समर्थन दिया। भाजपा के राष्ट्रीय एजेंडे की तुलना में झामुमो का स्थानीय दृष्टिकोण अधिक प्रभावी रहा। यह जीत झारखंड में क्षेत्रीय दलों की मजबूती और भाजपा के कमजोर होते जनाधार का संकेत देती है।

यह चुनाव परिणाम झारखंड की राजनीति के लिए नए युग की शुरुआत है, जिसमें जनता की आकांक्षाएं और उनकी समस्याएं प्राथमिकता पर रहेंगी।

भाजपा की हार के कारण


झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा को बड़ा झटका लगा है। पिछली बार की तुलना में इस बार भाजपा का प्रदर्शन कमजोर रहा। झामुमो गठबंधन ने भाजपा को पीछे छोड़ते हुए सरकार बनाने का दावा ठोक दिया है। भाजपा की हार के पीछे कई कारण बताए जा रहे हैं।

 भाजपा ने राष्ट्रीय मुद्दों पर अधिक जोर दिया, जबकि झारखंड में स्थानीय समस्याएं और मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण थे। आदिवासी समुदाय, जो झारखंड की राजनीति में अहम भूमिका निभाता है, इस बार भाजपा से दूर हो गया। खनिज संपत्तियों के प्रबंधन, रोजगार और पलायन जैसे मुद्दों पर भाजपा सरकार का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा।

इसके अलावा, विपक्ष की एकजुटता ने भी भाजपा के खिलाफ माहौल बनाया। झामुमो, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों ने भाजपा के खिलाफ साझा रणनीति बनाकर वोट बैंक को अपने पक्ष में कर लिया। 

भाजपा के स्थानीय नेतृत्व और संगठनात्मक ढांचे में भी कमजोरियां नजर आईं।

यह हार भाजपा के लिए आत्ममंथन का समय है। उन्हें यह समझना होगा कि झारखंड जैसे राज्यों में राष्ट्रीय राजनीति की जगह स्थानीय राजनीति को प्राथमिकता देना जरूरी है। भाजपा की हार यह भी दर्शाती है कि झारखंड में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ रहा है और राष्ट्रीय दलों को इनसे मुकाबला करने के लिए अपनी रणनीति बदलनी होगी।

क्षेत्रीय दलों का प्रभाव


झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 ने क्षेत्रीय दलों की ताकत को फिर से साबित कर दिया है। झामुमो और उसके सहयोगी दलों की जीत ने यह स्पष्ट कर दिया कि झारखंड जैसे राज्यों में स्थानीय मुद्दे और जनभावनाएं राष्ट्रीय राजनीति से कहीं अधिक मायने रखती हैं।

झारखंड मुक्ति मोर्चा ने रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और आदिवासी अधिकारों जैसे मुद्दों को केंद्र में रखा। उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान यह सुनिश्चित किया कि उनकी प्राथमिकता झारखंड के लोगों के जीवन को बेहतर बनाना है। इस दौरान भाजपा ने राष्ट्रीय मुद्दों को केंद्र में रखा, लेकिन वह जनता को प्रभावित करने में असफल रही।

चुनाव परिणामों ने यह दिखाया कि जनता ने क्षेत्रीय दलों को अधिक महत्व दिया। झामुमो की इस जीत को देश में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव का उदाहरण माना जा रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि झारखंड जैसे राज्यों में राष्ट्रीय राजनीति का सीमित प्रभाव है और यहां के लोगों को अपने स्थानीय मुद्दों के समाधान के लिए क्षेत्रीय दलों पर अधिक भरोसा है।

झारखंड में इस बार का चुनाव परिणाम न केवल झामुमो के लिए, बल्कि देशभर के क्षेत्रीय दलों के लिए भी एक संदेश है। इससे अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों को भी अपनी रणनीति बनाने और जनता से जुड़ने के लिए प्रेरणा मिलेगी।

महिला मतदाताओं की निर्णायक भूमिका


इस बाऱ झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 के परिणामों में महिलाओं की भूमिका निर्णायक रही। झामुमो की जीत के पीछे महिला मतदाताओं का समर्थन अहम माना जा रहा है। हेमंत सोरेन सरकार ने महिला सशक्तिकरण और उनके अधिकारों के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं, जिसका असर इस चुनाव में देखने को मिला।

महिलाओं ने झामुमो को वोट देते हुए रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिकता दी। चुनाव प्रचार के दौरान झामुमो ने महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर, बालिका शिक्षा और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर फोकस किया। इन मुद्दों ने महिला मतदाताओं को झामुमो की तरफ आकर्षित किया।

झारखंड के कई क्षेत्रों में महिला मतदाताओं ने चुनाव परिणामों को प्रभावित किया। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर मतदान किया और अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट किया। झारखंड के कई आदिवासी इलाकों में महिलाओं का समर्थन झामुमो के पक्ष में रहा।

हेमंत सोरेन ने चुनाव परिणामों के बाद अपने भाषण में महिला मतदाताओं का विशेष रूप से धन्यवाद दिया और वादा किया कि उनकी सरकार महिलाओं के लिए रोजगार और सुरक्षा पर विशेष ध्यान देगी। इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि महिला मतदाता अब झारखंड की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा रही हैं।

आदिवासी समुदाय का समर्थन झामुमो के साथ


झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में झामुमो को आदिवासी समुदाय का भरपूर समर्थन मिला। राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में झामुमो ने भाजपा को भारी अंतर से हराया। झामुमो की जीत के पीछे आदिवासी समुदाय के अधिकारों और उनकी समस्याओं पर केंद्रित नीतियां मानी जा रही हैं।

हेमंत सोरेन ने आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं। खनिज संपत्तियों का उचित प्रबंधन, वनाधिकार कानून का प्रभावी क्रियान्वयन और आदिवासी संस्कृति का संरक्षण जैसे मुद्दों ने आदिवासी समुदाय का विश्वास जीतने में अहम भूमिका निभाई।

चुनाव प्रचार के दौरान झामुमो ने आदिवासी क्षेत्रों में अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखी। भाजपा की नीतियों को आदिवासी विरोधी बताते हुए उन्होंने वोट बैंक को अपने पक्ष में कर लिया।

आदिवासी समुदाय ने इस बार बड़े पैमाने पर मतदान किया और झामुमो को अपना समर्थन दिया। यह समर्थन दर्शाता है कि झारखंड की राजनीति में आदिवासी समुदाय का प्रभाव कितना महत्वपूर्ण है।

झामुमो की इस जीत ने यह साबित कर दिया है कि स्थानीय समुदायों के साथ संवाद और उनके मुद्दों पर ध्यान देना किसी भी राजनीतिक दल की सफलता के लिए अनिवार्य है। अब झामुमो के सामने चुनौती होगी कि वह इस समर्थन को आगामी पांच वर्षों में कैसे बनाए रखे।

सम्पादकीय : रतन टाटा नहीं रहे लेकिन उन्होंने सफल उधमी के रूप में अपने सामजिक सरोकार के लिए युग युग तक याद किये जायेंगें

विनोद आनंद 

मौत शास्वत सत्य है! जिसे कोई टाल नहीं सकता!इस नश्वर शरीर का भौतिक स्वरूप का नष्ट होना एक स्वभाविक प्रक्रिया है, लेकिन अगर इस शरीर और स्वरूप द्वारा कुछ अच्छा कर्म किया गया हो तो ऐसे लोगों का भौतिक शरीर भले हीं नष्ट हो जाए लेकिन उसका बजूद कभी समाप्त नहीं होता.

रतन टाटा एक ऐसे हीं व्यक्तित्व थे.कल बुधवार को देर शाम को उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया यह दुःखद और मार्मिक क्षण है लेकिन रतन टाटा जैसे लोग कभी मरते नहीं. ये युग युग तक जिन्दा रहते हैं.

रतन टाटा एक प्रभावशाली उद्योग पति थे. वे 30 से अधिक कंपनियों को नियंत्रित कर रहे थे. छ महाद्वीप के 100 से अधिक देशों में इनके कंपनी संचालित हैं. लेकिन इन्होने कभी अपने जीवन में आडम्बर नहीं किया. कोई भी ऐसा काम या आयोजन नहीं किया जिसमे अरबो रूपये पानी के तरह बहाये गए हो. बिलकुल साधारण जीवन जिया. शालीनता और ईमानदारी से एक संत के तरह अपने जीवन के हर पल को विताया.

 लेकिन अपने कर्मचारी को उसके परिश्रम के अनुरूप वेतन, सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा और मानव कल्याण के लिए दिल खोल कर दान किया.इसी लिए इन्हे पंथ निरपेक्ष संत के रूप में भी लोग देखने लगे. वे विनम्र और दयालू थे. असाधारण इंसान थे. हमेशा परोपकार में लगे रहे. 

रतन टाटा के नेतृत्व में ना मात्र औधोगिक विस्तार हुआ बल्कि विकास के कई अध्याय की शुरुआत भी हुई जिसमे शिक्षा, चिकित्सा मानव कल्याण समेत कई परियोजनाए है.जिसकी एक लम्बी सूची है जिसे उन्होंने शुरू किया या अनुदान देकर उसे बढ़ावाया.

रतन टाटा ने भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने मातृ स्वास्थ्य, बच्चे के स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और कैंसर, मलेरिया और क्षयरोग जैसी बीमारियों के डायग्नोसिस और इलाज के लिए भी सहयोग किया है.

उन्होंने अल्ज़ाइमर रोग पर अनुसंधान के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में न्यूरोसाइंस केंद्र को ₹750 मिलियन का अनुदान भी प्रदान किया.

रतन टाटा की कैरियर की बात करें तो 1990 से 2012 तक वे टाटा ग्रुप के अध्यक्ष रहे और अक्टूबर 2016 से फरवरी 2017 तक अंतरिम अध्यक्ष. 

वे अपने करियर की शुरुआत से ही दूर दृष्टि रखने वाला व्यक्ति थे अपने असाधारण कौशल से उन्होंने विश्व भर की पीढ़ियों को प्रेरित किया .

रतन टाटा ने कहा था कि -“जिन मूल्यों और नीतियों से मैंने जीने का प्रयास किया है, उनके अलावा, जो विरासत मैं छोड़ना चाहूंगा, वह एक बहुत आसान है - मैंने हमेशा उसके लिए खड़ा रखा है जिसे मैं सही बात समझता हूं, और मैंने जैसा भी हो सकता हूं, उतना ही निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होने की कोशिश की है."

उन्होंने उन्होंने वास्तुकला में स्नातक की डिग्री के साथ कॉर्नेल विश्वविद्यालय कालेज ऑफ आर्किटेक्चर से स्नातक किया. वह 1961 में टाटा में शामिल हुए जहां उन्होंने टाटा स्टील के दुकान के फर्श पर काम किया. बाद में उन्होंने वर्ष 1991 में टाटा सन्स के चेयरमैन के रूप में सफलता हासिल की.

रतन टाटा का जीवन यात्रा विश्व में सकारात्मक प्रभाव डालने वाला रहा.उनका पूरा जीवन दर्शन पुरे दुनिया को मूल्यवान सबक प्रदान करता है. उत्कृष्टता, नवान्वेषण और अनुकूलता पर उनका ध्यान हमेशा रहा.

 टाटा समूह की सफलता तथा नैतिक नेतृत्व तथा कारपोरेट के सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और योगदान ने पूरी दुनिया को एक नया सन्देश दिया. इसके अतिरिक्त उनकी टीमवर्क और सततता पर उनका जोर एक ऐसा उदहारण है जो हर नेतृत्व करने वालों के लिए आने वाले समय में मार्गदर्शन करता रहेगा.

उनमे एक सफल प्रबंधकीय गुण के साथ करुणा और इच्छा, सभी के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य करेगा. ये सबक न केवल बिज़नेस लीडर के लिए प्रासंगिक हैं, बल्कि ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए जो दुनिया में सकारात्मक प्रभाव डालना चाहता है.

आज रतन टाटा चले गए लेकिन उन्होंने एक उधमी और सफल व्यक्ति के रूप में जो रास्ता बनाया उस पर चलकर युग युगन्तर तक आने वाले पीढ़ी को मार्ग दर्शन करते रहेगा.

त्वरित टिप्पणी :झारखंड में विधानसभा चुनाव को लेकर सह-मात का खेल जारी, जनता भ्रम में, कौन बेहतर.....?

झारखंड कि जनता के बीच जिस तरह राजनितिक दलों का सह -मात का खेल चल रहा है उस स्थिति में जनता किस करबट लेगी और अपना वोट किस पाले में डालेगी यह तो समय बताएगा. लेकिन युद्ध तेज़ है, घमासान मचा हुआ है,और जनता भ्रम में है कौन अच्छा कौन बुरा... जनता का यह निर्णय अब समय तय करेगा.....!पढ़िये पूरा विश्लेषण...!

विनोद आनंद 

सम्भवत: झारखंड में विधानसभा चुनाव नवम्बर या दिसम्बर में होगी, तिथि की घोषणा नही हुई लेकिन सम्भावना है कि अक्टूबर माह में चुनाव आयोग द्वारा तिथि की घोषणा हो जाएगी।

लेकिन ज्यों-ज्यों विंधानसभा चुनाव का समय निकट आते जा रहा है झारखंड में सियासी उठा पटक शुरू हो गयी है।यह स्थिति पक्ष में भी है और विपक्ष में भी।

   

इस सियासी उठा -पटक में आने वाले समय में राजनीतिक समीकरण क्या होगा यह आने वाला समय तय करेगा लेकिन अगर हम सत्ता पक्ष की बात करें तो महागठबंधन के अंदर भी सियासी घमासान है। सीटों को लेकर और अपने वजूद को लेकर।

भाजपा अपनी रणनीतिक भूल के कारण झारखंड में शिबू सोरेन परिवार की स्थिति काफी मजबूत कर दी है। पिछले पांच सालों में लगातार कई कमियों के वाबजूद भी हेमन्त सोरेन के साथ जनता की सहानुभूति दिख रही है।

ईडी द्वारा हेमन्त सोरेन को जेल में डालना और उसके विरुद्ध कोई ठोस एविडेंस नही जुटा पाना भाजपा के लिए एक ऐसा वजह बन गया कि भाजपा पूरी फ़ौज और रणनीतिकार को मैदान में उतारने के वाबजूद भी अपने पक्ष में हवा नहीं बना पा रही है.

इधर हेमंत सोरेन और दिल्ली के सीएम अरबिंद केजरीवाल को लेकर कोर्ट की जो टिप्पणी आयी उससे ईडी की स्थिति और हास्यस्पद सी हो गयी है। ऐसा नहीं है कि ईडी ने इस अवधि में अच्छे काम नहीं किये, मनरेगा घोटाला में रुपये की बरामदगी, कमीशन घोटाले का उजागर कुछ इस तरह का काम था जो ईडी को सफलता मिली, लेकिन हेमंत सोरेन जो झारखंड के एक सिटिंग मुख्यमंत्री थे उनको बिना किसी ठोस एविडेंस, को जेल भेज देने की घटना को झारखंड की जनता नहीं पाचा पायी. एक धरना बन गयी की ईडी किसी के इशारे पर हेमंत सोरेन के राजनितिक शक्ति को छिन्न भिन्न करना चाहती है. लेकिन हुआ उल्टा. भाजपा की इस पुरे प्रकरण में बहुत क्षति हुआ. हेमन्त सोरेन मामले में ईडी की कारवाई ने इसके सारे उपलब्धि पर पानी फेर दिया है।

अभी झारखंड के सियासी समर में हेमन्त सोरेन को जेल जाने के बाद घर की दहलीज से बाहर आई कल्पना सोरेन के रूप में झारखंड मुक्ति मोर्चा को एक ऐसा मज़बूत चेहरा मिल गया जो सिर्फ झारखंड हीं नही राष्ट्रीय राजनीति में भी एक मज़बूत चेहरा बन गयी.

आज कल्पना सोरेन की दहाड़ की गूंज ना मात्र झारखंड बल्कि दिल्ली, मुम्बई में गूंज चुकी और देश के युवाओं और महिलाओं के बीच एक लोकप्रिय चेहरा बन गयी।हेमन्त सोरेन और कल्पना सोरेन आज भाजपा के पूरी फ़ौज पर भारी पड़ रही है।

इधर केंद्र में राहुल गांधी के तेबर और सियासी चाल भाजपा के आत्म विश्वास को लगातार तोड़ रहा है, मोदी मैजिक के मिथक को बहुत हद तक राहुल ने तोड़ दिया,और रही सही कसर को भाजपा और आरएसएस का अंदरूनी विवाद ने पूरा कर दिया.

केंद्र में कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव को लेकर झारखंड कांग्रेस के कुछ नेताओं के बोल भी बदलने लगे. कांग्रेस के झारखंड प्रभारी गुलाम अहमद मीर ने यह कह दिया कि अगर कांग्रेस के 30 विधायक हो जाये तो सीएम कांग्रेस का भी हो सकता है.

यह कहने के पीछे संदर्भ जो भी रहा हो लेकिन झामुमो के कुछ नेताओं और कार्यकर्ताओं में जरूर बौखलाहट है.अंदरूनी सूत्रों से जो बात छन कर आ रही है उसके अनुसार महागठबंधन में कांग्रेस भी सीट बढ़ाने के फिराक में है वहीं राजद और माले भी ज्यादा सीट कि चाहत रखती है.

जबकि सच यह है कि झारखंड में जमीनी स्तर पर ना तो कांग्रेस का संगठन है और नहीं राजद का. कुछ मज़बूत चेहरा जिनका प्रभाव जनता में है और हेमंत सोरेन या झामुमो के बैशाखी के सहारे चुनावी बैतरणी पार करने में यह दोनों संगठन कामयाब होते हैं.

ऐसे हालत में राजद और कांग्रेस को कोई ऐसा जोखिम नहीं लेना चाहिए जो पार्टी के सेहत के लिए मुश्किल स्थिति उत्पन्न कर दे. 

बहरहाल जानता कि सहानुभूति हेमंत के साथ दिख रही है. कुछ योजनाए महिला वोटर को आकर्षित किया. भाजपा इसके काट और प्रभाव को काम करने के लिए कई योजनाओं कि घोषणा कर रही है. अब इसका कितना असर जनता पर पड़ेगी और कौन झारखंड के इस महासमर में जीत पायेगा. यह तो समय बतायेगा.

फिर भी कहा जा सकता है झारखंड कि जनता के बीच जिस तरह राजनितिक दलों का सह मात का खेल चल रहा है उस स्थिति में जनता किस करबट लेगी और अपना वोट किस पाले में डालेगी यह तो समय बताएगा. लेकिन युद्ध तेज़ है, घमासान मचा हुआ है,और जनता भ्रम में है कौन अच्छा कौन बुरा... जनता का यह निर्णय समय तय करेगा.....!

सम्पादकीय : झारखंड सिपाही भर्ती अभियान में युवाओं की मौत और बेहोशी पर राजनीती नहीं, केंद्र और राज्य सरकार को बजह पर मंथन की जरूरत है

दुखी हूं..! और क्षुब्ध भी! सरकार के उस व्यवस्था से जिसके कारण झारखंड के कई युवाओं को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा।

वे इस सपने के साथ गए थे कि उन्हें नौकरी मिलेगी।वे अपने जीवन की नई शुरुआत करेंगे।उनके मां-बाप को भी यह उम्मीद था कि उनके बच्चे घर खुशी के संदेशा लेकर आएंगे।

लेकिन सन्देशा आया..! खुशी का नही बल्कि एक ऐसा दुख का जो उन्हें अंदर तक हिला दिया।उनके बच्चे हीं इस दुनियां में नही रहे। एक ऐसा दुखद खबर जिसकी पीड़ा उन्हें जीवन भर रहेगी। उन सभी की पीड़ा से आज उनका पूरा गांव और ज्वार दुखी है। और देश की जनता भी! 

हम बात कर रहे हैं उत्पाद विभाग के सिपाही की बहाली की। जिसमे बच्चे दौड़ते हुए बेहोश होते रहे ,मरते रहे लेकिन सरकार संवेदनहीन रही।

इस सूचना के बाद भी इस प्रतियोगिता को तत्काल रोक कर मौत के कारणों की पहले जांच नही की गई । घटना के बाद और घटना नही घटे इसके लिए इन सभी प्रतिभागियों के स्वास्थ्य की जांच नही की गई।

 किसी जगह अगर यह घटना हुई तो अन्य जगहों पर तत्काल डॉक्टरों की टीम बैठाकर पहले इन प्रतिभागियों की स्वास्थ्य की जांच की जानी चाहिए थी और अगर वह दौड़ने के योग्य है तो फिर उसे दौड़ने की परमीशन दी जानी चाहिए थी।

जैसा कि कुछ जगहों से डॉक्टरों के यह बयान सामने आ रहे हैं कि दौड़ने के लिए स्टेमिना बढ़ाने वाली कुछ दवाइयाँ ली होगी जिसके कारण यह हादसा हुआ है।

हालाकिं यह सही नही लगता कि यह घटना कुछ दवाइयों के प्रयोग के कारण हुआ है, लेकिन जिस कारण भी यह हादसा हुआ है तो इस मौत की दौड़ को पहले इसे रोक देनी चाहिए थी।उसके बाद पहले प्रतिभागियों का मेडिकल जांच करना चाहिए था कि कहीं ये दौड़ में शामिल प्रतिभागी कहीं किसी दवा का प्रयोग तो नही किया है। जैसा कि खेल में होता है।अगर पकड़े जाते हैं तो पहले जांच और उसके बाद डिसक्वालिफाई कर दिया जाता है।अगर यह दवा का साइड इफेक्ट था तो लोगों की जान बचायी जा सकती थी.

जैसा कि आधिकारिक सूचना है कि झारखंड उत्पाद सिपाही की बहाली के दौड़ में अब तक 11 अभ्यर्थियों की मौत,हुई और 80 की हालत गंभीर है।

अधिकारिक सूचना के अनुसार जिन 11 अभ्यर्थियों की अब तक शारीरिक परीक्षा दौड़ के दौरान मृत्यु की बात सामने आई है, उसमे झारखंड जगुआर कैंपस में जो बहाली प्रक्रिया चल रही है उसमें एक अभ्यर्थी की मौत , गिरिडीह पुलिस लाइन में दो , हजारीबाग स्थित पदमा में 2 , पलामू में चार , साहेबगंज में एक, मुसाबनी में एक अभ्यर्थी की मौत हुई है।

इन अभ्यर्थियों की मौत का कारण का पता लगाने के लिए यूडी केस दर्ज कर अनुसंधान किया जा रहा है।यह भर्ती अभियान 22 अगस्त से शुरू की गई थी 3 सितंबर तक चलेगी. 

 इसके लिए जैसा कि सूचना है नौकरी के लिए प्रतिभागियों को 10 किलोमीटर तक दौड़ का चक्कर लगाना था ।इस दौड़ में . हर दिन युवा बेहोश होते रहे और उनकी मौत होती रही फिर भी यह मौत का दौड़ चलता रहा।

कुछ युवा इसमें से खुश नसीब होंगे जो मौत पर विजय पाकर इस नौकरी को प्राप्त कर लें।लेकिन यह भारत के इतिहास में शायद पहली घटना होगी की महज एक सिपाही की नौकरी के लिए इतने लोगों की जान गई और इतने लोग बेहोश हुए।

यह साधारण घटना नही है।और ना राजनीति करने का विषय है,बल्कि चिंता करने का विषय है। अचानक यह मौत क्यों और कैसे हुई इस पर ना सिर्फ राज्य सरकार बल्कि केंद्र सरकार को भी एक मेडिकल टीम गठन करने की जरूरत है।

डॉक्टरों को सिर्फ अनुमान लगाकर बयानबाजी करने से भी बचना चाहिए। जैसा कि मैंने कहीं पढ़ा कि कुछ डॉक्टर कह रहे हैं कि किसी नशीले दवा का प्रयोग किया गया। तो कुछ कह रहे हैं कि ओ आर एस की कमी से, कुछ कह रहे हैं प्रक्टिश में खामियां, और ना जाने और क्या क्या कह रहे हैं। डॉक्टरों को अपने अनुमान आधारित बक्तब्य से बचना चाहिए ।

क्योंकि यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है। इस मौत का वजह कुछ भी हो सकता है, अचानक हार्ट स्ट्रोक,या अन्य बिमारी। इन मौत का वजह कोरोना वैक्सीन भी हो सकता है या अन्य कोई कारण! 

 इस पर भी मंथन और जांच की जरूरत है।इसके लिए मृतक के परिवार से भी मरने वाले युवाओं की पूरी हिस्ट्री लेनी होगी, उसे कोई बीमारी थी, कोरोना का कौन वैक्सीन लिया था, क्या उसे कोरोना भी हुआ था, उसके अलावे जो भी मौत का वजह हो इसकी जाँच की जानी चाहिए।

पिछले कुछ वर्षों से लगातार लोग चलते-फिरते गिर कर मर रहे हैं, डांस करते मर रहे हैं,जिसमे स्वस्थ और सही सलामत युवा और बच्चे भी हैं।यह मौत का सिलसिला आने वाला एक बहुत बड़ा खतरा का कारण है. जिस पर सरकार और मेडिकल टीम को बहुत हीं गंभीर होकर रिसर्च करने की जरूरत है।

 लेकिन सरकार और सरकारी तंत्र इस मामले को लेकर उदासीन है। सिपाही बहाली की मौत को एक सबक के रूप में लेकर इस पर गहन जांच और मंथन की जरूरत है।साथ ही साथ सिपाही बहाली के लिए इतने जटिल शारीरिक जांच के नियमों और मानदंड पर भी समीक्षा की भी जरूरत है ।

इसके अलावे अंत में हेमंत सरकार से आग्रह है कि इस दौड़ में मृत युवाओं के परिवार को ऐसी कुछ राहत दी जाए जिससे वे इस दुख से वे उबर पाएं।

त्वरित टिप्पणी :- क्या झामुमो से अलग होकर चम्पई सोरेन की राजनीतिक डगर आसान है ..?

- विनोद आनंद 

झारखण्ड के पूर्व सीएम चंपई सोरेन ने झारखण्ड मुक्ति मोर्चा से बगावत कर अंततः अपनी एक अलग पार्टी बनाने की घोषणा कर दी. 

पिछले दिन जेल जाने से पूर्व हेमंत सोरेन ने चम्पाई सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर इस उम्मीद से आसीन करा दिया था कि जब वे जेल से छूट कर वापस आएंगे तो आसानी से चम्पाई जी कुर्सी छोड़ देंगे और फिर वे सीएम बन जायेंगें.

हुआ भी कुछ ऐसा हीं, लेकिन कुर्सी बहुत बुरी चीज है.जब इसकी लत लग जाती है तो बहुत आसानी से नहीं छुटता,वह भी सीएम कि कुर्सी..! 

खैर! चर्चा हम इस पर करेंगें कि चम्पाई सोरेन ने जो कदम उठाया उससे उन्हें आने वाले दिनों में कितना राजनितिक लाभ मिलेगा.और झारखण्ड की राजनीती में वे कितने मज़बूती से उभर पाएंगे. क्योंकि अलग पार्टी बना लेना और फिर स्थापित हो जाना बहुत आसान नहीं है. चम्पई सोरेन का कोल्हान के अपने विधान सभा में जरूर प्रभाव रहा होगा. लेकिन पुरे झारखण्ड में अभी उनकी जमीन तैयार नहीं हो पायी है. हाँ इतना जरूर हुआ है कि सीएम बनने के बाद पुरे झारखण्ड में लोग उन्हें जान जरूर गए हैं.

वैसे उन्हें जेएमएम के कोल्हान क्षेत्र के सबसे बड़े नेता के रूप में अधिमान्यता थी.वे साल 1991 से विधायक बनते रहे हैं. झारखंड मुक्ति मोर्चा में कई बार विभाजन के बाद भी वो शिबू सोरेन के साथ डटे रहें थे. हालांकि उनके साथ कितना वोट बैंक है इसका टेस्ट अभी आने वाले विधानसभा चुनाव में हो जाएगा.

 वैसे पिछले कुछ दिनों से यह चर्चा जरूर थी कि वे बीजेपी में शामिल होंगे.लेकिन बात नहीं बनी. शायद बीजेपी में जाना उनके लिए ज्यादा बेहतर होता. लेकिन बीजेपी से बात नहीं बनी. 

अंततः उन्होंने तीसरा रास्ता निकला, उनके पास और कोई उपाय भी नहीं था. अब देखना है कि इस रास्ते से अपनी राजनितिक सफर का रास्ता उनके लिए कितना आसान है.

वैसे अगर हम पुराना इतिहास देखें तो जेएमएम से विद्रोह कर अलग पार्टी बनने वालों या अन्य पार्टी में शामिल होने वाले बहुत कम लोग सफल हो पाएं हैं. 

झारखण्ड मुक्तिमोर्चा की राजनिति का केंद्र विन्दु आदिवासी और कुर्मी वोट रहा है.थोड़ा बहुत मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक का वोट भी है. चूकीं शिबू सोरेन का परिवार संथाल समाज से आते हैं और संथाल समाज का वे सर्व मान्य नेता हैं,इसी लिए संथाल का समर्थन झामुमो के साथ रहा, चम्पई को भी इसी लिए संथाल या अन्य आदिवासी मत मिलते थे कि वे झामुमो के नेता थे.

झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना ए.के. रॉय, बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन ने की थी. बाद के दिनों में जेएमएम ने संसदीय राजनीति में हिस्सा लिया. पार्टी में समय-समय पर टूट होती रही है. साल 1993 में पार्टी के 2 सांसद और 9 विधायक बिनोद बिहारी महतो के बेटे राजकिशोर महतो और कृष्णा मार्डी के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया था. बाद के दिनों में जेएमएम मार्डी गुट का अस्तित्व खत्म हो गया और कृष्णा मार्डी और राजकिशोर महतो लंबे समय तक राजनीतिक के नैपथ्य में रहे. 

कोल्हान और संथाल के बड़े नेता भी जेएमएम से अलग होकर नहीं बचा पाए अपना अस्तित्व

कोल्हान के क्षेत्र में एक दौर में शैलेंद्र महतो बेहद कद्दावार नेता माने जाते थे. शैलेंद्र महतो बेहद पढ़े लिखे नेता रहे हैं. हालांकि सांसद रिश्वत कांड के बाद उन्होंने देश की संसद में जेएमएम पर गंभीर आरोप लगाते हुए जेएमएम छोड़ दिया था. बाद में उनकी पत्नी आभा महतो जमशेदपुर से कई बार सांसद बनी हालांकि अब वो और उनका परिवार सक्रिय राजनीति से लगभग दूर है. 

इसी तरह संथाल के क्षेत्र में भी राजमहल से कई बार सांसद बनने वाले साइमन मरांडी और हेमलाल मूर्मू ने भी विद्रोह किया. लेकिन दोनों ही नेताओं को बाद में वापस जेएमएम में आना पड़ा. स्टीफन मरांडी को पार्टी ने विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाया था. हालांकि बाद में दुमका विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने को लेकर हुए टकराव के बाद उन्होंने जेएमएम छोड़ दिया था. बाद में फिर उनकी जेएमएम में वापसी हो गयी.

कभी शिबू सोरेन के थिंक टैंक कहे जाने वाले सूरज मंडल आज हो गए गुमनाम

 एक दौर में जेएमएम की राजनीति में सूरज मंडल को शिबू सोरेन के बाद दूसरा सबसे कद्दावर नेता माना जाता था. सच तो यह था कि सूरज मंडल को झामुमो में चाणक्य माना जाता था. लेकिन सूरज मंडल ने भी जेएमएम से विद्रोह कर के रामदयाल मुंडा के साथ मिलकर झारखंड विकास दल का गठन किया था. उनकी राजनीति भी लगभग खत्म हो गयी. और वे आज गुमनामी कि जिंदगी जी रहे हैं.

भाजपा का दामन थाम कर आज बचाये हुए हैं कुछ नेता

जेएमएम से विद्रोह करने वाले अधिकतर नेताओं की या तो राजनीति खत्म हो गयी है या बाद में वो फिर जेएमएम में वापस आ गए हैं. लेकिन इन सबके बीच अर्जुन मुंडा और विद्युत वरण महतो अपवाद की तरह हैं. जो आज भाजपा का दामन थाम कर अपनी राजनितिक जमीन बचा पाए. अर्जुन मुंडा पहली बार जेएमएम की टिकट पर चुनाव जीते थे. बाद में बीजेपी में शामिल हो गए. अर्जुन मुंडा कई बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने और केंद्र में भी उन्हें मंत्री बनाया गया. इसी तरह विद्युत वरण महतो भी जेएमएम से बीजेपी में शामिल हुए और लगातार तीसरी बार वो जमशेदपुर से चुनाव जीतने में सफल रहे हैं. ये दोनों नेता अपवाद की तरह हैं जिन्होंने जेएमएम छोड़ने के बाद भी अपनी राजनीति को बचाया है. 

झारखंड की राजनीती की दिशा आदिवासी-कुर्मी वोट करती है तय

झारखण्ड मुक्तिमोर्चा हो या अन्य दल झारखंड की राजनीतिक में सत्ता के सोपान पर पहुँचने के लिए आदिवासी और कुर्मी वोटर्स का सहारा जरुरी हो जाता है. वहीं 

 अल्पसंख्यक वोटर्स की संख्या भी यहाँ अच्छी खासी रही है. जिसका समर्थन कांग्रेस और झामुमो को मिलती रही है.पिछले चुनाव में आदिवासी और मुस्लिम मतों की गोलबंदी और महतो वोट बैंक में भी सेंध लगाकर जेएमएम ने सफलता हासिल की थी. अब सवाल उठता है की चम्पाई क्या आदिवासियों के कोल्हान में सर्वमान्य नेता बन पाएंगे, आदिवासी और कर्मी वोटों का सेंधमारी कर पाएंगे.क्योंकि चम्पाई और हेमंत दोनों संथाल समाज से आते हैं. और संताल के साथ अन्य आदिवासियों का समर्थन आज भी झामुमो के साथ है. इस लिए झारखण्ड के राजीनीति में झारखण्ड से अलग होकर अपनी नयी पार्टी के साथ चम्पाई का डगर बहुत आसान नहीं है. लेकिन इतना वे जरूर करंगे की किउक वोट इंडिया एलाइंस का काट कर भाजपा के डगर को जरूर आसान बना देंगे. आगे देखिये झारखण्ड की राजनीती में क्या होता है.

संपादकीय: भारत में लगातार बढ़ते रेल हादसे का दोषी कौन..? राष्ट्र की जीवन रेखा माने जाने वाली भारतीय रेल व्यवस्था की है समीक्षा की जरुरत...!

विनोद आनंद 

मोदी सरकार के अनुसार भारत तेज़ी से आगे बढ़ रहा है. रैकिंग के अनुसार आर्थिक शक्ति के रूप में भारत विश्व के 5 वें स्थान पर है, विज्ञान,टेक्नोलोजी में भी हम आगे बढ़ रहे हैं.

 रेल परियोजनाओं में भी हम जापान और अन्य विकसित देशो के प्रतिस्पर्धाओं में शामिल हो रहें हैं. बुलेट ट्रैन और बन्दे भारत ट्रेन द्वारा मोदी जी ने भारत को रेल परियोजनाओं में आगे बढ़ाया, दुनिया में भारत की जय जयकार हो रही है,साथ हीं विश्व के आर्थिक शक्ति के रूप में तेज़ी से आगे बढ़ रहे भारत के 80 करोड़ जनता को सरकार द्वारा दी गयी मुफ्त चावल पर दो वक्त का भोजन मिलता है.रोजगार के अभाव देश के युवा दर दर की ठोकरें खा रहे हैं. देश के किसान आत्महत्या कर मर रहे हैं.

यह कैसा भारत है..? जिस भारत को मोदी सरकार के अनुसार दुनिया के सभी देश विश्व के आर्थिक शक्ति के रूप में देख रही है उस देश की जनता इतना बदहाल, इतना गरीब की उन्हें भीख के राशन पर जिन्दा रहना पड़ता है.

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व्यवस्था इतना जर्ज़र की ग़रीबी के रैंकिंग में भी भारत आगे है . रेल परियोजनाओं एवं टेक्नोलोजी का दम्भ भरने वाले भारत में हर रोज दुर्घटनायें हो रही है .. इन दुर्घटनाओं में लोगों की जान जा रही है.

 हम आज भारत की रेल व्यवस्था की बात करते हैं जिस रेलवे को भारत के विकास का लाइफ लाइन माना जाता उसकी क्या स्थिति है.

पिछले 18 जुलाई 2024 से अगर हम अब तक की बात करें तो 7 रेल दुर्घटनायें हो चुकी है. यानि पिछले 13 दिन में 7

 रेल दुर्घटनायें,सोचिये हम हमारी व्यवस्था कितनी मज़बूत और कितना सुरक्षित है. 

अगर इन दुर्घटनाओं पर हम नज़र दौरायें तो 18 जुलाई से 30 जुलाई तक रेल हादसा में कई जाने गयी कई लोग घायल हुए.

18 जुलाई को चंडीगढ़-डिब्रूगढ़ रेल हादसा, 4 लोगों की मौत, 31 घायल. 19 जुलाई को गुजरात के वलसाड़ में माल गाड़ी पटरी से उतरी. 20 जुलाई को यूपी के अमरोहा में मालगाड़ी के 12 डिब्बे पटरी से उतरे. 21 जुलाई को राजस्थान के अलवर में मालगाड़ी के 3 डिब्बे पटरी से उतरे. 21 जुलाई को ही पश्चिम बंगाल के रानाघाट में मालगाड़ी पटरी से उतरी. 26 जुलाई को ओडिशा के भुवनेश्वर में मालगाड़ी पटरी से उतर गई. 29 जुलाई को बिहार के समस्तीपुर में बिहार संपर्क क्रांति के डिब्बे अलग हो गए. और 30 जुलाई को झारखंड के चक्रधरपुर में हावड़ा से मुंबई जा रही यात्री ट्रेन पटरी से उतर गई. 3 लोगों की मौत और 40 लोग घायल हुए हैं.इन दुर्घटनाओं में कई लोगों की जान गयी.

इसके पहले एक साल पूर्व सात जुलाई, 2023 को उड़ीसा के बालासोर में हुए ट्रेन हादसा में 296 लोग मारे गए थे और 1,200 से अधिक घायल हुए थे.

इस रेल हादसा के बाद पूरा देश के सामने यह सवाल उठने लगा की लोगों के लिए रेल यात्रा अब कितना सुरक्षित रह गया.और इन हादसों के लिए कौन जिम्मेबार है. हालांकि बालासोर दुर्घटना के बाद रेल दुर्घटना को रोकने के लिए कवच तकनीकी की खूब चर्चा हुई और सवाल उठा की अगर सरकार इस दुर्घटनारोधी तकनीकी को रेलवे लाइन में लगाने की व्यवस्था करती तो इतने निरीह लोगों की जान नहीं जाती लेकिन इस दुर्घटना के बाद भी सरकार नहीं चेती और नहीं दुर्घटना पर अंकुश लगे इसकी कोई व्यवस्था की. 

बस इस दुर्घटना की जाँच सी बी आई को सौंप कर निश्चित हो गयी और सीबीआई ने भी बालासोर दुर्घटना मामले में सीनियर सेक्शन इंजीनियर (सिग्नल) अरुण कुमार महंत, सीनियर सेक्शन इंजीनियर (सिग्नल) मोहम्मद आमिर खान और टेक्नीशियन पप्पू कुमार को गिरफ्तार कर सारा दोष इस पर थोप कर होने कर्तव्य का इतिश्री कर लिया.जबकि इस दुर्घटना और पहलू पर विचार नही किया गया, कबच सिस्टम क्यों नहीं लगा, इसके लिए मंत्रालय जिम्मेबार है या मंत्री ये सारी बातें गौण हो गयी.

रेल हादसों पर रोक कैसे लगे उसकी रोकथाम और सुरक्षित रेल यात्रा के लिए सरकार की व्यवस्था कितनी मज़बूत है आइये इसके लिए संसद में प्रस्तुत किये गए लोक लेखा समिति की रिपोर्ट पर एक नज़र डालते हैं.

संसद की लोक लेखा समिति ने संसद में 71 पेज की रिपोर्ट पेश की है इसमें 1 हजार 129 मामलों की जांच करने की बात कही गई है. 

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि 395 बार रेल पटरियों से उतरी, जिसके कारण हादसा हुआ. रेलवे के ऑपरेटिंग विभाग की गड़बड़ी की वजह से 173 ट्रेन दुर्घटनाएं हुईं, इसमें रेलवे इंजीनियरिंग विभाग द्वारा ट्रैक के रखरखाव में गड़बड़ी की वजह से 167 हादसे हुए.

 49 घटनाएं ट्रैक के पैरामीटर में गड़बड़ी की वजह से हुईं और ड्राइवर की गड़बड़ी की वजह से 149 दुर्घटनाएं हुईं.

वैसे रेल हादसों को रोकने के लिए कवच सिस्टम की बात बहुत होती है लेकिन कवच सिस्टम सिर्फ चर्चाओं में है. अब तक सिर्फ 2% रेल रूट पर ही कवच सिस्टम इंस्टॉल हो पाया है. सरकार का दावा है कि अब उसका ध्यान सुरक्षा पर सबसे ज्यादा है. 

इसलिए साल 2024-25 में कवच सिस्टम के लिए 1112 करोड़ रुपये का आवंटन हुआ. हालांकि, भारतीय रेल के हर रूट पर कवच सिस्टम को इंस्टॉल करने के लिए कम से कम 45 हजार करोड़ रुपये की जरूरत है लेकिन इस पर सरकार का खर्च बहुत कम हो रहा है.

इसके साथ हीं रेलवे की एक सच्चाई ये भी है कि सुरक्षा से जुड़े कर्मचारियों के पद बड़े पैमाने पर खाली हैं. 2024 की शुरुआत में RTI से मिली जानकारी के मुताबिक रेलवे में ‘सुरक्षा’ के लिए जिम्मेदार लगभग 1.5 लाख पद खाली पड़े हैं. इसमें ट्रैक मेंटेनर, पॉइंट्समैन, इलेक्ट्रिक सिग्नल मेंटेनर और सिग्नलिंग सुपरवाइजर जैसे पद हैं. तो कम बजट और खाली पदों से रेलवे अपने यात्रियों की यात्रा को शुभ कैसे करेगा, 

रेल की इन अव्यवस्थाओं में सरकार कहाँ चूक कर रही है उसकी समीक्षा सरकार को करनी चाहिए, अगर रेल मंत्री इसके लिए गंभीर नहीं है तो उन्हें बदलना चाहिए मंत्रालय में अगर अधिकारी की प्रबंधकीय क्षमता में कहीं कमी है तो उस पर भी विचार होना चाहिए. बढ़ती रेल दुर्घटना भारत के लिए दुर्भाग्य पूर्ण है, इस पूरी अव्यबस्था के लिए कुछ कर्मचारी को बलि का बकरा नहीं बनाया जा सकता पूरा सिस्टम इसके लिए जिम्मेबार है. इस पर ध्यान देने की जरूरत है.

संपादकीय:झारखंड में एक कांग्रेसी विधायक द्वारा बांग्लादेशी घुसपैठियों को काउंटर करने के लिए बिहारी घुसपैठियों का सवाल उठाना कितना सही है...?

विनोद आनंद

झारखण्ड में इन दिनों बांग्लादेशी घुसपैठियों के कारण जनसंख्यां में हो रहे बदलाव को लेकर चर्चा छिड़ी हुई है.

घुसपैठी यहां आदिवासी बेटियों से विवाह कर दान के रूप में जमीन हासिल कर स्थायी रूप से बस रहे हैं , यहां ग्राम पंचयात का सदस्य बनकर अपनी स्थिति मजबूत कर रहे हैं ,आदिवासी लड़कियों से शादी के बाद उसका धर्मान्तरण के साथ हीं क्षेत्र में अपराध को भी अंजाम दे रहे हैं .यह एक ऐसी समस्या है जिससे आने वाले दिनों ना सिर्फ झारखण्ड के लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी बल्कि देश के आंतरिक सुरक्षा पर भी खतरा बढ़ जायेगा. 

आज इस समस्या का भले हीं झारखण्ड के लोग और सरकार नज़रअंदाज़ करे कि ये रोजी रोटी के लिए घुसपैठ कर रहे हैं, लेकिन देश विरोधी ताकत और हमारे दुश्मन देश जो भारत को अस्थिर करना चाहते हैं इन घुसपैठियों को बहुत हीं आसानी से अपने प्रभाव में ले सकते और हमें और हमारी सुरक्षा व्यवस्था को ध्वस्त कर सकते. ऐसे समस्या को कतई राजनितिक रंग नहीं दिया जाना चाहिए. और न इस पर राजनीती होनी चाहिए.लेकिन दुर्भाग्य वश इस राजनीति हो रही है.

भाजपा ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया  तो सत्ताधारी दल यह स्वीकार करने के लिए तैयार नही है कि यहां बांग्लादेशी घुसपैठ हो रही है. इधर सत्ताधारी दल के एक कांग्रेस विधायक ने तो हद ही कर दी.उन्होंने तर्क दिया कि झारखण्ड में बिहारियों की घुसपैठ से यहां का डेमोग्राफी बदल गया है.

बिहारियों कि तुलना बंगालदेशी घुसपैठ से करना कोंग्रेसी विधायक के लिए कितना उचित है, इस बयान से कांग्रेस को कितना लाभ होगा, एक राष्ट्रीय पार्टी की इस सोच का प्रभाव अन्य प्रदेश और झारखण्ड के अन्य सीटों के वोट बैंक पर क्या होगा यह तो आने वाला समय तय करेगा. लेकिन ऐसी हीं बयानों और भाषणों के कारण आज कांग्रेस की ऐसी स्थिति हो गयी की कांग्रेस बैसाखी के सहारे आज चल रही है.

सच तो यह है कि कांग्रेस के अंदर ना तो एक आइडियोलोजी रहा जिसके आधार पर कांग्रेस के सभी कार्यकर्त्ता और चुने गए जनप्रतिनिधि के विचार और नीति में एकरूपता हो,और नहीं नेतृत्व का प्रभाव रहा. कांग्रेस के वर्तमान स्थिति के लिए सबसे बड़ा कारण यही है.

 तभी तो बंगला देशी घुसपैठ को काउंटर करने का प्रयास किया जा रहा है तो संसद में एक पंजाब से चुने गए सांसद ने खालिस्तान समर्थक के पक्ष में बात कर रहें है.

 बात करें झारखंड की तो 2000 से पहले झारखण्ड बिहार था, और बिहार के लोग अपने प्रदेश में हर जगह पढ़ने, नौकरी और व्यापार करने, और साथ में रोजगार के अनुरूप बसने के लिए आये. इसमें कही भी संबैधानिक अड़चन नहीं था. आज तकनीकी रूप से सक्षम, मेहनती बिहारी देश के हर हिस्से में है. लोग काम करते हुए वहीं बस गए, दिल्ली, मुंबई बगलुरु, कोलकाता और असम आप जहाँ भी जाएँ बिहार के लोग अपने मेहनत और कठोर परिश्रम से इन महानगरों का तकदीर और तस्बीर को बदला है.

 एक समय था जब यहां के स्थानीय लोग खदान या अन्य परियोजनाओं में काम नही करना चाहते थे.खदानों के अंदर घुस कर बहुत कम लोग काम करते थे.

टाटा स्टील बीसीसीएल और अन्य यहां स्थापित उद्योगों में भी तकनीकी के जानकार लोगों को बाहर से लाकर बसया गया और काम लिया गया.तब मौज़ूदा झारखण्ड बना, जंगलो, पहाड़ो से अच्छादित एक विकसित झारखण्ड को बनाने में यही बिहारी और देश के अन्य हिस्सों से आकर यहां बसें लोगों का योगदान रहा.ये कई पीढ़ी से यहीं के होकर यहां रह गये.उसके तीन से चार पीढ़ी से यहीं बसें हैं, फिर उस पर यह सवाल उठाना और बांग्ला देशी घुसपैठ से तुलना करना सही है या गलत तो इसे कांग्रेस के प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व को तय करना चाहिए और कोई भी जनप्रतिनिधि सिर्फ राजनीति करने के लिए ऐसा बयान दे या नही यह भी तय करना चाहिए.

और अगर उनके विधायक द्वारा उठाया गया यह सवाल सही है तो कांग्रेस के सभी झारखण्ड के गैर खतियानी पदाधिकारी को बोरिया विस्तर समेट कर अपने पद को छोड़कर यहां से चला जाना चाहिए ताकि यहां का डेमोग्राफी सही हो सके.

   इस तरह के बयान और सोच से देश नहीं चलता है, कुछ क्षेत्रीय दल भी इसी तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं .जिससे ना तो देश चल सकता है नहीं देश का विकास हो सकता है. जब किसी भी प्रतिनिधि को जनता चुनकर किसी भी सबैधानिक संस्थाओं में भेजती है तो संविधान की मर्यादा, और कानून की जो व्यवस्था है उसको याद रखना चाहिए.

 बंगालदेशी घुसपैठ और बिहारी की आवादी या देश के किसी हिस्से के लोगों का बसना को एक तराजू पर नहीं तौला जा सकता. हां यह अलग मुद्दा है कि स्थानीय किसे माना जाय और उसका मानदंड क्या हो यह हमारा आंतरिक मुद्दा है जिस पर हम बहस कर सकते हैं.लेकिन किसी विदेशी घुसपैठ को काउंटर करने के लिए देश के किसी भी भाग से आकर यहां बसे लोगों पर इस तरह बयानबाजी सही नही है.

बंगला देशी घुसपैठ एक गंभीर समस्या है.उसे अपने वोट बैंक के नजरिये से कोई भी राजनीतिक दल नही देखें,बल्कि आपसी सहमति के साथ इसके लिए जो भी बैधानिक रास्ता है उस पर काम करे।झारखंड में इस समस्या के लिए केंद्र और राज्य दोनों जिम्मेबार है।इसके लिए ठोस कानून बनाये और इसे रोके नाकि इस पर राजनीति करे।

सम्पादकीय: सरकार धर्म को लेकर राजनीति करने के बजाय देश के विकास और जनता की बुनियादी समस्यायों के निराकरण के लिए काम करे

-विनोद आनंद

शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का एक बयान सुन रहा था।वे एक मीडिया हाउस से बात करते हुए कह रहे थे-धर्म क्या है, समाज में धर्म का प्रचार और धर्म की मर्यादा का रक्षा करना धर्म गुरु का काम है, राजनेता इसमें ना हस्तक्षेप करे तो ज्यादा बेहतर है।

उसी तरह धर्म गुरु को भी राजनीति में हस्तक्षेप करने की जरूरत नही है। उनका तात्पर्य है कि धर्म का राजनीतिकरण नही हो।राजनेता धर्म का सहारा लेकर लोगो की भावनाओं को ना भड़काए, ना उसका दुरुपयोग करें।

 उन्होंने संसद में राहुल गांधी के हिंदू वाले बयान के बाद उसका राजनीतिकरण पर भी प्रतिक्रिया दिया। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी का संसद में दिए गए बयान को मैंने सुना,उन्होंने कहा कि हिन्दू धर्म में हिंसा का स्थान नही है।भाजपा के ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि जो लोग हिन्दू होंने का दाबा करते हैं वे हिंसा की बात करते हैं।उनका इशारा था भाजपा के ओर ।लेकिन उसको पूरे हिन्दू समाज से जोड़ देना अपराध है।

नि:संदेह धर्म और राजनीति को बिल्कुल अलग रखना चाहिए।धर्म का मतलब हमारे जीवन पद्धति, हमारे संस्कार, हमारी भावनाओं से है। और राजनीति का जुड़ाव हमारे जीवन को बेहतर बनाने के लिए एक ऐसी व्यवस्था से है जिसमे राज नेताओं को हम अपने प्रतिनिधि के रूप में चुनकर भेजते हैं और वे बहुमत से जीतकर जाने वाले राजनीति दल सरकार बनाते और कम संख्यां में जानेवाले दल जो सत्ता से बाहर हैं विपक्ष की भूमिका निभाते हैं।

जनता को यह कभी नही भूलना चाहिए कि इस राजनीतिक व्यवस्था में दोनों हीं जनता के हित में जरूरी है।हमारे लिए जितना प्रिय सत्ताधारी दल है ,उतना ही प्रिय विपक्ष में बैठे लोग हैं। किसी भी लोकतंत्रिक परम्परा में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।अगर विपक्ष के प्रतिनिधि नही होंगे जो सरकार से सवाल करे, उनके किसी भी गलत निर्णय का विरोध करे,और हमारी आवाज को संसद में पहुंचाए तो सत्ताधारी दल निरंकुश हो जायेगी, और हमारे ऊपर तानाशाही करेगी। अगर हम इन दोनों व्यवस्थाओं को नही स्वीकार करेंगे तो हमे राजतंत्र के लिए तैयार रहना चाहिए।

खैर यह बहुत गंभीर विषय है जिसे हम अगले अंक में उठाएंगे आज का विषय हमारा है धर्म और राजनीति।आज धर्म का अपने राजनीति के लिए दुरुपयोग करना सही नही है।क्योंकि धर्म बहुत हीं संवेदनशील विषय है। हमारे और आपके जनभावनाओं से जुड़ा हुआ है।हमारा भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है ।यहां सभी धर्म, सम्प्रदाय के लोग हैं जो भाईचारा और तालमेल से रहते हैं। हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष संविधान है।और जब हम अपने प्रतिनिधि को सरकार बनाने के लिए भेजते हैं तो वे इसी संविधान की शपथ लेकर इस बात को दोहराते हैं हम इस संविधान की रक्षा करेंगे और इसमें उल्लेखित नियमो के अनुरूप सभी धर्म सम्प्रदाय के हित के लिए काम करेंगे।

लेकिन मौजूदा समय में जिस तरह माहौल हमारे पवित्र संसद में धर्म और एक दूसरे को नीचे दिखाने के लिए अनर्गल विषयों पर बहस होती है वह दुर्भाग्यपूर्ण है।आज संसद में बहस होनी चाहिए कि हमपर जिन जनताओं ने भरोसा जताया उसके हित के लिए हमे किया करना है,..?

देश के युवाओं के रोजगार,शिक्षा,स्वास्थ्य,और भारत को आगे ले जाने के लिए किस तरह की नीति बनानी है..?और विकसित देशों के श्रेणी में अपने को खड़ा करने के लिए हमे किस तरह प्रबंधित नीतियां बनानी है।इस पर चर्चा ना कर सत्ताधारी दल बात करेंगे कि पहले जिन लोगों ने सत्ता सम्भाली थी उसने देश को डूबा दिया, कानून व्यवस्था खराब कर दी, देश का विकास नही हुआ..बेगैरह बेगैरह!

यह सब सरासर बकवास है। जिसे नही तो हम जनता को सुननी है और नही उस पर बहस करनी है।उसने नही किया इसी लिए हम जनता ने आप को मौका दिया आप क्या कर रहे हो उसका रिजल्ट दो। बस जनता को इसी से मतलब रखना चाहिए।और सरकार को भी आलोचना प्रतिलोचना के बजाय काम कर बेहतर रिजल्ट दिखाना चाहिए।

धर्म और उसकी राजनीति से ज्यादा जरूरी देश की जनता को उनकी बुनियादी जरूरत से है।और राजनेताओं को हम चुने जाने के बाद उन्हें सारी सुविधाएं देते है, हमारे पैसा से वे राजसुख भोग रहे हैं,और हमारी जीवन को सही ढंग से प्रबंधित करने के लिए वह कितने कुशलता के साथ काम करते हैं इसके आधार पर हमें मूल्यांकन करना चाहिए।

अंत में मैं राजनेताओं से कहूंगा धर्म के लिए नीति निर्धारण धर्म गुरु को करने दीजिए,देश की व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए आप अपनी क्षमताओं को लगाइए,बस तभी भारत आगे बढ़ पायेगा।

संपादकीय: क्या बिहार की जनता किसी तीसरे राजनीतिक विकल्प की तलाश में है,क्या उठने लगा है तेजस्वी और नीतीश से भरोसा...?

विनोद आनंद

बिहार में पिछले तीन दशक से जिस राजनितिक नेतृत्व पर जनता ने भरोसा किया वह भरोसा अब टूटता हुआ दिख रहा है।जनता अब नए राजनितिक विकल्प की तलाश में हैं जिसे वह जनादेश देकर अपने भविष्य को लेकर ताना बाना बुनना शुरू कर दिया हैं।

  एक दौर था जब बिहार में सवर्ण का दबदबा था। कांग्रेस की राजनीती का वह दौर जब पिछड़े वर्गों के विकास और उसके हक़ को दवाया जा रहा था। राजनीती हो या नौकरशाह सभी में स्वर्णोँ का वर्चस्व था, इक्के दुक्के लोग राजनीती में या अच्छे जगहों पर जरूर थे लेकिन जो उस समय की सामाजिक स्थिति थी उस स्थिति में वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे। उसी दौर में कर्पूरी ठाकुर जैसे कुछ समाजवादी नेता जरूर हुए लेकिन सामाजिक परिवर्तन और दबे कुचले वर्गों के लिए दबंगता के साथ आगे नहीं आ सके।

  देश में इंदिरा गाँधी की सरकार ने 25 जून 1975 को इमरजेंसी लगायी। इस इमरजेंसी के पीछे जो भी उद्देश्य इंदिरा का रहा हो,उस पर हम अभी चर्चा नही करेंगे लेकिन यह दौर था जिसमे कई चेहरे आगे आये। उन चेहरों में सभी वर्ग के लोग थे ।पिछड़े समाज के भी, दलित समाज के भी । 

इसी दौर में लालू प्रसाद यादव , नीतीश कुमार जैसे कई नेता सामने आये।और जनता को सामाजिक परिवर्तन के साथ विकास की उम्मीद बंधी। बिहार में पिछले 3 दशक से लालू प्रसाद यादव,राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की पार्टी सत्ता में रही,इस दौर में सत्ता में पिछड़े और दलित वर्ग के लोगों को कुछ भागीदारी जरूर मिली।लेकिन लोग अब लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के पार्टी से ऊबने लगे हैं।बिहार के लोग किसी तीसरे विकल्प की तलाश में हैं।क्योंकि इतने दिनों में सामाजिक न्याय और राज्य के विकास के नाम पर जो कुछ भी हुआ जनता उससे संतुष्ट नही हैं।

बिहार में आज तक ये दोनों पार्टी सत्ता की धुरी में जरूर रहे लेकिन ना तो यहाँ कोई इंडस्ट्रीज लग पाये, नही किसी रोजगार का सृजन हुआ।बिहार के लोग की क्या हालत है, जाकर महानगरों में देखिए। कोरोना काल में लॉकडॉन का वह मंजर,देश के कोने से बिहारी मज़दूरों की हालत,बिहार की नीतीश सरकार को मज़दूरों को अपने घर वापसी में बरती गई लापरवाही।कई ऐसे पल हैं जिसकी टीस बिहार की जनता के दिलों में आज भी है।इसी लिए पिछले चुनाव में बिहार के वोटों का जो बंटवारा हुआ।जिस तरह लोगों का रुझान निर्दलीय प्रत्याशी के लिए बढ़ा उससे तो यही प्रतीत होता है कि राज्य की जनता तीसरे विकल्प की तलाश में है।

इसी लिए यह संभावना है कि 2025 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बिहार की राजनीति में कोई बड़ा उलटफेर हो तो कोई आश्चर्य नही।रुपौली उपचुनाव रिजल्ट के बाद कुछ ऐसा हीं महसूस किए जाने लगे हैं।जिस तरह रुपौली में एनडीए और इंडिया गठबंधन को नक्कारते हुए जनता ने निर्दलीय प्रत्याशी को अहमियत दिया।यह संकेत तो यही बता रहा है कि नही तो लोग नीतीश के सुशासन छवि से संतुष्ट हैं और नही तेजस्वी के युवा तुर्क से।

 वैसे पूर्णिया लोकसभा चुनाव में तेजस्वी ने जिस तरह अपने हल्केपन का परिचय दिया।पप्पू यादव को हराने के लिए कमजोर चेहरा के बल पर अपने प्रभाव और शख्शियत का प्रभाव का परीक्षा लिया,पूरी ताकत झोंकने के बाद भी अपने प्रत्याशी की जमानत तक नही बचा पाए।यहां तक चुनावी सभा में कह दिया कि इंडिया नही तो एनडीए को वोट दे दो लेकिन निर्दलीय को नही, इसके वाबजूद वे पप्पू यादव को नही हरा पाए।यहीं इनके राजनीतिक प्रभाव का क्षरण होना शुरू हो गया।

 लोकसभा चुनाव 2024 की बात करें तो एनडीए को 9 सीटों का नुकसान बिहार में उठाना पड़ा। दूसरी ओर इंडी गठबंधन को अपेक्षा के अनुसार खास बढ़त नहीं मिली। इससे साफ है कि जनता अब किसी भी पार्टी के बहकावे में नहीं आने वाली है और राज्य के विकास के लिए नए चेहरों को मौका देने के लिए तैयार है। 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 में से 39 सीटें जीतने वाले एनडीए को इस बार सिर्फ 30 सीटों से संतोष करना पड़ा। कई सीटों पर तो एनडीए उम्मीदवार मामूली अंतर से जीते।

दूसरी तरफ, इडी अलायंस को भी जनता ने कोई खास पसंद नहीं किया। 2019 में एक भी सीट नहीं जीत पाने वाली आरजेडी को इस बार सिर्फ 4 सीटें मिली। कांग्रेस को 3 और लेफ्ट को 2 सीट से संतोष करना पड़ा। 

लोकसभा चुनाव के नतीजों से साफ है कि बिहार की जनता ने एनडीए और महागठबंधन दोनों पर ही कम भरोसा जताया है।

 पूर्णिया लोकसभा और रुपौली विधानसभा उपचुनाव के नतीजे बताते हैं कि बिहार की जनता अब एक नया विकल्प तलाश रही है। राज्य की कई लोकसभा सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवारों ने एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी। काराकाट से निर्दलीय उम्मीदवार और भोजपुरी अभिनेता पवन सिंह ने इंडी अलायंस और एनडीए, दोनों के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी। 

जहानाबाद में भी बसपा उम्मीदवार ने एनडीए और महागठबंधन के उम्मीदवारों को कड़ी टक्कर दी।

इन नतीजों से साफ है कि बिहार की जनता अब नीतीश कुमार की 'सुशासन बाबू' वाली छवि और तेजस्वी यादव की 'युवा नेता' वाली छवि से ऊब चुकी है।

 जनता को अगर कोई नया विकल्प मिलता है तो वह उसे ही चुनने के लिए तैयार है। सियासी पंडित कहते हैं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की लोकप्रियता कम होने का सबसे बड़ा कारण है उनका बार-बार पाला बदलना। अपने चार कार्यकालों में नीतीश कुमार रिकॉर्ड 9 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। वह कभी राजद तो कभी बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाते रहे हैं। लेकिन विकास के नाम पर राज्य में जो कुछ भी हुआ जनता निराश हैं।

ऐसे में बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है। जनता बदलाव चाहती है और अगर उसे कोई नया और बेहतर विकल्प मिलता है तो वह उसे चुनने से पीछे नहीं हटेगी।

सम्पादकीय: पटना में छात्र हर्षराज की हत्या से पुलिस,सरकार के साथ कॉलेज प्रशासन भी कटघड़े में, इस तरह की घटना पर शख्त कार्रवाई की है जरूरत


विनोद आनंद

पटना विश्वविधालय के लॉ कॉलेज के थर्ड ईयर का छात्र हर्ष राज की हत्या कॉलेज परिसर में पीट पीट कर ,कर दी जाती है।वह बीएन कॉलेज में परीक्षा दें रहा था।परीक्षा देकर ज्योहीं कक्षा से बाहर निकला कि कॉलेज परिसर में घात लगाए कुछ लोगों ने उनपर हमला कर दिया।

ईट और लाठी से पीट पीट कर उसे बेहोश कर दिया। उसे इतने बेरहमी से पीटा गया कि अस्पताल जाते -जाते उसने दम तोड़ दिया।

इस हत्याकांड ने बिहार की शासन व्यवस्था पर सवाल खड़ा कर दिया है। जिस तरह परीक्षा के दौरान कॉलेज परिसर में पीट पीट कर हत्या कर दी गयी। ना तो कॉलेज प्रशासन द्वारा उस छात्र को बचाने का प्रयास किया गया और नही स्थानीय पुलिस को सूचना देकर उस छात्र की जीवन रक्षा की गई।इस मामले में सरकार, पुलिस व्यवस्था के साथ कॉलेज के प्रचार्य,विश्वविधालय के उप कुलपति भी दोषी है।और अपराधियों के साथ साथ इन पर भी कार्रवाई की जरूरत है।

हालांकि राज्यपाल ने इसे सज्ञान में लिया है और पटना विश्वविद्यालय के उप कुलपति को तलब किया गया है। लेकिन आंदोलित छात्रों की मांग है कि इनपर भी कार्रवाई हो।प्रचार्य और भी सी को बर्खास्त किया जाए और दोषी हत्यारा को फांसी की सजा मिले।इस मामले में पुलिस ने चंदन यादव को गिरफ्तार किया है,जिसे मुख्य आरोपी बताया जा रहा है। 

यूं तो बिहार में हत्या और हत्यारा को खुले आम पुलिस पकड़ से बाहर घूमना कोई नई बात नही है। इसके पूर्व भी कवि कुमार नामक छात्र की हत्या कॉलेज परिसर में हो चुकी है।उसे गाड़ी से कुचल कर मार डाला गया था।

बेगूसराय के बखरी निवासी कवि कुमार की हत्या पटना के बोरिंग रोड स्थित एएन कॉलेज के कैंपस में अपराधियों ने स्कॉर्पियो गाड़ी से कुचल कर की थी। 

एएन कॉलेज कैंपस के अंदर ही श्री कृष्णापुरी थाना भी है। थाने से कुछ ही दूर पर यह हत्या हुई थी।इस हत्या के बाद बेगूसराय से लेकर पटना तक छात्र कवि कुमार को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन करते रहे, लेकिन, कवि कुमार हत्याकांड में भी कुछ नहीं हुआ।जबकि पुलिस के पास सीसीटीबी फुटेज है,स्कार्पियो भी बरामद हुआ पर हत्यारा आजाद है।

हालांकि अभी चुनाव का समय है आचार सहिंता लागू है इस लिए पुलिस ने तत्परता दिखलायी और चंदन यादव गिरफ्तार हुए लेकिन पुलिस नीतीश सरकार के शासनकाल में इस घटना में संलिप्त और अपराधियों को पकड़ पाती है और उसे कठोर से कठोर सजा दिला पाती है या कवि कुमार के तरह इसे भी ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है यह तो बक्त बताएगा।

 कवि कुमार हो या हर्ष राज की हत्या बिहार के पुलिस व्यवस्था के साथ ही सरकार भी कटघडे में है।

क्योंकि गिरफ्तार चंदन कुमार महागठबंधन के उम्मीदवार का प्रचार करते देखे गए।कम्युनिष्ट संघटन से जुड़ा हुआ है।इस लिए पुलिस को यह अनुसंधान करना पड़ेगा कि हर्षराज की हत्या का कारण क्या है,इसके पीछे कहीं और तार तो नही जुड़े हुए हैं।और इन विन्दुओं पर पुलिस कितना ईमानदारी से काम कर पायेगी यह तो समय बताएगा।लेकिन नीतीश सरकार इस तरह की घटना के बाद पुलिस को शक्त हिदायत दे तो शायद दोषी को सजा मिल सकती है।

आज 5 माह गुजर गए कवि कुमार के पिता को अपने बेटे की हत्यारे को पकड़े जाने की उम्मीद नही रही।इसी तरह पत्रकार अजीत कुमार को अपने बेटा हर्षराज को न्याय मिल पायेगा इस पर संशय है।

हर्षराज ने लोजपा प्रत्याशी शांभवी के लिए प्रचार भी किया था।उसे वह अपना बहन मानता है इस ख्याल से इस मामले में सरकार में शामिल भाजपा को सज्ञान लेकर अपराधी को कठोर सजा मिले इसके लिए पहल करना चाहिए।साथ ही प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी की भी यह कोशिश होनी चाहिए कि कोई भी हो किसी भी पार्टी का हिस्सा हो इस तरह के अपराध करने वाले को कठोर सजा मिले।इसके लिए उन्हें भी सरकार पर दवाब बनाना चाहिए। 

आज बिहार ने इसी अपराध और आतंक के कारण बहुत कुछ खोया है।देश भर में अपना छवि बिगड़ा, शिथिल पुलिस व्यवस्था,सरकारी ऑफिस में भ्रष्ट कर्मचारी,अपराधियों का आतंक,जैसे कारण है कि बिहार में कोई निवेशक यहां उधोग नही लगाना चाहता। लोगों को रोजगार के लिए पलायन करना पड़ता है।

इसलिए अपराध पर नियंत्रण के लिए ऐसे अपराधी जिस से राज्य में आतंक बढ़ता है, वह किसी भी जाति वर्ग, पार्टी या संघठन से जुड़ा हो उसे नही बख्सा जाना चाहिए।