भगवान हनुमान को नहीं, निंबा दैत्य को पूजते हैं यहां के लोग,और मारुति की गाड़ियों पर प्रतिबंध,जानें इसके पीछे की कहानी

भगवान श्री राम के भक्त और परम मित्र हनुमान को हर हिंदू पूजता है. लेकिन क्या आप जानते हैं महाराष्ट्र के एक गांव में हनुमान भगवान को नहीं बल्कि उनके परम शत्रु निंबा दैत्य को पूजते हैं. इस गांव का बच्चा-बच्चा निंबा दैत्य का भक्त है. यह गांव मुंबई से 350 किलोमीटर दूर अहमदनगर में स्थित है. यहां के लोग निंबा दैत्य को ही आदिपुरुष मानते हैं.

यहां चारों तरफ उस दैत्य का ही राज्य है. इस गांव में भगवान हनुमान जैसे महाबली का नाम भी लेना घोर पाप है. हनुमान, बजरंग बली, मारुति जैसे नाम से लोग यहां नफरत करते हैं. इस गांव के लोगों का मानना है कि भगवान हनुमान जिस पर्वत को संजीवनी बूटी के लिए उठाकर ले गए थे, वह यहीं स्थित था. यही वजह है कि यहां के लोग हनुमानजी से नाराज हैं.

यहां तक कि इस गावं के निवासी लाल झंडा तक नहीं लगा सकते. उनका कहना है कि जिस समय भगवान हनुमान संजीवनी बूटी लेने आए थे, तब पहाड़ देवता साधना कर रहे थे. हनुमान जी ने इसके लिए अनुमति तक नहीं मांगी और न ही उनकी साधना पूरी होने का इंतजार किया. भगवान हनुमान ने पहाड़ देवता की साधना भी भंग कर दी. इतना ही नहीं हनुमान ने द्रोणागिरी पर्वत ले जाते समय पहाड़ देवता की दाई भुजा भी उखाड़ दी.

पर्वत से लाल रंग बहता है

मान्यता है कि आज भी पर्वत से लाल रंग का रक्त बह रहा है. यही वजह है कि द्रोणागिरी गांव के लोग भगवान हनुमान की पूजा नहीं करते और न ही लाल रंग का ध्वज लगाते हैं. इस गांव के लोग अपनी बेटियों की शादी भी ऐसे गांव में नहीं करते जहां भगवान हनुमान की पूजा होती है. गांव में कोई भी शुभ काम करने से पहले निंबा दैत्य महाराज की पूजा की जाती है.

मारुति की गाड़ियां बैन

यहां आप कोई भी गाड़ी लेकर आ सकते हो, शर्त ये है कि वो मारुति कंपनी की गाड़ी नहीं होनी चाहिए. अगर कोई इंसान मारुति की गाड़ी लेकर इस गांव में एंट्री मारता है तो उसकी गाड़ी को तोड़ दिया जाता है. दरअसल, भगवान हनुमान का दूसरा नाम मारुति है. यही वजह है कि द्रोणागिरी गांव के लोग इस नाम को सुनना भी पसंद नहीं करते.

एक ऐसा ऐतिहासिक महल जो आज भी किसी की दर्द भरी आवाज सुनाई देती है, जानें क्या है रहस्य

हिंदुस्तान के अन्य कोनों में भले ही लोग शनिवार वाड़ा के बारे में न जानते हों, लेकिन मराठी लोग इसके बारे में बखूबी जानते हैं। दरअसल, यह एक एतिहासिक महल है, जो कभी मराठा साम्राज्य की आन-बान और शान हुआ करता था, लेकिन आज से करीब 246 साल पहले इस महल में एक ऐसी घटना घटी थी, जिसकी गूंज आज भी सुनाई देती है। इस घटना की वजह से ही लोग इस महल को रहस्यमय मानते हैं। तो चलिए जानते हैं शनिवार वाड़ा की वो रहस्यमय कहानी, जो लोगों को आज भी डराती है...

शनिवार वाड़ा महाराष्ट्र के पुणे में स्थित है, जिसका निर्माण मराठा-पेशवा साम्राज्य को बुलंदियों पर ले जाने वाले बाजीराव पेशवा ने करवाया था। वर्ष 1732 में यह पूरी तरह बनकर तैयार हो गया था। कहा जाता है कि उस समय इसे बनाने में करीब 16 हजार रुपये खर्च हुए थे। तब के समय में यह राशि बहुत अधिक थी। उस समय इस महल में करीब 1000 लोग रहते थे।

कहते हैं कि इस महल की नींव शनिवार के दिन रखी गई थी, इसी वजह से इसका नाम 'शनिवार वाड़ा' पड़ था। करीब 85 साल तक यह महल पेशवाओं के अधिकार में रहा था, लेकिन 1818 ईस्वी में इसपर अंग्रजों ने अपना अधिकार जमा लिया और भारत की आजादी तक यह उनके ही अधिकार में रहा।

कहते हैं कि इसी महल में 30 अगस्त 1773 की रात 18 वर्षीय नारायण राव की षडयंत्र करके हत्या कर दी गई थी, जो मराठा साम्राज्य के नौवें पेशवा बने थे। कहा जाता है कि उनके चाचा ने ही उनकी हत्या करवाई थी। स्थानीय लोगों का कहना है कि आज भी अमावस्या की रात महल से किसी की दर्द भरी आवाज सुनाई देती है, जो बचाओ-बचाओ चिल्लाती है। ये आवाज नारायण राव की ही है

शनिवार वाड़ा से जुड़ा एक और रहस्य है, जो आज तक अनसुलझा है। वर्ष 1828 में इस महल में भयंकर आग लगी थी, जो सात दिनों तक जलती रही थी। इसकी वजह से महल का बड़ा हिस्सा जल गया था। अब यह आग कैसे लगी थी, ये आज भी एक सवाल ही बना हुआ है। इसके बारे में कोई नहीं जानता।

एक ऐसा गांव जो एक ही रात में पूरी हो गई थी खाली, जानें इस गांव का इतिहास

भारत ही नहीं, अगर हम बात करें दुनिया की सबसे भूतिया जगह की तो कुलधरा का नाम सबसे ऊपर आता है। राजस्थान के जैसलमेर से 14 किमी दूर मौजूद कुलधरा गांव, जो पिछले 200 सालों से वीरान पड़ा हुआ है, भूतिया जगहों में आता है। ऐसा माना जाता है कि इस गांव को साल 1300 में पालीवाल ब्राह्मण समाज ने सरस्वती नदी के किनारे इस गांव को बसाया था। किसी समय इस गांव में काफी चहल-पहल रहा करती थी। लेकिन आज ऐसी स्थिति है कि यहां कोई इंसान भटकने से भी डरता है और 200 सालों से इस जगह पर फिर से बसावट नहीं हुई है। चलिए आपको इस गांव की कुछ दिलचस्प बातें बताते हैं।

कुलधरा गांव का इतिहास

कुलधरा गांव मूल रूप से ब्राह्मणों द्वारा बसाया गया था, जो पाली क्षेत्र से जैसलमेर चले गए थे और कुलधरा गांव में बस गए थे। इस गांव की पुस्तकों और साहित्यिक वृत्तांतों में कहा जाता है कि पाली के एक ब्राह्मण कधान ने सबसे पहले इस जगह पर अपना घर बनाया था और साथ में एक तालाब भी खोदा था, जिसका नाम उसने उधनसर रखा था। पाली ब्राह्मणों को पालीवाल कहा जाता था।

एक रात में गांव वालों के गायब होने की कहानी

लोकप्रिय मिथक के अनुसार, 1800 के दशक में, गांव मंत्री सलीम सिंह के अधीन एक जागीर या राज्य हुआ करता था, जो कर इख्ठा करके लोगों के साथ विश्वासघात किया करता था। ग्रामीणों पर लगाया जाने वाले कर की वजह से यहां के लोग बेहद परेशान रहते थे। ऐसा कहा जाता है कि सलीम सिंह को ग्राम प्रधान की बेटी पसंद आ गई और गांव वालों को इसपर धमकी दे डाली कि अगर उन्होंने इस बात की विरोध करने की कोशिश की या रस्ते में आए, तो वह और कर वसूल करने लगेगा। अपने गांव वालों की जान बचाने के साथ-साथ अपनी बेटी की इज्जत बचाने के लिए मुखिया समेत पूरा गांव रातों-रात फरार हो गया। गांव वाले गांव को वीरान छोड़कर किसी दूसरी जगह पर चले गए। ऐसा कहा जाता है कि गांव वालों ने जाते समय गांव को ये श्राप दिया था कि यहां आने वाले दिनों में कोई नहीं रह पाएगा।

कुलधरा गांव में घूमना-फिरना -

कुलधरा गांव अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित तरीके से रखा जाने वाला एक ऐतिहासिक स्थल है। पर्यटक यहां घूम सकते हैं और उस समय के दौरान ऐसा क्या हुआ था, जैसी झलकियां आपको यहां देखने को मिल जाएंगी। कुलधरा क्षेत्र एक विशाल क्षेत्र में फैला हुआ है, जिसमें लगभग 85 छोटी बस्तियाँ शामिल हैं। गांवों की सभी झोपड़ियां टूट चुकी हैं और खंडहर हो चुकी हैं। यहां एक देवी मंदिर भी है, जो अब वो भी खंडहर हो चुका है। मंदिर के अंदर शिलालेख है जिसकी वजह से पुरातत्वविदों को गांव और इसके प्राचीन निवासियों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने में मदद मिली है।

कुलधरा गांव का समय और एंट्री फीस -

गांव में आप रोजाना सुबह 8 बजे से शाम 6 बजे तक घूमना-फिरना कर सकते हैं। चूंकि ये जगह भूतिया मानी जाती है, इसलिए स्थानीय लोग सूर्यास्त के बाद द्वार बंद कर देते हैं। यदि आप कार से जा रहे हैं तो कुलधरा गांव के लिए एंट्री फीस 10 रुपए प्रति व्यक्ति है और अगर आप अंदर गाड़ी से जा रहे हैं तो 50 रुपए फीस है।

कुलधरा गांव में घूमने का अच्छा समय

ये जगह, राजस्थान में होने की वजह से अत्यधिक गर्म रहती है। इसलिए यहां घूमने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के बीच है, जहां गर्मी थोड़ी गर्म हो जाती है। आप धूप से परेशान हुए बिना रेगिस्तान में घूमने का आनंद ले सकते हैं।

कुलधरा गांव में कैसे पहुंचे -

कुलधरा गांव जैसलमेर के मुख्य शहर से करीब 18-20 किलोमीटर की दूरी पर है। इसलिए राजस्थान में यात्रा करते समय, जब आप जैसलमेर पहुंचते हैं, तो आप शहर से कैब ले सकते हैं। ये कैब आपको कुलधरा गांव ले जाएंगी।

रांची का रहस्यमयी किला: जहां हर साल आसमान से गिरती है बिजली, क्या है इसका रहस्य?

भारत में ऐसी कई रहस्यमयी जगहें हैं, जहां अजीबोगरीब घटनाएं घटती रहती हैं। ऐसी ही एक जगह झारखंड के रांची में भी है। दरअसल, यहां एक रहस्यमयी किला है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस किले पर हर साल आसमान से बिजली गिरती है, लेकिन इस रहस्य को आज तक कोई भी सुलझा नहीं पाया है कि ऐसा क्यों होता है?

इस किले को राजा जगतपाल सिंह के किले के नाम से जाना जाता है। लगभग 200 साल पुराना यह किला रांची से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित पिठौरिया गांव में है। किसी जमाने में यह किला 100 कमरों वाला एक विशाल महल हुआ करता था, लेकिन वज्रपात के कारण यह किला अब पूरी तरह से खंडहर में तब्दील हो चुका है।

गांव वालों के मुताबिक, इस किले पर हर साल बिजली एक क्रांतिकारी द्वारा राजा जगतपाल सिंह को दिए गए श्राप के कारण गिरती है। वैसे तो आसमानी बिजली का गिरना एक प्राकृतिक घटना है, लेकिन एक ही जगह पर सालों से बिजली का गिरना लोगों को जरूर सोचने पर मजबूर कर देता है।

वैसे तो इस किले के राजा जगतपाल सिंह अपनी प्रजा में काफी लोकप्रिय थे और उन्हें एक अच्छा राजा माना जाता था, लेकिन उनके द्वारा की गई कुछ गलतियों के कारण उनका नाम इतिहास में एक गद्दार के रूप में भी दर्ज है।

कहा जाता है कि 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में राजा जगतपाल सिंह ने अंग्रजों की मदद की थी। वो क्रांतिकारियों से जुड़ी हर खबर अंग्रेजों तक पहुंचाते थे। कहते हैं कि एक क्रांतिकारी विश्वनाथ शाहदेव ने उनसे नाराज होकर उन पर हमला बोल दिया था, जिसके बाद राजा ने उन्हें पेड़ पर फांसी पर लटका दिया था।

लोगों का मानना है कि क्रांतिकारी विश्वनाथ शाहदेव ने ही अंग्रेजों का साथ देने और देश के साथ गद्दारी करने पर राजा जगतपाल सिंह को यह श्राप दिया था कि आनेवाले समय में जगतपाल सिंह का नामोनिशान नहीं रहेगा और उनके किले पर हर साल उस समय तक बिजली गिरती रहेगी, जब तक कि किला पूरी तरह बर्बाद नहीं हो जाता।

हालांकि वैज्ञानिकों का मानना है कि इस किले पर बिजली इसलिए गिरती है, क्योंकि यहां मौजूद ऊंचे पेड़ और पहाड़ों में लौह-अयस्क की मात्रा बहुत ज्यादा है, जो आसमानी बिजली को अपनी तरफ आकर्षित करती है। लेकिन लोग इस तथ्य को सिरे से खारिज कर देते हैं। उनका कहना है कि जब यह किला आबाद हुआ करता था, उस समय भी तो यहां के पहाड़ों में लौह-अयस्क मौजूद थे और अभी के हिसाब से ज्यादा ही थे। फिर उस समय किले पर बिजली क्यों नहीं गिरती थी?

एक ऐसा रेलवे स्टेशन जहां 42 साल तक नहीं रुकी कोई ट्रेन, लेकिन अब...

आपने ट्रेन से यात्रा तो जरूर की होगी. यात्रा के दौरान आप भारत के ना जाने कितने ही राज्यों से होकर गुजरे होंगे. उसी समय आप कई ऐसे स्टेशनों पर भी रुके होंगे, जो किसी ना किसी वजह से पूरे देश में काफी फेमस है. लेकिन क्या आप कभी भारत के उस स्टेशन से होकर गुजरे हैं, जहां करीब 42 सालों तक कोई ट्रेन नहीं रुकी. अगर नहीं, तो बता दें कि भारत में एक ऐसा रेलवे स्टेशन भी है, जहां करीब 42 सालों तक रेलवे ने स्टेशन होने के बावजूद कभी कोई ट्रेन नहीं रोकी. यहां तक कि जब भी कोई ट्रेन उस स्टेशन से होकर गुजरती थी, तो उसका ड्राइवर ट्रेन की स्पीड बढ़ा लेता था, ताकि जल्द से जल्द वो स्टेशन क्रॉस हो जाए. लेकिन आप इन भारत के इस स्टेशन के बारे में जानते हैं? अगर नहीं, तो बता दें कि हम बेगुनकोडोर रेलवे स्टेशन की बात कर रहे हैं.

42 साल तक नहीं रुकी कोई ट्रेन

दरअसल, बेगुनकोडोर रेलवे स्टेशन पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में स्थित है. साल 1967 में हुई एक घटना के बाद इस स्टेशन पर करीब 42 साल तक कोई ट्रेन नहीं रुकी थी. दरअसल, कहा जाता है कि यहां के स्टेशन मास्टर ने किसी भूत को देख लिया था, जिसे देखने के तुरंत बाद ही उसकी मृत्यु हो गई थी. इसी घटना के बाद से रेलवे ने इस स्टेशन पर ट्रेनों के रुकने पर पाबंदी लगा दी. लेकिन साल 2009 में जब ममता बनर्जी रेल मंत्री बनीं तब उन्होंने इस स्टेशन को फिर से शुरू करने का निर्देश दिया. हालांकि शाम 5 बजे के बाद इस स्टेशन पर ना ही कोई यात्री और ना ही कोई रेल कर्मी रुकता था. लोग इतना डरते थे कि शाम होते ही यहां से निकल जाते थे.

जुर्म की घटनाएं भी बढ़ी

इसी चक्कर में कई बार लोग यहां आकर एडवेंचर करने की भी कोशिश करते थे, जिस कारण यहां जुर्म की घटनाएं बढ़ने लगीं. लेकिन कुछ लोगों ने इस स्टेशन का सच सामने लाने की कोशिस की और जानना चाहा कि यहां सच में ऐसा कुछ है या नहीं. न्यू इंडियन एक्सप्रेस वेबसाइट की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2017 की पश्चिम बंग बिज्ञान मंच (Paschim Banga Bigyan Mancha) के 9 लोगों की एक टीम पुलिसकर्मियों के साथ यहां आई और यहां पूरी रात रुकने का फैसला किया. वे अपने साथ टॉर्च, कैमरे, कंपस आदि उपकरण भी लेकर आए थे.

इस तरह सामने आया इस स्टेशन का सच

उन्होंने वहां पूरी रात बिताई और अगले दिन मीडिया को बताया कि उनके उपकरणों में किसी भी तरह की कोई पैरानॉर्मल हलचल दर्ज नहीं हुई. लेकिन रात के करीब 2 बजे उन्हें स्टेशन के पास वाली झाड़ियों के पीछे से कुछ अजीबोगरीब आवाजें सुनाई दीं. जब उन्होंने वहां छानबीन की तो देखा कि कुछ लोग झाड़ी के पीछे खड़े होकर उन्हें डराने के लिए ऐसी आवाजें निकाल रहे हैं,

तो उन्होंने उन लोगों को पकड़ने की कोशिश की मगर वे नाकाम रहे. इसके बाद उन लोगों ने यही अंदाजा लगाया कि लंबे वक्त से इस जगह पर लोग दूसरों को डराकर जुर्म को अनजाम दे रहे थे. बता दें कि अब इस स्टेशन में पुलिस हमेशा तैनात रहती है और ट्रेन भी इस स्टेशन पर रुकती है.

एक ऐसा बीच जो रात में जाने वाले कभी नहीं लौटते।

सूरत। गुजरात के सूरत के पास स्थित डुमस बीच की गिनती भुतहा जगहों में होती है। इस जगह पर हिन्दू अंतिम संस्कार करने भी आते हैं। कहा जाता है कि यहां आत्माओं का वास है। इसी डर के चलते लोग यहां शाम होने के बाद नहीं आते। बीच हमेशा वीरान पड़ा रहता है। स्थानीय लोग तो अकेले इस बीच पर दोपहर में भी जाने से डरते हैं। जो भी रात में गया, वापस नहीं लौटा...

शाम को अंधेरा होने के बाद से ही बीच पर चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगती हैं। चीख-पुकार की आवाज काफी दूर से भी सुनी जा सकती है। स्थानीय लोगों की मानें तो इस बीच पर रात में जो भी गया है, वह वापस नहीं लौटा। यह बीच प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है, लेकिन इस बीच को लेकर स्थानीय लोगों की बातें डरा देने वाली हैं।

काले रंग की है यहां की रेत

इस बीच की सबसे डुमस बीच का इतिहास अरब सागर से लगा हुआ यह बीच सूरत से 21 किलोमीटर की दूरी पर है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यहां की रेत का रंग काला है। इस बीच का इतिहास किसी को नहीं पता। लेकिन, स्थानीय लोगों का कहना है कि सदियों पहले यहां पर आत्माओं ने अपना बसेरा कर लिया और इसी के चलते यहां की रेत काली हो गई। इसी बीच के पास लाशें भी जलाई जाती हैं।

लोगों का मनना है कि जिन लोगों को मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, या जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, उनकी रूह इस बीच पर बसेरा कर लेती है। यह फेमस लव स्पॉट भी है। कई कपल्स का कहना है कि दिन में खूबसूरत दिखाई देने वाला यह बीच शाम होने के बाद से ही डरावना नजर आने लगता है। बीच पर रोने और सिसकने की भी आवाजें सुनाई देती हैं।

कुत्तों की एबनॉर्मल एक्टिविटीज?

हालांकि, कुछ लोग यहां पर भूत-प्रेत होने की बात को सिरे से नकारते हैं। उनका कहना है कि रात में यहां कुत्ते मौजूद होते हैं। उन्हीं की आवाजें और दौड़भाग से लोग डर जाते हैं। दरअसल, यहां की रेत काली है, जिसके चलते डरावना माहौल नजर आता है। वहीं, स्थानीय लोगों का यह भी कहना है कि बीच पर आते ही कुत्ते रोने लगते हैं और इधर-उधर भागते हुए नजर आते हैं।

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असम का रहस्यमय जतिंगा गांव: जहां हर साल हजारों पक्षी करते हैं सुसाइड

असम के दिमा हासो जिले की पहाड़ी में स्थित जतिंगा घाटी पक्षियों का सुसाइड पॉइंट के तौर पर काफी मशहूर है। हर साल सितंबर महीने में जतिंगा गांव पक्षियों की आत्महत्या के कारण सुर्खियों में आ जाता है। इस जगह पर ना केवल स्थानीय पक्षी बल्कि प्रवासी पक्षी भी पहुंच कर सुसाइड कर लेते हैं। इस वजह से जतिंगा गांव काफी रहस्यमय माना जाता है।

आत्महत्या करने की प्रवृत्ति, तो इंसानों में आम है, लेकिन पक्षियों के मामले में ये बात एकदम अलग हो जाती है। जतिंगा गांव में पक्षी तेजी से उड़ते हुए किसी इमारत या पेड़ से टकरा जाते हैं, जिससे उनकी मौत हो जाती है। ऐसा इक्का-दुक्का नहीं, बल्कि हजारों पक्षियों के साथ होता है। सबसे अजीब बात, तो ये है कि ये पक्षी शाम 7 से रात 10 बजे के बीच ही ऐसा करते हैं, जबकि आम मौसम में इन पक्षियों की प्रवृति दिन में ही बाहर निकलने की होती है और रात में वे घोंसले में लौट जाते हैं।

आत्महत्या की इस दौड़ में स्थानीय और प्रवासी चिड़ियों की करीब 40 प्रजाति शामिल हैं। प्राकृतिक कारणों से जतिंगा गांव नौ महीने बाहरी दुनिया से अलग-थलग ही रहता है। इतना ही नहीं जतिंगा घाटी में रात में प्रवेश करना प्रतिबंधित है। पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि चुंबकीय ताकत इस रहस्यमय घटना की वजह है।

नम और कोहरे-भरे मौसम में हवाएं तेजी से बहती हैं, तो रात के अंधेरे में पक्षी रोशनी के आसपास उड़ने लगते हैं। रोशनी कम होने के कारण उन्हें साफ दिखाई नहीं देता है, जिसके कारण वे किसी इमारत या पेड़ या वाहनों से टकरा जाते हैं। ऐसे में जतिंगा गांव में शाम के समयगाड़ियां चलाने पर मनाही हो गई ताकि रोशनी न हो। हालांकि, इसके बावजूद भी पक्षियों की मौत का क्रम जारी रहा।

जतिंगा गांव के लोग इसके पीछे रहस्यमय ताकत का हाथ मानते हैं। गांव के लोगों का ऐसा कहना है कि हवाओं में कोई पारलौकिक ताकत आ जाती है, जो पक्षियों से ऐसा करवाती है। उनका ये भी मानना है कि इस दौरान इंसानी आबादी का भी बाहर आना खतरनाक हो सकता है। सितंबर-अक्तूबर के दौरान जतिंगा की सड़कें शाम के समय एकदम सुनसान हो जाती हैं।

कथित तौर पर पक्षियों की आत्महत्या का सिलसिला साल 1910 से ही चला आ रहा है, लेकिन बाहरी दुनिया को ये बात 1957 में पता चली। साल 1957 में पक्षी विज्ञानी E.P. Gee किसी काम से जतिंगा आए हुए थे। इस दौरान उन्होंने खुद इस घटना को देखा और इसका जिक्र अपनी किताब 'द वाइल्डलाइफ ऑफ इंडिया' में किया। देश-विदेश के कई वैज्ञानिक इस घटना पर रिसर्च कर चुके हैं, लेकिन अभी तक सही वजह का पता नहीं चल पाया है।

दिल्ली सल्तनत के अंतिम राजवंश का इतिहास: मां की मौत के बाद पैदा हुआ था दिल्ली का ये बादशाह

बहलोल लोदी दिल्ली सल्तनत के अंतिम राजवंश लोदी वंश का संस्थापक था। दिल्ली पर राज करने वाले अफगानों में लोदी वंश पहले अफगान थे। भारत में लोदी वंश की नींव रखने वाले बहलोल लोदी की दास्तान काफी दिलचस्प है। खुद को किसानों का सरदार बताने वाले बहलोल लोदी के मन में दूसरों के लिए काफी आदर और सम्मान था।

कहते हैं स्वयं राजा होने के बावजूद बहलोल अपने दरबार में दूसरों के बैठने के बाद बैठता था। बहलोल लोदी ने अपने जीवनकाल में कई ऐसे काम की किए जिसकी सालों तक नजीर पेश की जाती रही। खास तौर 'बहलोली सिक्कों' का चलन कई-कई शासकों ने अपनाया। बहलोल लोदी की तरफ से चलाया गया बहलोली सिक्का इतना मशहूर था कि अकबर तक के शासन काल में कहीं-कहीं इस सिक्के का चलन देखा गया है।

जन्म के वक्त हुई मां की मौत

बहलोल लोदी के पिता मलिक काला खिज्र खां एक राज्यपाल थे। बहलोल लोदी का जन्म दौराला में हुआ था। बहलोल की मां प्रसव की पीड़ा नहीं झेल पाई थी और उसके जन्म से पूर्व ही उसकी मां का देहांत हो गया था। ऐसी परिस्थिति में बच्चे की जान पर बन आई थी। इतिहास की किताबों में दर्ज है कि जिस दौरान बहलोल की मां उसे जन्म देने वाली थी, तभी उसे प्रसव की ऐसी असह्य पीड़ा हुई, जो उससे सहन नहीं हो पाई और उसने अपना दम तोड़ दिया। बहलोल की मां की मौत के बाद उसके परिजनों को बच्चे की चिंता हुई। ऐसा बताया जाता है प्रसव के दौरान मृत मां की कोख में फंसे बच्चों निकाला गया था।

चाचा ने पाला

मां की मौत के बाद बहलोल लोदी का पालन पोषण उसके चाचा इस्लाम खां ने किया और बाद में अपनी पुत्री का विवाह बहलोल लोदी से कर दिया। बहलोल लोदी बचपन से ही प्रतिभावान था। उसकी प्रतिभा को पहचान कर इस्लाम खां ने अपने पुत्र कुतुब खां के स्थान पर उस अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इस्लाम खां के मृत्यु के पश्चात सुल्तान मोहम्मद शाह ने बहलोल लोदी को सरहिन्द का सूबेदार नियुक्त किया। बाद में लाहौर भी उसके अधीन कर दिया गया। बहलोल लोदी ने आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली।

कैसे की लोदी साम्राज्य की स्थापना?

बहलोल लोदी ने दिल्ली पर महमूद खिलजी के आक्रमण को विफल कर सुल्तान मुहम्मद शाह की विशेष कृपा प्राप्त कर ली। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर मुहम्मद शाह ने उसे पुत्र कहकर संबोधित किया और 'खान-ए-जहां' की उपाधि दी। सुल्तान अलाउद्दीन आलम शाह के समय में उसके वजीर हमीद से झगड़ा होने के कारण जब अलाउद्दीन दिल्ली की सत्ता छोड़ कर बदायूं चला गया तब दिल्ली की जनता ने बहलोल की आमंत्रित कर गद्दी पर बैठाया।

दो बार हुआ राज्याभिषेक

19 अप्रैल, 1451 ई. को बहलोल लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठने के बाद उसने वजीर हमीद खां की हत्या कर दी। किन्तु सुल्तान अलाउद्दीन आलम शाह अभी भी दिल्ली का वैधानिक शासक था।

बहलोल लोदी ने अलाउद्दीन आलम शाह को पत्र लिखा, "आपके महान पिता ने मेरा पालन पोषण किया। मैं खुतबा से आपका नाम हटाए बिना आपके प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहा हूं।" सुल्तान ने उत्तर दिया- चूंकि मेरे पिता तुम्हें अपना पुत्र कहकर सम्बोधित करते थे। मैं तुम्हें बड़े भाई के रूप में देखता हूं और राजपद का तुम्हारे लिए परित्याग करता हूं।"

इतिहासकारों के अनुसार, बहलोल का दो बार राज्याभिषेक हुआ, एक सुल्तान अलाउद्दीन आलम के पत्र व्यवहार से पूर्व और एक पत्र के बाद।

सागर का नजरबाग पैलेस: महात्मा गांधी की यादों को संजोए हुए यह ऐतिहासिक इमारत क्यों है इतनी खास?

महात्मा गांधी 2 दिसंबर 1933 की सुबह दमोह पहुंचे थे और वहां से दोपहर तीन बजे सागर शहर के टाउनहॉल पहुंचे. टाउनहॉल से वे सागर के प्रसिद्ध नजरबाग पैलेस गए, जो उस समय एक आरामगाह की तरह इस्तेमाल होता था. नजरबाग पैलेस एक भव्य और ऐतिहासिक इमारत थी, जिसे मराठों ने बनवाया था. गांधीजी ने यहां केवल एक घंटे विश्राम किया. यह भवन सागर शहर के तालाब के किनारे स्थित था और अपने कलात्मक दरवाजों, रंगीन खिड़कियों, और भित्तिचित्रों के लिए जाना जाता था.

नजरबाग पैलेस, जो कभी मालगुजार गयाप्रसाद दुबे के भाई का निवास स्थान था, बाद में पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज के अफसरों का निवास बन गया. हालांकि, अब यह इमारत खंडहर की स्थिति में पहुंच चुकी है. जिला प्रशासन ने कुछ समय पहले इसे तोड़ने की योजना बनाई थी, लेकिन इतिहासकारों के हस्तक्षेप के बाद इसे रोक दिया गया. हालांकि, हाल ही में स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत इसकी मरम्मत की गई है, लेकिन यह मरम्मत सिर्फ बाहरी सजावट तक सीमित रही. अगर इसे सही तरीके से पुनर्निर्मित किया जाए, तो यह सागर के सबसे खूबसूरत विश्राम गृहों में से एक हो सकता है, जो गांधीजी की यादों को संजोए हुए हो.

महात्मा गांधी का सागर से जुड़ा ऐतिहासिक महत्व:

महात्मा गांधी के इस दौरे ने सागर शहर को ऐतिहासिक रूप से समृद्ध बना दिया. चार बजे गांधीजी नजरबाग से निकले और शहर के अन्य कार्यक्रमों में शामिल हुए. उनके इस दौरे की यादें आज भी सागर के लोगों के दिलों में ताजा हैं. नजरबाग पैलेस न केवल सागर के इतिहास का हिस्सा है, बल्कि गांधीजी के विचारों और उनके योगदान की गवाह भी है.

यह ऐतिहासिक इमारत आज भी गांधीजी की स्मृतियों को संजोए हुए है, और अगर इसे सही तरीके से पुनर्निर्मित किया जाए, तो यह सागर के सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक बन सकता है.

आइए जानते हैं कैसे शुरू हुई सावन सोमवार की व्रत पूजा

सावन सोमवार के दिन पूजा करने और व्रत रखने वालों को इससे संबंधित व्रत कथा जरूर पढ़नी चाहिए. व्रत कथा पढ़े या सुने बिना व्रत संपन्न नहीं माना जाता है. आइये जानते हैं सावन सोमवार से जुड़ी व्रत कथा.

पौराणिक कथा के अनुसार, किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसे धन की कोई कमी नहीं थी. लेकिन कमी थी तो केवल संतान की. साहूकार भगवान शिव का भक्त था और प्रतिदिन उनका पूजन करता था. साहूकार की भक्ति देख एक दिन माता पर्वती ने भोलेनाथ से कहा, आपका यह भक्त दुखी है. 

इसलिए आपको इसकी इच्छा पूरी करनी चहिए. भोलेनाथ ने माता पार्वती से कहा कि, इसके दुख का कारण यह है कि इसे कोई संतान नहीं है.

लेकिन इसके भाग्य में पुत्र योग नहीं है. यदि उसे पुत्र प्राप्ति का वारदान मिल भी गया तो उसका पुत्र सिर्फ 12 वर्ष तक ही जीवित रहेगा. शिवजी की ये बातें साहूकार भी सुन रहा था. ऐसे में एक ओर जहां साहूकार को संतान प्राप्ति की खुशी हुई तो वहीं दूसरी ओर निराशा भी. लेकिन फिर भी वह पूजा-पाठ करता रहा.

एक दिन उसकी पत्नी गर्भवती हुई. उसने एक सुंदर बालक को जन्म दिया. देखते ही देखते बालक 11 वर्ष का हो गया और साहूकार ने शिक्षा प्राप्त करने के लिए उसे मामा के पास काशी भेज दिया. साथ ही साहूकार ने अपने साले से कहा कि, रास्ते में ब्राह्मण को भोज करा दें.

काशी के रास्‍ते में एक राजकुमारी का विवाह हो रहा था, जिसका दुल्हा एक आंख से काना था. उसके पिता ने जब अति सुंदर साहूकार के बेटे को देखा तो उनके मन में विचार आया कि क्‍यों न इसे घोड़ी पर बिठाकर शादी के सारे कार्य संपन्‍न करा लिया जाए. इस तरह से विवाह संपन्न हुआ. साहूकार के बेटे ने राजकुमारी की चुनरी पर लिखा कि, तुम्हारा विवाह मेरे साथ हो रहा है. 

लेकिन मैं असली राजकुमार नहीं हूं. जो असली दूल्हा है, वह एक आंख से काना है. लेकिन विवाह हो चुका था और इसलिए राजकुमारी की विदाई असली दूल्हे के साथ नहीं हुई. 

इसके बाद साहूकार का बेटा अपने मामा के साथ काशी आ गया. एक दिन काशी में यज्ञ के दौरान भांजा बहुत देर तक बाहर नहीं आया. जब उसके मामा ने कमरे के भीतर जाकर देखा तो भांजे को मृत पाया. सभी ने रोना-शुरू कर दिया. माता पार्वती ने शिवजी से पूछा हे, प्रभु ये कौन रो रहा है?  

तभी उसे पता चलता है कि यह भोलेनाथ के आर्शीवाद से जन्‍मा साहूकार का पुत्र है. तब माता पार्वती ने कहा स्‍वामी इसे जीवित कर दें अन्‍यथा रोते-रोते इसके माता-पिता के प्राण भी निकल जाएंगे. तब भोलेनाथ ने कहा कि हे पार्वती इसकी आयु इतनी ही थी जिसे वह भोग चुका है.

लेकिन माता पार्वती के बार-बार कहने पर भोलेनाथ ने उसे जीवित कर दिया. साहूकार का बेटा ऊं नम: शिवाय कहते हुए जीवित हो उठा और सभी ने शिवजी को धन्‍यवाद दिया. इसके बाद साहूकार ने अपने नगरी लौटने का फैसला किया. रास्‍ते में वही नगर पड़ा जहां राजकुमारी के साथ उसका विवाह हुआ था. राजकुमारी ने उसे पहचान लिया और राजा ने राजकुमारी को साहूकार के बेटे के साथ धन-धान्‍य देकर विदा किया.

साहूकार अपने बेटे और बहु को देखकर बहुत खुश हुआ. उसी रात साहूकार को सपने में शिवजी ने दर्शन देते हुए कहा कि तुम्‍हारी पूजा से मैं प्रसन्‍न हुआ. इसलिए तुम्हारे बेटे को दोबारा जीवन मिला है. इसलिए तब से ऐसी मान्यता है कि, जो व्‍यक्ति भगवान शिव की पूजा करेगा और इस कथा का पाठ या श्रवण करेगा उसके सभी दु:ख दूर होंगे और मनोवांछ‍ित फल की प्राप्ति होगी.