रावण ज़िन्दा है।
दशहरे का त्यौहार हम बुराई पर अच्छाई की जीत के तौर पर मनाते है। ऐसी मान्यता है की राजा रामचंद्र ने अपनी पत्नी सीता का हरण करनेवाले लंका नरेश रावण का संहार दशमी के दिन किया था। उस दिन बुराई पर अच्छाई की विजय हुई थी। इसलिए उस दिन को विजयदशमी कहते है। दशहरे को बुराई पर अच्छाई का प्रतीक माना जाता है। महर्षि बाल्मिकी के अनुसार- रावण एक प्रकांड विद्धवान था। जब रावण इतना बड़ा ज्ञानी था,तब उसे इस बात का इल्म कैसे नही हुआ कि राजा रामचंद्र कोई साधारण राजा नही बल्कि भगवान विष्णु के अवतार भगवान रामचंद्र है। अगर यह बात रावण को पता होता तो,क्या रावण भगवान राम से युद्ध करने जाता? इसके बावजूद रावण ने राम से युद्ध किया। मतलब रावण ज्ञानी नही मूर्ख था। अगर रावण ज्ञानी और दूरदर्शी होता तो,माता सीता को हरण करने की हिमाकत कतई न करता।
लोग कहते है,रावण को उसके घमंड ने मार डाला। पर भगवान राम को तो,सब पता था,फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? रावण का घमंड तोड़ने के लिए उसे मृत्युंदण्ड देना कहा तक उचित था।
लोग यह भी कहते है कि,ये सारी कहानी पहले से फिक्स्ड थी। रावण को भगवान राम के हाथों ही मरना था तो,फिर इतना कर्मकांड क्यो? जैसे भगवान राम ने अहिल्या को मुक्ति दे दी। उसी तरह रावण को भी मुक्ति दे सकते थे। इतना लंबा-चौड़ा कहानी की जरूरत ही नही थी।
चौका-छक्का लगा लो,कोई भी रिकॉर्ड बना लो कोई मायने नही रखता। जब राम-रावण का युद्ध फिक्स्ड था। फिर बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाने का कोई औचित्य नही बनता। हा, अगर बुराई पर अच्छाई की जीत का जश्न मनाना है तो,खुद के अंदर के रावण को मार दो। फिर कभी रावण दहन की जरूरत नही पड़ेगी। हर साल रावण दहन के बाद भी हम बलात्कार और शोषण पर जीत का जश्न क्यो नही मना पा रहे। रावण दहन के बाद भी हर साल एक नया रावण (संजय रॉय,कोलकाता रेप केस का अभियुक्त) पैदा हो जाता है। क्यो? क्योकि रावण न कभी जला, न कभी मरा। वह आज भी हममे-आपमे जिंदा है।
लता: जो अमरलता बन गई
भारतीय हिंदी फिल्मी गीतों की बात हो और लता की बात न हो,ये तो हो ही नही सकता। लता के बिना फिल्मी गीतों की चर्चा अधूरी है। बचपन की वो मासूम लता 92 सावन का सफर तय कर आज पर्श्वगायक़ी का बटबृक्ष बन चुकी है। पर ये 92 सवानो का सफर इतना आसान नही था। लता का जन्म 28 सितंबर 1929 को इंदौर में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। लता के पिता दीनानाथ मंगेशकर रंगमंच कलाकार और गायक थे। बचपन से ही लता को गायन में रुचि थी और वह गायिका बनना चाहती थी। लता का बचपन का नाम हेमा था। बाद में परिवारवालों ने लता नाम रखा। लता पांच साल की उम्र से ही अपने पिता के साथ नाटकों में अभिनय के साथ-साथ संगीत की शिक्षा लेने लगी थी। लता अपने पांच भाई-बहनों (लता, उषा,आशा,मीना और हृदयनाथ) में सबसे बड़ी थी। 1942 में पिता की मौत के बाद परिवार की जिम्मेदारी लता पर आ गई। 13 साल की उम्र से ही लता ने हिंदी और मराठी फिल्मों में छोटे-मोटे रोल कर के अपने परिवार का भरण-पोषण करने लगी। जबकि फिल्मों में अभिनय करना लता को पसंद नही थे। लता को फिल्मो में गाने का पहला मौका मराठी फिल्म 'कित्ती हसाल' में मिला था। हिंदी फिल्मों में लता को पहला ब्रेक ग़ुलाम हैदर ने दिया था। फ़िल्म थी- मजबूर(1948)। पर लता को पहचान मिली 1949 में आई फ़िल्म - महल से। 'महल' फ़िल्म में मधुबाला पर फिल्माया गया गीत- आएगा आनेवाला....ने लता को फ़िल्म इंडस्ट्रीज में स्थापित कर दिया। इसके बाद तो लता ने एक से बढ़ कर गीतों की फेहरिस्त खड़ी कर दी। मधुबाला का मानना था कि, लता की आवाज़ उन पर ज़्यादा फिट बैठती है इसलिए वो अपनी हर फिल्म में लता से गीत गवाने के लिए प्रोड्यूसर के सामने शर्त रखती थी। पर लता का मानना था कि उनकी आवाज़ सायरा बानो पर ज्यादा फिट बैठती है। लता को के.एल.सहगल से मिलने और उनके साथ गाने की दिली इक्छा थी जो पूरी नही हो सकी। लता को फोटोग्राफी करना और क्रिकेट देखना बहुत पसंद था। लता को हवाई सफर से डर लगता था। फ्रांस की सरकार ने जब लता को प्रेस्टीजियस अवार्ड से सम्मानित किया तो लता ने उनसे मुम्बई आकर अवार्ड देने की गुजारिश की थी। लता मंगेशकर ने करीब तीस हजार फिल्मी और गैर फिल्मी गीत गाये है। लता गानों की रिकॉर्डिंग हमेशा खाली पांव करती थी। फिल्मों में अतुल्नीय योगदान के लिए भारत सरकार ने लता मंगेशकर को पद्म भूषण,पद्म विभूषण, दादा साहेब फाल्के अवार्ड तथा 2001 में भारत रत्न से नवाजा। संगीत के प्रेमी और लता को चाहनेवाले यही दुआ करते थे कि,लता अपनी उम्र का शतक पूरा करे। पर अफसोस यह हो न सका। 6 फरवरी 2022 को लता ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
आरक्षण पर विवाद
राहुल गांधी विदेश में बोले तो दिक्कत,देश मे बोले तो दिक्कत,संसद में बोले तो दिक्कत,भारत जोड़ो यात्रा निकाले तो दिक्कत,मणिपुर जाए तो दिक्कत। आखिर बीजेपी को राहुल गांधी से इतना प्रॉब्लम क्यो है? कहीं ऐसा तो नही की राहुल गांधी की वजह से बीजेपी का सिंघासन हिलने लगा है। अमेरिका से लेकर भारत तक,सोशल मीडिया से लेकर गोदी मीडिया तक,पक्ष से लेकर विपक्ष तक, राहुल गांधी ही छाए हुए है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार,अमेरिका में राहुल गांधी से पूछा गया-आरक्षण कब खत्म होगा? राहुल गांधी ने कहा-जब समाज मे समानता आ जायेगी तब इस पर बात की जाएगी। फिर क्या था। पूरे देश मे भूचाल आ गया। बीजेपी राहुल गांधी के इस बयान को मुद्दा बना कर कांग्रेस पर हमलावर हो गई। क्या नेता,क्या मंत्री,क्या विधायक। सब के सब राहुल गांधी और कांग्रेस पर पिल गए।
अपनी ओछी और घिनौनी मानसिकता का परिचय देते हुए शिव सेना विधायक संजय गायकवाड़ ने कहा कि,जो राहुल गांधी की जीभ काट कर लाएगा उसे ग्यारह लाख का इनाम दिया जाएगा। केंद्रीय मंत्री रवनीत सिंह बिट्टू ने राहुल गांधी को आतंकवादी घोषित कर दिया। कोई राहुल गांधी को देशद्रोही बता रहा,तो कोई उनकी जीभ जलाने की बात कर रहा। तरविंदर सिंह मारवाह ने तो राहुल गांधी को जान से मारने की धमकी तक दे डाली। तरविंदर मारवाह ने कहा- सुधर जा राहुल गांधी,नही तो तेरा हाल भी तेरी दादी जैसा होगा। इसके वावजूद सरकार और गृह मंत्रालय ने चुप्पी साध रखी है। दिल्ली पुलिस ने कोई कार्यवाई नही की। इसका क्या मतलब है? क्या यह सारे बयान सरकार के इशारे पर दिए गए है? ऐसे बयान अगर कांग्रेस का कोई नेता,विधायक या मंत्री ने दिया होता,तो अभी तक देश भर में न जाने कितने एफआईआर हो गए होते। गिरफ्तारियां हो गयी होती। प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना मात्र करने से लोगो को जेल में डाल दिया जाता है। यहाँ नेता प्रतिपक्ष और सांसद राहुल गांधी को खुले आम जान से मारने की धमकी दी जा रही है और सरकार चुप है। वैसे भी सरकार हमेशा गंभीर मुद्दों पर चुप्पी साध लेती है।
एक साल से अधिक हो गया मणिपुर को हिंसा की आग में जलते हुए,पर सरकार को कोई चिंता नही। राज्य सरकार दंगा रोकने में विफल रही है। इसके बाद भी केंद्र सरकार ने वीरेन सिंह की सरकार को बर्खास्त नही किया। जिसका नतीजा हैं कि आज मणिपुर में फिर से दंगा भड़क गया है। पर सरकार की दिलचस्पी मणिपुर में नही,राहुल गांधी में है। मणिपुर पर लोगो का ध्यान न जाये,इसलिए बीजेपी ने राहुल गांधी के बयानों को मुद्दा बना दिया। बीजेपी, राहुल गांधी और कांग्रेस को आरक्षण विरोधी बता रही है। जबकि यह सर्वविदित है कि,बीजेपी आरक्षण की धुर विरोधी रही है। आरक्षण ही नही ये तो संविधान तक बदलने के फिराक में है। 15 अगस्त,2023 को प्रधानमंत्री मोदी के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्य्क्ष विवेक देबरॉय अपने लेख में नए संविधान की मांग कर रहे थे। 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी उमीदवार अरुण गोविल संविधान बदलने की बात कर रहे थे। क्या ये सब भूल गयी बीजेपी? आरक्षण पर चर्चा करने की वकालत इन्ही के आका (आरएसएस) कर रहे थे। आज ये आरक्षण के हिमायती बने फिर रहे है।
एक बात पक्की है। कुछ भी हो जाये कांग्रेस आरक्षण को हाथ नही लगा सकती। पर बीजेपी का भरोसा नही। आरक्षण और संविधान के मुद्दे पर बीजेपी कभी भी पलटी मार सकती है। वैसे राहुल गांधी ने आरक्षण को लेकर कुछ भी गलत नही कहा। आरक्षण,समाज मे समानता लाने के लिए ही बनाया गया है। जिस दिन समाज मे समानता आ जायेगी,उस दिन आरक्षण की जरूरत ही नही पड़ेगी। पर यह भारत मे संभव नही। क्योकि भारत में जाति खत्म हो नही सकती। और जहाँ जाति है,वहाँ सामाजिक असमानता और छुआ- छूत कभी खत्म नही हो सकता।
धर्मांतरण
आज देश मे धर्म को भी राजनीति का अंग बना दिया गया है और धर्मांतरण को मुद्दा। जहां धर्म के ठेकेदार शाशक और भक्त (जनता) शोषित होते है। धर्मतंत्र और लोकतंत्र एक साथ नही चल सकते। इसके बावजूद देश को धर्मतंत्र के हिसाब से चलाने की कोशिश जारी है। किसी भगवान को मानने के लिए धर्म का होना जरूरी नही है। भगवान धर्म के मोहताज नही है और न ही धर्म के कारण भगवान है। पहले भगवान है न कि धर्म। धर्म ने ही भगवान को बांटा, समाज को बांटा, लोगो को बांटा। धर्म का निर्माण धूर्त लोगो ने किया ताकि वे लोगो पर धार्मिक रूप से शाशन कर उन्हें धर्मिक एवम मानसिक गुलाम बना सके। धार्मिक कट्टरता ऐसा ज़हर है जो लोगो को मारता नही है बल्कि उन्हें धार्मिक और मानसिक ग़ुलाम बना देता है। धार्मिक कट्टर लोग मानव बम की तरह होते है। जो अपने साथ हजारो लोगो को धार्मिक और मानसिक ग़ुलाम बना देते है। धर्म ना भी हो तब भी हम जी सकते है। धर्म कोई चीज नही। धर्म कोई बहुत बड़ा तोप नही। पर उसे तोप बना दिया गया। मनुष्य का परंपरा,रीति-रिवाज तथा उसके जीवन जीने का दर्शन ही धर्म है। जिसे आप कोई भी नाम दे दे। मसलन हिन्दू,मुस्लिम,सिख
ईसाई इत्यादि। इससे इतर धर्म कुछ भी नही।
कोई भी धर्म बुरा नही होता। बल्कि धर्म को मानने वाले लोग बुरे होते होते है। हर मजहब/धर्म में अच्छे लोग भी होते है और बुरे लोग भी।मजहब उन्ही कुछ बुरे लोगो के चलते ही बद्नाम होता है। कुछ मजहबी/धार्मिक लोग अपने मजहब/धर्म को श्रेष्ट घोषित करने के चक्कर में, दूसरे धर्म को घटिया बताते है। जबकि, सभी धर्मी का मूल एक ही है- इंसानियत। और सभी धर्मों का आखरी चैप्टर भी इंसानियत पर आकर ही खत्म होता है। हर धर्म की अपनी फिलॉसफी होती है। जैसे हर व्यक्ति के जीवन जीने की अपनी-अपनी फिलॉसफी होती है। यदि आप किसी धर्म को मानते है मतलब,आपको उस धर्म की फिलॉसफी अच्छी लगती है। पर यह कतई जरूरी नही की,आप जिस धर्म मे पैदा हुए उस धर्म की फिलॉसफी आपको पसंद ही आए। इसलिए हमारा संविधन हमें अपना धर्म चुनने का अधिकार देता है। 2014 के बाद से देश मे धर्मांतरण का मुद्दा काफी जोड़ पकड़े हुए है। और ऐसा होना तय था। क्योंकि,बीजेपी के एजेंडे में धर्मांतरण एक प्रमुख मुद्दा रहा है। देश मे जब बीजेपी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार है तो,धर्मांतरण का मुद्दा उठना लाजिमी था। और इसका सिर्फ और सिर्फ एक ही कारण है,राजनीतिक लाभ। देश मे हिन्दू मेजोरिटी(लगभग 80%) है और बीजेपी हिंदुत्व विचारधारा वाली पार्टी मानी जाती है। ऐसे में अगर बीजेपी को हिन्दुओ के सारे वोट हासिल हो जाते है तो,उन्हें किसी और के वोट की जरूरत ही नही रह जायेगी। और इसतरह बीजेपी सत्ता पर लंबे समय तक काबिज रह सकती है। इसलिए बीजेपी हिन्दुराष्ट्र और धर्मांतरण को मुद्दा बना कर,हिन्दुओ को अपने पाले में रखना चाहती है। ताकि उसके वोट बैंक में सेंध न लग सके।
मेरी समझ मे धर्मांतरण के मुख्य चार कारण है - 1.सामाजिक असमानता 2.गरीबी 3.आस्था और 4.दर्शन। कोई सामाजिक असमानता (जातिगत भेद भाव) के कारण अपना धर्म बदलता है। तो कोई गरीबी से उबरने के लिए उस धर्म को अपना लेता है,जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने का भरोसा दिलाता है। जब कोई व्यक्ति अपनी बिकट परिस्थितियों से तंग आकर किसी दूसरे धर्म के धार्मिक स्थलों पर माथा टेकता है और उसकी समस्याओं का हल निकल जाता है तो उसकी आस्था उस धर्म मे हो जाती है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि,लोग दूसरे धर्म के दर्शन से इतने प्रभावित होते है कि,अपना धर्म परिवर्तन कर लेते है।
आपने कभी किसी सवर्ण को धर्म परिवर्तन करते सुना है। नही! धर्मांतरण केवल दलित/आदिवासी या पिछड़े समुदाय के लोग ही करते है। सवाल है आखिर क्यूँ? क्योकि, हिन्दू धर्म को सवर्ण अपनी जागीर समझते है। धर्म पर उनका शुरू से अधिपत्य रहा है। दलित/आदिवासी सिर्फ नाम के लिए हिन्दू है। इनके साथ हर जगह भेद-भाव होता है। मंदिर से लेकर मंच तक। इन्ही भेद-भाव और छुआ-छूत के कारण आदिवासियों और दलितों ने धीरे-धीरे दूसरे धर्मो की तरफ रुख करने लगे । तथाकथित ब्राह्मणों या सवर्णो ने कभी इस बात पर चिंतन या मंथन नही किया कि,आखिर दलित/आदिवासी समाज के लोग हिन्दू धर्म छोड़ कर दूसरे धर्मो में क्यो जा रहे? जाहिर सी बात है कि,आपने कभी उन्हें अपना समझा ही नही। उन्हें कभी वो मान-सम्मान दिया ही नही,जिसके वो हकदार है। आज भी सवर्ण दलित/आदिवासियों को जानवरों से भी नीच समझते है। कुत्ते-बिल्ली को गोद मे बिठाते है पर दलित/आदिवासी से इन्हें घिन आती है। अति हिंदूवादी लोग दूसरे धर्मों पर अक्सर यह इल्ज़ाम लगाते है कि,'वे लोग हमारे लोगो (दलित/आदिवासी) का धर्म परिवर्तन करा कर मुस्लिम और ईसाई बना रहे है।' जो कि सरासर गलत और तथ्यहीन बात है। दलित/आदिवासी लोग सवर्णो से जलील और प्रताड़ित होकर दूसरे धर्म को अपनाने के लिए मजबूर है। आज कोई भी तलवार या बंदूक की नोक पर किसी का धर्मांतरण नही करा सकता। क्योकि,न तो आज देश मे मुगल है, न अंग्रेज और न ही राजतंत्र है। ज्यादातर लोग सामाजिक असमानता (जातिगत भेद भाव) से आजिज हो कर धर्मांतरण कर रहे है। मैंने वैसे लोगो को भी देखा है जो सिर्फ अपनी जाति छुपाने के लिए ईसाई बन गए।
कोई दलित/आदिवासी समुदाय का व्यक्ति जैन,बौद्ध,सिख या कोई दूसरा धर्म अपनाता है तब इन ब्राह्मणवादियों को कोई प्रॉब्लम नही। इन्हें प्रॉब्लम सिर्फ ईसाई और मुस्लिम धर्म से है। जब लोगो की आस्था आसाराम बापू और राम-रहीम जैसे लोगो मे हो सकती है तो,फिर किसी का किसी धर्म मे आस्था होना गलत या गुनाह कैसे हो गया? ब्राह्मणवादी लोगो मे दलितों/आदिवासियों के धर्मांतरण को लेकर खलबली मची हुईं है। उन्हें लगता है कि अगर दलित/आदिवासियों ने हिन्दू धर्म त्याग दिया तो,इनकी जी हजूरी कौन करेगा? इन्हें डर है कि,इनकी ब्राह्मणवादी विचारधारा खत्म हो जाएगी और कल ये सामाजिक वर्चस्व से बेदखल हो जाएंगे। जिस कारण ये तथाकथित ब्राह्मणवादी विचारधारा के लोग धर्मांतरण को मुद्दा बना कर इस पर रोक लगाने के लिए सरकार से गुहार लगा रहे है। धर्मांतरण पर रोक नही,बल्कि जबरन धर्मांतरण पर रोक लगनी चाहिए। और इसके लिए कानून संविधान में पहले से वर्णित है। आज के वक्त में जबरन धर्मांतरण संभव नही। किसी को स्वेछा से धर्मांतरण करने से रोकना उसके मौलिक अधिकारों का हनन है। लोग अपनी मर्जी से अपना धर्म चुनने के लिए स्वतंत्र है।
हिंग्रेजी दिवस

14 सितंबर को हम हर साल हिंदी दिवस मनाते है। आज पूरे देश मे हिंदी दिवस की धूम है। पर इसका यह मतलब नही की हमे अंग्रेजी से दुश्मनी है। यह अलग बात है कि हम अंग्रेजी दिवस नही मनाते। हिंदी और अंग्रेजी दोनो हमारे देश की आधिकारिक भाषा है। मुझे इससे कोई दिक्कत या शिकायत नही है। शिकायत वैसे लोगो से है,जिन्हें हिंदी दिवस का मतलब ही नही पता और हिंदी को हिंदुस्तान से जोड़कर दूसरी अन्य भाषा मसलन अंग्रेजी,उर्दू तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं को टारगेट करते है। वैसे लोग रोजमर्रा की ज़िन्दगी में बिना अंग्रेजी और उर्दू के एक वाक्य नही बोल पाते। पर हिंदी की वकालत स्वदेशी भाषा के तौर पर करते फिरते हैं। बेशक हमारी हिन्दी स्वदेशी है पर शुद्ध नही। इसके जिम्मेदार हम खुद है। हिन्दी को हमने इतना अपभ्रंषित कर दिया है कि,वह अपना मूल रूप करीब-करीब खो चुकी है। आज हम हिन्दी नही,हिन्दी की आड़ में उर्दू,अरबी,फ़ारसी और हिंग्रेजी (हिंदी+अंग्रेजी) बोलते है। सही मायने में हिंदी दिवस मनाना है तो हमे हिंदी को पुनर्जीवित करना होगा। जिसके लिए हमे अपने बोलचाल और लिखने में हिंदी के शुद्ध शब्दो का प्रयोग करना होगा।जो एक कठिन कार्य है पर असंभव नही। तब जाकर हमारा स्वदेशी का लेक्चर देना सार्थक होगा। वरना यू ही स्वदेशी-स्वदेशी चिल्लाने से कुछ नही होने वाला। 14 सितंबर,1949 को संविधान सभा के निर्णय के बाद हिंदी को केंद्र सरकार की आधिकारिक भाषा घोषित कर दिया गया। परंतु दक्षिण भारतीयों के विरोध के बाद अंग्रेजी को भी आधिकारिक भाषा के रूप मे शामिल किया गया। 1953 से पूरे भारत में 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। हिंदी और हिंदी दिवस का मतलब किसी अन्य भाषा का तिरस्कर करना नही होता। कुछ लोग अंग्रेजी का तिरस्कार इसलिए करते है क्योकि वो अंग्रेजो द्वारा बोली जाने वाली भाषा है;और अंग्रेजो ने हम पर शासन किया था। इस हिसाब से तो आपको हिंदी का भी तिरस्कार करना चाहिए। क्योकि लोगो द्वारा बोली जानेवाली हिंदी में अधिकांश शब्द अरबी,फ़ारसी,उर्दूऔर अंग्रेजी के है। कंप्यूटर,जिसको हिंदी में संगणक कहते है। कितने लोग कंप्यूटर के लिए संगणक शब्द का प्रयोग करते है? मौत शब्द अरबी भाषा से लिया गया है। जिसका हिंदी "मृत्यु" होता है। कितने लोग मृत्यु शब्द का इस्तेमाल करते है? उसी तरह आदमी शब्द फ़ारसी से लिया गया है। जिसका इस्तेमाल उर्दू और हिंदी दोनो में होता है। आदमी शब्द का हिंदी मनुष्य है। कितने लोग आदमी के लिए मनुष्य शब्द का इस्तेमाल करते है? उर्दू,फ़ारसी,अरबी,अंग्रेजी आदि के हज़ारों शब्द हमारी बोली जानेवाली हिंदी में शामिल है। हम उसका निरंतर प्रयोग कर रहे है। और यह स्वीकार्य भी है। गजब तो तब लगता है जब, पढ़े-लिखे लोग भी उर्दू से इसलिए नफरत करते है; क्योंकि उनका मानना है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। एक बार मेरे एक मित्र ने "मुबारकबाद" को मुस्लिम शब्द बता दिया। उर्दू न तो इस्लाम की भाषा है न मुसलमान की भाषा है। उर्दू हिंदुस्तान की भाषा है। उर्दू भारत की जुबान है। यही उर्दू हिंदी के साथ मिलकर उसको खूबसूरत बनाती है। हमारे मशहूर शायर और गीतकार गुलजार साहब अपनी नज़्म, गीत,शेरो-शायरी उर्दू में लिखते है। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की लेखनी भी उर्दू में चलती थी। हम जिस हिंदी पर गर्व करते है। उसकी खूबसूरती उर्दू,अरबी,फ़ारसी और अंग्रेजी के शब्दों के योगदान से ही गुलजार है। रही बात अंग्रेजी की तो,अंग्रेजी हमारी न हो कर भी हिंदुस्तान में सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषा है। आलम यह है कि आज आप बगैर अंग्रेजी के अधूरे है। भारत विविधताओं का देश हैं और यही हमारी पहचान है;हमारी खूबसूरती है। हमारी राजभाषा हिंदी में डाइवर्सिटी है।जो इसे औरो से अलग तथा खास बनाती है। हिंदी पर हमें नाज है। हमें अपने हिंदी का उत्सव मनाना चाहिए। सिर्फ इसलिए नही की हमे दूसरी भाषा को नीचा दिखाना है,बल्कि हिंदी को सम्मान देने के लिए हमे हिंदी दिवस मनाना चाहिए। साथ-साथ उस भाषा का भी सम्मान करना है जिसका हमारे भविष्य के निर्माण में अहम योगदान है।
पहली महिला शिक्षिका

बच्चो का प्रथम पाठशाला 'घर' और प्रथम शिक्षक माता-पिता होते है। तो फिर कबीर दास जी अपने दोहे में किस गुरु(शिक्षक) का महिमामंडन करते है? जिसे वो भगवान से भी श्रेष्ट बताते है। वैसे तो कबीर दास जी ने गुरु-शिष्य पर अनेक दोहे लिखे है। परंतु सबसे चर्चित दोहा है-
"गुरु गोविंद दोउ खड़े,काके लागू पाव। बलिहारी गुरु आपने,गोविंद दियो बताया।"
अर्थात, जब गुरु और भगवान एक साथ खड़े हो तो,सबसे पहले गुरु को चरण स्पर्श करना चाहिए। क्योंकि गुरु ने ही भगवान से हमारा परिचय कराया है। शिक्षक दिवस के मौके पर शिक्षकों द्वारा छात्रों को यह दोहा जरूर सुनाया जाता है। ताकि गुरु-शिष्य का रिश्ता अखंड रहे। पर सवाल है यह है कि,आखिर कबीर दास जी ने गुरु को इतना श्रेष्ठ क्यो बताया है? गुरु का चरण स्पर्श करने में कोई बुराई नही। गुरु पूज्यनीय है। इसमें भी कोई शक नही। पर कबीर दास जी का गुरु को भगवान से श्रेष्ट बताना,क्या भगवान का अपमान नही है? इंसान से लेकर सृष्टि तक। शरीर से मस्तिष्क तक। बुद्धि से बल तक। सब कुछ ऊपर वाले (भगवान) ने रचा है। उसको भूत,भविष्य, वर्तमान सब पता है। उसके इशारे पर ही पूरी दुनिया गतिमान है। पेड़-पौधे,पशु-पक्षी,धरती-आकाश,निर्जीव-सजीव सबका मालिक वही है। फिर कोई उससे श्रेष्ट कैसे हो सकता है? क्या कोई अपने बाप का बाप बन सकता है? कोई पूज्यनीय हो सकता है। पर कोई परमेश्वर नही हो सकता।
गुरु को गुरु रहने दो,गोविंद को गोविंद। भगवान से किसी की तुलना सही नही है। गुरु अगर खुद को भगवान समझने लगेंगे तो सिर्फ आशीर्वाद तक सीमित हो जाएंगे और छात्रों का जीवन अंधकारमय हो जाएगा। गुरु का काम ज्ञान देना है। आशीर्वाद देना भगवान का काम है। कबीर दास जी की माने तो,मंदिरों में भगवान की जगह देश के महान गुरु डॉ. सर्बपल्ली राधाकृष्णन की मूर्ति स्थापित कर देना चाहिए।
पांच सितंबर को पूरे देश मे स्कूल और कॉलेजो में शिक्षक दिवस मनाया जाता है। शिक्षक दिवस,गुरु के सम्मान में मनाया जाता है। शिक्षक दिवस के दिन छात्र अपने-अपने स्कूल,कॉलेजों में बिभिन्न तरह के रंगा-रंग कार्यक्रमो का आयोजन करते है। शिक्षक दिवस की एक परम्परा यह भी है कि, उस दिन सीनियर छात्र अपने जूनियर को पढ़ाते है। अर्थात एक दिन के लिए छात्र अपने स्कूल लाइफ में ही शिक्षक बनने का अनुभव प्राप्त करते है।
शिक्षक दिवस पाँच सितंबर को ही क्यो मनाया जाता है? वह इसलिए क्योकि,पांच सितंबर को देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन(5/9/1888) होता है। उनके जन्मदिन को ही हम शिक्षक दिवस के रूप में मनाते है। देश मे पहली बार शिक्षक दिवस का आयोजन 1962 में हुआ था। तब से हर साल पांच सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है। पर सवाल है कि, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिन के अवसर पर ही शिक्षक दिवस क्यो मनाया जाता है? क्या वे देश के महान शिक्षक थे? या देश मे शिक्षा का अलख इन्होंने ही जगाया था। फिर क्यो इनके नाम पर शिक्षक दिवस मनाया जाए? अगर किसी राष्ट्रपति के नाम पर ही शिक्षक दिवस मनाना है तो फिर डॉ. अब्दुल कलाम के नाम पर क्यो नही? डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन से पहले सावित्री बाई फूले (3/1/1831) ने देश मे शिक्षा के क्षेत्र में अहम और अतुल्य योगदान दिया। फिर भी वो आज गुमनाम है। क्यो? सावित्री बाई फुले के साथ यह भेद-भाव और पक्षपात क्यो? जिस जमाने मे लड़कियों की शिक्षा पर सामाजिक पाबंदी थी। उस जमाने मे सावित्री बाई ने महिलाओं को शिक्षित करने का बेड़ा उठाया था। लोगो के विरोध के बावजूद सावित्री बाई ने 5 सितंबर1848 को महिलाओं के लिए एक विद्यालय की स्थापना की। यह उस जमाने मे बहुत बड़ी उपलब्धि थी। महिला शिक्षा के क्षेत्र में इतनी बड़ी उपलब्धि के बावजूद उन्हें गुमनामी के अंधेरे में फेंक दिया गया। क्यो? इसलिए कि वो एक महिला और दलित थी। सावित्री बाई फुले को भारत की पहली महिला शिक्षिका कहा जाता है,पर शिक्षक दिवस पूर्व राष्ट्रपति के नाम पर मनाया जाता है। इससे बड़े शर्म की बात क्या हो सकती है। नए भारत की नई सोच के अनुसार,डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जगह अब सावित्री बाई फूले के जन्मदिन के मौके पर शिक्षक दिवस का आयोजन होना चाहिए। वही इसकी असली हकदार है।
सलाम महामहिम
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार,कोलकाता रेप एंड मर्डर केस पर महामहिम द्रौपदी मुर्मू जी का बयान आया है। महामहिम ने कहा- 'बस अब बहुत हो गया,मैं निराश और भयभीत हूं...' उधर बेशर्म मेनस्ट्रीम मीडिया महामहिम के बयान को "बड़ा बयान" बता कर अपनी टीआरपी बढ़ा रहा। यह बड़ा बयान कैसे हो गया? घटना के तुरंत बाद राष्ट्रपति की प्रतिक्रिया आती,तब उसे हम बड़ा बयान कहते। पर यहाँ तो सब कुछ होने के बाद,आज बीस दिन गुजरने के बाद महामहिम का बयान आया है। कम से कम महिला होने के नाते घटना के तुरंत बाद महामहिम की टिप्पणी आ जानी चाहिए थी।
कोलकाता रेप और मर्डर केस पर महामहिम के बयान उस कुर्सी की निष्पक्षता पर सवाल खड़े करते है। महामहिम का चुप रहना ही बेहतर था। जैसे वो
मणिपुर,हाथरस,महिला पहलवानो और प्रज्वल रेवन्ना पर चुप थी। एक साल से अधिक हो गए मणिपुर को जलते हुए। परंतु महामहिम ने आज तक इस पर एक शब्द नही कहा। महामहिम जी मणिपुर की घटना भी वीभत्स और दिल दहलाने वाली थी।
महामहिम के बाद उप-महामहिम ने भी कोलकाता रेप एंड मर्डर केस पर अपना दर्द बयां किया। उन्होंने कहा- "जहां महिलाएं सुरक्षित नही,वो समाज कलंकित है..."! क्या यह संवेदना व्यक्त करने की परिपाटी है? राष्ट्रपति के बाद उपराष्ट्रपति। क्या जगदीप धनखड़ साहेब महामहिम का इंतज़ार कर रहे थे, की पहले महामहिम बोल ले फिर मैं बोलूंगा? या प्रोटोकॉल फॉलो कर रहे थे। क्या ऐसे जघन्य अपराध के लिए भी प्रोटोकॉल आड़े आता है?
देश का राष्ट्रपति और राज्यपाल किसी पार्टी के नही होते। वह कुर्सी निष्पक्ष होती है। ऐसे में महामहिम के बयान पर सवाल तो खड़े होंगे। क्या मणिपुर में जिसकी अस्मत लूटी वो महिला नही थी? या हाथरस में जिसकी अस्मत लूटी वो महिला नही थी? क्या महिला पहलवान हमारे देश की बेटी नही थी? प्रज्वल रेवन्ना ने जिन दो हज़ार से अधिक महिलाओं का यौन शोषण किया वो सभी महिला नही थी? उतराखंड की अंकिता भंडारी देश की बेटी नही थी? क्या इन सब घटनाओं ने आपको निराश और भयभीत नही किया महामहिम? मणिपुर में दो महिलाओं को नंगा परेड कराया गया। तब आप निराश और भयभीत नही हुई। आप तब भी निराश और भयभीत नही हुई जब हाथरस में एक दलित बेटी की अस्मत लूट ली गयी और अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया। उसके घरवालों को उसका अंतिम संस्कार तक नही करने दिया गया। महामहिम नही,एक महिला होने के नाते आपको इन घटनाओं पर भी बोलना चाहिए था।
आरक्षण

आरक्षण कोई मुद्दा नही था। न ही इससे किसी को कोई दिक्कत थी। इसे बीजेपी द्वारा प्रस्तावित राजनीतिक मुद्दा बनाया गया वोट बैंक के लिए। जनता के बीच प्रोपेगंडा फैलाया गया कि,आरक्षण के कारण जेनेरल केटेगरी वालो की नौकरी में सेंधमारी हो रही है। जेनेरल केटेगरी वालो की नौकरी आरक्षण वाले खा रहे है। बगैरा-बगैरा। जबकि sc/st से ज्यादा आरक्षण जेनेरल केटेगरी को मिलता हैं। 100 में 50.5% जेनेरल केटेगरी वालो को मिलता है। बाकी का 49.5% sc/st और obc को मिलता है। आधे से ज्यादा आरक्षण तो जेनेरल केटेगरी वाले ले रहे और इल्जाम sc/st पर लगा रहे की वे लोग उनकी नौकरी/हिस्सेदारी खा रहे है। यह बिल्कुल तर्कहीन और तथ्यहीन बात है। महीन बात यह है कि,सवर्णो को sc/st का आगे बढ़ना चुभता है। जिसे वो किसी भी हाल में खत्म करना चाहते है।

आरक्षण तो सिर्फ सहारा है। चलना खुद पडता है। आरक्षण ठिक उस walkar की तरह है। जिसके सहारे एक छोटा बच्चा चलना सिखता है। उसी आरक्षण रूपी walkar से दलित/आदिवासी/पिछडा लोग आज अपने समाज मे चलना सीख रहे है। जिस दिन ये लोग पूर्ण रूप से चलना सीख जायेगे उस दिन खुद-ब-खुद walkar रूपी आरंक्षण को भुला देगे। जैसे बच्चा जब अपने पैरो से चलना शुरू कर देता है उस दिन से वह अपने walkar को हाथ तक नही लगाता।

आरक्षण एक व्यवस्था है समाज मे समानता लाने का। यह आरक्षण दलित/आदिवासी/पिछडो के विकास का संसाधन है। और संसाधन के बिना विकास संभव नही। देश का विकास करने के लिये प्रत्येक व्यक्ति का विकास करना जरूरी है। व्यक्ति के विकास से ही एक अच्छे समाज का निर्माण होगा। जहां खुशियां होगी,अमन-चैन और सुकुन होगा। लोगो के बीच नफरत नही मोहब्बत होगी।

समाज मे,अपने आस-पास किसी की मदद करना या किसी को सहारा देना गलत है क्या? समाज मे दलित/आदिवासी/पिछडे लोगो को आरक्षण का सहारा देकर उन्हें अपने पैरों पर खडा होने लायक बनाया जा रहा तो क्या इसमें कोई बुराई है?

आजकल अकसर सुनने को मिलता है- आरक्षण वाला डॉक्टर/आरक्षण वाला इंजीनियर। जब लोग RIMS(Rajendra Institute of Medical Science,Ranchi) पहुचते है तब कोई भी यह सवाल नही करता कि कौन आरक्षण वाला डॉक्टर है और कौन बिना आरक्षण वाला?

मैने फेसबुक पर एक post देखा था। "जिसमे चार लड़कों की तस्वीर थी। जहां तीन लडको को सोता हुआ दिखाया गया था और उनके उपर लिखा था- Sc/st/obc। चौथे लडके को पढ़ते हुए दिखाया गया था और उसके उपर लिखा था- General."

उस post का मतलब यही था कि, जेनेरल केटेगरी के लडके रात-दिन पढाई करके डॉक्टर/इंजीनियर बनते है और sc/st/obc केटेगरी के लडके सोये-सोये डॉक्टर/इंजीनियर बन जाते है। इसलिये ऐसे डॉक्टर/इंजीनियर न तो अच्छा इलाज कर सकते है और ना ही अच्छा काम। ताजुब की बात यह है कि,पढे-लिखे लोग भी ऐसे post को share nd like करते है। जबकि हकीकत इसके उलट है।

आरक्षण केवल sc/st/obc candidates को medical/engineering college तक पहुचने मे मदद करता है ना कि डॉक्टर/इंजीनियर की डिग्री दिलाने मे।

डॉक्टर/इंजीनियर बनने के लिये sc/st/obc candidates को भी उतनी ही मेहनत करनी पड़ती है जितना जेनेरल केटेगरी वाले करते है। फिर भी लोग कहते है- आरक्षण वाला डॉक्टर/ आरक्षण वाला इंजीनियर!

एक तरफ बहुत से लोग है जो आरक्षण को खत्म करने की वकालत करते है। वही दूसरी तरफ मोदी सरकार ने सवर्ण को भी दस प्रतिशत का आरक्षण दे दिया है। जबकि उन्हें आरक्षण की नही,economic support की जरूरत है। क्योकि सवर्ण लोग बौद्धिक और तार्किक क्षमता से निपुण होते है। जबकि sc/st/लोगो की बौद्धिक और तार्किक क्षमता सवर्णो की तुलना में कम होती है। पर इसका मतलब यह कतई नही है कि, sc/st के लोगो को मौका मिलने पर अपनी बौद्धिक और तार्किकि क्षमता को विकसित नही कर सकते। हज़ारो हज़ार sc/st लड़को ने डॉक्टर/इंजीनियर बन कर साबित भी किया हैं। बस उन्हें मौका मिलना चाहिए। और यह मौका उन्हें आरक्षण के द्वारा मिलता है। बहुत से लोगो का यह मानना है कि,जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर सुखी-सम्पन्न हो चुके है। उन्हें आरक्षण का लाभ नही लेना चाहिए। पर महीन बात यह है कि,आरक्षण का संबंध इनकम से नही बल्कि सामाजिक असमानता और इंटेलिजेंस(बौद्धिक एवं तार्किक क्षमता) से है। इसकी क्या गारंटी है कि,आरक्षण से डॉक्टर/इंजीनियर बनने वाले का बेटा/बेटी बिना आरक्षण के डॉक्टर/इंजीनियर बन पाएंगे? कुछ लोग यह भी कहते है कि,आरक्षित वर्ग के कुछ खास लोग तथा कुछ खास जातियां ही आरक्षण का लाभ उठा रही है। जिसके कारण बाकी लोग आरक्षण का लाभ नही उठा पा रहे। अब यह कैसे संभव है?

आरक्षित वर्ग(sc/st) के जो भी पढ़े-लिखे लोग है। वे सभी प्रतियोगिता परीक्षाओं में शामिल होते है। जिसने अच्छे से पढ़ाई-लिखाई किया,वो सफल होते है। जिसने अच्छे से पढ़ाई नही किया,वे सफल नही हो पाते। sc/st को भी सफल होने के लिए पढ़ना पड़ता है। मेहनत करनी पड़ती है। ऐसा नही है कि,आरक्षण के नाम पर बगैर पढ़े-लिखे ही नौकरी मिल जाएगी। आरक्षण का लाभ वही लोग उठाते है,जो पढ़ते है। मेहनत करते है। इसलिए यह कहना गलत है कि,आरक्षण का लाभ केवल खास जाती या खास लोग उठा रहे है।

हज़ारो साल के शोषण ने sc/st के DNA को विकृत कर दिया है। सवर्णो का यह शोषण हिरोशिमा और नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बम से भी ज्यादा खतरनाक है। जिसका नतीजा है कि, आज भी sc/st के बच्चे सवर्णो का मुकाबला नही कर पाते है। इसी विकृति को दूर करने के लिए आरक्षण नाम का एन्टी डॉज लाया गया। ताकि sc/st केटेगरी के लोग सवर्णो की बराबरी कर सके। पर सवर्णो को ये बराबरी रास नही आती। इसलिए ये लोग हमेशा से आरक्षण का विरोध करते आये है। मेरे खयाल से आरक्षण तब तक लागू रहना चाहिए जब तक sc/st की बौद्धिक और तार्किक क्षमता सवर्णो के बराबर न हो जाए। आरक्षण भीख नही,सवर्णो द्वारा किये गए शोषण का मुआवजा है। जो आज सवर्णो को भारी पड़ रहा है।

सवर्णो में भी बहुत से ऐसे लोग है जो आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण अपना विकास नही कर पाते। सरकार वैसे लोगो को schoolarship दे ताकि वे लोग भी अपना विकास कर समाज मे सम्मान पा सके।

सवर्ण को schoolarship रूपी walkar की जरूरत है न की आरक्षणरूपी walkar की।

रिजर्वेशन शुड कंटिन्यू टिल द एन्ड ऑफ कास्टिसम।