एक ऐसा रहस्यमय मंदिर जहां हर 12 साल में बिजली गिरने से टूट जाता है शिवलिंग,क्या है इसकी पीछे की पौराणिक कथा, जानिए

हिमाचल प्रदेश एक खूबसूरत पहाड़ी राज्य है, जो अपने प्राकृतिक अजूबों और समृद्ध संस्कृति से लेकर सुंदर घरों तक और प्राचीन संरचनाओं तक कई चीजों के लिए जाना जाता है। लेकिन आज हम आपके लिए कुल्लू जिले के एक अनोखे और रहस्यमयी मंदिर के बारे में कुछ दिलचस्प बातें लेकर आएं हैं, जिसका काफी ज्यादा धार्मिक महत्व है। ये मंदिर बिजली महादेव के रूप में जाना जाता है, मंदिर कुल्लू घाटी के सुंदर गांव काशवरी में स्थित है, जो 2460 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर शिव देवता को समर्पित है। इसे भारत के सबसे प्राचीन मंदिरों में भी गिना जाता है। तो चलिए हम आपको बिजली महादेव मंदिर के बारे में बताते हैं।

रहस्यमय बिजली

मंदिर के अंदर स्थित शिव लिंगम हर 12 साल में रहस्यमय तरीके से बिजली के बोल्ट से टकराता है। इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ पाया है और बिजली गिरने की इस घटना की वजह से शिव लिंगम के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। माना जाता है कि मंदिर के पुजारी हर टुकड़ों को इकट्ठा करके उन्हें नाज, दाल के आटे और कुछ अनसाल्टेड मक्खन से बने पेस्ट के उपयोग से जोड़ते हैं। कुछ महीनों के बाद शिवलिंग पहले जैसा लगने लगता है।

स्थानीय मान्यता

स्थानीय लोगों के अनुसार, पीठासीन देवता क्षेत्र के निवासियों को किसी भी बुराई से बचाना चाहते हैं, जिस वजह से बिजली शिवलिंग से टकरा जाती है। कुछ लोगों का मानना है कि बिजली एक दिव्य आशीर्वाद है जिसमें विशेष शक्तियां होती हैं। यह भी माना जाता है कि देवता स्थानीय लोगों का भी बचाव करते हैं।

पौराणिक कथा

ऐसा कहा जाता है कि एक बार कुल्लू की घाटी में कुलंत नाम का एक राक्षस रहता था। एक दिन, उसने एक विशाल सांप में अपना रूप बदल दिया और पूरे गांव में रेंगते हुए लाहौल-स्पीति के मथन गांव पहुंच गया। ऐसा करने के लिए, उन्होंने ब्यास नदी के प्रवाह को रोकने की कोशिश की, जिस वजह से गांव में बाढ़ आ गई थी। भगवान शिव राक्षस को देख रहे थे, गुस्से में उन्होंने उसके साथ युद्ध करना शुरू कर दिया। शिव द्वारा राक्षस का वध करने के बाद और सांप को तुरंत मारने के बाद, वे एक विशाल पर्वत में बदल गया, जिससे इस शहर का नाम कुल्लू पड़ गया। बिजली गिराने को लेकर लोक मान्यता है कि भगवान शिव के आदेश से भगवान इंद्र हर 12 साल में बिजली गिराते हैं।

कैसे पहुंचे मंदिर -

मंदिर कुल्लू से लगभग 20 किमी दूर स्थित है और यहां तक आप 3 किमी का ट्रैक करते हुए पहुंच सकते हैं। ये ट्रैक पर्यटकों के लिए काफी मजेदार है। घाटियों और नदियों के कुछ मनोरम नजारों का आनंद लेने के लिए ये जगह बेस्ट है।

आखिर क्यों नहीं लाना चाहिए मेहंदीपुर बालाजी मंदिर के प्रसाद को घर ?जानते है इस मंदिर की पीछे की इतिहास

हमारे देश में मंदिरों की संख्या अनगिनत हैं, लेकिन कुछ-कुछ मंदिरों की काफी ज्यादा विशेषताएं और प्रसिद्ध है, जिसमें राजस्थान में स्थिति मेहंदीपुर बालाजी का मंदिर भी शामिल है। यह एक हनुमान जी का मंदिर है, जहां हर दिन लाखों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं। इस मंदिर के कई रहस्य और चमत्कार सुनने को मिलते हैं। इस मंदिर को लेकर यह मान्यता है कि इस मंदिर के दर्शन मात्र से भक्तों के सारे कष्ट दूर होते जाते हैं। साथ ही यहां आने वाले भक्तों को भूत-प्रेतों और किये-कराये से भी मुक्ति मिल सकती है।

मेहंदीपुर बालाजी मंदिर कहां है और क्या है इसकी खासियत?

राजस्थान के दौसा जिले में स्थित मेहंदीपुर बालाजी का मंदिर भगवान हनुमान जी का है। इस मंदिर में हनुमान जी के अलावा कई अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं। बालाजी भगवान हनुमान जी का ही दूसरा नाम है। ऐसी मान्यता है कि हनुमान जी के बचपन का नाम बालाजी है, जो हिन्दी और संस्कृत में इस्तेमाल होता है।

इस मंदिर में स्थिति बाला जी की मूर्ति के बाई छाती की ओर एक छोटा सा छेद है, जिसमें से लगातार पानी की एक पतली धारा बहती रहती है। इसी धारा से निकले पानी को टैंक में जमा करके भगवान बाला जी के चरणों में रखा जाता है, जिसके बाद प्रसाद के रूप में इसे वितरित किया जाता है।

इस मंदिर का दर्शन के लिए लोग देश के लगभग हर एक कोने से आते हैं। यहां पर ऊपरी चक्कर और प्रेत आत्माओं से मुक्ति के लिए अर्जी लगाई जाती है। इस मंदिर में प्रेतराज सरकार और भैरवबाबा की भी मूर्ति विराजित है। कहा जाता है कि किसी भी नकारात्मक साया के लिए यहां अर्जी लगाई जाती है। भूत-प्रेत के साए को भगाने के लिए यहां कीर्तन इत्यादि किया जाता है।

बालाजी के मंदिर का प्रसाद घर पर क्यों नहीं लाना चाहिए?

ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर के दर्शन से भूत-प्रेत, किये-कराए जैसी इत्यादि बाधाओं से मुक्ति मिलती है। ऐसे में इस मंदिर के प्रसाद या फिर इस मंदिर से जुड़ी किसी भी सुगंधित चीज को घर पर लाना सही नहीं माना जाता है। क्योंकि ऐसा करने से घर में ऊपरी साया आने का खतरा रहता है।

कैसे लगाई जाती है बालाजी में अर्जी?

बालाजी मंदिर पहुंचने के बाद वहां का दुकानदार आपको एक थाली देता है, जिसमें आपको एक अर्जी का दोना भी मिलता है। इसके साथ ही कटोरी में घी भी दिया जाता है। अर्जी लगाने के लिए इस थाली को सिर पर रखें और फिर अपना नाम, अपने पिता का नाम लें। अगर आप शादी-शुदा महिला हैं, तो अपने नाम के साथ अपने पति का पूरा नाम लें। अपने मन में अपनी तीन समस्याओं के बारे में सोचें।

अब मंदिर पहुंचने के बाद इस थाली को महंत जी के हाथ में दे लें और फिर महाराज जी थाली में रखे लड्डू और घी को हवन कुंड में डाल देते हैं। पूरी प्रक्रिया में मन में उन्हीं तीन समस्याओं के बारे में दोहराना होता है। इसके बाद आपको अपनी दरख्वास्त करनी है और फिर दुकानदार के पास चले आएं। इस दौरान थाली में 6 लड्डू होती है, आपको लड्डू सहित दुकानदार को दे देना है।

दूसरे चरण में अर्जी लगाने के लिए चावल की थाली दी जाएगी, जिसे प्रेतराज के दरबार पर जाना है। यहां जाते हुए भी वही प्रक्रिया दोहरानी है। फिर मंदिर से बाहर आने के बाद एक जगह रूकें और थाली में बची सारी चीजों को सात बार उतारें और पीछे गिराएं। पीछे मुड़कर नहीं देखना होता है और सीथे इस प्रक्रिया के बाद दुकानदार के पास वापस चले जाएं। दोनों थालियों को दुकानदार को देना है, यहां दुकानदार आपको लड्डू देगा, जिसे वहीं खाना है। इस लड्डू को दूसरों को न खिलाएं।

फिर तीसरे चरण में अर्जी लगानी है, जिसके लिए दुकानदार आपको एक दोना देगा। इस दोने को लेकर आपको उस लाइन में खड़ा होना है, जिस लाइन में आप पहली बार खड़ थे। मन ही मन आपको अपना नाम और पता कहना है। साथ ही यह बोलना है कि “ बालाजी मैंने आज आपकी अर्जी लगाई है, जिसे मंजूर करना।” इसे मन ही मन दोहराएं, इससे आपकी अर्जी लग जाएगी।

मेहंदीपुर बालाजी का इतिहास

यह मंदिर करीब 1000 साल पुराना है। मान्यता है कि एक बार मंदिर के पुराने महंत ने एक सपना देखा था, जिसमें उन्हें मंदिर में तीनों देवताओं के दर्शन हुए। यह बालाजी मंदिर के निर्माण की पहला संकेत था। कहा जाता है कि सपने में जंगली जानवरों और जंगली पेड़ों से भरे जगह पर भगवान प्रकट हुए और फिर तीनों देवताओं ने महंत को आदेश दिया कि वे सेवा करके अपने कर्तव्यों का पालन करे। इसके बाद महंत ने मंदिर में तीनों देवताओं बालाजी, प्रेतराज और भैरों महाराज की स्थापना की।

इस मंदिर के पहले महंत गणेश पुरी जी महाराज थे, फिलहाल मंदिर के श्री किशोर पूरी जी हैं। वह काफी धार्मिक निष्ठा भावना से मंदिर की पूजा करते हैं।

कैसी है मेहंदीपुर बालाजी मंदिर की बनावट?

राजस्थान में स्थित बालाजी मंदिर की बनावट राजपूत शैली में की गई है, जिसकी वास्तुकला देखकर आप पूरी तरह से आकर्षित हो सकते हैं। इस मंदिर के 4 प्रांगण है, जिसके पहले 2 प्रांगण में भैरव बाबा की मूर्ति और बालाजी महाराज की मूर्ति है। वहीं, तीसरे और चौथे प्रांगण में प्रेतराज की मूर्ति स्थापित है।

कब जाना चाहिए मेहंदीपुर बालाजी मंदिर?

मेहंदीपुर बालाजी मंदिर आप 12 महीने जा सकते हैं। इस मंदिर में कोई भी कभी भी दर्शन के लिए जा सकता है। आप किसी भी मौसम में जा सकते हैं।

मेहंदीपुर बालाजी मंदिर जाने से पहले क्या करें तैयारी?

बालाजी मंदिर के दर्शन से पहले आप जिस तारीख को निकल रहे हैं, उसके करीब 10 दिन पहले से प्याज और लहसुन जैसी चीजें खाना बंद कर लें।

मंदिर के दर्शन से 10 दिन पहले रोजाना अच्छे से नहा धोकर हनुमान चालीसा पढ़ें।

दर्शन के लिए निकलने से पहले एक डेढ़ मीटर के लाल कपड़े में 1 सूखा नारियल, लौंग, लाल मिर्च, अक्षत यानी खड़ा चावल, घर के चारों कोनों की धूल और 21 रुपये डालकर 3 गांठ लगाकर बांध लें।

आपके साथ परिवार का जो भी सदस्य जा रहा है, उसके सिर के चारों ओर इस लाल कपड़े को 21 बार घुमा लें और फिर इसे एक खूंटी में टांग दें।

अब अगले दिन सुबह-सुबह जल्दी उठकर नहा धोकर अपने परिवार के साथ बालाजी मंदिर के लिए निकले।

घर से जब बालाजी मंदिर के लिए निकले, तो इस लाल कपड़े को फिर से परिवार के सदस्यों के सिर के चारों ओर घुमाएं और फिर घर से तुरंत बाहर निकल जाएं।

घर से जब एक बार बाहर निकल जाएं, तो दोबारा मुड़कर न देखें और न ही किसी चीज के लिए लौटें।

अपने लिए दो सेट कपड़े जरूर बांध लें। साथ ही रास्ते के लिए बिना प्याज और लहसुन का खाना बांध लें।

एक ऐसा मंदिर जहां आंख और मुंह पर पट्टी बांधकर की जाती है पूजा,जानिए इनका पौराणिक कथा

उत्तराखंड के चमोली जिले के एक गांव वाण में एक बेहद ही अद्भुत मंदिर स्थित है, जिसका नाम लाटू देवता मंदिर’ है. लोगों के बीच यह मंदिर चर्चा में बना रहता है क्योंकि इससे जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जिन्हें जानकर आप चैंक जाएंगे. सबसे महत्वपूर्ण बात है कि इस मंदिर में पुजारी आंखों पर पट्टी और मुंह पर कपड़ा बांधकर पूजा करते हैं. इतना ही नहीं, इस लोगों के बीच इस मंदिर की बहुत मान्यता है लेकिन आम लोग मंदिर के भीतर जाकर दर्शन नहीं कर सकते. आइए जानते हैं लाटू देवता मंदिर से जुड़ी खास बातें और इस मंदिर के महत्व के बारे में.

क्यों बांधते हैं आंखों पर पट्टी?

लाटू देवता मंदिर में केवल एक ही पुजारी भीतर जा सकता है और वह भी आंखों पर पट्टी बांधकर. मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर में नागराज अपनी मणि के साथ विराजते हैं. कहा जाता है नाग मणि की रोशनी इतनी तेज होती है कि अगर किसी की आंखों पर मणि की रोशनी पड़ जाए तो वह व्यक्ति अंधा हो जाता है. इसलिए आम लोग दर्शन के लिए इस मंदिर के भीतर नहीं जा सकते. पुजारी भी आंखों और मुंह पर पट्टी बांधकर ही प्रवेश करते हैं. ताकि मणि की रोशनी आंखों और उसकी गंध नाक तक न पहुंचे.

साल में एक बार खुलते हैं कपाट

लाटू देवता मंदिर के कपाट साल में केवल एक बार वैशाख माह की पूर्णिमा तिथि के दिन खुलते हैं. कपाट खुलने में यहां श्रद्धालुओं की भीड़ दर्शन के लिए उमड़ती है. मार्गशीर्ष माह की अमावस्या के दिन कपाट बदं कर दिए जाते हैं.

लाटू देवता की पौराणिक कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार लाटू देवता उत्तराखंड की आराध्य देवी नंदा के भाई हैं. देवी नंदा माता पार्वती का ही स्वरूप हैं. जब देवी पार्वती का भगवान शिव से विवाह हुआ तो उनके विदा करने के लिए लाटू समेत उनके सभी भाई कैलाश पर्वत तक गए. इस बीच लाटू देवता को प्यास और वह पानी के लिए इधर-उधर भटकने पर उन्हें एक कुटिया मिली. कुटिया में एक साथ दो मटके रखे थे, जिनमें से एक में पानी और दूसरे में मदिरा थी. लाटू ने गलती से मदिरा पी ली और उत्पात मचाने लगे. जिससे नाराज होकर नंदा देवी यानि माता पार्वती ने उन्हें श्राप दे दिया और बांधकर कैद करने का आदेश दिया.

अपनी गलती का अहसास होने पर लाटू ने माफी मांगी और पश्चाताप किया. जिसके बाद मां नंदा देवी ने कहा कि वाण गावं में लाटू का मंदिर होगा और हर साल वैशाख माह की पूर्णिमा के दिन उनका पूजन किया जाएगा. मान्यता है कि तभी लाटू देवता उस मंदिर में सांप के रूप में कैद हैं और वैशाख की पूर्णिमा तिथि के दिन उनका पूजन किया जाता है.

नोट: इस खबर में दी गई सभी जानकारियां और तथ्य मान्यताओं के आधार पर हैं (Streetbuzz )किसी भी तथ्य की पुष्टि नहीं करता है

द्वारका नगरी का समुद्र में डूबने का क्या रहस्य है,जाने पीछे के वजह

श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के जल विलीन होने की कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के डूबने की मुख्य दो वजह मानी जाती है. चलिए जानते हैं इनके बारे में

हिंदू धर्म के चार धामों में से एक द्वारका धाम को भगवान श्रीकृष्ण की नगरी कहते हैं. द्वारका धाम गुजरात के काठियावाड क्षेत्र में अरब सागर के समीप स्थित है. श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के जल विलीन होने की कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. चलिए जानते हैं भगवान श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी के डूबने के पीछे क्या वजह थी?

पहला कारण: गांधारी का श्राप

पौराणिक कथा के अनुसार, जरासंध द्वारा प्रजा पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए भगवान श्री कृष्ण मथुरा को छोड़कर चले गए थे. श्रीकृष्ण ने समुद्र किनारे अपनी एक दिव्य नगरी बसायी. 

इस नगरी का नाम द्वारका रखा. माना जाता है कि महाभारत के 36 वर्ष बाद द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई थी. महाभारत में पांडवों की विजय हुई और सभी कौरवों का नाश हो गया था. इसके बाद जब युधिष्ठिर का हस्तिनापुर में राजतिलक हो रहा था, उस समय श्रीकृष्ण भी वहां मौजूद थे.

तब गांधारी ने श्रीकृष्ण को महाभारत युद्ध का दोषी ठहराते हुए भगवान श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि अगर मैंने अपने आराध्य की सच्चे मन से आराधना की है 

और मैंने अपना पत्नीव्रता धर्म निभाया है तो जो जिस तरह मेरे कुल का नाश हुआ है, उसी तरह तुम्हारे कुल का नाश भी तुम्हारी आंखों के समक्ष होगा. कहते हैं इस श्राप की वजह से श्रीकृष्ण की द्वारका नगरी पानी में समा गई.

दूसरा कारण: ऋषियों का श्राप

एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार महर्षि विश्वामित्र, देव ऋषि नारद, कण्व द्वारका गए, तब यादव वंश के कुछ लड़के ऋषियों के साथ उपहास करने के प्रयोजन से श्री कृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेश में ले गए और ऋषियों से कहा कि यह स्त्री गर्भवती है. 

आप इस के गर्भ में पल रहे शिशु के बारे में बताइए कि क्या जन्म लेगा? ऋषियों ने अपना अपमान होता देख श्राप दिया कि इसके गर्भ से मुसल उत्पन्न होगा और उस मुसल से समस्त यदुवंशी कुल का विनाश होगा.

उसके पश्चात सभी यदुवंशी आपस में लड़-लड़कर मरने लगे थे. सभी यदुवंशियों की मृत्यु के बाद बलराम ने भी अपना शरीर त्याग दिया था. श्रीकृष्ण पर किसी शिकारी ने हिरण समझकर बाण चला दिया था, जिससे भगवान श्रीकृष्ण देवलोक चले गए,

उधर, जब पांडवों को द्वारका में हुई अनहोनी का पता चला तो अर्जुन तुरंत द्वारका गए और श्रीकृष्ण के बचे हुए परिजनों को अपने साथ इंद्रप्रस्थ लेकर चले गए.

 इसके बाद देखते ही देखते पूरी द्वारका नगरी रहस्यमयी तरीके से समुद्र में समा गई.

रहस्यों से भरा है माता शिकारी देवी का मंदिर,जाने इस मंदिर में आजतक नहीं टिक पाई छत

हिमाचल प्रदेश का प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर धार्मिक स्थल शिकारी देवी मंदिर करसोग जंजैहली घाटी में 11,000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। सर्दियों में यहां बर्फ गिरती है लेकिन गर्मियों में काफी संख्या में श्रद्धालु और पर्यटक दर्शनों लिए यहां पहुंचते हैं। इस मंदिर का इतिहास बहुत ही अद्भुत और रमणीक है। देवदार के ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के बीच में बसा यह धार्मिक स्थल श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। इसका प्राकृतिक सौंदर्य श्रद्धालुओं का मन मोह लेता है। यह मंदिर गर्मियों के दिनों में दर्शनों के लिए खुला रहता है हालांकि सर्दी के दिनों में बर्फ पडऩे के कारण श्रद्धालु कम संख्या में यहां पहुंच पाते हैं।

मंदिर के ऊपर आजतक नहीं टिक पाई छत

यह प्राचीन और ऐतिहासिक मंदिर कई अद्भुत रहस्यों से भरा है। इस मंदिर के ऊपर छत का निर्माण न होना भी अपने आप में एक रहस्य ही बना हुआ है। कहा जाता है कि कई बार मंदिर की छत बनाने का काम शुरू किया गया लेकिन हर बार कोशिश नाकाम रही। मंदिर के ऊपर छत नहीं ठहर पाई। यह माता का ही चमत्कार है कि आज तक की गई सारी कोशिशें भी शिकारी माता को छत प्रदान न कर सकीं और आज भी ये मंदिर छत के बिना ही है।

ऐसे पड़ा माता शिकारी देवी नाम

जिस जगह पर यह मंदिर स्थापित है, वह बहुत घने जंगल के मध्य में स्थित है। अत्यधिक जंगल होने के कारण यहां जंगली जीव-जन्तु भी बहुतयात में हैं। जब पांडव अज्ञातवास के दौरान शिकार खेलने के लिए यहां पहुंचे तो माता शिकारी देवी ने उन्हें दर्शन दिए। इसके बाद पांडवों ने माता का मंदिर बनाया और इस मंदिर का नाम शिकारी देवी पड़ा। पांडवों ने शक्ति रूप में विध्यमान माता की तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर माता ने उन्हें महाभारत के युद्ध में कौरवों से विजयी प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया। पांडवों यहां से जाते वक्त मां के मंदिर का निर्माण किया परन्तु यह कोई भी जानता कि आखिर इस मंदिर की छत का निर्माण पांडवों द्वारा क्यों नहीं किया गया।

मां की मूर्ति के ऊपर नहीं टिकती बर्फ

दूसरा चमत्कार यह है कि जब सर्दियों में बर्फ गिरती है तो मंदिर के आसपास ही गिरती है लेकिन मां की मूर्ति के ऊपर बर्फ टिक नहीं पाती और पिघल जाती है और मां की मूर्ति के आसपास बर्फ का ढेर लग जाता है। प्राचीन मान्यताओं के मुताबिक जो भी श्रद्धालु मां के दरबार में आकर मन्नत मांगता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। बता दें कि निचले क्षेत्रों में इस समय भीषण गर्मी पड़ रही है, वहीं इस मंदिर का तापमान हमेशा 10 डिग्री सैल्सियस के आसपास ही रहता है और यहां आकर श्रद्धालु अपने आप को गौरवशाली महसूस करते हैं।

दुनिया का ऐसा मंदिर जिसके आस-पास इंसान या कोई पशु-पक्षी भी चला जाए तो उसकी हो जाती है मौत

दुनिया में कई अजीबगरीब जगहें मौजूद हैं। इनमें कुछ जगहें बेहद रहस्मयी और अनोखी हैं, जिनके बारे में जानकर लोगों को यकीन नहीं होता है। इनसे जुड़ी कई कहानियां प्रचलित होती हैं। आज हम आपको एक ऐसी ही जगह के बारे में बताने वाले हैं, जो तुर्की में स्थित है। बताया जाता है कि यह एक ऐसा मंदिर है, जहां पर जाने वाले कभी लौटकर वापस नहीं आए। इस जगह पर कई लोगों की रहस्मयी मौत हो चुकी है, जिसकी वजह से यहां पर किसी को जाने नहीं दिया जाता है। 

यह रहस्यमयी मंदिर तुर्की के प्राचीन शहर हेरापॉलिस में स्थित है। इस जगह के बारे में अधिक जानकारी नहीं है, लेकिन यहां रहने वाले लोग बताते हैं कि यहां स्थित मंदिर के बाहर एक दरवाजा है, जो असल में नरक का दरवाजा है। इसके पास जाते ही इंसान की मौत हो जाती है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि इस दरवाजे के पास जाने पर इंसान ही नहीं, बल्कि जानवारों की भी मौत हो जाती है। 

नर्क का दरवाजा

बता दें कि यह मंदिर तुर्की के हेरापोलिस शहर में स्थित है। इस मंदिर को इंसान और पशु-पक्षियों के रहस्यमयी मौत के लिए जाना जाता है। यह दुनिया में इसी कारण से विख्यात है। ऐसा बताया जाता है कि इस मंदिर के आस-पास जो कोई भी जाता है वह कभी वापस नहीं आता। उसकी मौत हो जाती है। मौत कैसे होती है ये किसी को नहीं पता। यहां इंसान तो क्या पशु-पक्षी भी जाते हैं तो उनकी भी मौत हो जाती है। मंदिर के आस-पास लगातार हुई रहस्यमयी मौतों की घटनाओं के कारण मंदिर के दरवाजे को लोग नर्क का दरवाजा भी कहते हैं।

विज्ञान की नजर से मौत का कारण

लोगों की मानें तो उनका कहना है कि इस मंदिर में एक ग्रीक देवता वास करते हैं और जब वह सांस छोड़ते हैं तो उनकी सांस से निकली जहरीली हवा से यहां आने वाले लोगों की मौत हो जाती है। वहीं विज्ञान की दृष्टि से देखें तो वैज्ञानिकों का मानना है कि इस मंदिर के जमीन के नीचे से जहरीली गैस कार्बनडाई ऑक्साइड का रिसाव होता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि जमीन से निकलने वाली 10% कार्बनडाई ऑक्साइड इंसानों की जान ले लेती है और इस मंदिर से निकलने वाली कार्बनडाई ऑकिसाइड की मात्रा 91% है।

शनि शिंगणापुर के पीछे की क्या है कहानी? और जाने क्यों नहीं होता घरों में दरवाजे

महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित है शिंगणापुर गांव, जिसे शनि शिंगणापुर के नाम से जाना जाता है। 

यह गांव हिन्दू धर्म के विख्यात शनि देव की वजह से प्रसिद्ध है, क्योंकि इस गांव में शनि देव का चमत्कारी मंदिर स्थित है। 

आपको शायद यकीन न हो लेकिन इस गांव के किसी भी घर या दुकान में दरवाजा नहीं है। 

कहते हैं कि बीते कुछ समय में यह गांव अपनी इसी खासियत से देश-दुनिया में काफी मशहूर हुआ था। लेकिन यहां दरवाजा क्यों नहीं प्रयोग किया जाता

चलिए अब आपको शिंगणापुर मंदिर की कहानी बताते हैं जिसके चलते शिंगणापुर गांव में शनि देव की इतनी महिमा बढ़ गई।

गांव पर शनिदेव की है कृपा, घर में नहीं होते दरवाजे

नहीं, यहां चोरी की घटनाएं नहीं होती हैं। क्योंकि, माना जाता है कि जो भी व्यक्ति यहां चोरी करेगा उसे स्वयं शनि देव ही सजा दे देंगे।

 यहां के लोग अलमारी, लॉकर, सूटकेस आदि भी नहीं रखते हैं। यह अनोखी प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। इस स्थान पर शनि की विशेष कृपा है। शास्त्रों के अनुसार शिंगणापुर में ही शनिदेव का जन्म भी हुआ है।

कहते हैं एक बार इस गांव में काफी बाढ़ आ गई, पानी इतना बढ़ गया कि सब डूबने लगे। लोगों का कहना है कि उस भयंकर बाढ़ के दौरान कोई दैवीय ताकत पानी में बह रही थी। जब पानी का स्तर कुछ कम हुआ तो एक व्यक्ति ने पेड़ की झाड़ पर एक बड़ा सा पत्थर देखा। 

ऐसा अजीबोगरीब पत्थर उसने अब तक नहीं देखा था, तो लालचवश उसने उस पत्थर को नीचे उतारा और उसे तोड़ने के लिए जैसे ही उसमें कोई नुकीली वस्तु मारी उस पत्थर में से खून बहने लगा। 

यह देखकर वह वहां से भाग खड़ा हुआ और गांव वापस लौटकर उसने सब लोगों को यह बात बताई। सभी दोबारा उस स्थान पर पहुंचे जहां वह पत्थर रखा था, सभी उसे देख भौचक्के रह गए। 

लेकिन उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिरकार इस चमत्कारी पत्थर का क्या करें। 

इसलिए अंतत: उन्होंने गांव वापस लौटकर अगले दिन फिर आने का फैसला किया। उसी रात गांव के एक शख्स के सपने में भगवान शनि आए और बोले “मैं शनि देव हूं, जो पत्थर तुम्हें आज मिला उसे अपने गांव में लाओ और मुझे स्थापित करो”।

अगली सुबह होते ही उस शख्स ने गांव वालों को सारी बात बताई, जिसके बाद सभी उस पत्थर को उठाने के लिए वापस उसी जगह लौटे। बहुत से लोगों ने प्रयास किया, किंतु वह पत्थर अपनी जगह से एक इंच भी न हिला। 

काफी देर तक कोशिश करने के बाद गांव वालों ने यह विचार बनाया कि वापस लौट चलते हैं और कल पत्थर को उठाने के एक नए तरीके के साथ आएंगे। 

उस रात फिर से शनि देव उस शख्स के सपने में आए और उसे यह बता गए कि वह पत्थर कैसे उठाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि “मैं उस स्थान से तभी हिलूंगा जब मुझे उठाने वाले लोग सगे मामा-भांजा के रिश्ते के होंगे”। तभी से यह मान्यता है कि इस मंदिर में यदि मामा-भांजा दर्शन करने जाएं तो अधिक फायदा होता है। इसके बाद पत्थर को उठाकर एक बड़े से मैदान में सूर्य की रोशनी के तले स्थापित किया गया।

आज शिंगाणपुर गांव के शनि शिंगाणपुर मंदिर में यदि आप जाएं तो प्रवेश करने के बाद कुछ आगे चलकर ही आपको खुला मैदान दिखाई देगा। उस जगह के बीचो-बीच स्थापित हैं शनि देव जी। यहां जाने वाले आस्थावान लोग केसरी रंग के वस्त्र पहनकर ही जाते हैं। कहते हैं मंदिर में कथित तौर पर कोई पुजारी नहीं है, भक्त प्रवेश करके शनि देव जी के दर्शन करके सीधा मंदिर से बाहर निकल जाते हैं। रोजाना शनि देव जी की स्थापित मूरत पर सरसों के तेल से अभिषेक किया जाता है।

मंदिर में आने वाले भक्त अपनी इच्छानुसार यहां तेल का चढ़ावा भी देते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जो भी भक्त मंदिर के भीतर जाए वह केवल सामने ही देखता हुआ जाए। उसे पीछे से कोई भी आवाज लगाए तो मुड़कर देखना नहीं है। शनि देव को माथा टेक कर सीधा-सीधा बाहर आ जाना है, यदि पीछे मुड़कर देखा तो बुरा प्रभाव होता है।

एक ऐसा मंदिर जहां शाम ढलने से पहले ही लोग चले जाते हैं घर, खौफनाक है यहां का रहस्य, जानें

भारत में कई प्राचीन मंदिर है। हर मंदिर का अपना महत्‍व है और मान्‍यता भी। इनमें से कई मंदिर बेहद रहस्यमयी और चमत्कारिक हैं। देवी देवताओं पर विश्वास करने वाले लोग इसे भगवान की कृपा मानते हैं, तो वहीं कुछ लोगों के लिए ये मंदिर आश्‍चर्य का विषय है। इन्‍हीं में से एक मंदिर है किराडू मंदिर। यह रहस्यमयी मंदिर राजस्‍थान के बाड़मेर जिले में स्थित है। 1161 ईसा पूर्व में इस जगह को किराट कूप के नाम से जाना जाता था।

कहने को यह मंदिर राजस्‍थान में बना है, लेकिन इसके निर्माण में दक्षिण शैली की झलक दिखाई देती है। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में खजुराहो जैसी शिल्‍पकला देखने को मिलती है, इसी वजह से लोग इसे राजस्‍थान का खजुराहो भी कहते हैं। यह मंदिर कई रहस्यों से घिरा है। इस मंदिर को देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। तो आइए जानते हैं किराड़ू मंदिर क्‍यों है इतना डरावना।

खंडहर में बदल गए मंदिर

बाड़मेर से 35 किमी दूर किराडू मंदिर पांच मंदिरों की एक सुंदर श्रृंखला है। दक्षिण शैली में बने इन मंदिराें की सुंदरता के चर्चे पूरे भारत में हैं। लेकिन अब इसके ज्‍यादातर मंदिर खंडहर में बदल चुके हैं। भगवान शिव और विष्‍णु के मंदिर की हालत ठीक ठाक है।

पत्‍थर का बन जाता है व्‍यक्ति

यह मंदिर इतना डरावना है कि लोग यहां शाम तक रूकती भी नहीं। सूरज ढलते ही लोग यहां से चले जाते हैं। इसके पीछे एक बेहद खौफनाक कारण है। मान्‍यता है कि जो भी व्‍यक्ति सूरज ढलने के बाद इस मंदिर में रुकता है, वह हमेशा के लिए पत्‍थर का बन जाता है। इस खौफनाक मंजर के बाद कोई भी शाम ढलने के बाद यहां नहीं रुकना चाहता।

मंदिर को मिला है साधु का श्राप

ऐसी मान्‍यता है कि इस खौफनाक रहस्‍य के पीछे एक साधु का श्राप है। कहा जाता है कि एक सिद्ध साधु अपने शिष्‍यों को राजा और प्रजा के भरोसे छोड़कर चले गए थे। उन्‍होंने राजा से उनका ख्याल रखने के लिए कहा था। लेकिन राजा और प्रजा दोनों अपने काम में इतने व्‍यस्‍त हो गए कि शिष्‍यों पर ध्‍यान ही नहीं किया। यहां अचानक से एक शिष्‍य की तबीयत बिगड़ गई। 

जब शिष्‍यों ने गांव वालों से मदद मांगी, तो किसी ने उनकी मदद नहीं की। जब साधु को इस बात का पता चला तो उन्‍हें बहुत गुस्‍सा आया और उन्होंने परे गांव को श्राप दे दिया कि जो भी सूर्यास्‍त के बाद इस मंदिर में प्रवेश करेगा, वो पत्‍थर का बन जाएगा। अब तो राजस्‍थान सरकार ने भी शाम ढलने के बाद इस मंदिर में जाने पर प्रतिबंध लगा दिया है।

पीछे मुड़कर देखना भी है मना

लोक कथाओं के अनुसार, उस दौरान एक कुम्‍हार की पत्‍नी ने साधु के शिष्यों की मदद की थी। साधु उस महिला से प्रसन्‍न हुए। उन्‍होंने उसे शाम तक गांव छोड़ने का आदेश दिया और कहा कि भूल से भी पलटकर ना देखे। महिला जब जा रही थी, तो उसने गलती से पीछे मुड़कर देख लिया, इससे वह भी पत्‍थर की बन गई।

आज भी स्‍थापित है महिला की मूर्ति

उस महिला की मूर्ति आज भी मंदिर के पास स्‍थापित है। साधु के इस श्राप के कारण ही गांव के लोगों में दहशत फैल गई और अब कोई भी शाम के बाद इस मंदिर में जाने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाता।

बाड़मेर के पास जैन मंदिर, बाड़मरे फोर्ट और सैंड डयून्‍स देखने को मिल जाएंगे। किराडू के रहस्‍य के चलते लोग इस मंदिर को देखने आते हैं। हालांकि, किराडू का श्राप सच है या कल्‍पना, कहा नहीं जा सकता। लेकिन बंजरा जगह पर होने के कारण यह जगह डरावनी लगती है। शाम तो शाम दिन में भी यहां ज्‍यादा लोग दिखाई नहीं देते।

स्तम्भेश्वर महादेव मंदिर एक ऐसा मंदिर है, जो दिन में दो बार समुद्र में समा जाता है,जाने ऐसा क्यों

भारत में कई ऐसे मंदिर हैं, जो दुनिया भर में काफी मशहूर हैं। इन मंदिरों में दर्शन के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। भगवान शिव के कई प्राचीन मंदिर हैं जो बहुत प्रसिद्ध हैं। उन्हीं में से एक गुजरात के स्तंभेश्वर महादेव मंदिर का भी उल्लेख है। सबसे पुराना मंदिर होने के होने के साथ स्तंभेश्वर महादेव मंदिर को 'गायब मंदिर' भी कहा जाता है। सावन के महीने में इस मंदिर में लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती है। दूर-दूर से लोग महादेव के दर्शन करने के लिए यहां आते हैं।

स्तंभेश्वर महादेव मंदिर का निर्माण भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने अपने तपोबल से किया था। यह मंदिर समुद्र में स्थित है और रोज़ाना दो बार गायब हो जाता है। कई लोगों को मंदिर का गायब होना एक चमत्कार लगता है। यही नहीं लोग अपनी मनोकामना पूर्ण होने की कामना लेकर इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आते रहते हैं। अगर आप भी भगवान शिव की भक्त हैं तो इस मंदिर के दर्शन करने के लिए जा सकती हैं।

क्यों कहा जाता है 'गायब मंदिर'

रोजाना स्तंभेश्वर महादेव मंदिर सुबह और शाम कुछ देर के लिए गायब हो जाता है। इसके पीछे प्राकृतिक कारण है, दरअसल दिन भर में समुद्र का स्तर इतना बढ़ जाता है कि मंदिर पूरी तरह डूब जाता है। फिर कुछ ही पलों में समुद्र का स्तर घट जाता है और फिर मंदिर पुनः दिखाई देने लगता है। ऐसा हमेशा सुबह और शाम के समय होता है। मंदिर के गायब होने के पीछे लोग समुद्र द्वारा शिव का अभिषेक करना मानते हैं। यही नहीं श्रद्धालु भगवान शिव के इस मंदिर का नजारा लेने के लिए दूर-दूर से आते हैं।

स्तंभेश्वर महादेव मंदिर जाने का तरीका

स्तंभेश्वर महादेव मंदिर गुजरात के वडोदरा से लगभग 40 किलोमीटर दूर जंबूसर तहसील में स्थित है। कावी कंबोई गुजरात के वडोदरा से लगभग 75 किमी दूर है। कावी कंबोई वडोदरा, भरूच, और भावनगर जैसी जगहों से सड़क मार्ग द्वारा अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। वडोदरा से आप स्तंभेश्वर महादेव मंदिर जाने के लिए निजी टैक्सी या फिर अन्य वाहन का साधन लें सकती हैं। इसके अलावा यहां पहुंचने के लिए सड़क, रेल या फिर एयर प्लेन के जरिए भी आसानी से पहुंचा जा सकता है। वहीं इस मंदिर से जुड़ी अधिक जानकारी के लिए आप www.stambheshwarmahadev.com पर जाकर विजिट कर सकती हैं।

ऐसे निमार्ण हुआ था स्तंभेश्वर महादेव मंदिर की स्थापना

पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह शिवलिंग स्वयं भगवान कार्तिकेय द्वारा स्थापित किया गया था। एक कहानी यह भी कहती है कि भगवान कार्तिकेय (शिव के पुत्र) राक्षस तारकासुर को मारने के बाद स्वयं को दोषी मानते हैं। इसलिए भगवान विष्णु ने उन्हें यह कहते हुए सांत्वना दी कि आम लोगों को परेशान करने वाले एक राक्षस को मारना गलत नहीं है। हालांकि कार्तिकेय भगवान शिव के एक महान भक्त की हत्या के पाप को दूर करना चाहते थे। इसलिए, भगवान विष्णु ने उन्हें शिवलिंग स्थापित करने और क्षमा प्रार्थना करने की सलाह दी।

अदभुत है कोडुंगल्लूर मंदिर की मान्यता,जाने इनका क्या है इतिहास

 कोडुंगल्लूर देवी मंदिर अत्यंत प्राचीन मंदिर है, जो कि केरल राज्य के त्रिशूर जिले में स्थापित है। वैसे तो दक्षिण भारत मे बहुत से मंदिर है परंतु यह मंदिर सब मंदिरों में सबसे अद्भुत है। कोडुंगल्लूर देवी मंदिर को "श्री कुरम्बा भगवती मंदिर" के नाम से भी जाना जाता है। इस मंदिर में माँ भद्रकाली उपस्थित है, उनकी काली रूप में पूजा की जाती है। यहां आने वाले लोग देवी को कुरम्बा या कोडुंगल्लूर अम्मा के नाम से बुलाते है।

केरल के मंदिर में माँ काली के रुद्र रूप की पूजा अर्चना की जाती है यह मंदिर मालाबार के 64 भद्रकाली मंदिरों में से प्रमुख है माँ काली ने अपने प्रचण्ड रूप में आठों हाथों में कुछ न कुछ पकड़ रखा है जैसे:- एक हाथ मे राक्षस राजा दारूका का सिर पकड़ा हुआ है, एक हाथ मे घंटी, एक हाथ मे तलवार और एक हाथ मे अंगूठी। मंदिर में दोपहर 3 बजे से लेकर रात 10 बजे तक पूजा होती है।

कोडुंगल्लूर मंदिर का इतिहास

यहां के लोगो का मानना है कि इस मंदिर में भगवान शिव की आराधना की जाती थी और परशुराम जी ने मंदिर के निकट ही माँ काली की प्रतिमा लगाई थी। कोडुंगल्लूर कभी चेरा साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था, जो एक महत्वपूर्ण नगर कहलाता था। इस मंदिर को चेरमान पेरुमल ने बनवाया। यह मंदिर केरल के मध्य में स्थित है। इस मंदिर में उपस्थित माँ भद्रकाली को यहां के लोग "मलयाला भगवती" बुलाते है। इस मंदिर में प्राचीनतम तरह से ही देवी के निर्देशानुसार पूजा की जाती है। यहं पांच 'श्री चक्र' शंकराचार्य ने स्थापित किए, जिन्हें देवी की शक्तियों का मुख्य स्रोत माना जाता है। इस मंदिर में पुष्प अर्जित करने का अधिकार केवल यहाँ के पुजारी नंबूदिरीस और आदिकस का है।

कोडुंगल्लूर मंदिर की मान्यताएं

इतिहास के पन्नों में कहा गया है कि प्राचीन काल मे इस मंदिर में सबसे पहले जानवरों की बलि की परंपरा हुआ करती थी बलि पक्षियों और बकरी की होती थी। भक्तों की मांग व उनके द्वारा संरक्षण की मांग में इन बलिदानों का चलन था, मगर अब इस सभ्यता में केरल सरकार के हस्तक्षेप के बाद से ही इस मंदिर में अब पशु-बलि पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन यहां धार्मिक अनुष्ठानों की समाप्ति नहीं हुई है। अब यहां पर भगवान को लाल धोती अर्पित करने की परंपरा है, भक्त महंगे उपहार, सोना-चांदी अपनी इच्छा व क्षमता अनुसार चढ़ाया जाता है। 

कौडुंगल्लूर भगवती मंदिर के त्यौहार

भरानी त्यौहार केरल के प्रमुख त्योहारों में से एक है इस त्योहार का आयोजन हर साल मार्च और अप्रैल महीने के बीच किया जाता है यह त्यौहार आमतौर पर 'कोझिकलकु मूडल' नामक अनुष्ठान से शुरू हुआ, जिसमे मुर्गो की बलि और उनके रक्त का बहाव शामिल है। इस त्यौहार का इतना माध्यम है कि इसके द्वारा माँ काली और उनके राक्षसों को प्रसन्न किया जा सके।

केतू थेण्डल' इस मंदिर का प्रमुख त्यौहार है बरगद के पेड़ के चारो ओर एक मंच बनाया जाता है राजा इस मंच पर खड़े होकर "रेशमी छतरी" फैलता है जिसके तुरंत बाद ही मंदिर के दरवाज़े खोल दिये जाते है। इसके बाद कोई भी जाति का श्रद्धालु मंदिर में प्रवेश कर सकता है, ऐसा कहा जाता है कि इस दौरान दारूका राक्षस की हत्या का जश्न मनाया जाता है इस प्रकार इसमें छड़ों का उपयोग किया जाता है जिसको तलवार का प्रतीक माना जाता है। इस मौके पर श्रद्धालु देव की तरह वस्त्र धारण करते है तथा मंदिर के चारो तरफ हाथों में छड़ लिए दौड़ते है, छड़ हवा में लहराने से यह अनुष्ठान पूरा किया जाता है। इसके पश्चात अगले दिन 'शुद्धिकरण' का समारोह आयोजन किया जाता है।