अनोखा मंदिर जहां देवी की आराधना करने आता है भालू का पूरा परिवार

 छत्तीसगढ़ के एक मंदिर के बारे में बात कर रहे हैं जहां देवी के मंदिर में हर दिन दर्शन करने के लिए भालू का पूरा परिवार आता है.

छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के घूंचापाली गांव में चंडी देवी का मंदिर है जिसमें लोगों की काफी आस्था है. लोगों का दावा है कि ये मंदिर करीब 150 साल पुराना है. 

पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ी रहती है मगर सबसे खास भक्तों में भालू शामिल हैं, इस मंदिर में माता का दर्शन करने भालू आते हैं. हैरानी इस बात की है कि भालू किसी को नुकसान नहीं पहुंचाते और चुपचाप दर्शन कर के चले जाते हैं.

भालुओं ने कभी नहीं पहुंचाया किसी को नुकसान

 भालू आरती के वक्त आते हैं और माता की मूर्ति की परिक्रमा भी करते हैं. उसके बाद वो प्रसाद भी लेते हैं. कई बार तो पुजारी अपने हाथों से उन्हें प्रसाद खिला देते हैं. जो लोग इस मंदिर में दर्शन करने गए हैं, उनका दावा है कि भालू मंदिर में ऐसे पेश आते हैं जैसे वो कोई पालतू जानवर हों. उनका व्यवहार बहुत सरल और सीधा-सादा होता है. प्रसाद लेकर वो जंगल की ओर दोबारा लौट जाते हैं.

तंत्र साधना के लिए प्रसिद्ध था मंदिर

ग्रामीणों में मान्यता है कि भालू जामवंत के परिवार का हैं और वो देवी के भक्त हैं इसलिए वहां आते हैं. निवासियों का ये भी कहना है कि उन्होंने आज तक किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाया है. आपको बता दें कि पुराने वक्त में ये मंदिर तंत्र साधना के लिए जाना जाता था. यहां साधु-महात्मा का डेरा था जो तंत्र साधना करते थे, मगर 1950-1951 के वक्त ये मंदिर आम जनता के लिए खोल दिया गया. इस मंदिर में निर्माण कार्य कई बार हुआ है क्योंकि लोगों का दावा है कि देवी की मूर्ति अपने आप बढ़ती जा रही है.

आइए जानते है तिरुपति बालाजी की क्या है पौराणिक इतिहास और भक्त क्यों देते हैं अपने बालों का दान

आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले में तिरुमला पर्वत पर स्थित यह मंदिर भारत के सबसे प्रमुख व पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। इसके अलावा यह भारत के सबसे अमीर मंदिरों में से एक भी है। चमत्कारों व रहस्यों से भरा हुआ यह मंदिर न सिर्फ भारत में बल्कि पूरे विश्व में जाना जाता है। इस मंदिर के मुख्य देवता श्री वेंकटेश्वर स्वामी है, जो स्वयं भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं और तिरुमाला पर्वत पर अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास करते हैं।

तिरुपति बालाजी मंदिर में बाल-दान की परम्परा

मान्यताओं के मुताबिक, जिन भक्तों की मनोकामनाएं पूरी हो जाती है, वे मंदिर में आकर वेंकटेश्वर स्वामी को अपना बाल समर्पित (दान) करते हैं। दक्षिण में होने के बावजूद इस मंदिर से पूरे देश की आस्था जुड़ी है। यह प्रथा आज से नहीं बल्कि कई शाताब्दियों से चली आ रही है, जिसे आज भी भक्त काफी श्रद्धापूर्वक मानते आ रहे हैं। इस मंदिर की खासियत यह है कि यहां न सिर्फ पुरुष अपने बाल का दान करते हैं बल्कि महिलाएं व युवतियां भी भक्ति-भाव से अपने बालों का दान करती हैं।

तिरुपति में बाल दान करने के पीछे की कहानी क्या है?

पौराणिक किवदंती के अनुसार, प्राचीन समय में भगवान तिरुपति बालाजी की मूर्ति पर चीटियों ने बांबी बना ली थी, जिसके कारण वह किसी को दिखाई नहीं देती थी। ऐसे में वहां रोज एक गाय आती और अपने दूध से मूर्ति का जल-अभिषेक कर चली जाती। जब इस बात का पता गाय मालिक को चला तो उसने गाय को मार दिया, जिसके बाद मूर्ति के सिर से खून बहने लगा। इस पर एक महिला ने अपने बाल काटकर बालाजी के सिर पर रख दिया। इसके बाद भगवान प्रकट हुए और महिला से कहा, यहां आकर जो भी मेरे लिए अपने बालों का त्याग करेगा, उसकी हर इच्छा पूरी होगी। तभी से ये केश-दान की परंपरा चली आ रही है।

तिरुपति बालाजी मंदिर को लेकर पौराणिक मान्यता

पौराणिक मान्यताओं की मानें तो भगवान विष्णु ने कुछ समय के लिए स्वामी पुष्करणी नामक सरोवर के किनारे निवास किया था। यह सरोवर तिरुमाला के पहाड़ी पर स्थित है। इसीलिए तिरुपति के चारों ओर स्थित पहाड़ियां शेषनाग के सात फनों के आधार पर बनीं 'सप्तगिर‍ि' कहलाती हैं। श्री वेंकटेश्वरैया का यह मंदिर सप्तगिरि की सातवीं पहाड़ी पर स्थित है, जो वेंकटाद्री नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि मंदिर में स्थित प्रभु की प्रतिमा किसी ने बनाई नहीं है बल्कि ये स्वयं ही उत्पन्न हुई है।

तिरुपति बालाजी मंदिर का इतिहास

तिरुपति बालाजी मंदिर को 'टेम्पल ऑफ सेवन हिल्स' भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण करीब तीसरी शाताब्दी के आसपास में हुआ है, जिसका समय-समय अलग-अलग वंश के शासकों द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया है। 5वीं शाताब्दी तक यह मंदिर सनातनियों का प्रमुख धार्मिक केंद्र बन चुका था। कहा जाता है कि इस मंदिर की उत्पत्ति वैष्णव संप्रदाय ने की थी।

9वीं शताब्दी में कांचीपुरम के पल्लव शासकों ने यहां कब्जा कर लिया था। इस मंदिर के ख्याति प्राप्त करने की बात की जाए तो 15वीं शाताब्दी के बाद इस मंदिर काफी प्रसिद्धि मिली, जो आजतक बरकरार है।

तिरुपति बालाजी मंदिर की कहानी

कहा जाता है कि एक बार भगवान विष्णु अपनी पत्नी लक्ष्मी के साथ क्षीर सागर में अपने शेषशैय्या पर विश्राम कर रहे थे, तभी वहां भृगु ऋषि आए और उनके छाती पर एक लात मारी। इस पर क्रोधित न होकर विष्णु जी ने भृगु ऋषि के पांव पकड़ लिए और पूछा कि ऋषिवर आपके पैरों में चोट तो नहीं लगी। लेकिन लक्ष्मी जी को ऋषि का यह व्यवहार पसंद नहीं आया और वे क्रोधित होकर बैकुंठ छोड़कर चली गई और पृथ्वी पर पद्मावती नाम की कन्या के रूप में जन्म लिया।

इस पर भगवान विष्णु ने अपना रूप बदल वेंकटेश्वर के रूप में माता पद्मावती के पास पहुंच गए और विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे देवी ने स्वीकार कर लिया और फिर दोनों की शादी हो गई। आज भी तिरुपति मंदिर में स्थित मूर्ति को आधा पुरुष व आधा महिला कपड़े में सजाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यहां भगवान वेंकटेश्वर स्वामी अपनी पत्नी पद्मावती के साथ निवास करते हैं।

तिरुपति बालाजी मंदिर में चढ़ने वाला प्रसाद

यह मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला और शिल्प कला का अदभूत उदाहरण हैं। इस मंदिर से 23 किमी. दूर एक गांव है, जहां बाहरी व्‍यक्तियों का जाना वर्जित है। यहां पर लोग बहुत ही नियम और संयम के साथ रहते हैं। मान्‍यता है कि बालाजी को चढ़ाने के लिए फल, फूल, दूध, दही और घी सब इसी गांव से आता है। इस गांव में सदियों से परम्परा चली आ रही है, यहां की महिलाएं कभी भी सिले हुए वस्त्र धारण नहीं करती हैं।

तिरुपति बालाजी मंदिर के बारे में महत्वपूर्ण तथ्य

⦁ मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश करते ही दाई ओर एक छड़ी रखी है, जिसको लेकर कहा जाता है कि बालाजी की मां उसी छड़ी से उनकी पिटाई करती थी।

⦁ पिटाई के दौरान ही उनकी ठुड्डी पर चोट लग गई थी, जिस पर उनकी मां ने उस चंदन का लेप लगाया था, जो प्रथा के रूप में आज भी चली रही है।

⦁ मंदिर की मूर्ति में वेंकटेश्वर स्वामी खुद निवास करते हैं और इसीलिए मूर्ति के सिर पर लगे बाल असली है, जो कभी आपस में उलझते नहीं और मुलायम बने रहते हैं।

⦁ मूर्ति पर कान लगाकर सुनने पर समुद्री लहरों की ध्वनि सुनाई देती है और मूर्ति में भी हमेशा नमी बनी रहती है।

⦁ मंदिर में एक दीया है, जो कई शाताब्दियों से निरंतर जलता आ रहा है। रहस्यमयी बात यह है कि इस दीपक में न तो कभी तेल डाला जाता है और न कभी घी..।

⦁ गर्भ गृह में प्रवेश करने पर मूर्ति मध्य में स्थित दिखाई देती है लेकिन गर्भ गृह के बाहर से देखने पर मूर्ति गर्भ गृह में दाई ओर स्थित दिखाई देती है।

वेंकटेश्वर स्वामी की मूर्ति पर पचाई कपूर लगाया जाता है। विज्ञान की मानें तो पचाई कपूर लगाने से पत्थर कुछ समय बाद चटक जाता है 

लेकिन वर्षों से तिरुपति बालाजी को यह कपूर लगाया जा रहा है लेकिन आज भी मूर्ति एकदम सुरक्षित है।

⦁ हर गुरुवार को तिरुपति जी का चंदन श्रृंगार किया जाता है और जब यह चंदन लेप हटाया जाता है तो मूर्ति के ह्रदय के पास माता लक्ष्मी छवि उभर आती है।

⦁ ऐसी मान्यता है कि माता लक्ष्मी बालाजी में ही समाहित है। इसीलिए प्रतिदिन मूर्ति के श्रृंगार के समय नीचे धोती और ऊपर साड़ी पहनाई जाती है।

⦁ तिरुपति बालाजी की मूर्ति एक काले पत्थर से बनी है, जो देखने एक जीवंत मूर्ति दिखाई देती है। गर्भगृह का वातावरण काफी ठंडा रखा जाता है, उसे बावजूद मूर्ति पर पसीने की बूंद उभर आती हैं। मान्‍यता है कि बालाजी को अत्यधिक गर्मी लगती है, जिससे उनकी पीठ भी हमेशा नम रहती है।

एक ऐसा रहस्यमयी मंदिर जहां हवा में लटके हैं इसके खंभे, जाने

दुनिया भर में भगवान शिव के कई मंदिर हैं और हर एक मंदिर से कोई न कोई रहस्य जुड़ा हुआ है। 

यह मंदिर आंध्र प्रदेश में है और खास बात यह है कि इस विशाल मंदिर का भार मात्र एक खंभे पर है जो हवा में लटका हुआ है। यूं तो इस मंदिर में अन्य खंभे भी हैं लेकिन हवा में लटका वो एक खंबा अनेकों रहस्य और चमत्कार समेटे हुए है। चलिए जानते हैं इस बारे में विस्तार से।

इस मंदिर में यूं तो 70 खंभे हैं लेकिन इस मंदिर का आकर्षण केंद्र हवा में लटका वो खंबा जिस पर मंदिर का पूरा भार आधारित है। मंदिर में मौजूद हवा में लटके इस खंबे को आकाश स्तंभ के रूप में माना जाता है। यह खंबा जमीन से आधा इंच के करीब ऊपर उठा हुआ है

इस मंदिर को लेकर मान्यता है कि हवा में लटके इस खंबे के नीचे से अगर कपड़ा निकाला जाए तो उस व्यक्ति के घर में सुख-समृद्धि (सुख-समृद्धि के लिए हटाएं ये वास्तु दोष) का वास हमेशा बना रहता है। खंबे के हवा में लटकने के पीछे एक कथा भी प्रचलित है। माना जाता है कि भगवान वीरभद्र की उत्पत्ति दक्ष प्रजापति के यज्ञ के बाद हुई थी।

जब महादेव ने माता सती के आत्मदाह के बाद वीरभद्र को अपनी जटा से उत्पन्न कर दक्ष प्रजापति को मारने भेजा था। तब दक्ष के वध के बाद भगवान वीरभद्र का क्रोध शांत होने के नाम ही नहीं ले रहा था। पाताल से लेकर आकाश तक उनकी हुंकार से सब भयभीत हो उठे थे।

तब भगवान शिव ने उन्हें क्रोध शांत करने के लिए तपस्या का आदेश दिया। जिसके बाद कहा जाता है कि जहां आज लेपाक्षी मंदिर है उसी स्थान पर वीरभद्र भगवान ने तपस्या की थी और क्रोध पर नियंत्रण पाया था। मान्यता है कि इस मंदिर में जो हवा में लटका खंबा है वो भगवान वीरभद्र के क्रोध के कारण ही है।

भगवान वीरभद्र ने क्रोध रूप में तपस्या आरंभ की थी जिसके बाद उनकी क्रोध की अग्नि के ताप से वह जगह कांपने लगी थी। इसी कारण से उस स्थान पर कुछ भी बनाया जाता वह कांपने लगता और मंदिर का निर्माण अधूरा रह जाता। ऐसे में विरुपन्ना और विरन्ना जो विजयनगर के राजा हुआ करते थे उन्होंने युक्ति लगाई।

उन्होंने इस मंदिर का निर्माण ऐसे तरीके से कराया जिससे मंदिर का आधार वह स्तंभ हवा में लटकने लगा और मंदिर का निर्माण पूरा हुआ। माना जाता है कि जिस दिन यह स्तंभ जमीन को छु गया उस दिन भगवान शिव के वीरभद्र रूप का क्रोध पुनः जाग जाएगा और सृष्टि का विनाश उस दिन निश्चित है।

हिमाचल प्रदेश के ज्वालामुखी मंदिर का क्या है रोचक तथ्य,और इनका पौराणिक इतिहास जाने

ज्वालामुखी मंदिर, भारतीय राज्य हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के दक्षिण में 30 किमी की दूरी पर स्थित है। हिन्दू देवी माँ ज्वालामुखी को समर्पित इस मंदिर को ‘जोता वाली का मंदिर’ और ‘नगरकोट’ के नाम से भी जाता है। यह मंदिर माता के 51 शक्तिपीठों में से एक है।

माता के अन्य मंदिरों की तुलना में यह मंदिर अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं की जाती है, बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही 09 ज्वालाओं की पूजा होती है। मंदिर के पौराणिक इतिहास के कारण भव्य मंदिर में दर्शन के लिए काफी बड़ी मात्रा में भक्तजन यहाँ आते है।

ज्वालामुखी मंदिर कांगड़ा का इतिहास

हिमाचल प्रदेश में बने इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण राजा भूमि चंद द्वारा करवाया गया था। इसके बाद महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने द्वारा साल 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निर्माण करवाया था। पांडवों द्वारा इस मंदिर की खोज की गई थी। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माना जाता है कि 51 स्थलों पर माता सती के शरीर के हिस्से गिरे थे और उस हर एक स्थान को शक्तिपीठ के नाम से जाना जाता है, यह स्थान भी उन्ही स्थानों में से एक है।

मंदिर की पौराणिक मान्यता

पौराणिक कथा के अनुसार माना जाता है कि भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष प्रजापति ने अपने यहाँ पर यज्ञ करवाया था, जिसमे सभी -देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया, परन्तु शिव को नहीं बुलाया गया। सती अपने पिता के पास इसका उत्तर लेने गई वहां उनके पति शिव को अपमानित किया गया, जो वो सहन नहीं कर पाईं और हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी।

जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उनकी पत्नी सती ने आत्मदाह कर लिया है तो गुस्साएं भगवान शिव ने माता सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकालकर तांडव करना शुरू कर दिया, जिसके कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया और इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया था, जहाँ-जहाँ पर माता सती के शरीर के अंग गिरे, वह स्थान शक्तिपीठ बन गया। मान्यता है कि ज्वालाजी मंदिर के स्थान पर ही माता सती की जीभ गिरी थी।

ज्वालामुखी मंदिर कांगड़ा के रोचक तथ्य

1,मंदिर का मुख्य प्रवेश द्वार अत्यंत सुंदर और मनमोहक है। मंदिर में घुसते के साथ ही बायें हाथ पर अकबर नहर है। इस नहर का निर्माण मुग़ल बादशाह अकबर द्वारा करवाया गया था।

2,उसके आगे मंदिर का गर्भ द्वार है जिसके अंदर माता ज्योति के रूम में विराजमान है।

3,मंदिर के ऊपरी भाग में गोरखनाथ का एक मंदिर है जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि यहां गुरु गोरखनाथ जी आये थे और कई चमत्कार दिखाए थे।

4,मंदिर की चोटी पर सोने की परत चढी हुई है।

5,मंदिर में आज भी एक जलकुण्ड है जो देखने मे खौलता हुआ प्रतीत होता है, पर वास्तव मे पानी ठंडा है।

6,यहां मंदिर के अंदर 9 स्थानों पर दिव्य ज्योतियाँ निरंतर प्रज्ज्वलित होती है। ये नौ ज्योतियां माता महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका और अंजीदेवी को समर्पित हैं।

7,सम्राट अशोक यहाँ से निकलने वाली अग्नि की लपटों से बहुत ज्यादा प्रभावित थे। उन्होंने मंदिर में एक सोने की छत्री स्थापित करवाई, जो आज भी पानी से ज्वाला की रक्षा करती है।

8,इस जगह का एक अन्य आकर्षण ताम्बे का पाइप भी है, जिसमें से प्राकृतिक गैस का प्रवाह होता है।

9,मंदिर में आरती का समय सुबह 5 बजे व दोपहर 12 बजे है, इसके बाद शाम की आरती 7 और रात 10 बजे की जाती है।

10,दोनों नवरात्रि के दिनों में मंदिर के अन्दर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। अखंड देवी पाठ रखे जाते हैं और वैदिक मंत्रोच्चारण सहित हवन किया जाता है।

11,इस मंदिर से मात्र 4.5 कि.मी. की दूरी पर नगिनी माता का मंदिर है। इस मंदिर में जुलाई और अगस्त के माह में मेले का आयोजन किया जाता है।

12,मंदिर से करीब 5 कि.मी. की दूरी पर पांडवो द्वारा निर्मित रघुनाथ जी का मंदिर है, यह मंदिर प्रभु श्रीराम, लक्ष्मण और देवी सीता को समर्पित है।

बर्फीले चोटियां पर है किन्नर कैलाश ,बार-बार रंग बदलता है शिवलिंग

हिमालय की बर्फीली चोटियों में कई देव स्थान हैं। इनकी धार्मिक मान्यताएं भी बहुत अधिक है। ऐसा ही एक पर्वत है, किन्नर कैलाश। किन्नर कैलाश हिमाचल के किन्नौर जिले में स्थित है। ये शिवलिंग 79 फिट ऊंचा है। इसके आस-पास बर्फीले पहाड़ों की चोटियां हैं। जो इसकी खूबसूरती की में चार चांद लगाते हैं।

अत्यधिक ऊंचाई पर होने के कारण किन्नर कैलाश शिवलिंग चारों ओर से बादलों से घिरा रहता है। ये हिमाचल के दुर्गम स्थान पर स्थित है, इसलिए यहां पर ज्यादा लोग दर्शन के लिए नहीं आते हैं। किन्नर कैलाश का प्राकृतिक सौंदर्य मंत्र मुग्ध कर देने वाला है।

किन्नर कैलाश शिवलिंग का आकार त्रिशूल जैसा

किन्नर कैलाश शिवलिंग का आकार त्रिशूल जैसा लगता है। किन्नर कैलाश पार्वती कुंड के काफी नजदीक है जिस वजह से भी इसकी मान्यता बहुत अधिक है।  

बार-बार रंग बदलता है शिवलिंग

किन्नर कैलाश की खास बात ये है कि यहां पर स्थित शिवलिंग बार-बार रंग बदलता है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग हर पहर में अपना रंग बदलता है। सुबह के समय इसका रंग अलग होता है और दोपहर के समय सूरज की रोशनी में इसका रंग बदला हुआ दिखता है और शाम होते ही इसका रंग फिर से बदल जाता है।

चढ़ाई करना बेहद मुश्किल

यहां पर चढ़ाई करना बेहद मुश्किल है। क्योंकि यहां 14 किलोमीटर लंबे इस ट्रेक के आस-पास बर्फीली चोटियां हैं। लेकिन यहां कि खूबसूरती देखते ही बनती है। यहां के सेब के बगान के साथ यहां की सांग्ला और हंगरंग वैली के नजारो की बात ही अलग है। इस ट्रेक का सबसे पहला पड़ाव तांगलिंग गांव जो सतलुज नदी के किनारे बसा है। यहां से 8 किलोमीटर दूर मलिंग खटा तक ट्रेक करके जाना पड़ता है। इसके बाद 5 किलोमीटर दूर पार्वती कुंड तक जाते हैं। यहां से तकरीबन एक कलोमिटर की दूरी पर किन्नर कैलाश स्थित है।

देवी पार्वती ने बनाया है कुंड

माना जाता है कि यहां पर जो पार्वती कुंड स्थित है वह कुंड देवी पार्वती ने खुद बनाया था। यहां पर पूरी तेयारी के साथ आना चाहिए क्योंकि यहां पर ट्रेक करना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए किसी स्थानीय गाइड को अपने साथ ले सकते हैं।

एक ऐसा अनोखा मंदिर जहां लोग किसी मूर्ति की नहीं, बल्कि एक बुलेट मोटरसाइकिल की पूजा करते है,जाने इनकी पूरी कहानी

भारत में लोगों की अपनी आस्था है. कोई पत्थर में भगवान ढूंढ लेता है तो कोई पोधे या जानवर के आगे सिर झुकाता है. लेकिन, राजस्थान में एक ऐसी जगह है, जहां लोग किसी मूर्ति की नहीं, बल्कि मोटरसाइकिल की पूजा करते हैं. आप भी सोच कर हैरान हो गए होंगे, लेकिन यह बाच सच है. यहां बाइक की ही पूजा होती है और इस मान्यता है बाइक की पूजा से उनकी रक्षा होती है और मनोकामनाएं भी पूरी होती है. बाइक का यह मंदिर ना सिर्फ आस्था का केंद्र है, बल्कि कई लोग इस अजीबोगरीब मंदिर को देखने भी आते हैं.

ऐसे में जानते हैं कि इस बाइक में ऐसा क्या है और इसके पीछे की क्या कहानी है, जिसकी वजह से लोग एक कई साल पुरानी बाइक में भगवान खोज रहे हैं. यह मंदिर सिर्फ राजस्थान में ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत में फेमस है. यहां बड़ी संख्या में भक्त आते हैं, पूजा करते हैं, आरती करते हैं और मनोकामना मांगते हैं. आइए जानते हैं क्या है बाइक की पूजा की कहानी है और यह बाइक किसकी है…

कहां है ये मंदिर?

यह मंदिर राजस्थान के जोधपुर-पाली हाइवे से 20 किलोमीटर दूर है. यह पाली शहर के पास स्थित चोटिला गांव में है. पहले भले ही लोग इसे नहीं जानते थे, लेकिन अब इस हाइवे पर गुजरने वाले हर शख्स के लिए यह जाना पहचाना स्थान है.

क्या है बाइक पूजा की कहानी?

बात साल 1988 की है, जब पाली के रहने वाले ओम बन्ना (राजस्थान में राजपूत परिवार के युवा लोगों के लिए बन्ना शब्द का इस्तेमाल करते हैं) अपनी बुलेट बाइक से जा रहे थे और रास्ते में दुर्घटना हो गई और उनकी मृत्यु हो गई. ये कहानी है कि एक्सीडेंट के बाद इस बाइक को थाने ले जाया गया, लेकिन ये बाइक वहां से गायब हो गई. इसके बाद वो बाइक दुर्घटनास्थल पर मिली, जहां ओम बन्ना का एक्सीडेंट हुआ था.

फिर इसके बाद इसे थाने ले जाया गया और फिर ये बाइक वापस उसी स्थान पर आ गई. ऐसा कई बार हुआ. कहा जाता है कि इस बाइक को पुलिस ने चेन से बांध कर भी रखा था, लेकिन फिर भी यह बाइक थाने से गायब हो गई. इसके बाद इसे चमत्कार माना गया और उस बाइक को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया गया. इसके बाद लोग इसकी पूजा करने लगे और लोगों की आस्था बढ़ गई. इसके बाद लोगों का मानना है कि ओम बन्ना और बाइक उनकी रक्षा करते हैं और मनोकामना पूरी करते हैं.

कहा जाता है कि जब से बाइक का मंदिर बनाया गया है, तब से यहां कोई एक्सीडेंट हुआ. इसके बाद लोग दूर दराज से पूजा करने आते है. अब राजस्थान में एक बड़ा वर्ग ओम बन्ना की पूजा करते हैं और उनकी आरती, भजन भी काफी गाए जाते हैं.

कब बना पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर ?, जाने इस मंदिर की पौराणिक इतिहास

हमारा देश भारत कई विविधताओं का संग्रह है। यहां कई अलग देवी देवताओं की पूजा की जाती है और विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख देवताओं में से हैं ब्रह्मा ,विष्णु और महेश यानी शिव। वैसे तो मुख्य रूप से विष्णु और शिव की पूजा करने का विधान है। लेकिन कभी आपने सोचा है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्म देव की पूजा क्यों नहीं की जाती है?

ब्रह्म देव के नाम पर पूरे विश्व में कुछ ही मंदिरों का निर्माण किया गया है। जिनमें से सबसे पुराना मंदिर है पुष्कर का ब्रह्मा मंदिर। आइए जानें इस मंदिर से जुड़ी कुछ ख़ास बातों और ब्रह्मा की पूजा न करने के कारणों के बारे में।

कब हुआ था मंदिर निर्माण

भगवान ब्रह्मा को समर्पित कुछ मंदिरों में से एक, इस पुष्कर मंदिर का निर्माण 14 वीं शताब्दी में किया गया था। इसमें एक सुंदर नक्काशीदार चांदी का कछुआ है, जो विभिन्न आगंतुकों द्वारा दान किए गए चांदी के सिक्कों के साथ संगमरमर के फर्श पर स्थापित किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में उनकी दुल्हन, गायत्री के साथ ब्रह्मा जी की चार मुखी मूर्ति है। पुष्कर में कई मंदिर हैं जो अन्य देवताओं को समर्पित हैं। वराह मंदिर एक जंगली सूअर (वराह) के अवतार में विष्णु को समर्पित है। आप्टेश्वर मंदिर एक भूमिगत शिव मंदिर है जिसमें एक लिंगम है। अंत में, ब्रह्मा की पत्नी सावित्री को समर्पित सावित्री मंदिर, ब्रह्मा मंदिर के पीछे एक पहाड़ी पर स्थित है, और झील के सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है।

मंदिर की पौराणिक कथा

एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा जी ने पृथ्वी पर भक्तों की भलाई के लिए यज्ञ का विचार किया। यज्ञ की जगह का चुनाव करने के लिए उन्होंने अपने एक कमल को पृथ्वी लोक भेजा और जिस स्थान पर कमल गिरा उसी जगह को ब्रह्मा ने यज्ञ के लिए चुना। ये जगह राजस्थान का पुष्कर शहर था, जहां उस पुष्प का एक अंश गिरने से तालाब बन गया था। उसके बाद ब्रह्मा जी ने यज्ञ करने के लिए पुश्कर पहुंचे, लेकिन उनकी पत्नी सावित्री ठीक पर नहीं पहुंची। 

यज्ञ का शुभ मुहूर्त बीतता जा रहा था, लेकिन सावित्री का कुछ पता नहीं था। सभी देवी-देवता यज्ञ स्थल पर पहुंच चुके थे। ऐसे में ब्रह्मा जी ने नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट किया और उनसे विवाह कर अपना यज्ञ शुभ समय पर शुरू किया। कुछ देर बाद सावित्री यज्ञ स्थल पर पहुंची और ब्रह्मा जी के बगल में किसी और स्त्री को देख क्रोधित हो गई। सावित्री ने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि इस पृथ्वी लोक में आपकी कहीं पूजा नहीं होगी। इस श्राप को देखते हुए सभी देवी -देवताओं ने जब सावित्री से आग्रह किया तब उन्होंने श्राप वापस लिया और कहा कि, धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही ब्रह्मा जी की पूजा होगी। तब से इस मंदिर का निर्माण किया गया।

पुष्कर झील के किनारे स्थित

यह मंदिर पुष्कर लेक के किनारे स्थित है और ब्रह्म देव के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। यह मंदिर हर साल पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। कहा जाता है कि पुष्कर की खूबसूरती देखते हुए ब्रह्म देव ने स्वयं ही इस मंदिर को चुना था। प्राचीन ग्रंथों के मुताबिक, पुष्कर दुनिया की इकलौती जगह है, जहां ब्रह्मा का मंदिर स्थापित है और इस जगह को हिंदुओं के पवित्र स्थानों के राजा के रूप में वर्णित किया गया है।

कैसी है मंदिर की संरचना

पुराणों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण करीबन 2000 वर्ष पूर्व सम्पन्न हुआ था । लेकिन मंदिर की मौजूदा वास्तुकला के मुताबिक इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। पुष्कर को मंदिर की नगरी भी कहा जाता है, लेकिन औरंगजेब के शासन के दौरान यहां अमूमन हिन्दू मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया, लेकिन आज भी पुष्कर झील के किनारे ब्रह्मा मंदिर और अन्य मन्दिर ज्यों के त्यों स्थित हैं। ऐसा माना जाता है कि पुष्कर झील ब्रह्मा जी के कमल की एक पत्ती से बनी है, जो हिन्दुओं के लिए अत्यंत पवित्र झील है।

कई विशेषताओं को अपने आप में समेटे हुए ये मंदिर वास्तव में बेहद खूबसूरत है और आप सभी को इस मंदिर के दर्शन हेतु अवश्य जाना चाहिए।

जानिए ओडिशा के लिंगराज मंदिर का इतिहास,और रहस्य

दसवीं-ग्यारहवीं सदी में बना ओडिशा का लिंगराज मंदिर भारत के विशाल और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। आस्था और पर्यटन दोनों ही दृष्टियों से यह इस राज्य की राजधानी भुवनेश्वर का एक सबसे बड़ा आकर्षण है।

भारत के कुछ बेहतरीन हिंदू मंदिरों में से एक यह मंदिर लगभग 55 मीटर ऊंचा है, जिस पर बेहद सुंदर नक्काशी की गई है। बाहर से देखने पर यह चारों ओर से फूलों का गजरा पहना हुआ-सा दिखता है।

भगवान हरिहर को समर्पित है यह मंदिर

लिंगराज का अर्थ होता है ‘शिव’, लेकिन लिंगराज मंदिर में प्रतिष्ठित देवता ‘हरिहर’ के रूप में पूजित हैं। इस रूप में ‘हरि’ यानी भगवान विष्णु और ‘हर’ यानी भगवान शिव की पूजा-अर्चना एकसाथ होती है।

बता दें, भगवान हरिहर का एक सबसे प्रसिद्ध मंदिर बिहार के सोनपुर में गंगा और गंडक नदी के संगम पर स्थित है, जहां कार्तिक मास में भारत का एक सबसे प्रसिद्ध पशुमेला लगता है।

भुवनेश्वर है भगवान लिंगराज

लिंगराज मंदिर ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थापित है। ‘भुवनेश्वर’ भगवान लिंगराज का ही एक नाम है। भुवनेश्वर का अर्थ है ‘संसार के स्वामी’।

भगवान लिंगराज के रूप में भगवान शिव की उपस्थिति यहां होने के कारण भुवनेश्वर को ‘भगवान शिव का शहर’ कहा जाता है।

मां पार्वती ने किया था राक्षसों का वध

पौराणिक मान्यता के अनुसार, लिट्टी और वसा नामक दो राक्षसों ने लिंगराज क्षेत्र में अपने अत्याचारों से जनता को आतंकित और त्रस्त कर रखा था।

इन दोनों दुर्दांत राक्षसों के नाश के लिए लोगों ने मां पार्वती का आह्वान किया। भक्तों की पुकार से द्रवित होकर मां पार्वती ने लिट्टी और वसा का वध यहीं पर किया था।

बिन्दुसागर सरोवर में है पवित्र नदियों का जल

मान्यता के अनुसार, लडाई के बाद मां पार्वती को जब प्यास लगी, तो भगवान शिव ने यहां पर एक जलाशय का निर्माण कर सभी नदियों का आह्वान किया। उनके आह्वान पर जलाशय में भारत की सभी पवित्र नदियों का जल भर गया था।

बताया जाता है कि यहां स्थित बिन्दुसागर या बिन्दुसार सरोवर उसी दिव्य जलाशय का अंश है, जिसमें आज भी पवित्र नदियों का जल भरा है। लिंगराज का विशालकाय मंदिर इसके निकट ही स्थित है।

लिंगराज मंदिर का इतिहास

लिंगराज मंदिर ‘कलिंग वास्तुकला’ की उत्कृष्टता का सर्वोच्च प्रतिनिधि है। इस भव्य और विशाल मंदिर के निर्माण का श्रेय सोमवंशी राजवंश के राजा ययाति प्रथम को दिया जाता है।

जिसे बाद में जजाति केशरी ने और विकसित और पूरी तरह से स्थापित किया। मंदिर के विकास और साज-सज्जा में गंगवंश के राजाओं ने काफी योगदान दिया।

प्राचीन ‘एकाम्र क्षेत्र‘ में बना है यह मंदिर

ब्रह्म पुराण में ओडिशा के लिंगराज क्षेत्र को “एकाम्र क्षेत्र” के रूप में वर्णित किया गया है। कहते हैं, भगवान लिंगराज का विग्रह एक आम (एकआम्र/एकाम्र) वृक्ष के नीचे स्थापित था।

यहां के प्रथम मंदिर का उल्लेख सातवीं शताब्दी के कुछ संस्कृत ग्रंथों में मिलता है। इन ग्रंथों के अनुसार, लिंगराज मंदिर का एक भाग छठी शताब्दी ईस्वी के दौरान बनाया गया था। एक सोमवंशी रानी ने मंदिर के लिए एक गाँव दान में दिया था और मंदिर से जुड़े ब्राह्मणों को भी काफी अनुदान मिला था।

लिंगराज मंदिर का रहस्य

हजारों सालों से भुवनेश्वर पूर्वोत्तर भारत में ‘शैव सम्प्रदाय’ का मुख्य केन्द्र है। मध्यकाल में यहां सात हजार से अधिक मंदिर और पूजास्थल थे, जिनमें से अब लगभग पांच सौ ही शेष बचे हैं।

लिंगराज मंदिर का संबध ‘शैव सम्प्रदाय’ के कापालिकों से भी रहा है, जो अनेक रहस्यमय अनुष्ठानों के जाने जाते हैं।

संतान से जुड़ी परेशानियां होती हैं दूर

लिंगराज मंदिर की दायीं ओर एक छोटा-सा कुंड है। इसे मरीची कुंड कहते हैं। स्‍थानीय लोगों के अनुसार, इस कुंड के जल से स्‍नान करने से महिलाओं की संतान से जुड़ी परेशानियां दूर हो जाती हैं।

मंदिर से होकर गुजरती है नदी

मान्यताओं के अनुसार, लिंगराज मंदिर से होकर एक नदी गुजरती है। मंदिर का बिन्दुसागर सरोवर में इसी नदी का जल आता है। यही कारण है कि यह सरोवर कभी सूखता नहीं है।

दूर होती हैं शारीरिक और मानसिक बीमारियां

बिन्दुसागर सरोवर के जल में चमत्कारिक औषधीय गुण होने की बात की जाती है। कहते हैं, इस सरोवर के जल में स्नान करने से मनुष्य की शारीरिक और मानसिक बीमारियां दूर हो जाती हैं।

धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस जल से स्नान करने पर मनुष्य के सभी पापों का नाश (पापमोचन) हो जाता है।

आज भी यहां मौजूद है भगवान परशुराम का फरसा,जाने इनकी पूरी कहानी

भगवान परशुराम के क्रोध, रौद्र रूप और उनके विशाल फरसे का विशेष तौर पर रामायण, महाभारत, भागवत पुराण आदि ग्रंथों में जिक्र है। 

भगवान राम की तरह भगवान परशुराम भी विष्णु के अवतार हैं। राजा जनक की बेटी सीता के स्वयंवर के दौरान रखी गई शर्त के मुताबिक, जब भगवान राम ने महादेव के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के दौरान तोड़ दिया था। इसके बाद महादेव के परम भक्त भगवान परशुराम रोधित होकर भगवान राम को सजा देने के लिए उस स्वयंबर में पहुंचते हैं।

हालांकि, जब भगवान परशुराम को यह ज्ञात हो जाता है कि उनके समक्ष खड़े भगवान राम भी विष्णु के एक अवतार है, तो वह लज्जित हो जाते हैं। इसके बाद वह अपना विशाल फरसा लेकर लुचुतपाट जंगल के एक पर्वत पर अपने विशाल फरसे को जमीन में गाड़ कर भगवान भोलेनाथ की भक्ति में लीन हो जाते हैं और आराधना करने लगते हैं।

जिस स्थान पर भगवान परशुराम ने त्रिशूल रूपी विशाल फरसे को जमीन में गाड़ा था। वह स्थान झारखंड के गुमला जिले के डुमरी प्रखंड में पड़ता है

इसे टांगीनाथ धाम के नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम का फरसा आज भी धरती पर मौजूद है, जिस स्थान पर फरसा जमीन में गड़ा हुआ है। वह स्थान टांगीनाथ धाम है।

झारखंड की स्थानीय जनजातीय भाषा में फरसे को टांगी कहा जाता है।

इसीलिए इस स्थान का नाम टांगीनाथ धाम पड़ा है। यह गुमला जिले के बीहड़ जंगल में मौजूद है। टांगीनाथ धाम में पत्थरों से निर्मित एक प्राचीन मंदिर है। इसके साथ ही खुले आसमान के नीचे भोलेनाथ के 108 शिवलिंग के साथ-साथ देवी देवताओं की प्राचीन पत्थरों से निर्मित मूर्तियां मौजूद हैं।

टांगीनाथ धाम और भगवान परशुराम से जुड़ी एक दूसरी पौराणिक कथाओं के मुताबिक, भगवान परशुराम ने अपने पिता के कहने पर अपने विशाल फरसे से प्रहार कर अपनी माता रेणुका का सिर धड़ से अलग कर दिया था। हालांकि, पिता जमदग्नि से मिले वरदान से उन्होंने दोबारा अपनी माता रेणुका को जीवित कर दिया था।

इस घटना के बाद भगवान परशुराम पर मातृ हत्या का दोष लग गया था। मातृ हत्या का दोष से मुक्ति के लिए भगवान परशुराम ने इसी टांगीनाथ धाम में अपने विशाल त्रिशूल की आकृति वाले फरसे को जमीन में गाड़ कर भगवान भोलेनाथ की कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था। परशुराम की तपस्या के उपरांत भगवान भोलेनाथ साक्षात टांगीनाथ धाम पर प्रकट होकर भगवान परशुराम पर लगे मातृ हत्या के दोष से मुक्ति किया था। पौराणिक शास्त्रों के मुताबिक, टांगीनाथ धाम में जो त्रिशूल की आकृति वाला फरसा (टांगी) गड़ा है। वह भगवान भोलेनाथ का दिव्या त्रिशूल है, जिसे उन्होंने प्रसन्न होकर अपने प्रिय भक्त परशुराम को भेंट स्वरूप दिया था।

साल 1984 में टांगीनाथ धाम में गड़े त्रिशूल रूपी फरसा (टांगी ) के रहस्य को जानने के लिए खुदाई की गई थी। 15 फीट से ज्यादा मिट्टी के अंदर खुदाई करने के बाद भी जमीन में गड़े फरसे का आखरी हिस्सा नहीं मिल पाया था। जमीन के ऊपर लगभग 5 फीट का त्रिशूल की आकृति वाला फरसा मौजूद है। हजारों सालों से खुले आसमान के नीचे सर्दी, गर्मी, बरसात के बावजूद लोहे के त्रिशूल की आकृति वाले फरसे (टांगी ) में आज तक जंग नहीं लगा है।

इन्ही कारणों से कहा जाता है कि टांगीनाथ धाम में साक्षात भगवान शिव मौजूद हैं। सावन के पवित्र महीने में न सिर्फ झारखंड बल्कि बिहार ,उड़ीसा , छत्तीसगढ़ ,बंगाल ,मध्य प्रदेश सहित देश के दूसरे अन्य राज्यों से प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां महादेव की पूजा के लिए आते हैं। सावन में विशेष तौर पर यहां पूजा अर्चना की जाती है।

झारखंड की राजधानी रांची से तकरीबन 150 किलोमीटर की दूरी पर झारखंड के गुमला जिले के डुमरी प्रखंड के लुचुटपाट की पहाड़ियों पर टांगीनाथ धाम है। टांगीनाथ धाम पहुंचने के लिए गुमला जिला मुख्यालय से बस, टेंपो या प्राइवेट गाड़ियों की मदद से आसानी से पहुंचा जा सकता है।

कैसे हुई थी बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना,जाने रावण से क्या नाता है?

सावन में शिव जी पूजा अर्चना भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. वैसे तो भगवान शिव की पूजा हर सोमवार को होती है. सावन में भगवान शिव की पूजा को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है. सावन में लोग भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों के दर्शन भी करते हैं. मान्यता है कि ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करने से व्यक्ति के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. लेकिन आपको पता है कि भगवान शिव बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना कैसे हुई थी और इसका लंकापति रावण से क्या नाता है?

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा

पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए लंकापति रावण कठोर तपस्या कर रहा था. रावण भगवान शिव का ध्यान आकर्षित करने के लिए और उन्हें प्रसन्न करने के लिए अपना एक-एक सिर काटकर शिवलिंग पर अर्पित करने लगा. जब वह अपना दसवां और अंतिम सिर काटने जा रहा था, तभी भगवान शिव प्रकट हुए और रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर, उन्होंने सभी धड़ों को पहले की भांति ठीक कर दिया और रावण से वर मंगने के लिए कहा

रावण ने मांगा यह वरदान

भगवान शिव को अपने सामने देख रावण ने उन्हें अपने साथ चलने का वर मांगा और वहीं स्थापित होने की प्रार्थना की. रावण की बात सुन भगवान शिव उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए और उन्होंने शिवलिंग का रूप धारण कर लिया.

शिवजी ने रखी शर्त

शिवलिंग का रूप धारण करने के साथ भगवान शिव ने रावण के आगे यह शर्त रखी कि यदि रावण उन्हें बीच रास्ते में भूमि पर रख देगा तो वह उसके साथ लंका नहीं जाएंगे. रावण ने इस शर्त को स्वीकार किया और शिवलिंग को अपने कंधे पर उठाकर लंका की ओर बढ़ने लगा. रावण जब शिवलिंग को लेकर आगे बढ़ रहा था तभी बीच में उसे लघुशंका की अनुभूति हुई.

रावण ने लघुशंका के लिए जाने से पहले रास्ते में जा रहे एक अहीर को शिवलिंग पकड़ा दिया और उसे आदेश दिया कि वह इस शिवलिंग को भूमि पर न रखें. जिसके बाद महादेव ने लीला रची और शिवलिंग का वजन धीरे-धीरे बढ़ने लगा. जब उस अहीर को यह वजन सहन नहीं हुआ, तब उसने विवश होकर शिवलिंग को जमीन पर रख दिया और रावण द्वारा मारे जाने के भय से वहां से भाग गया.

शिवलिंग हुआ स्थापित

जब रावण वापस वहां आया तब शिवलिंग को भूमि पर रखा देख स्तब्ध हो गया और अहीर की इस हरकत पर बहुत क्रोधित हुआ, लेकिन उसने क्रोध को दबाकर फिर से शिवलिंग को पूरे बल से उठाने की कोशिश करता रहा, लेकिन महादेव वहां से टस से मस नहीं हुए जिसके बाद रावण निराश होकर वहां से चला गया. जाने से पहले उसने शिवलिंग पर अंगूठा गाड़ दिया. तब से यहां बैद्यनाथ महादेव वास करने लगे और इसी रूप में उन्हें पूजा जाने लगा.

कहां है बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग झारखण्ड राज्य के संथाल परगना के पास स्थित है. भगवान शिव के इस बैद्यनाथ धाम को चिताभूमि कहा गया है. भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को नौवां स्थान प्राप्त है. बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को कामना लिंग भी कहा जाता है. बैद्यनाथ धाम शक्तिपीठ को लेकर भी प्रसिद्ध है क्योंकि यहां माता का हृदय गिरा था. यही कारण है कि इस स्थान को हार्दपीठ के नाम से भी जाना जाता है.