*महुआ का पेड़ व उसकी लपसी*
अमेठी। बचपन के दिनों में हमारे आसपास महुआ के बड़े बड़े वृक्ष हुआ करते। इन पेड़ों की उम्र बहुत ज़्यादा हुआ करती थी। इतनी ज़्यादा की किसी से पूछो यह पेड़ कितना पुराना है तो लोग कहते पता नही जब से समझता हूं इसी तरह देख़ रहा हूं। यह तो रही उम्र की बात आकार बहुत बड़ा पीपल की तरह पत्ते भी बड़े बड़े, शाखाएं इतनी बड़ी की उनसे बहुत सारे काम लिए जाते. पुराने कच्चे मकानों में धन्न बडेर बनाया जाता। बडेर वह लकड़ी जिस पर बहुत सी छोटी छोटी धन्न रखी जाती। बडेर का मतलब दीवार के इस ओर से दूसरी ओर तक दोनों दीवारों को जोड़ने का काम करती. इसी धन्न बडेर के ऊपर मिट्टी सरपत के ऊपर खपरा जिसे कवला भी कहा जाता है. डाला जाता खपरा के साथ नरिया डाली जाती। खपरा पुरुष का प्रतीक नरिया स्त्री का, अब जब घर बन हीं रहा है तो बिना दोनों के कैसे सम्भव है. खपरा नरिया मिट्टी के ही होते पर इन्हें भट्टी लगाकर पका लिया जाता. इस तरह घर में महुआ काम आता घर की छत पर, रसोई में भी काम आता लकड़ी को जलाने में।
महुआ फलदार पेड़ है. इसमें जो फल लगता उसे कोआ कहा जाता. हरे रंग का जिसमें कुसली रहती. इस कोये की भी सब्जी उनदिनों बना करती थी जो की बहुत स्वदिष्ट हुआ करती थी. कोआ जब पेड़ में ही रहते पक जाता तो उसमें से कुसली निकलती जिससे उनदिनों तेल निकाला जाता. वह तेल ठंड के दिनों में किसानो के लिए आज की कोल्ड क्रीम की तरह काम आता वह उस जमाने में वास लीन या कहें बाडी लोसन का काम करता. किसानो की फ़टी बेवाई में मरहम का काम करता. अब ये बेवाई क्या है मत पूछना... इसलिए तो कहा गया है. जा के पाँव न फ़टी बेवाई ऊ का जाने पीर पराई।
कोआ लगने के पहले महुआ में फूल आते हैं. उन फूलों को महुआ ही कहा जाता है. सफ़ेद रंग के कुछ कुछ हल्के पीले रंग के भी. इतने फूल होते की पेड़ के नीचे की धरती सफ़ेद फूलों की चादर ओढ़ लेती. उन फूलों के बीच कहीं कहीं से झांकती धरती ऐसे लगती मानो कोई दुल्हन घुघट की आड़ से अपने प्रिय को झाँक रही हो।
महुआ के फूलों को बड़े से बरतन उस जमाने में तो महुआ की लकड़ी का बड़ा बरतन होता जिसे कठौता कहा जाता उसमें उसे निचोड़ लिया जाता. उसमें से बहुत सारा रस मिल जाता. उसी रस को आटे के साथ मिलाकर चूल्हे पर उबाला जाता. उस उबले हुये रस को आटे और रस के मिलन के बाद जो व्यंजन बनता उसे ही लपसी कहते. आटे और रस का मिलना के बाद आटा कहाँ रस कहाँ अब तो बस लपसी ही लपसी. मानो लोहे को पारस छू गया हो. अब लोहा कहाँ सोना ही सोना।
सोना ही सोना होने के बाद बारी जोहारियों की मतलब खाने वालों की. लपसी के साथ रोटी रोटी के साथ चटनी वह भी कच्चे आम की वह भी धनिया संग वह भी थोडी सी हरी मिर्ची व लहसुन भईया संग फिर क्या कहना. उस जमाने में चम्मच वम्मच छोड़ो वही तर्जनी जिससे कभी लक्ष्मण न डरे थे. यहाँ तर्जनी अपना कमाल कर जाती. तर्जनी से लपसी को लपेटते फिर धीरे से तर्जनी को चटनी को ओर ले जाते.तर्जनी पहले से ही लपसी से लिपटी है उसके अग्र भाग पर चटनी लगते ही लगता मानों आत्मा का परमात्मा से मिलन हो गया. इस मिलना के बाद जैसे ही तर्जनी ऊँगली जिहवा से मिलती फिर क्या? साक्षात् मोक्ष. क्या स्वाद ! क्या स्वाद ! आत्मा बिलकुल तृप्त हो जाती।
Jan 03 2024, 20:29