" झाबर " एक पारम्परिक यादगार ग्रामीण खेल...पूर्वांचल में " बदी "...
अमेठी- वर्षों पहले अमेठी क्षेत्र और इसके आसपास के जिलों में एक खेल खेला जाता था। जिसे झाबर कहा जाता था। इस खेल में दो टीमें होती थी। उस दौर में इन टीमों को गोल कहा जाता था। आठ से दस खिलाड़ी हर गोल टीम में होते।
यह खेल बच्चें भी खेलते थे। पर युवाओं की सहभागिता प्रमुख थी। अट्ठारह साल से लेकर पचीस वर्ष आयु वर्ग के लोग ज़्यादा होते। इस खेल के भी चेम्पियन उस समय हुआ करते थे।
यह खेल गेहूं की बुआई के समय खेत में खेला जाता।तब ट्रैक्टर तो न थे,खेतों को गेहूं के लिए बैलों से जोता जाता। गेहूं के लिए कई बार जोता जाता। जब मिट्टी बिल्कुल भुर भुरी हो जाती,तब गेहूं बोया जाता। जब खेत गेहूं की बुआई के लिए तैयार हो जाया जाता, लगभग उसी समय या एक दो दिन पहले , उसी खेत में यह खेल झाबर खेली जाती। इस खेल में खेत का आकार बड़ा होना ज़रूरी था।
एक बीघे से कम विल्कुल नही। यह खेल जब चांदनी रात पूर्णिमा अंजोरिया के आस पास खेला जाता, ऊपर से चांद की शीतल चांदनी छाया नीचे जुती धरती मखमल की तरह खेतों के बीच युवा किसान ऐसे लगते मानो धरती माँ अपने लाड़ले बच्चों को गोदी में दुलार रही हो।
दो टीम गोल में से एक गोल खेत के बीचोबीच खड़ी हो जाती। गोला बनाकर। एक दूसरे से पीठ मिलाकर। दूसरी टीम गोल के खिलाड़ी " बदी अहय " कहकर खेत मे खड़ी गोल को छूने आते । आते समय " बदी अहय " यह कहते,इसका मतलब साफ था कि वह खिलाड़ी चुनौती देकर सावधान कर दूसरी गोल के खिलाड़ी को छूने आ रहा है।
छूने के बाद वह मेड़ की तरफ भागता। भागते समय " लवटी अहय " यह कहता। मेड़ को पाल्हा कहा जाता। जिस गोल या टीम के खिलाड़ी को वह छूकर लौटा है। वे लोग उसे पकड़ने के लिए खदेड़ लेते। अगर पकड़ लेते तो भागने वाला खिलाड़ी मर गया अर्थात हार गया मान लिया जाता।
यदि वह मेड़ तक पकड़ में न आता,तो जिन्हें छुआ है, वह खिलाड़ी मरे मान लिए जाते। इसमें भी एक रोचक बात और थी। जो गोल बीच मे होती,उसे छूने वाली टीम का सदस्य अगर ,खेत के बीच खड़े किसी खिलाड़ी को दो बार छू लेता ,तब भी वह मर जाता अर्थात हार जाता।एक बार छूने को " फूलि गया " कहा जाता।
लगातार दो बार छूने को " मरि गय " कहा जाता। इस तरह छूना और बचबचाकर मेड़ को छू लेना ही बहादुरी था। यह खेल कभी कभी कुछ देर तो कभी कभी कई घण्टों चलता। उस ज़माने का यह बहुत ही लोकप्रिय पारम्परिक खेल था।
इसमें काफी दमखम की ज़रूरत पड़ती थी। जब छूकर भागने वाले खिलाड़ी को दूसरी टीम पकड़ लेती,उस पकड़ने के दौरान सभी खिलाड़ी मिट्टी से नहा लेते। उस समय शरीर में मिट्टी लगना शान की बात हुआ करती थी। तब इंफेक्शन नही होता था। वही मिट्टी ही दवा थी।
जिस तरह मां के आंचल में बच्चा अपनी मां का दूध पीता हैं। अपने बच्चे के दूध पिलाती मां का दृश्य ब्रहांड में सर्वोत्तम दृश्यों में से एक है। यह अनुभूति तब भी होती है। जब किसान खेत की मिट्टी से सना होता है। यह भी धरती माँ का ही दुलार है।
यह बात अलग है कि अब आँचल बदल रहा है।आँचल की जगह कोई और ले रहा है। इसीतरह धरती को भी खाद,रसायन, कचरे से हमने दूषित कर दिया है। झाबर का खेल लगभग खत्म ही हो गया है। सम्पूर्ण व्यायाम के साथ यह खेल उस समय सिर्फ एक गांव ही नही,कई गांवों के युवाओं को एक दूसरे से जोड़ने का काम करता था।
इस खेल में ठकुरी नही होती थी। मतलब ऊंच नीच,गरीब अमीर का भेद नही होता था। सभी खेत में खेल के समय सिर्फ खिलाड़ी हुआ करते थे। मैंने इस खेल को थोड़ा बहुत खेला भी है। पर रातों को जागकर देखा बहुत है।
शाम से रात दस के पहले ही यह खेला जाता था। मेरे काका श्री रामराज तिवारी इसके माहिर खिलाड़ी थे। इस लेख को लिखने में भी अभी उनसे फोन पर बात की। हमारे गांव के ही डगरु यादव से भी बात की वे भी मझे खिलाड़ी रहे अपने समय के।
इस खेल में भागते खिलाड़ी को लंगड़ी मारकर गिराया जाता था। जिसमें कभी कभी बड़ी चोट लग जाती थी। इसलिए खेल शुरू होने के पहले ,दोनों टीमें इस बात पर सहमत हो जाती की कोई लँगड़ी मारकर नही गिराएगा। हालांकि कभी कभी जोश में इस नियम की अनदेखी हो जाया करती थी।
यह लेख आप को भारतीय गांवों के अतीत की रजत चांदनी रातों के साथ साथ एक उत्कृष्ट पारम्परिक खेल से परिचय कराएगा।
Dec 29 2023, 11:46