अभी अपनी किडनी देकर बचाया था पिता का जीवन, आज परिवार से तोड़ा नाता, क्या है लालू परिवार में टूट की वजह?

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बिहार चुनाव परिणाम में महागठबंधन की करारी हार के साइड इफेक्ट दिखने लगे हैं। इस हार के साथ ही लालू प्रसाद यादव के परिवार के भीतर का कलह तेजी से बाहर आने लगा है। पूर्व सीएम लालू के सबसे बड़े बेटे तेज प्रताप यादव के निष्कासन के बाद उनकी बेटी रोहिणी आचार्य ने भी राजनीति छोड़ने और परिवार से नाता तोड़ने का ऐलान किया है। ये लालू की वही बेटी है जिन्होंने कभी अपने पिता को किडनी दान कर उनकी जान बचाई थी।

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हार के बाद संजय-रमीज और तेजस्वी का लिया नाम

शनिवार को लालू यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट कर परिवार छोड़ने का ऐलान किया। रोहिणी आचार्य ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा है कि मैं राजनीति छोड़ रही हूं। साथ ही मैं अपने परिवार से भी नाता तोड़ रही हूं। मुझे संजय यादव और रमीज ने जो कुछ करने के लिए कहा है मैं वही कर रही हूं। मैं सभी दोष अपने ऊपर ले रही हूं।

जो चाणक्य बनेगा उसी से सवाल होगा- रोहिणी

अपने इस फैसले के बाद रोहिणी ने पत्रकारों से बात करते हुए कोई परिवार नहीं होने की बात दोहराई। साथ ही उन्होंने संजय, रमीज और तेजस्वी यादव से पार्टी की इस हालत पर सवाल करने को कहा। रोहिणी आचार्य ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा, मेरा कोई परिवार नहीं है। इसके बारे में सभी सवाल संजय, रमीज और तेजस्वी यादव से पूछिए। उन लोगों ने मुझे परिवार से निकाला है। उन्हें जिम्मेदारी नहीं लेनी है। पूरी दुनिया बोल रही है। जो चाणक्य बनेगा, तो उसी से सवाल होगा। आज के समय में कार्यकर्ता और पूरे लोग सवाल कर रहे हैं कि पार्टी का ऐसा हाल क्यों हुआ?

संजय-रमीज का नाम लीजिए तो... - रोहिणी

रोहणी यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने आगे कहा कि जब संजय और रमीज का नाम लीजिए, तो आपको घर से निकलवा दिया जाएगा, अशब्द बोला जाएगा और बदनाम किया जाएगा। आपके ऊपर चप्पल उठाकर मारा जाएगा।

परिवार में सुलग रही आग फिर भड़की

दरअसल, बिहार चुनाव में विपक्षी महागठबंधन को करारी हार का सामना करना पड़ा। राजद का प्रदर्शन भी निराशाजनक रहा। महागठबंधन में सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी राजद मात्र 25 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई। ऐसे में पहले से सुलग रही आग और भड़क गई है। लालू परिवार में फूट देखने को मिल रहा है। इससे पहले सितंबर में रोहणी ने लालू, तेजस्वी और पार्टी के हैंडल्स अनफॉलो कर दी थी। जबकि तेज प्रताप ने रोहिणी का समर्थन करते हुए संजय पर ‘सुदर्शन चक्र’ चलाने की बात कही थी।

ये है विवाद की जड़

बता दें कि विवाद की शुरुआत मई 2025 में हुई थी। जब तेज प्रताप यादव ने अपनी नई रिलेशनशिप का खुलासा किया था। उस समय परिवार में भूचाल आ गया था। लालू यादव ने तत्काल तेज प्रताप यादव को पार्टी और परिवार से निष्कासित कर दिया था। वहीं, तेज प्रताप ने संजय यादव को ‘जयचंद’ ठहराते हुए दोषी करार दिया, जो तेजस्वी यादव के सबसे करीबी सलाहकार हैं।

वंशवाद' पर ऐसा क्या बोल गए थरूर, कांग्रेस में मचा घमासान, बीजेपी को मिला मौका

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वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर ने राजनीतिक में वंशवाद को लेकर बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा, राजनीतिक परिदृश्य में वंशवादी राजनीति भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। नेहरू-गांधी परिवार ने यह सिद्ध किया कि राजनीतिक नेतृत्व जन्मसिद्ध अधिकार हो सकता है। थरूर ने कहा कि अब वक्त आ गया कि भारत वंशवाद की जगह योग्यतावाद अपनाए। थरूर के इस बयान पर सियासी बवाल बढ़ गया है।

प्रमोद तिवारी ने थरूर को आड़े हाथों लिया

वंशवाद पर बयान देकर शशि थरूर ने कांग्रेस के भीतर सियासी पारा बढ़ा दिया है। कांग्रेस सांसद प्रमोद तिवारी ने थरूर को आड़े हाथों लिया है। प्रमोद तिवारी ने शशि थरूर द्वारा गांधी परिवार पर लगाए गए आरोपों पर कहा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू इस देश के सबसे सक्षम प्रधानमंत्री थे। इंदिरा गांधी ने अपना जीवन बलिदान करके खुद को साबित किया। राजीव गांधी ने भी बलिदान देकर देश सेवा की। ऐसे में अगर कोई गांधी परिवार के वंशवाद की बात करता है तो फिर देश में किस अन्य परिवार ने ऐसा बलिदान, समर्पण और क्षमता दिखाई है। क्या वो भाजपा है?

रशीद अल्वी भी थरूर की राय से असहमत

कांग्रेस नेता रशीद अल्वी ने भी थरूर की राय से असहमति जताई। उन्होंने कहा, लोकतंत्र में फैसला जनता करती है। आप यह नहीं कह सकते कि किसी को सिर्फ इसलिए चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं कि उसके पिता सांसद थे। यह हर क्षेत्र में होता है, राजनीति कोई अपवाद नहीं।

बीजेपी ने कसा तंज

वहीं, थरूर के इस बयान से भाजपा को बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया है और राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। केंद्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने थरूर के बयान को लेकर कांग्रेस पर तंज कसा है। भाजपा प्रवक्ता शहजाद जयहिंद ने सोशल मीडिया पर साझा एक पोस्ट में लिखा कि शशि थरूर ने भारत के नेपो किड राहुल गांधी और छोटे नेपो किड तेजस्वी यादव पर सीधा हमला बोला है। शहजाद ने लिखा कि डॉ. थरूर खतरों के खिलाड़ी बन गए हैं। उन्होंने नेपो किड या वंशवाद के नवाब पर सीधा हमला बोला है। जब मैंने नेपो नामदार राहुल गांधी के खिलाफ 2017 में बोला तो आप जानते हैं कि मेरे साथ क्या हुआ। सर आपके लिए प्रार्थना कर रहा हूं। फर्स्ट फैमिली बदला जरूर लेती है।

धर्मेंद्र प्रधान ने किया थरूर का समर्थन

वहीं, केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने थरूर के लेख के बाद कांग्रेस और राजद पर तंज कसते हुए कहा, थरूर ने यह लेख अपने अनुभव के आधार पर लिखा है। मैं शशि थरूर के बयान का स्वागत करता हूं। उनकी टिप्पणी से कांग्रेस और राजद को निश्चित रूप से ठेस पहुंचेगी क्योंकि उनकी राजनीति एक परिवार तक सीमित है। वे अपने परिवार से बाहर सोच ही नहीं सकते।

थरूर ने क्या लिखा कि मच गया घमासान

दरअसल, शशि थरूर ने हाल ही में एक लेख में लिखा था कि वंशवाद सिर्फ कांग्रेस में नहीं, बल्कि लगभग हर राजनीतिक दल में मौजूद है। उन्होंने कहा कि जब राजनीतिक शक्ति वंश के आधार पर तय होती है, न कि योग्यता, प्रतिबद्धता या जनसंपर्क से, तो शासन की गुणवत्ता प्रभावित होती है। थरूर ने यह भी लिखा कि नेहरू-गांधी परिवार जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का प्रभाव भारत की आज़ादी और लोकतंत्र के इतिहास से जुड़ा हुआ है। लेकिन इसी ने यह विचार भी मजबूत किया कि नेतृत्व किसी का जन्मसिद्ध अधिकार हो सकता है, और यह सोच आज सभी पार्टियों और राज्यों तक फैल गई है।'

When Diplomacy Meets Over Coffee: CD Foundation’s Decade-long Journey Inspires Global Bridges

New Delhi, September 12, 2025 — It wasn’t a conference room, but a coffee table that brought the world together on Friday morning at the Eros Hotel, New Delhi. Against the aroma of freshly brewed coffee and the warmth of Indian hospitality, diplomats, partners, and cultural leaders gathered to celebrate a rare milestone: ten years of CD Foundation’s cultural diplomacy.

Founded in 2015 by Charu Das, Founder & Director, CD Foundation began as a small idea — a neutral, people-first space for embassies and communities to meet beyond politics. A decade later, it has blossomed into an internationally recognized platform spanning 45+ countries, proof that “soft power” can be stronger than any hard negotiation.

A Gathering of Nations

The Diplomatic Coffee Morning turned into a mini-United Nations in New Delhi, with dignitaries from Bangladesh, Belarus, China, Indonesia, Iran, Iraq, and Zambia among the attendees. Their presence not only lent gravitas but also reaffirmed the Coffee Morning’s reputation as a hub of genuine dialogue and exchange.

The event opened with a traditional lamp-lighting ceremony followed by a short film capturing CD Foundation’s journey — from Delhi’s embassy corridors to international festivals and partnerships shaping global conversations.

Voices of Influence

Dr. Amrendra Khatua, Former Secretary, Ministry of External Affairs, set the tone, reminding the audience that “where politics falters, culture succeeds.” His words were echoed by H.E. Mr. Oday Hatim Mohammed of Iraq and Mrs. Phalecy Mwenda Yambayamba of Zambia, who emphasized the shared future that diplomacy-through-culture could nurture.

The event’s global spirit was further amplified through a virtual address from H.E. Dr. Madan Mohan Sethi, Consul General of India in Auckland. His remarks spotlighted the India–New Zealand bridge of trade, tourism, and culture, underlining how cultural diplomacy carries real economic weight. Adding a local yet international flavor, Ms. Mahia Williams of the Whiria Collective (New Zealand) spoke of Māori–Indian collaborations not as symbolic, but as living exchanges.

Partnerships with Purpose

Beyond diplomacy, the Coffee Morning also recognized healthcare and humanitarian champions. Dr. Amit Luthra of Amolik Health Care highlighted India’s emerging role in medical diplomacy, while United Sikh drew attention to its relief efforts in flood-hit Punjab — a reminder that people-to-people diplomacy extends to those who need it most.

Looking Ahead

The celebration was not just about looking back but also about unveiling the future. Upcoming initiatives include:

  • India–UK Festival (Manchester & Leeds, November 2025)
  • Delegations to China (late 2025)
  • Reciprocal Festivals in India (early 2026)

Each marks a continuation of CD Foundation’s mission: to turn connections into collaborations.

A New Beginning at Ten

As the morning ended, there was no sense of closure — only continuity. Ten years may mark a milestone, but for CD Foundation, it is just the first chapter of a much bigger global story waiting to be written.

For more information you can visit https://www.cdfoundation.co.in/

 

तमिलनाडु में साथ आए बीजेपी-एआईएडीएमके, गठबंधन का ऐलान

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बीजेपी और उसके पुराने सहयोगी अन्नाद्रमुक एक बार फिर साथ आ गए हैं। तमिलनाडु में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा और एआईएडीएमके के बीच गठबंधन हो गया है। इसका एलान चेन्नई दौरे पर पहुंचे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने किया है। चेन्नई में एआईएडीएमके नेता ई. के. पलानीस्वामी के साथ प्रेसवार्ता में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, 'आज एआईएडीएमके और भाजपा के नेताओं ने मिलकर तय किया है कि आने वाला तमिलनाडु विधानसभा चुनाव एआईएडीएके, भाजपा और सभी साथी दल मिलकर एनडीए के रूप में एक साथ लड़ेंगे।'

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पलानीस्वामी के नेतृत्व में लडे़ंगे चुनाव-शाह

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनाव राज्य में ई पलानीस्वामी के नेतृत्व में लड़े जाएंगे, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे। शाह ने कहा कि 1998 से जयललिता जी और अटल जी के समय से हम मिलकर चुनाव लड़ते आए हैं। एक समय ऐसा था जब हमने 39 में से 30 लोकसभा सीटें साथ मिलकर जीती थीं।

गठबंधन विश्वास और विचारधारा पर आधारित-शाह

शाह ने आगे कहा कि बीजेपी और एआईएडीएमके का गठबंधन सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि विश्वास और विचारधारा पर आधारित रहा है. शाह ने पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता और प्रधानमंत्री मोदी के बीच रिश्तों को भी याद किया और कहा कि दोनों नेताओं ने एक-दूसरे के साथ मिलकर हमेशा तमिलनाडु के विकास के लिए काम किया है

अन्नामलाई की विवाद से पहले गठबंधन

बीजेपी और अन्नाद्रमुक के बीच गठबंधन तक फाइनल हुआ है जब अन्नामलाई की जगह प्रदेश भाजपा को नयनार नागेन्द्रन के रूप में नया अध्यक्ष मिलना तय हो गया है। एआईएडीएमके और बीजेपी के बीच गठबंधन में सबसे बड़ी बाधा पूर्व आईपीएस अन्नामलाई को ही माना जाता रहा है।

जहां तक भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष की बात है तो हाल ही में अन्नामलाई खुद ही कह चुके थे कि उनकी 'प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में दिलचस्पी नहीं है' और वह 'एक सामान्य कार्यकर्ता' की तरह कार्य करना चाहते हैं।

बीजेपी और एआईएडीएमके के बीच फिर से गठबंधन होने की चर्चा तब से तेज हुई है, जब पिछले महीने तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और अन्नाद्रमुक के चीफ ईके पलानीस्वामी अमित शाह से मिलने दिल्ली आए थे। इसके बाद ही इन संभावनाओं को बल मिला है कि तमिलनाडु की पूर्व सीएम जयललिता का पार्टी फिर से एनडीए का हिस्सा बन सकती है।

लोकसभा चुनाव से पहले टूटा था गठबंधन

दोनों दलों के बीच खटास तब से पैदा हुई थी, जब प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष के अन्नामलाई ने एआईएडीएके के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसकी वजह से आखिरकार लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन टूट गया। हालांकि, अन्नामलाई के करिश्माई नेतृत्व का बीजेपी को वोट शेयर के रूप में बड़ा फायदा भी मिला, लेकिन वह सीटों में तब्दील नहीं हो सका।

Our journalist had the privilege of speaking with Commander Mandeep Pasricha

Our journalist had the privilege of speaking with Commander Mandeep Pasricha, a seasoned veteran with 24 years of distinguished service in Indian Navy. He comes with management qualifications from JBIMS, Mumbai University, and Symbiosis Pune. He has also worked with aircraft giants like Boeing, Ilyushin and Israel Aerospace. He is a certified Project Management Professional, with wide exposure in Revenue and Capital procurements and Product Management.

With a wealth of leadership experience, strategic acumen, and an unshakable commitment to excellence, he has successfully navigated the challenging transition from military life to the corporate world. In this candid conversation, he shares invaluable insights, practical advice, and hard-earned lessons for fellow faujis considering their next mission—thriving in the business world.

Fauji to Fauji: The Corporate Transition Playbook – An Interview

Interviewer: Welcome, Cdr Pasricha! There’s always a lot of buzz around military personnel transitioning to the corporate world. Many serving officers are on the fence about making the switch. What’s the most common question you hear from your fellow faujis?

Cdr Pasricha: Oh, I get a range of them! "Will I adjust to the new world order?", "How is corporate life?", "Is there stability at work?", "What do I need to plan before leaving service?"—the list goes on. The transition can feel like stepping into uncharted territory, but trust me, it's nothing a Fauji can't handle!

Interviewer: That’s reassuring! But let's be honest—military life is all about discipline, structure, and a well-defined purpose. The corporate world, on the other hand, is more profit-driven. How does this impact retired personnel?

Cdr Pasricha: Ah, the great shift in purpose! In the military, every mission serves a greater good—national security, saving lives, protecting borders. In the corporate world, success is measured by profits, market shares, and business growth. Many veterans initially struggle to find meaning in their work. The trick is to align yourself with roles that resonate with your core values—leadership development, consulting, or even CSR initiatives. Find your mission within the mission!

Interviewer: Well said! Now, the work culture is another massive change. In the military, hierarchy is everything—orders are followed, no questions asked. But in corporate life, collaboration and debate are encouraged. How do retired officers adapt?

Cdr Pasricha: You nailed it! In the forces, when a command is given, it’s executed—period. In the corporate world, questioning, brainstorming, and debating ideas are the norm. Initially, this can feel chaotic for veterans. My advice? Observe first. Soak in the dynamics. Once you get the hang of it, you’ll see that leadership here is more about influence than authority.

And here’s a pro tip: Instead of giving orders, ask, "What do you think?"—it works wonders!

Interviewer: That’s a gold nugget right there! Another big shift must be decision-making. Military officers are trained to take quick, high-pressure decisions. But the corporate world thrives on stakeholder consensus. Is that a tough adjustment?

Cdr Pasricha: Absolutely! In the military, a delay in decision-making can be life-threatening. In business, it’s all about buy-in from different stakeholders, endless meetings, and navigating office politics. Initially, the pace can be frustrating. But once you learn the game, you’ll see that your ability to make firm, informed decisions is a superpower. Just learn to balance decisiveness with diplomacy.

Interviewer: Speaking of adjustments, work-life balance is another big one. Defence personnel live in a close-knit community. But in corporate life, people clock out and go their own way. How does this impact retired officers?

Cdr Pasricha: Oh, this is a real shocker! In the armed forces, your colleagues are your family. You live together, train together, celebrate together. Then suddenly, you’re in a world where relationships are transactional, and weekend plans are personal. The key is to build new networks—join corporate clubs, alumni groups, or even veteran communities. Find your tribe, and you won’t feel alone!

Interviewer: That makes sense. Now, let’s talk money. The military offers a structured salary, benefits, housing, and medical perks. In corporate life, it’s all about negotiations. How can veterans ensure they get their due?

Cdr Pasricha: Negotiating salaries? That’s foreign territory for most of us! In the forces, our pay scales are fixed. But in corporate life, everything is negotiable. My advice? Do your homework. Know your market value. Speak to other veterans who have transitioned. And don’t undersell yourself—your leadership, discipline, and crisis-management skills are priceless.

Interviewer: What about career progression? In the military, promotions are structured. But in business, growth depends on networking and performance. How do retired personnel adapt to this?

Cdr Pasricha: That’s a mindset shift! In the armed forces, you rise through the ranks over time. In corporate, you must actively chase opportunities—network, take on new challenges, switch functions if needed. It’s more of a jungle gym than a ladder. My tip? Be open to lateral moves; they often lead to bigger roles down the line!

Interviewer: This has been enlightening! Before we wrap up, can you share some tips for faujis planning their corporate transition?

Cdr Pasricha: Of course! Here are my top five:

Upskill yourself – An executive MBA, project management certification, or industry-specific training will make you job-ready.

Leverage veteran networks – Connect with those who have successfully transitioned; they’ll guide you through.

Embrace change – Be open to feedback, learn new skills, and adapt quickly.

Play to your strengths – Leadership, crisis management, discipline—these are gold in the corporate world.

Use specialized agencies – There are organizations that help veterans with job placements, resumes, and career counseling.

Interviewer: This has been an eye-opener! Thank you, Cdr Pasricha, for sharing your insights. One last question—would you say this transition is difficult?

Cdr Pasricha: Difficult? Not at all! Challenging? Yes. But show me a Fauji who doesn’t love a challenge! We’ve conquered tougher terrains—this is just another mission. Plan well, adapt fast, and march forward. The corporate world isn’t ready for the force that’s coming their way!

Interviewer: (Laughs) Well, that’s the spirit! Thanks again, Cdr Pasricha. Wishing all our veterans a smooth and successful transition!

Final Thought: For every Fauji considering the corporate shift, remember: You’re not just a job-seeker—you’re a leader, a strategist, and a problem-solver. The boardroom needs more of your kind. Go, own it!

आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीति: विकास, चुनौतियाँ और 2025 के चुनाव

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दिल्ली, भारत की राजनीति का हृदय, आज़ादी के बाद से कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों से गुज़री है। देश की राजधानी के रूप में, यह राजनीतिक आंदोलनों, सरकारी नीतियों और राष्ट्रीय चर्चाओं का केंद्र रही है। दिल्ली की राजनीति के परिवर्तनों को भारत की पूरी राजनीतिक यात्रा का आईना माना जा सकता है, जो एक नवगठित लोकतंत्र से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र तक के सफर का गवाह रही है। दशकों में दिल्ली की राजनीति ने कांग्रेस पार्टी के शासन से लेकर क्षेत्रीय ताकतों के उदय, और हाल ही में आम आदमी पार्टी (AAP) के एक राजनीतिक विक्राल के रूप में उभरने तक कई महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे हैं। यह लेख दिल्ली की राजनीतिक यात्रा का विवरण प्रस्तुत करता है और विशेष रूप से 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव और उनके प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करता है।

आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीतिक यात्रा

प्रारंभिक वर्ष (1947-1960 के दशक)

आज़ादी के बाद, दिल्ली भारत की नई राज्यव्यवस्था का केंद्र बन गई। यह शहर नीति-निर्माण और प्रशासन का प्रमुख केंद्र था। जवाहरलाल नेहरू, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, एक प्रमुख शख्सियत थे जिन्होंने भारत की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रणाली की नींव रखी। नेहरू की कांग्रेस पार्टी ने पहले कुछ दशकों तक दिल्ली की राजनीति पर प्रभुत्व बनाए रखा, जो देश भर में कांग्रेस के प्रभाव को दर्शाता है। शुरुआती वर्षों में, भारतीय सरकार ने देश को पुनर्निर्माण करने, विभाजन, सांप्रदायिक तनाव और रियासतों के विलय जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।

दिल्ली को 1956 में एक केंद्रीय शासित प्रदेश के रूप में स्थापित किया गया, बजाय एक पूर्ण राज्य के, जिससे यह सीधे केंद्र सरकार के अधीन रहा। इसका मतलब था कि दिल्ली को अन्य राज्यों द्वारा प्राप्त स्वायत्तता नहीं मिलती थी, जिससे यह राजनीतिक रूप से अद्वितीय हो गई। इस प्रकार, दिल्ली की राजनीति मुख्य रूप से केंद्रीय सरकार की नीतियों से प्रभावित थी और क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों को अपनी पहचान बनाने का अवसर बहुत कम था।

1970 का दशक: आपातकाल और राजनीतिक असंतोष

1970 का दशक भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल की घोषणा ने भारत के लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण मोड़ पेश किया। आपातकाल, जिसे इंदिरा गांधी ने राजनीतिक अशांति और अपनी नेतृत्व क्षमता पर उठाए गए सवालों के जवाब में घोषित किया था, के परिणामस्वरूप व्यापक गिरफ्तारी, सेंसरशिप और नागरिक स्वतंत्रताओं का निलंबन हुआ। दिल्ली, जो केंद्र सरकार का मुख्यालय थी, इस दौरान राजनीतिक दमन का प्रमुख केंद्र बनी।

इस अवधि के दौरान जनता पार्टी का उदय हुआ, जो कांग्रेस के खिलाफ एक गठबंधन था और 1977 के चुनावों में कांग्रेस को हराकर सत्ता में आई। यह पहला मौका था जब कांग्रेस को भारत में अपनी समग्र प्रमुखता से वंचित किया गया था और दिल्ली में वैकल्पिक राजनीतिक आवाज़ें उभरने लगीं। जनता पार्टी का संक्षिप्त कार्यकाल समाप्त हुआ, और 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर से अपनी पकड़ बनाई।

1980 का दशक: कांग्रेस का पुनरुत्थान और सिख दंगे

1980 का दशक इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान का दौर था। उनके 1984 में हत्या के बाद दिल्ली की राजनीति में एक त्रासद घटना घटी— 1984 के सिख दंगे। उनकी हत्या के बाद जो हिंसा हुई, उसने दिल्ली की राजनीतिक और सामाजिक संरचना को गहरे तरीके से प्रभावित किया। दंगों को लेकर कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगे हैं और यह मामला आज भी एक विवादित मुद्दा बना हुआ है। हालांकि, इस समय कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में फिर से मजबूत हुई और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला।

1980 का दशक शहरी राजनीति के स्वरूप में बदलाव लेकर आया। दिल्ली के एक महानगर के रूप में बढ़ते विकास और बढ़ती सामाजिक-आर्थिक विषमताओं ने राजनीतिक विमर्श को प्रभावित किया। जबकि कांग्रेस दिल्ली की राज्य राजनीति पर हावी थी, इस दशक में नए राजनीतिक बल उभरने लगे थे, जो 1990 के दशक में कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता को चुनौती देने लगे।

1990 का दशक: बीजेपी का उदय

1990 का दशक दिल्ली और भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकाल था। सोवियत संघ के पतन और 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने राष्ट्रीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत की। इस दशक में भारतीय जनता पार्टी (BJP) का उदय हुआ, जो अपनी हिंदुत्व विचारधारा और बढ़ती राष्ट्रवाद की भावना से जुड़ी थी। बीजेपी ने दिल्ली में महत्वपूर्ण कदम उठाए और स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत की। 1993 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने महत्वपूर्ण जीत हासिल की और 1990 के दशक के मध्य तक वह दिल्ली में एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। पार्टी, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने किया, ने खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया और राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।

हालांकि, कांग्रेस पार्टी, जो 1980 के दशक में कई संकटों का सामना करने के बावजूद कमजोर पड़ी थी, फिर भी दिल्ली की राजनीति में अपना प्रभुत्व बनाए रखे हुए थी, और स्थानीय निकायों में उसकी पकड़ मजबूत रही।

2000 का दशक: AAP का उदय और क्षेत्रीय राजनीति

2000 के दशक में दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी (AAP) का उदय हुआ। अरविंद केजरीवाल द्वारा 2012 में AAP की स्थापना के बाद, पार्टी ने भारतीय राजनीति में नया मोड़ दिया। केजरीवाल, जो पहले एक भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता थे, ने स्थापित राजनीतिक दलों से बढ़ती निराशा का फायदा उठाया और आम जनता की आवाज़ के रूप में खुद को प्रस्तुत किया।

AAP ने 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में शानदार शुरुआत की और 70 में से 28 सीटों पर कब्जा किया। हालांकि AAP बहुमत नहीं प्राप्त कर पाई, लेकिन उसने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, और यह दिल्ली की राजनीति में एक नई राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, लेकिन 2014 में जन लोकपाल विधेयक पर असहमति के कारण उनकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया।

2015 में AAP ने फिर से धमाकेदार वापसी की और 70 में से 67 सीटें जीतकर दिल्ली विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व सफलता हासिल की। यह जीत दिल्ली के मतदाताओं का एक बड़ा समर्थन था, और AAP ने अपनी राजनीति को शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों पर केंद्रित किया।

वर्तमान दिल्ली राजनीति (2020 का दशक)

वर्तमान में दिल्ली की राजनीति AAP और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा से भरी हुई है। जहां AAP ने शहर के शहरी मध्यवर्ग के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाई है, वहीं बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी पार्टी बनी हुई है। दोनों पार्टियाँ दिल्ली के विकास और शासन को लेकर विभिन्न दृष्टिकोणों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व और AAP का शासन मॉडल शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित है। केजरीवाल के शासन में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में सुधार हुआ है, और अस्पतालों में मुफ्त इलाज की व्यवस्था की गई है। पानी और बिजली जैसी बुनियादी सेवाओं में भी सुधार हुआ है।

दूसरी ओर, बीजेपी का अभियान राष्ट्रीय सुरक्षा, बुनियादी ढांचे के विकास और कानून-व्यवस्था पर केंद्रित है। पार्टी के समर्थक मध्यवर्ग और श्रमिक वर्ग के लोग हैं, जो बीजेपी के विकास और व्यापार समर्थक एजेंडे से प्रभावित होते हैं। बीजेपी हिंदू वोटरों के समर्थन को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़ी हुई है।

2025 दिल्ली चुनाव: एक महत्वपूर्ण मोड़*

2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय राजनीति के रुझानों का संकेत माना जा रहा है। इन चुनावों का परिणाम न केवल दिल्ली के लिए, बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए भी प्रभावशाली हो सकता है। चुनाव के दौरान, दोनों पार्टियाँ अपने अभियानों को तेज कर चुकी हैं। बीजेपी ने AAP पर भ्रष्टाचार और शासन में अक्षम होने का आरोप लगाया है। भ्रष्टाचार के आरोप के खिलाफ अभियान AAP के खिलाफ बीजेपी की रणनीति का प्रमुख हिस्सा रहा है, जबकि AAP नेताओं ने इन आरोपों को राजनीतिक साजिश करार दिया है।

AAP ने अपनी नीतियों को केंद्रित किया है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित हैं। केजरीवाल ने खुद को एक नए राजनीतिक युग का प्रतीक बताया है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है और आम लोगों के कल्याण के लिए काम करता है।

2025 के चुनावों के लिए निकाले गए एग्जिट पोल मिश्रित परिणाम दिखा रहे हैं, जिसमें कुछ पोल बीजेपी की जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं, जबकि अन्य AAP की जीत की संभावना जता रहे हैं। चुनाव परिणाम निकट भविष्य में दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देंगे।

दिल्ली की राजनीति ने कई दशकों में कई मोड़ लिए हैं, जिसमें कांग्रेस के एकछत्र शासन से लेकर AAP जैसे क्षेत्रीय दलों का उभार तक कई महत्वपूर्ण घटनाएँ शामिल हैं। 2025 का चुनाव दिल्ली के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण होगा। चुनावी परिणाम दिल्ली के विकास और पूरे देश की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण संकेत हो सकते हैं।

जैसे-जैसे दिल्ली के मतदाता शासन, भ्रष्टाचार और विकास जैसे मुद्दों पर विचार करेंगे, इन चुनावों का परिणाम दिल्ली की राजनीति के भविष्य को तय करेगा। दिल्ली का भविष्य, राज्य का दर्जा और इसके राष्ट्रीय राजनीति में स्थान पर आगे आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण प्रभाव डालेगा।

महाराष्ट्र में फिर आएगा सियासी भूचाल! उद्धव ठाकरे के खिलाफ 'ऑपरेशन टाइगर'

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महाराष्ट्र में फिर से सियासी खलबली मचने वाली है। महाराष्ट्र में एक और सियासी भूचाल के संकेत दिख रहे हैं। महाराष्ट्र में एक बार फिर उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना गुट के टूटने की चर्चा है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से उद्धव ठाकरे गुट समेत महा विकास अघाड़ी के नेताओं में बेचैनी है। इस बीच यह दावा किया जा रहा है कि विपक्षी पार्टी के कई विधायक और सांसद पार्टी छोड़ने के मूड में हैं।

एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने उद्धव सेना में सेंध लगाने के लिए ऑपरेशन टाइगर चलाया है। शिंदे गुट का दावा है कि उद्धव सेना के 6 सांसद जल्द ही शिवसेना में शामिल हो सकते हैं। पिछले दिनों बाल ठाकरे की जयंती पर हुए कार्यक्रम में ये सांसद नदारद थे। हालांकि इन सांसदों के नाम अभी तक स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन सूत्रों का कहना है कि कुछ पूर्व विधायक और नेता भी दल बदल सकते हैं।

महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री उदय सामंत ने दावा किया है कि उद्धव ठाकरे के कई विधायक, सांसद, पूर्व विधायक एवं पूर्व सांसद डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे के संपर्क में हैं। उदय सावंत ने कहा कि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में जो काम हुआ है उससे लोगों को यह महसूस हो गया है कि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में काम करना चाहिए। उन्होंने दावा किया कि अगले तीन महीने में जो पूर्व विधायक उद्धव ठाकरे के पार्टी में हैं वे जल्द ही उद्धव ठाकरे के नेतृत्व छोड़कर एकनाथ शिंदे के नेतृत्व को अपना लेंगे।

क्या फिर एक होंगे उद्धव-फडणवीस? शिवसेना को भाने लगी भाजपा

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महाराष्ट्र के सियासी गलियारों में उद्धव ठाकरे के सियासी स्टैंड को लेकर चर्चा है। सवाल उठ रहा है कि 5 साल से बीजेपी पर सियासी तौर पर मुखर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के करीब आ रहे हैं। ऐसे सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि कुछ दिन पहले उद्धव ठाकरे ने अपने मुखपत्र सामना में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की जमकर तारीफ की थी। जिसके बाद उनकी पर्टी के सांसद और प्रवक्ता संजय राउत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशंसा की। इधर देवेंद्र फडणवीस के पांच दिसंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद 35 दिनों के बीच शिवसेना उद्धव गुट के नेता आदित्य ठाकरे सीएम फडणवीस से तीन बार मुलाकात कर चुके हैं। ठाकरे ने गुरुवार को एक बार फिर सीएम से मुलाकात की। उनकी इस मुलाकात ने कई राजनीतिक चर्चाओं को जन्म दिया है।

देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में महायुति की सरकार बन जाने के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति में चीजें शांत नहीं हुई हैं। महायुति की सरकार में देवेंद्र फडणवीस अपने दोनों उप मुख्यमंत्रियों अजित पवार और एकनाथ शिंदे के साथ बहुत सहज नहीं हैं। उनके सरकार में रहने की वजह से उनके पास फ्री हैंड नहीं है। इसकी झलक सरकार गठन और उसके बाद विभागों के बंटवारे के वक्त दिख चुकी है। ऐसे में राज्य में नए राजनीतिक समीकरण की संभावना से इनकार नहीं किया जा रहा है। इस बीच हालात भी इस तरह के उत्पन्न हो रहे हैं कि कयासों का सिलसिला शुरू है।

भाजपा और उद्धव की शिवसेना के संबंध

कभी भाजपा और उद्धव की शिवसेना साथ-साथ थे। अच्छे दोस्त थे। मगर सियासत का पहिया ऐसा घूमा कि आज दुश्मन हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना (संयुक्त) गठबंधन ने बड़ी जीत दर्ज की। इस चुनाव में बीजेपी को 105 और शिवसेना को 56 सीटों पर जीत मिली। बीजेपी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया, लेकिन इसी बीच उद्धव की पार्टी ने सीएम पद पर पेच फंसा दिया।

उद्धव ठाकरे ने सीएम पद की डिमांड रख दी, जिसके बाद दोनों का गठबंधन टूट गया। फडणवीस 5 दिन के लिए मुख्यमंत्री जरूर बने, लेकिन बहुमत न होने की वजह से उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ गई. इसके बाद उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनाए गए।

2022 में उद्धव की पार्टी में टूट हो गई. एकनाथ शिंदे 40 विधायकों को लेकर एनडीए में चले गए। नई सरकार में शिंदे मुख्यमंत्री बने और फडणवीस उपमुख्यमंत्री। उस वक्त शिवेसना तोड़ने का आरोप भी फडणवीस पर ही लगा। कहा गया कि महाराष्ट्र में शिंदे के साथ कॉर्डिनेट करने में फडणवीस ने बड़ी भूमिका निभाई।

2023 में शरद पवार की पार्टी में भी टूट हुई। 2024 के लोकसभा चुनाव में इन सब बगावत के बावजूद शरद पवार और उद्धव के साथ कांग्रेस गठबंधन ने बेहतरीन परफॉर्मेंस किया, लेकिन विधानसभा के चुनाव में बीजेपी गठबंधन ने बड़ी बढ़त बना ली। फडणवीस इसके बाद फिर मुख्यमंत्री बनाए गए।

क्या बदलेगी महाराष्ट्र का सियासी तस्वीर?

महाराष्ट्र में कॉर्पोरेशन, नगर निगम और स्थानीय स्वराज संस्थाओं के चुनाव पास हैं और भाजपा-शिवसेना के बीच संबंध सुधरने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। सामना में फडणवीस की तारीफ उद्धव की एक रणनीतिक चाल है या महाराष्ट्र की राजनीति में किसी बड़े बदलाव का संकेत, यह तो आने वाला वक्त बताएगा। मगर इसकी पूरी संभावना है कि महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ दिलचस्प होने वाला है।

क्या महाराष्ट्र में फिर करवट लेगी सियासत? 'सामना' में सीएम फडणवीस की तारीफ

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महाराष्ट्र की राजनीति में उठा-पटक का माहौल बना रहता है। कब कौन किस करवट बैठ जाए, ये कहना मुश्किल होता है। एक समय था जब बीजेपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना साथ हुआ करते थे। फिर सियासत बदली और शिवसेना का बंटवारा हुआ। उद्धव सेना विपक्ष में चली गई। अब फिर से महाराष्ट्र की सियासत में कुछ उलटफेर होने के संकेत दिख रहे हैं। बीते कुछ समय से पानी पी-पीकर भाजपा को कोसने वाली उद्धव की शिवसेना ने देवेंद्र फडणवीस की तारीफ की है।

दरअसल, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने नये साल के पहले दिन नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली जिले का दौरा किया। नए साल के मौके पर फडणवीस ने नक्सल प्रभावित जिले में कई विकास परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया। नए साल के पहले दिन देवेंद्र फडणवीस के गढ़चिरौली दौरे का खास महत्व हो गया है। इसके साथ ही फडणवीस का दौरा काफी चर्चा में है। शिवसेना (यूबीटी) के मुखपत्र सामना में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की जमकर तारीफ की गई है। संपादकीय में लिखा गया है कि फडणवीस ने नए साल में काम की शुरुआत गढ़चिरौली जिले से की। फडणवीस ने गढ़चिरौली से विकास के एक पर्व की शुरुआत की। इसके बाद शिवसेना के सांसद संजय राउत ने भी सीएम की तारीफ को लेकर जवाब दिया है।

सामना ने कहा कि फडणवीस ने जो कहा है अगर वह सच है तो यह गढचिरौली ही नहीं, पूरे महाराष्ट्र के लिए पॉजिटिव होगा। सामना के संपादकीय की मानें तो शिवसेना को यकीन है कि देवेंद्र फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे। सामना में लिखा, ‘गढ़चिरौली में गरीबी की वजह से नक्सलवाद बढ़ा। पढ़-लिखकर ‘पकौड़े’ तलने के बजाय, हाथों में बंदूकें लेकर आतंक मचाने, दहशत निर्माण करने की ओर युवाओं का झुकाव हुआ। इस संघर्ष में केवल खून ही बहा। पुलिस वाले भी मारे गए और बच्चे भी मारे गए। अब अगर मुख्यमंत्री गढ़चिरौली में इस तस्वीर को बदलने का निर्णय लेते हैं तो हम उन्हें बधाई देते हैं। हमें उम्मीद है कि फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे और आदिवासियों की जिंदगी बदल देंगे। अगर गढ़चिरौली में संविधान का राज आ रहा है तो मुख्यमंत्री फडणवीस प्रशंसा के पात्र हैं।

“लगता है फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे”

मुखपत्र में आगे लिखा कि कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि ‘संभावित संरक्षक मंत्री’ सीएम फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे। वहां के आदिवासियों की जिंदगी बदलेंगे। उन्होंने लिखा कि गढ़चिरौली में अब तक कुछ भी नहीं हुआ है। वहां के लोग नक्सलवादियों के विरोध में उंगली नहीं उठा सकते। उन्हें इन दोनों मोर्चों पर काम करते हुए नक्सलियों के विरोध को तोड़ना है और साथ ही विकास कार्यों को भी अंजाम देना है। फडणवीस की मौजूदगी में जाहल की महिला नक्सली तारक्का समेत 11 नक्सलियों का समर्पण किया है। साथ ही आजादी के बाद यानी 77 साल बाद पहली बार अहेरी से गरदेवाड़ा तक एसटी बस चली है, निश्चित रूप से मुख्यमंत्री के ‘मिशन गढ़चिरौली’ के बारे में बहुत कुछ कहती है।

संजय राउत के बदले सुर

सामना में छपे संपादकीय को लेकर शिवसेना उद्धव के नेता संजय राउत ने कहा कि मैंने 10 नक्सलियों के हथियार डालने और भारतीय संविधान को स्वीकार करने की तस्वीरें देखी हैं। अगर कोई ऐसा करता है तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। अगर गढ़चिरौली जैसे जिले का विकास होता है तो यह पूरे राज्य के लिए अच्छा है। अगर गढ़चिरौली महाराष्ट्र का स्टील सिटी बन जाता है तो इससे बेहतर कुछ नहीं है। यह सब देवेंद्र फडणवीस की पहल के बाद किया गया है और कोई इसकी सराहना नहीं कर रहा है, तो यह सही नहीं है। शिवसेना नेता ने कहा कि हम हमेशा अच्छी पहल की सराहना करते हैं। हमने पीएम मोदी की भी आलोचना की है, लेकिन जब वे कुछ अच्छा करते हैं तो हम उसकी सराहना भी करते हैं।

क्यों अहम है यह तारीफ

सामान में फडणवीस की यह तारीफ ऐसे वक्त में हुई है, जब महाराष्ट्र की सियासत में अटकलों का बाजार गर्म है। एक अटकल यह है कि शरद पवार और अजित पवार में सुलह हो सकती है। दोनों एक साथ आ सकते हैं। पवार फैमिली के लोग भी इसके लिए बैटिंग कर रहे हैं। खुद शरद पवार से दिसंबर में अजित पवार मिल चुके हैं। दूसरी ओर अटकल यह है कि उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे एकसाथ आ सकते हैं। अटकलें तो यह भी हैं कि उद्धव ठाकरे इंडिया गठबंधन में नाराज चल रहे हैं। उद्धव की शिवसेना को भाजपा का साथ छोड़ने का पछतावा है।

ईडी की कार्रवाई पर गरमाई सियासत:शिव डहरिया ने कहा–लखमा जैसे ईमानदार कही नहीं मिलेंगे,आदिवासी आदमी है,वो निर्दोष साबित होंगे…डिप्टी सीएम साव बोले
रायपुर -  विधायक देवेंद्र यादव के बाद कवासी लखमा की गिरफ्तारी की संभावना बढ़ गई है. ED की कार्रवाई पर पूर्व मंत्री शिव डहरिया ने भाजपा सरकार पर निशाना साधा है. उन्होंने कहा, ED चाहती तो कार्रवाई पहले भी कर सकती है, लेकिन चुनाव से ठीक पहले बस्तर के मजबूत कड़ी को तोड़ने की कोशिश है. लखमा जैसे ईमानदार आदमी कही नहीं मिलेंगे. आदिवासी आदमी है, वो निर्दोष साबित होंगे. इस मामले में उप मुख्यमंत्री अरुण साव ने कहा है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एक केंद्रीय जांच एजेंसी है. चाहे वह छोटा आदमी हो या बड़ा आदमी हो, एजेंसी समान रूप से जांच करती है.
डहरिया ने कहा, विधानसभा में लखमा जी अच्छा बोलते हैं. प्रदेश के आदिवासी और गरीब तबके की आवाज उठाते हैं. कांग्रेस के नेताओं को टारगेट किया जा रहा है. ये कांग्रेस पार्टी को तोड़ने की साजिश है. गिरफ्तारी के बाद पार्टी की रणनीति पर डहरिया ने कहा, बिना जांच के कोई एजेंसी किसी को दोषी नहीं बता सकती. यदि ऐसा होता है तो पार्टी के वरिष्ठ नेता तय करेंगे आगे क्या करना है.
जांच में सहयोग करें लखमा : अरुण साव
कांग्रेस के बयान पर उप मुख्यमंत्री अरुण साव ने कहा है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एक केंद्रीय जांच एजेंसी है. जो जानकारी है वो जानकारी उपलब्ध करानी चाहिए. चाहे वह छोटा आदमी हो या बड़ा आदमी हो, एजेंसी समान रूप से जांच करती है. जांच के जो तथ्य है, उसे स्पष्ट रूप से बताना चाहिए. लखमा के बयान पर पलटवार करते हुए उपमुख्यमंत्री अरुण साव ने कहा कि कवासी लखमा को ईडी ने पूछताछ के लिए बुलाया है तो जांच में सहयोग करें. अगर आप निर्दोष हैं तो उस तरह की बात कीजिए. ईडी सभी बातों पर विचार करेगी.
केंद्रीय जांच एजेंसी की प्रक्रिया पर रखें भरोसा
डिप्टी सीएम साव ने भूपेश बघेल के बयान पर कहा कि छत्तीसगढ़ का एक-एक व्यक्ति इस बात को जानता है कि प्रदेश में शराब घोटाला हो रहा था. कैसे शराब दुकानों में दो-दो काउंटर बने थे. नकली होलोग्राम का उपयोग किया गया था. कांग्रेस सरकार में एक आर्गनाइज क्रिमिनल सिंडिकेट बनाकर शराब घोटाले को अंजाम दिया गया. ये छत्तीसगढ़ के आम लोग जानते हैं. उन्होंने कहा कि प्रदेश में ये जांच कांग्रेस सरकार के रहते हुए शुरू हुई थी. जांच एक सतत प्रकिया है. केंद्रीय जांच एजेंसी की प्रकिया पर सभी को भरोसा करना चाहिए. जो तथ्य हैं वह ईडी को बताना चाहिए.
शराब घोटाला : कवासी और उनके बेटे के घर से ईडी को मिला है सबूत
बता दें कि छत्तीसगढ़ के चर्चित शराब घोटाला मामले में पूर्व आबकारी मंत्री कवासी लखमा के साथ उनके बेटे कवासी हरीश और तत्कालीन ओएसडी जयंत देवांगन से ईडी ने पूछताछ शुरू कर दी है. 28 दिसंबर को कवासी लखमा के साथ-साथ उनके पुत्र के निवास में छापा मारा था, जिसमें ईडी ने नकद लेन-देन के सबूत मिलने की जानकारी दी थी, जिसके साथ ही संपत्ति की जानकारी देने आज तक का समय दिया था.
अभी अपनी किडनी देकर बचाया था पिता का जीवन, आज परिवार से तोड़ा नाता, क्या है लालू परिवार में टूट की वजह?

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बिहार चुनाव परिणाम में महागठबंधन की करारी हार के साइड इफेक्ट दिखने लगे हैं। इस हार के साथ ही लालू प्रसाद यादव के परिवार के भीतर का कलह तेजी से बाहर आने लगा है। पूर्व सीएम लालू के सबसे बड़े बेटे तेज प्रताप यादव के निष्कासन के बाद उनकी बेटी रोहिणी आचार्य ने भी राजनीति छोड़ने और परिवार से नाता तोड़ने का ऐलान किया है। ये लालू की वही बेटी है जिन्होंने कभी अपने पिता को किडनी दान कर उनकी जान बचाई थी।

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हार के बाद संजय-रमीज और तेजस्वी का लिया नाम

शनिवार को लालू यादव की बेटी रोहिणी आचार्य ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट कर परिवार छोड़ने का ऐलान किया। रोहिणी आचार्य ने अपने सोशल मीडिया पोस्ट में लिखा है कि मैं राजनीति छोड़ रही हूं। साथ ही मैं अपने परिवार से भी नाता तोड़ रही हूं। मुझे संजय यादव और रमीज ने जो कुछ करने के लिए कहा है मैं वही कर रही हूं। मैं सभी दोष अपने ऊपर ले रही हूं।

जो चाणक्य बनेगा उसी से सवाल होगा- रोहिणी

अपने इस फैसले के बाद रोहिणी ने पत्रकारों से बात करते हुए कोई परिवार नहीं होने की बात दोहराई। साथ ही उन्होंने संजय, रमीज और तेजस्वी यादव से पार्टी की इस हालत पर सवाल करने को कहा। रोहिणी आचार्य ने पत्रकारों से बातचीत करते हुए कहा, मेरा कोई परिवार नहीं है। इसके बारे में सभी सवाल संजय, रमीज और तेजस्वी यादव से पूछिए। उन लोगों ने मुझे परिवार से निकाला है। उन्हें जिम्मेदारी नहीं लेनी है। पूरी दुनिया बोल रही है। जो चाणक्य बनेगा, तो उसी से सवाल होगा। आज के समय में कार्यकर्ता और पूरे लोग सवाल कर रहे हैं कि पार्टी का ऐसा हाल क्यों हुआ?

संजय-रमीज का नाम लीजिए तो... - रोहिणी

रोहणी यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने आगे कहा कि जब संजय और रमीज का नाम लीजिए, तो आपको घर से निकलवा दिया जाएगा, अशब्द बोला जाएगा और बदनाम किया जाएगा। आपके ऊपर चप्पल उठाकर मारा जाएगा।

परिवार में सुलग रही आग फिर भड़की

दरअसल, बिहार चुनाव में विपक्षी महागठबंधन को करारी हार का सामना करना पड़ा। राजद का प्रदर्शन भी निराशाजनक रहा। महागठबंधन में सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी राजद मात्र 25 सीटों पर ही जीत हासिल कर पाई। ऐसे में पहले से सुलग रही आग और भड़क गई है। लालू परिवार में फूट देखने को मिल रहा है। इससे पहले सितंबर में रोहणी ने लालू, तेजस्वी और पार्टी के हैंडल्स अनफॉलो कर दी थी। जबकि तेज प्रताप ने रोहिणी का समर्थन करते हुए संजय पर ‘सुदर्शन चक्र’ चलाने की बात कही थी।

ये है विवाद की जड़

बता दें कि विवाद की शुरुआत मई 2025 में हुई थी। जब तेज प्रताप यादव ने अपनी नई रिलेशनशिप का खुलासा किया था। उस समय परिवार में भूचाल आ गया था। लालू यादव ने तत्काल तेज प्रताप यादव को पार्टी और परिवार से निष्कासित कर दिया था। वहीं, तेज प्रताप ने संजय यादव को ‘जयचंद’ ठहराते हुए दोषी करार दिया, जो तेजस्वी यादव के सबसे करीबी सलाहकार हैं।

वंशवाद' पर ऐसा क्या बोल गए थरूर, कांग्रेस में मचा घमासान, बीजेपी को मिला मौका

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वरिष्ठ कांग्रेस नेता शशि थरूर ने राजनीतिक में वंशवाद को लेकर बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा, राजनीतिक परिदृश्य में वंशवादी राजनीति भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। नेहरू-गांधी परिवार ने यह सिद्ध किया कि राजनीतिक नेतृत्व जन्मसिद्ध अधिकार हो सकता है। थरूर ने कहा कि अब वक्त आ गया कि भारत वंशवाद की जगह योग्यतावाद अपनाए। थरूर के इस बयान पर सियासी बवाल बढ़ गया है।

प्रमोद तिवारी ने थरूर को आड़े हाथों लिया

वंशवाद पर बयान देकर शशि थरूर ने कांग्रेस के भीतर सियासी पारा बढ़ा दिया है। कांग्रेस सांसद प्रमोद तिवारी ने थरूर को आड़े हाथों लिया है। प्रमोद तिवारी ने शशि थरूर द्वारा गांधी परिवार पर लगाए गए आरोपों पर कहा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू इस देश के सबसे सक्षम प्रधानमंत्री थे। इंदिरा गांधी ने अपना जीवन बलिदान करके खुद को साबित किया। राजीव गांधी ने भी बलिदान देकर देश सेवा की। ऐसे में अगर कोई गांधी परिवार के वंशवाद की बात करता है तो फिर देश में किस अन्य परिवार ने ऐसा बलिदान, समर्पण और क्षमता दिखाई है। क्या वो भाजपा है?

रशीद अल्वी भी थरूर की राय से असहमत

कांग्रेस नेता रशीद अल्वी ने भी थरूर की राय से असहमति जताई। उन्होंने कहा, लोकतंत्र में फैसला जनता करती है। आप यह नहीं कह सकते कि किसी को सिर्फ इसलिए चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं कि उसके पिता सांसद थे। यह हर क्षेत्र में होता है, राजनीति कोई अपवाद नहीं।

बीजेपी ने कसा तंज

वहीं, थरूर के इस बयान से भाजपा को बैठे बिठाए एक मुद्दा मिल गया है और राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधने का मौका मिल गया है। केंद्र की सत्ताधारी पार्टी भाजपा ने थरूर के बयान को लेकर कांग्रेस पर तंज कसा है। भाजपा प्रवक्ता शहजाद जयहिंद ने सोशल मीडिया पर साझा एक पोस्ट में लिखा कि शशि थरूर ने भारत के नेपो किड राहुल गांधी और छोटे नेपो किड तेजस्वी यादव पर सीधा हमला बोला है। शहजाद ने लिखा कि डॉ. थरूर खतरों के खिलाड़ी बन गए हैं। उन्होंने नेपो किड या वंशवाद के नवाब पर सीधा हमला बोला है। जब मैंने नेपो नामदार राहुल गांधी के खिलाफ 2017 में बोला तो आप जानते हैं कि मेरे साथ क्या हुआ। सर आपके लिए प्रार्थना कर रहा हूं। फर्स्ट फैमिली बदला जरूर लेती है।

धर्मेंद्र प्रधान ने किया थरूर का समर्थन

वहीं, केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने थरूर के लेख के बाद कांग्रेस और राजद पर तंज कसते हुए कहा, थरूर ने यह लेख अपने अनुभव के आधार पर लिखा है। मैं शशि थरूर के बयान का स्वागत करता हूं। उनकी टिप्पणी से कांग्रेस और राजद को निश्चित रूप से ठेस पहुंचेगी क्योंकि उनकी राजनीति एक परिवार तक सीमित है। वे अपने परिवार से बाहर सोच ही नहीं सकते।

थरूर ने क्या लिखा कि मच गया घमासान

दरअसल, शशि थरूर ने हाल ही में एक लेख में लिखा था कि वंशवाद सिर्फ कांग्रेस में नहीं, बल्कि लगभग हर राजनीतिक दल में मौजूद है। उन्होंने कहा कि जब राजनीतिक शक्ति वंश के आधार पर तय होती है, न कि योग्यता, प्रतिबद्धता या जनसंपर्क से, तो शासन की गुणवत्ता प्रभावित होती है। थरूर ने यह भी लिखा कि नेहरू-गांधी परिवार जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा का प्रभाव भारत की आज़ादी और लोकतंत्र के इतिहास से जुड़ा हुआ है। लेकिन इसी ने यह विचार भी मजबूत किया कि नेतृत्व किसी का जन्मसिद्ध अधिकार हो सकता है, और यह सोच आज सभी पार्टियों और राज्यों तक फैल गई है।'

When Diplomacy Meets Over Coffee: CD Foundation’s Decade-long Journey Inspires Global Bridges

New Delhi, September 12, 2025 — It wasn’t a conference room, but a coffee table that brought the world together on Friday morning at the Eros Hotel, New Delhi. Against the aroma of freshly brewed coffee and the warmth of Indian hospitality, diplomats, partners, and cultural leaders gathered to celebrate a rare milestone: ten years of CD Foundation’s cultural diplomacy.

Founded in 2015 by Charu Das, Founder & Director, CD Foundation began as a small idea — a neutral, people-first space for embassies and communities to meet beyond politics. A decade later, it has blossomed into an internationally recognized platform spanning 45+ countries, proof that “soft power” can be stronger than any hard negotiation.

A Gathering of Nations

The Diplomatic Coffee Morning turned into a mini-United Nations in New Delhi, with dignitaries from Bangladesh, Belarus, China, Indonesia, Iran, Iraq, and Zambia among the attendees. Their presence not only lent gravitas but also reaffirmed the Coffee Morning’s reputation as a hub of genuine dialogue and exchange.

The event opened with a traditional lamp-lighting ceremony followed by a short film capturing CD Foundation’s journey — from Delhi’s embassy corridors to international festivals and partnerships shaping global conversations.

Voices of Influence

Dr. Amrendra Khatua, Former Secretary, Ministry of External Affairs, set the tone, reminding the audience that “where politics falters, culture succeeds.” His words were echoed by H.E. Mr. Oday Hatim Mohammed of Iraq and Mrs. Phalecy Mwenda Yambayamba of Zambia, who emphasized the shared future that diplomacy-through-culture could nurture.

The event’s global spirit was further amplified through a virtual address from H.E. Dr. Madan Mohan Sethi, Consul General of India in Auckland. His remarks spotlighted the India–New Zealand bridge of trade, tourism, and culture, underlining how cultural diplomacy carries real economic weight. Adding a local yet international flavor, Ms. Mahia Williams of the Whiria Collective (New Zealand) spoke of Māori–Indian collaborations not as symbolic, but as living exchanges.

Partnerships with Purpose

Beyond diplomacy, the Coffee Morning also recognized healthcare and humanitarian champions. Dr. Amit Luthra of Amolik Health Care highlighted India’s emerging role in medical diplomacy, while United Sikh drew attention to its relief efforts in flood-hit Punjab — a reminder that people-to-people diplomacy extends to those who need it most.

Looking Ahead

The celebration was not just about looking back but also about unveiling the future. Upcoming initiatives include:

  • India–UK Festival (Manchester & Leeds, November 2025)
  • Delegations to China (late 2025)
  • Reciprocal Festivals in India (early 2026)

Each marks a continuation of CD Foundation’s mission: to turn connections into collaborations.

A New Beginning at Ten

As the morning ended, there was no sense of closure — only continuity. Ten years may mark a milestone, but for CD Foundation, it is just the first chapter of a much bigger global story waiting to be written.

For more information you can visit https://www.cdfoundation.co.in/

 

तमिलनाडु में साथ आए बीजेपी-एआईएडीएमके, गठबंधन का ऐलान

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बीजेपी और उसके पुराने सहयोगी अन्नाद्रमुक एक बार फिर साथ आ गए हैं। तमिलनाडु में आगामी विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा और एआईएडीएमके के बीच गठबंधन हो गया है। इसका एलान चेन्नई दौरे पर पहुंचे केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने किया है। चेन्नई में एआईएडीएमके नेता ई. के. पलानीस्वामी के साथ प्रेसवार्ता में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा, 'आज एआईएडीएमके और भाजपा के नेताओं ने मिलकर तय किया है कि आने वाला तमिलनाडु विधानसभा चुनाव एआईएडीएके, भाजपा और सभी साथी दल मिलकर एनडीए के रूप में एक साथ लड़ेंगे।'

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पलानीस्वामी के नेतृत्व में लडे़ंगे चुनाव-शाह

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि आगामी लोकसभा और विधानसभा चुनाव राज्य में ई पलानीस्वामी के नेतृत्व में लड़े जाएंगे, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन का चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे। शाह ने कहा कि 1998 से जयललिता जी और अटल जी के समय से हम मिलकर चुनाव लड़ते आए हैं। एक समय ऐसा था जब हमने 39 में से 30 लोकसभा सीटें साथ मिलकर जीती थीं।

गठबंधन विश्वास और विचारधारा पर आधारित-शाह

शाह ने आगे कहा कि बीजेपी और एआईएडीएमके का गठबंधन सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि विश्वास और विचारधारा पर आधारित रहा है. शाह ने पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता और प्रधानमंत्री मोदी के बीच रिश्तों को भी याद किया और कहा कि दोनों नेताओं ने एक-दूसरे के साथ मिलकर हमेशा तमिलनाडु के विकास के लिए काम किया है

अन्नामलाई की विवाद से पहले गठबंधन

बीजेपी और अन्नाद्रमुक के बीच गठबंधन तक फाइनल हुआ है जब अन्नामलाई की जगह प्रदेश भाजपा को नयनार नागेन्द्रन के रूप में नया अध्यक्ष मिलना तय हो गया है। एआईएडीएमके और बीजेपी के बीच गठबंधन में सबसे बड़ी बाधा पूर्व आईपीएस अन्नामलाई को ही माना जाता रहा है।

जहां तक भाजपा के नए प्रदेश अध्यक्ष की बात है तो हाल ही में अन्नामलाई खुद ही कह चुके थे कि उनकी 'प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव में दिलचस्पी नहीं है' और वह 'एक सामान्य कार्यकर्ता' की तरह कार्य करना चाहते हैं।

बीजेपी और एआईएडीएमके के बीच फिर से गठबंधन होने की चर्चा तब से तेज हुई है, जब पिछले महीने तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री और अन्नाद्रमुक के चीफ ईके पलानीस्वामी अमित शाह से मिलने दिल्ली आए थे। इसके बाद ही इन संभावनाओं को बल मिला है कि तमिलनाडु की पूर्व सीएम जयललिता का पार्टी फिर से एनडीए का हिस्सा बन सकती है।

लोकसभा चुनाव से पहले टूटा था गठबंधन

दोनों दलों के बीच खटास तब से पैदा हुई थी, जब प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष के अन्नामलाई ने एआईएडीएके के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसकी वजह से आखिरकार लोकसभा चुनाव से पहले गठबंधन टूट गया। हालांकि, अन्नामलाई के करिश्माई नेतृत्व का बीजेपी को वोट शेयर के रूप में बड़ा फायदा भी मिला, लेकिन वह सीटों में तब्दील नहीं हो सका।

Our journalist had the privilege of speaking with Commander Mandeep Pasricha

Our journalist had the privilege of speaking with Commander Mandeep Pasricha, a seasoned veteran with 24 years of distinguished service in Indian Navy. He comes with management qualifications from JBIMS, Mumbai University, and Symbiosis Pune. He has also worked with aircraft giants like Boeing, Ilyushin and Israel Aerospace. He is a certified Project Management Professional, with wide exposure in Revenue and Capital procurements and Product Management.

With a wealth of leadership experience, strategic acumen, and an unshakable commitment to excellence, he has successfully navigated the challenging transition from military life to the corporate world. In this candid conversation, he shares invaluable insights, practical advice, and hard-earned lessons for fellow faujis considering their next mission—thriving in the business world.

Fauji to Fauji: The Corporate Transition Playbook – An Interview

Interviewer: Welcome, Cdr Pasricha! There’s always a lot of buzz around military personnel transitioning to the corporate world. Many serving officers are on the fence about making the switch. What’s the most common question you hear from your fellow faujis?

Cdr Pasricha: Oh, I get a range of them! "Will I adjust to the new world order?", "How is corporate life?", "Is there stability at work?", "What do I need to plan before leaving service?"—the list goes on. The transition can feel like stepping into uncharted territory, but trust me, it's nothing a Fauji can't handle!

Interviewer: That’s reassuring! But let's be honest—military life is all about discipline, structure, and a well-defined purpose. The corporate world, on the other hand, is more profit-driven. How does this impact retired personnel?

Cdr Pasricha: Ah, the great shift in purpose! In the military, every mission serves a greater good—national security, saving lives, protecting borders. In the corporate world, success is measured by profits, market shares, and business growth. Many veterans initially struggle to find meaning in their work. The trick is to align yourself with roles that resonate with your core values—leadership development, consulting, or even CSR initiatives. Find your mission within the mission!

Interviewer: Well said! Now, the work culture is another massive change. In the military, hierarchy is everything—orders are followed, no questions asked. But in corporate life, collaboration and debate are encouraged. How do retired officers adapt?

Cdr Pasricha: You nailed it! In the forces, when a command is given, it’s executed—period. In the corporate world, questioning, brainstorming, and debating ideas are the norm. Initially, this can feel chaotic for veterans. My advice? Observe first. Soak in the dynamics. Once you get the hang of it, you’ll see that leadership here is more about influence than authority.

And here’s a pro tip: Instead of giving orders, ask, "What do you think?"—it works wonders!

Interviewer: That’s a gold nugget right there! Another big shift must be decision-making. Military officers are trained to take quick, high-pressure decisions. But the corporate world thrives on stakeholder consensus. Is that a tough adjustment?

Cdr Pasricha: Absolutely! In the military, a delay in decision-making can be life-threatening. In business, it’s all about buy-in from different stakeholders, endless meetings, and navigating office politics. Initially, the pace can be frustrating. But once you learn the game, you’ll see that your ability to make firm, informed decisions is a superpower. Just learn to balance decisiveness with diplomacy.

Interviewer: Speaking of adjustments, work-life balance is another big one. Defence personnel live in a close-knit community. But in corporate life, people clock out and go their own way. How does this impact retired officers?

Cdr Pasricha: Oh, this is a real shocker! In the armed forces, your colleagues are your family. You live together, train together, celebrate together. Then suddenly, you’re in a world where relationships are transactional, and weekend plans are personal. The key is to build new networks—join corporate clubs, alumni groups, or even veteran communities. Find your tribe, and you won’t feel alone!

Interviewer: That makes sense. Now, let’s talk money. The military offers a structured salary, benefits, housing, and medical perks. In corporate life, it’s all about negotiations. How can veterans ensure they get their due?

Cdr Pasricha: Negotiating salaries? That’s foreign territory for most of us! In the forces, our pay scales are fixed. But in corporate life, everything is negotiable. My advice? Do your homework. Know your market value. Speak to other veterans who have transitioned. And don’t undersell yourself—your leadership, discipline, and crisis-management skills are priceless.

Interviewer: What about career progression? In the military, promotions are structured. But in business, growth depends on networking and performance. How do retired personnel adapt to this?

Cdr Pasricha: That’s a mindset shift! In the armed forces, you rise through the ranks over time. In corporate, you must actively chase opportunities—network, take on new challenges, switch functions if needed. It’s more of a jungle gym than a ladder. My tip? Be open to lateral moves; they often lead to bigger roles down the line!

Interviewer: This has been enlightening! Before we wrap up, can you share some tips for faujis planning their corporate transition?

Cdr Pasricha: Of course! Here are my top five:

Upskill yourself – An executive MBA, project management certification, or industry-specific training will make you job-ready.

Leverage veteran networks – Connect with those who have successfully transitioned; they’ll guide you through.

Embrace change – Be open to feedback, learn new skills, and adapt quickly.

Play to your strengths – Leadership, crisis management, discipline—these are gold in the corporate world.

Use specialized agencies – There are organizations that help veterans with job placements, resumes, and career counseling.

Interviewer: This has been an eye-opener! Thank you, Cdr Pasricha, for sharing your insights. One last question—would you say this transition is difficult?

Cdr Pasricha: Difficult? Not at all! Challenging? Yes. But show me a Fauji who doesn’t love a challenge! We’ve conquered tougher terrains—this is just another mission. Plan well, adapt fast, and march forward. The corporate world isn’t ready for the force that’s coming their way!

Interviewer: (Laughs) Well, that’s the spirit! Thanks again, Cdr Pasricha. Wishing all our veterans a smooth and successful transition!

Final Thought: For every Fauji considering the corporate shift, remember: You’re not just a job-seeker—you’re a leader, a strategist, and a problem-solver. The boardroom needs more of your kind. Go, own it!

आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीति: विकास, चुनौतियाँ और 2025 के चुनाव

#delhipoliticsovertheyears

दिल्ली, भारत की राजनीति का हृदय, आज़ादी के बाद से कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों से गुज़री है। देश की राजधानी के रूप में, यह राजनीतिक आंदोलनों, सरकारी नीतियों और राष्ट्रीय चर्चाओं का केंद्र रही है। दिल्ली की राजनीति के परिवर्तनों को भारत की पूरी राजनीतिक यात्रा का आईना माना जा सकता है, जो एक नवगठित लोकतंत्र से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र तक के सफर का गवाह रही है। दशकों में दिल्ली की राजनीति ने कांग्रेस पार्टी के शासन से लेकर क्षेत्रीय ताकतों के उदय, और हाल ही में आम आदमी पार्टी (AAP) के एक राजनीतिक विक्राल के रूप में उभरने तक कई महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे हैं। यह लेख दिल्ली की राजनीतिक यात्रा का विवरण प्रस्तुत करता है और विशेष रूप से 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव और उनके प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करता है।

आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीतिक यात्रा

प्रारंभिक वर्ष (1947-1960 के दशक)

आज़ादी के बाद, दिल्ली भारत की नई राज्यव्यवस्था का केंद्र बन गई। यह शहर नीति-निर्माण और प्रशासन का प्रमुख केंद्र था। जवाहरलाल नेहरू, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, एक प्रमुख शख्सियत थे जिन्होंने भारत की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रणाली की नींव रखी। नेहरू की कांग्रेस पार्टी ने पहले कुछ दशकों तक दिल्ली की राजनीति पर प्रभुत्व बनाए रखा, जो देश भर में कांग्रेस के प्रभाव को दर्शाता है। शुरुआती वर्षों में, भारतीय सरकार ने देश को पुनर्निर्माण करने, विभाजन, सांप्रदायिक तनाव और रियासतों के विलय जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।

दिल्ली को 1956 में एक केंद्रीय शासित प्रदेश के रूप में स्थापित किया गया, बजाय एक पूर्ण राज्य के, जिससे यह सीधे केंद्र सरकार के अधीन रहा। इसका मतलब था कि दिल्ली को अन्य राज्यों द्वारा प्राप्त स्वायत्तता नहीं मिलती थी, जिससे यह राजनीतिक रूप से अद्वितीय हो गई। इस प्रकार, दिल्ली की राजनीति मुख्य रूप से केंद्रीय सरकार की नीतियों से प्रभावित थी और क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों को अपनी पहचान बनाने का अवसर बहुत कम था।

1970 का दशक: आपातकाल और राजनीतिक असंतोष

1970 का दशक भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल की घोषणा ने भारत के लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण मोड़ पेश किया। आपातकाल, जिसे इंदिरा गांधी ने राजनीतिक अशांति और अपनी नेतृत्व क्षमता पर उठाए गए सवालों के जवाब में घोषित किया था, के परिणामस्वरूप व्यापक गिरफ्तारी, सेंसरशिप और नागरिक स्वतंत्रताओं का निलंबन हुआ। दिल्ली, जो केंद्र सरकार का मुख्यालय थी, इस दौरान राजनीतिक दमन का प्रमुख केंद्र बनी।

इस अवधि के दौरान जनता पार्टी का उदय हुआ, जो कांग्रेस के खिलाफ एक गठबंधन था और 1977 के चुनावों में कांग्रेस को हराकर सत्ता में आई। यह पहला मौका था जब कांग्रेस को भारत में अपनी समग्र प्रमुखता से वंचित किया गया था और दिल्ली में वैकल्पिक राजनीतिक आवाज़ें उभरने लगीं। जनता पार्टी का संक्षिप्त कार्यकाल समाप्त हुआ, और 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर से अपनी पकड़ बनाई।

1980 का दशक: कांग्रेस का पुनरुत्थान और सिख दंगे

1980 का दशक इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान का दौर था। उनके 1984 में हत्या के बाद दिल्ली की राजनीति में एक त्रासद घटना घटी— 1984 के सिख दंगे। उनकी हत्या के बाद जो हिंसा हुई, उसने दिल्ली की राजनीतिक और सामाजिक संरचना को गहरे तरीके से प्रभावित किया। दंगों को लेकर कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगे हैं और यह मामला आज भी एक विवादित मुद्दा बना हुआ है। हालांकि, इस समय कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में फिर से मजबूत हुई और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला।

1980 का दशक शहरी राजनीति के स्वरूप में बदलाव लेकर आया। दिल्ली के एक महानगर के रूप में बढ़ते विकास और बढ़ती सामाजिक-आर्थिक विषमताओं ने राजनीतिक विमर्श को प्रभावित किया। जबकि कांग्रेस दिल्ली की राज्य राजनीति पर हावी थी, इस दशक में नए राजनीतिक बल उभरने लगे थे, जो 1990 के दशक में कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता को चुनौती देने लगे।

1990 का दशक: बीजेपी का उदय

1990 का दशक दिल्ली और भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकाल था। सोवियत संघ के पतन और 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने राष्ट्रीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत की। इस दशक में भारतीय जनता पार्टी (BJP) का उदय हुआ, जो अपनी हिंदुत्व विचारधारा और बढ़ती राष्ट्रवाद की भावना से जुड़ी थी। बीजेपी ने दिल्ली में महत्वपूर्ण कदम उठाए और स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत की। 1993 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने महत्वपूर्ण जीत हासिल की और 1990 के दशक के मध्य तक वह दिल्ली में एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। पार्टी, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने किया, ने खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया और राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।

हालांकि, कांग्रेस पार्टी, जो 1980 के दशक में कई संकटों का सामना करने के बावजूद कमजोर पड़ी थी, फिर भी दिल्ली की राजनीति में अपना प्रभुत्व बनाए रखे हुए थी, और स्थानीय निकायों में उसकी पकड़ मजबूत रही।

2000 का दशक: AAP का उदय और क्षेत्रीय राजनीति

2000 के दशक में दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी (AAP) का उदय हुआ। अरविंद केजरीवाल द्वारा 2012 में AAP की स्थापना के बाद, पार्टी ने भारतीय राजनीति में नया मोड़ दिया। केजरीवाल, जो पहले एक भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता थे, ने स्थापित राजनीतिक दलों से बढ़ती निराशा का फायदा उठाया और आम जनता की आवाज़ के रूप में खुद को प्रस्तुत किया।

AAP ने 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में शानदार शुरुआत की और 70 में से 28 सीटों पर कब्जा किया। हालांकि AAP बहुमत नहीं प्राप्त कर पाई, लेकिन उसने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, और यह दिल्ली की राजनीति में एक नई राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, लेकिन 2014 में जन लोकपाल विधेयक पर असहमति के कारण उनकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया।

2015 में AAP ने फिर से धमाकेदार वापसी की और 70 में से 67 सीटें जीतकर दिल्ली विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व सफलता हासिल की। यह जीत दिल्ली के मतदाताओं का एक बड़ा समर्थन था, और AAP ने अपनी राजनीति को शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों पर केंद्रित किया।

वर्तमान दिल्ली राजनीति (2020 का दशक)

वर्तमान में दिल्ली की राजनीति AAP और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा से भरी हुई है। जहां AAP ने शहर के शहरी मध्यवर्ग के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाई है, वहीं बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी पार्टी बनी हुई है। दोनों पार्टियाँ दिल्ली के विकास और शासन को लेकर विभिन्न दृष्टिकोणों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व और AAP का शासन मॉडल शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित है। केजरीवाल के शासन में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में सुधार हुआ है, और अस्पतालों में मुफ्त इलाज की व्यवस्था की गई है। पानी और बिजली जैसी बुनियादी सेवाओं में भी सुधार हुआ है।

दूसरी ओर, बीजेपी का अभियान राष्ट्रीय सुरक्षा, बुनियादी ढांचे के विकास और कानून-व्यवस्था पर केंद्रित है। पार्टी के समर्थक मध्यवर्ग और श्रमिक वर्ग के लोग हैं, जो बीजेपी के विकास और व्यापार समर्थक एजेंडे से प्रभावित होते हैं। बीजेपी हिंदू वोटरों के समर्थन को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़ी हुई है।

2025 दिल्ली चुनाव: एक महत्वपूर्ण मोड़*

2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय राजनीति के रुझानों का संकेत माना जा रहा है। इन चुनावों का परिणाम न केवल दिल्ली के लिए, बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए भी प्रभावशाली हो सकता है। चुनाव के दौरान, दोनों पार्टियाँ अपने अभियानों को तेज कर चुकी हैं। बीजेपी ने AAP पर भ्रष्टाचार और शासन में अक्षम होने का आरोप लगाया है। भ्रष्टाचार के आरोप के खिलाफ अभियान AAP के खिलाफ बीजेपी की रणनीति का प्रमुख हिस्सा रहा है, जबकि AAP नेताओं ने इन आरोपों को राजनीतिक साजिश करार दिया है।

AAP ने अपनी नीतियों को केंद्रित किया है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित हैं। केजरीवाल ने खुद को एक नए राजनीतिक युग का प्रतीक बताया है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है और आम लोगों के कल्याण के लिए काम करता है।

2025 के चुनावों के लिए निकाले गए एग्जिट पोल मिश्रित परिणाम दिखा रहे हैं, जिसमें कुछ पोल बीजेपी की जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं, जबकि अन्य AAP की जीत की संभावना जता रहे हैं। चुनाव परिणाम निकट भविष्य में दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देंगे।

दिल्ली की राजनीति ने कई दशकों में कई मोड़ लिए हैं, जिसमें कांग्रेस के एकछत्र शासन से लेकर AAP जैसे क्षेत्रीय दलों का उभार तक कई महत्वपूर्ण घटनाएँ शामिल हैं। 2025 का चुनाव दिल्ली के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण होगा। चुनावी परिणाम दिल्ली के विकास और पूरे देश की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण संकेत हो सकते हैं।

जैसे-जैसे दिल्ली के मतदाता शासन, भ्रष्टाचार और विकास जैसे मुद्दों पर विचार करेंगे, इन चुनावों का परिणाम दिल्ली की राजनीति के भविष्य को तय करेगा। दिल्ली का भविष्य, राज्य का दर्जा और इसके राष्ट्रीय राजनीति में स्थान पर आगे आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण प्रभाव डालेगा।

महाराष्ट्र में फिर आएगा सियासी भूचाल! उद्धव ठाकरे के खिलाफ 'ऑपरेशन टाइगर'

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महाराष्ट्र में फिर से सियासी खलबली मचने वाली है। महाराष्ट्र में एक और सियासी भूचाल के संकेत दिख रहे हैं। महाराष्ट्र में एक बार फिर उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना गुट के टूटने की चर्चा है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से उद्धव ठाकरे गुट समेत महा विकास अघाड़ी के नेताओं में बेचैनी है। इस बीच यह दावा किया जा रहा है कि विपक्षी पार्टी के कई विधायक और सांसद पार्टी छोड़ने के मूड में हैं।

एकनाथ शिंदे की शिवसेना ने उद्धव सेना में सेंध लगाने के लिए ऑपरेशन टाइगर चलाया है। शिंदे गुट का दावा है कि उद्धव सेना के 6 सांसद जल्द ही शिवसेना में शामिल हो सकते हैं। पिछले दिनों बाल ठाकरे की जयंती पर हुए कार्यक्रम में ये सांसद नदारद थे। हालांकि इन सांसदों के नाम अभी तक स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन सूत्रों का कहना है कि कुछ पूर्व विधायक और नेता भी दल बदल सकते हैं।

महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री उदय सामंत ने दावा किया है कि उद्धव ठाकरे के कई विधायक, सांसद, पूर्व विधायक एवं पूर्व सांसद डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे के संपर्क में हैं। उदय सावंत ने कहा कि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में जो काम हुआ है उससे लोगों को यह महसूस हो गया है कि एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में काम करना चाहिए। उन्होंने दावा किया कि अगले तीन महीने में जो पूर्व विधायक उद्धव ठाकरे के पार्टी में हैं वे जल्द ही उद्धव ठाकरे के नेतृत्व छोड़कर एकनाथ शिंदे के नेतृत्व को अपना लेंगे।

क्या फिर एक होंगे उद्धव-फडणवीस? शिवसेना को भाने लगी भाजपा

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महाराष्ट्र के सियासी गलियारों में उद्धव ठाकरे के सियासी स्टैंड को लेकर चर्चा है। सवाल उठ रहा है कि 5 साल से बीजेपी पर सियासी तौर पर मुखर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के करीब आ रहे हैं। ऐसे सवाल इसलिए उठ रहे हैं क्योंकि कुछ दिन पहले उद्धव ठाकरे ने अपने मुखपत्र सामना में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की जमकर तारीफ की थी। जिसके बाद उनकी पर्टी के सांसद और प्रवक्ता संजय राउत ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रशंसा की। इधर देवेंद्र फडणवीस के पांच दिसंबर को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद 35 दिनों के बीच शिवसेना उद्धव गुट के नेता आदित्य ठाकरे सीएम फडणवीस से तीन बार मुलाकात कर चुके हैं। ठाकरे ने गुरुवार को एक बार फिर सीएम से मुलाकात की। उनकी इस मुलाकात ने कई राजनीतिक चर्चाओं को जन्म दिया है।

देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में महायुति की सरकार बन जाने के बावजूद महाराष्ट्र की राजनीति में चीजें शांत नहीं हुई हैं। महायुति की सरकार में देवेंद्र फडणवीस अपने दोनों उप मुख्यमंत्रियों अजित पवार और एकनाथ शिंदे के साथ बहुत सहज नहीं हैं। उनके सरकार में रहने की वजह से उनके पास फ्री हैंड नहीं है। इसकी झलक सरकार गठन और उसके बाद विभागों के बंटवारे के वक्त दिख चुकी है। ऐसे में राज्य में नए राजनीतिक समीकरण की संभावना से इनकार नहीं किया जा रहा है। इस बीच हालात भी इस तरह के उत्पन्न हो रहे हैं कि कयासों का सिलसिला शुरू है।

भाजपा और उद्धव की शिवसेना के संबंध

कभी भाजपा और उद्धव की शिवसेना साथ-साथ थे। अच्छे दोस्त थे। मगर सियासत का पहिया ऐसा घूमा कि आज दुश्मन हैं। 2019 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना (संयुक्त) गठबंधन ने बड़ी जीत दर्ज की। इस चुनाव में बीजेपी को 105 और शिवसेना को 56 सीटों पर जीत मिली। बीजेपी ने देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किया, लेकिन इसी बीच उद्धव की पार्टी ने सीएम पद पर पेच फंसा दिया।

उद्धव ठाकरे ने सीएम पद की डिमांड रख दी, जिसके बाद दोनों का गठबंधन टूट गया। फडणवीस 5 दिन के लिए मुख्यमंत्री जरूर बने, लेकिन बहुमत न होने की वजह से उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ गई. इसके बाद उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बनाए गए।

2022 में उद्धव की पार्टी में टूट हो गई. एकनाथ शिंदे 40 विधायकों को लेकर एनडीए में चले गए। नई सरकार में शिंदे मुख्यमंत्री बने और फडणवीस उपमुख्यमंत्री। उस वक्त शिवेसना तोड़ने का आरोप भी फडणवीस पर ही लगा। कहा गया कि महाराष्ट्र में शिंदे के साथ कॉर्डिनेट करने में फडणवीस ने बड़ी भूमिका निभाई।

2023 में शरद पवार की पार्टी में भी टूट हुई। 2024 के लोकसभा चुनाव में इन सब बगावत के बावजूद शरद पवार और उद्धव के साथ कांग्रेस गठबंधन ने बेहतरीन परफॉर्मेंस किया, लेकिन विधानसभा के चुनाव में बीजेपी गठबंधन ने बड़ी बढ़त बना ली। फडणवीस इसके बाद फिर मुख्यमंत्री बनाए गए।

क्या बदलेगी महाराष्ट्र का सियासी तस्वीर?

महाराष्ट्र में कॉर्पोरेशन, नगर निगम और स्थानीय स्वराज संस्थाओं के चुनाव पास हैं और भाजपा-शिवसेना के बीच संबंध सुधरने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। सामना में फडणवीस की तारीफ उद्धव की एक रणनीतिक चाल है या महाराष्ट्र की राजनीति में किसी बड़े बदलाव का संकेत, यह तो आने वाला वक्त बताएगा। मगर इसकी पूरी संभावना है कि महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ दिलचस्प होने वाला है।

क्या महाराष्ट्र में फिर करवट लेगी सियासत? 'सामना' में सीएम फडणवीस की तारीफ

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महाराष्ट्र की राजनीति में उठा-पटक का माहौल बना रहता है। कब कौन किस करवट बैठ जाए, ये कहना मुश्किल होता है। एक समय था जब बीजेपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना साथ हुआ करते थे। फिर सियासत बदली और शिवसेना का बंटवारा हुआ। उद्धव सेना विपक्ष में चली गई। अब फिर से महाराष्ट्र की सियासत में कुछ उलटफेर होने के संकेत दिख रहे हैं। बीते कुछ समय से पानी पी-पीकर भाजपा को कोसने वाली उद्धव की शिवसेना ने देवेंद्र फडणवीस की तारीफ की है।

दरअसल, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने नये साल के पहले दिन नक्सल प्रभावित गढ़चिरौली जिले का दौरा किया। नए साल के मौके पर फडणवीस ने नक्सल प्रभावित जिले में कई विकास परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया। नए साल के पहले दिन देवेंद्र फडणवीस के गढ़चिरौली दौरे का खास महत्व हो गया है। इसके साथ ही फडणवीस का दौरा काफी चर्चा में है। शिवसेना (यूबीटी) के मुखपत्र सामना में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की जमकर तारीफ की गई है। संपादकीय में लिखा गया है कि फडणवीस ने नए साल में काम की शुरुआत गढ़चिरौली जिले से की। फडणवीस ने गढ़चिरौली से विकास के एक पर्व की शुरुआत की। इसके बाद शिवसेना के सांसद संजय राउत ने भी सीएम की तारीफ को लेकर जवाब दिया है।

सामना ने कहा कि फडणवीस ने जो कहा है अगर वह सच है तो यह गढचिरौली ही नहीं, पूरे महाराष्ट्र के लिए पॉजिटिव होगा। सामना के संपादकीय की मानें तो शिवसेना को यकीन है कि देवेंद्र फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे। सामना में लिखा, ‘गढ़चिरौली में गरीबी की वजह से नक्सलवाद बढ़ा। पढ़-लिखकर ‘पकौड़े’ तलने के बजाय, हाथों में बंदूकें लेकर आतंक मचाने, दहशत निर्माण करने की ओर युवाओं का झुकाव हुआ। इस संघर्ष में केवल खून ही बहा। पुलिस वाले भी मारे गए और बच्चे भी मारे गए। अब अगर मुख्यमंत्री गढ़चिरौली में इस तस्वीर को बदलने का निर्णय लेते हैं तो हम उन्हें बधाई देते हैं। हमें उम्मीद है कि फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे और आदिवासियों की जिंदगी बदल देंगे। अगर गढ़चिरौली में संविधान का राज आ रहा है तो मुख्यमंत्री फडणवीस प्रशंसा के पात्र हैं।

“लगता है फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे”

मुखपत्र में आगे लिखा कि कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि ‘संभावित संरक्षक मंत्री’ सीएम फडणवीस गढ़चिरौली में कुछ नया करेंगे। वहां के आदिवासियों की जिंदगी बदलेंगे। उन्होंने लिखा कि गढ़चिरौली में अब तक कुछ भी नहीं हुआ है। वहां के लोग नक्सलवादियों के विरोध में उंगली नहीं उठा सकते। उन्हें इन दोनों मोर्चों पर काम करते हुए नक्सलियों के विरोध को तोड़ना है और साथ ही विकास कार्यों को भी अंजाम देना है। फडणवीस की मौजूदगी में जाहल की महिला नक्सली तारक्का समेत 11 नक्सलियों का समर्पण किया है। साथ ही आजादी के बाद यानी 77 साल बाद पहली बार अहेरी से गरदेवाड़ा तक एसटी बस चली है, निश्चित रूप से मुख्यमंत्री के ‘मिशन गढ़चिरौली’ के बारे में बहुत कुछ कहती है।

संजय राउत के बदले सुर

सामना में छपे संपादकीय को लेकर शिवसेना उद्धव के नेता संजय राउत ने कहा कि मैंने 10 नक्सलियों के हथियार डालने और भारतीय संविधान को स्वीकार करने की तस्वीरें देखी हैं। अगर कोई ऐसा करता है तो इसकी सराहना की जानी चाहिए। अगर गढ़चिरौली जैसे जिले का विकास होता है तो यह पूरे राज्य के लिए अच्छा है। अगर गढ़चिरौली महाराष्ट्र का स्टील सिटी बन जाता है तो इससे बेहतर कुछ नहीं है। यह सब देवेंद्र फडणवीस की पहल के बाद किया गया है और कोई इसकी सराहना नहीं कर रहा है, तो यह सही नहीं है। शिवसेना नेता ने कहा कि हम हमेशा अच्छी पहल की सराहना करते हैं। हमने पीएम मोदी की भी आलोचना की है, लेकिन जब वे कुछ अच्छा करते हैं तो हम उसकी सराहना भी करते हैं।

क्यों अहम है यह तारीफ

सामान में फडणवीस की यह तारीफ ऐसे वक्त में हुई है, जब महाराष्ट्र की सियासत में अटकलों का बाजार गर्म है। एक अटकल यह है कि शरद पवार और अजित पवार में सुलह हो सकती है। दोनों एक साथ आ सकते हैं। पवार फैमिली के लोग भी इसके लिए बैटिंग कर रहे हैं। खुद शरद पवार से दिसंबर में अजित पवार मिल चुके हैं। दूसरी ओर अटकल यह है कि उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे एकसाथ आ सकते हैं। अटकलें तो यह भी हैं कि उद्धव ठाकरे इंडिया गठबंधन में नाराज चल रहे हैं। उद्धव की शिवसेना को भाजपा का साथ छोड़ने का पछतावा है।

ईडी की कार्रवाई पर गरमाई सियासत:शिव डहरिया ने कहा–लखमा जैसे ईमानदार कही नहीं मिलेंगे,आदिवासी आदमी है,वो निर्दोष साबित होंगे…डिप्टी सीएम साव बोले
रायपुर -  विधायक देवेंद्र यादव के बाद कवासी लखमा की गिरफ्तारी की संभावना बढ़ गई है. ED की कार्रवाई पर पूर्व मंत्री शिव डहरिया ने भाजपा सरकार पर निशाना साधा है. उन्होंने कहा, ED चाहती तो कार्रवाई पहले भी कर सकती है, लेकिन चुनाव से ठीक पहले बस्तर के मजबूत कड़ी को तोड़ने की कोशिश है. लखमा जैसे ईमानदार आदमी कही नहीं मिलेंगे. आदिवासी आदमी है, वो निर्दोष साबित होंगे. इस मामले में उप मुख्यमंत्री अरुण साव ने कहा है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एक केंद्रीय जांच एजेंसी है. चाहे वह छोटा आदमी हो या बड़ा आदमी हो, एजेंसी समान रूप से जांच करती है.
डहरिया ने कहा, विधानसभा में लखमा जी अच्छा बोलते हैं. प्रदेश के आदिवासी और गरीब तबके की आवाज उठाते हैं. कांग्रेस के नेताओं को टारगेट किया जा रहा है. ये कांग्रेस पार्टी को तोड़ने की साजिश है. गिरफ्तारी के बाद पार्टी की रणनीति पर डहरिया ने कहा, बिना जांच के कोई एजेंसी किसी को दोषी नहीं बता सकती. यदि ऐसा होता है तो पार्टी के वरिष्ठ नेता तय करेंगे आगे क्या करना है.
जांच में सहयोग करें लखमा : अरुण साव
कांग्रेस के बयान पर उप मुख्यमंत्री अरुण साव ने कहा है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एक केंद्रीय जांच एजेंसी है. जो जानकारी है वो जानकारी उपलब्ध करानी चाहिए. चाहे वह छोटा आदमी हो या बड़ा आदमी हो, एजेंसी समान रूप से जांच करती है. जांच के जो तथ्य है, उसे स्पष्ट रूप से बताना चाहिए. लखमा के बयान पर पलटवार करते हुए उपमुख्यमंत्री अरुण साव ने कहा कि कवासी लखमा को ईडी ने पूछताछ के लिए बुलाया है तो जांच में सहयोग करें. अगर आप निर्दोष हैं तो उस तरह की बात कीजिए. ईडी सभी बातों पर विचार करेगी.
केंद्रीय जांच एजेंसी की प्रक्रिया पर रखें भरोसा
डिप्टी सीएम साव ने भूपेश बघेल के बयान पर कहा कि छत्तीसगढ़ का एक-एक व्यक्ति इस बात को जानता है कि प्रदेश में शराब घोटाला हो रहा था. कैसे शराब दुकानों में दो-दो काउंटर बने थे. नकली होलोग्राम का उपयोग किया गया था. कांग्रेस सरकार में एक आर्गनाइज क्रिमिनल सिंडिकेट बनाकर शराब घोटाले को अंजाम दिया गया. ये छत्तीसगढ़ के आम लोग जानते हैं. उन्होंने कहा कि प्रदेश में ये जांच कांग्रेस सरकार के रहते हुए शुरू हुई थी. जांच एक सतत प्रकिया है. केंद्रीय जांच एजेंसी की प्रकिया पर सभी को भरोसा करना चाहिए. जो तथ्य हैं वह ईडी को बताना चाहिए.
शराब घोटाला : कवासी और उनके बेटे के घर से ईडी को मिला है सबूत
बता दें कि छत्तीसगढ़ के चर्चित शराब घोटाला मामले में पूर्व आबकारी मंत्री कवासी लखमा के साथ उनके बेटे कवासी हरीश और तत्कालीन ओएसडी जयंत देवांगन से ईडी ने पूछताछ शुरू कर दी है. 28 दिसंबर को कवासी लखमा के साथ-साथ उनके पुत्र के निवास में छापा मारा था, जिसमें ईडी ने नकद लेन-देन के सबूत मिलने की जानकारी दी थी, जिसके साथ ही संपत्ति की जानकारी देने आज तक का समय दिया था.