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आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीति: विकास, चुनौतियाँ और 2025 के चुनाव

#delhipoliticsovertheyears

दिल्ली, भारत की राजनीति का हृदय, आज़ादी के बाद से कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों से गुज़री है। देश की राजधानी के रूप में, यह राजनीतिक आंदोलनों, सरकारी नीतियों और राष्ट्रीय चर्चाओं का केंद्र रही है। दिल्ली की राजनीति के परिवर्तनों को भारत की पूरी राजनीतिक यात्रा का आईना माना जा सकता है, जो एक नवगठित लोकतंत्र से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र तक के सफर का गवाह रही है। दशकों में दिल्ली की राजनीति ने कांग्रेस पार्टी के शासन से लेकर क्षेत्रीय ताकतों के उदय, और हाल ही में आम आदमी पार्टी (AAP) के एक राजनीतिक विक्राल के रूप में उभरने तक कई महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे हैं। यह लेख दिल्ली की राजनीतिक यात्रा का विवरण प्रस्तुत करता है और विशेष रूप से 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव और उनके प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करता है।

आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीतिक यात्रा

प्रारंभिक वर्ष (1947-1960 के दशक)

आज़ादी के बाद, दिल्ली भारत की नई राज्यव्यवस्था का केंद्र बन गई। यह शहर नीति-निर्माण और प्रशासन का प्रमुख केंद्र था। जवाहरलाल नेहरू, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, एक प्रमुख शख्सियत थे जिन्होंने भारत की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रणाली की नींव रखी। नेहरू की कांग्रेस पार्टी ने पहले कुछ दशकों तक दिल्ली की राजनीति पर प्रभुत्व बनाए रखा, जो देश भर में कांग्रेस के प्रभाव को दर्शाता है। शुरुआती वर्षों में, भारतीय सरकार ने देश को पुनर्निर्माण करने, विभाजन, सांप्रदायिक तनाव और रियासतों के विलय जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।

दिल्ली को 1956 में एक केंद्रीय शासित प्रदेश के रूप में स्थापित किया गया, बजाय एक पूर्ण राज्य के, जिससे यह सीधे केंद्र सरकार के अधीन रहा। इसका मतलब था कि दिल्ली को अन्य राज्यों द्वारा प्राप्त स्वायत्तता नहीं मिलती थी, जिससे यह राजनीतिक रूप से अद्वितीय हो गई। इस प्रकार, दिल्ली की राजनीति मुख्य रूप से केंद्रीय सरकार की नीतियों से प्रभावित थी और क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों को अपनी पहचान बनाने का अवसर बहुत कम था।

1970 का दशक: आपातकाल और राजनीतिक असंतोष

1970 का दशक भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल की घोषणा ने भारत के लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण मोड़ पेश किया। आपातकाल, जिसे इंदिरा गांधी ने राजनीतिक अशांति और अपनी नेतृत्व क्षमता पर उठाए गए सवालों के जवाब में घोषित किया था, के परिणामस्वरूप व्यापक गिरफ्तारी, सेंसरशिप और नागरिक स्वतंत्रताओं का निलंबन हुआ। दिल्ली, जो केंद्र सरकार का मुख्यालय थी, इस दौरान राजनीतिक दमन का प्रमुख केंद्र बनी।

इस अवधि के दौरान जनता पार्टी का उदय हुआ, जो कांग्रेस के खिलाफ एक गठबंधन था और 1977 के चुनावों में कांग्रेस को हराकर सत्ता में आई। यह पहला मौका था जब कांग्रेस को भारत में अपनी समग्र प्रमुखता से वंचित किया गया था और दिल्ली में वैकल्पिक राजनीतिक आवाज़ें उभरने लगीं। जनता पार्टी का संक्षिप्त कार्यकाल समाप्त हुआ, और 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर से अपनी पकड़ बनाई।

1980 का दशक: कांग्रेस का पुनरुत्थान और सिख दंगे

1980 का दशक इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान का दौर था। उनके 1984 में हत्या के बाद दिल्ली की राजनीति में एक त्रासद घटना घटी— 1984 के सिख दंगे। उनकी हत्या के बाद जो हिंसा हुई, उसने दिल्ली की राजनीतिक और सामाजिक संरचना को गहरे तरीके से प्रभावित किया। दंगों को लेकर कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगे हैं और यह मामला आज भी एक विवादित मुद्दा बना हुआ है। हालांकि, इस समय कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में फिर से मजबूत हुई और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला।

1980 का दशक शहरी राजनीति के स्वरूप में बदलाव लेकर आया। दिल्ली के एक महानगर के रूप में बढ़ते विकास और बढ़ती सामाजिक-आर्थिक विषमताओं ने राजनीतिक विमर्श को प्रभावित किया। जबकि कांग्रेस दिल्ली की राज्य राजनीति पर हावी थी, इस दशक में नए राजनीतिक बल उभरने लगे थे, जो 1990 के दशक में कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता को चुनौती देने लगे।

1990 का दशक: बीजेपी का उदय

1990 का दशक दिल्ली और भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकाल था। सोवियत संघ के पतन और 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने राष्ट्रीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत की। इस दशक में भारतीय जनता पार्टी (BJP) का उदय हुआ, जो अपनी हिंदुत्व विचारधारा और बढ़ती राष्ट्रवाद की भावना से जुड़ी थी। बीजेपी ने दिल्ली में महत्वपूर्ण कदम उठाए और स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत की। 1993 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने महत्वपूर्ण जीत हासिल की और 1990 के दशक के मध्य तक वह दिल्ली में एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। पार्टी, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने किया, ने खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया और राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।

हालांकि, कांग्रेस पार्टी, जो 1980 के दशक में कई संकटों का सामना करने के बावजूद कमजोर पड़ी थी, फिर भी दिल्ली की राजनीति में अपना प्रभुत्व बनाए रखे हुए थी, और स्थानीय निकायों में उसकी पकड़ मजबूत रही।

2000 का दशक: AAP का उदय और क्षेत्रीय राजनीति

2000 के दशक में दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी (AAP) का उदय हुआ। अरविंद केजरीवाल द्वारा 2012 में AAP की स्थापना के बाद, पार्टी ने भारतीय राजनीति में नया मोड़ दिया। केजरीवाल, जो पहले एक भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता थे, ने स्थापित राजनीतिक दलों से बढ़ती निराशा का फायदा उठाया और आम जनता की आवाज़ के रूप में खुद को प्रस्तुत किया।

AAP ने 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में शानदार शुरुआत की और 70 में से 28 सीटों पर कब्जा किया। हालांकि AAP बहुमत नहीं प्राप्त कर पाई, लेकिन उसने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, और यह दिल्ली की राजनीति में एक नई राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, लेकिन 2014 में जन लोकपाल विधेयक पर असहमति के कारण उनकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया।

2015 में AAP ने फिर से धमाकेदार वापसी की और 70 में से 67 सीटें जीतकर दिल्ली विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व सफलता हासिल की। यह जीत दिल्ली के मतदाताओं का एक बड़ा समर्थन था, और AAP ने अपनी राजनीति को शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों पर केंद्रित किया।

वर्तमान दिल्ली राजनीति (2020 का दशक)

वर्तमान में दिल्ली की राजनीति AAP और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा से भरी हुई है। जहां AAP ने शहर के शहरी मध्यवर्ग के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाई है, वहीं बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी पार्टी बनी हुई है। दोनों पार्टियाँ दिल्ली के विकास और शासन को लेकर विभिन्न दृष्टिकोणों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व और AAP का शासन मॉडल शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित है। केजरीवाल के शासन में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में सुधार हुआ है, और अस्पतालों में मुफ्त इलाज की व्यवस्था की गई है। पानी और बिजली जैसी बुनियादी सेवाओं में भी सुधार हुआ है।

दूसरी ओर, बीजेपी का अभियान राष्ट्रीय सुरक्षा, बुनियादी ढांचे के विकास और कानून-व्यवस्था पर केंद्रित है। पार्टी के समर्थक मध्यवर्ग और श्रमिक वर्ग के लोग हैं, जो बीजेपी के विकास और व्यापार समर्थक एजेंडे से प्रभावित होते हैं। बीजेपी हिंदू वोटरों के समर्थन को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़ी हुई है।

2025 दिल्ली चुनाव: एक महत्वपूर्ण मोड़*

2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय राजनीति के रुझानों का संकेत माना जा रहा है। इन चुनावों का परिणाम न केवल दिल्ली के लिए, बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए भी प्रभावशाली हो सकता है। चुनाव के दौरान, दोनों पार्टियाँ अपने अभियानों को तेज कर चुकी हैं। बीजेपी ने AAP पर भ्रष्टाचार और शासन में अक्षम होने का आरोप लगाया है। भ्रष्टाचार के आरोप के खिलाफ अभियान AAP के खिलाफ बीजेपी की रणनीति का प्रमुख हिस्सा रहा है, जबकि AAP नेताओं ने इन आरोपों को राजनीतिक साजिश करार दिया है।

AAP ने अपनी नीतियों को केंद्रित किया है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित हैं। केजरीवाल ने खुद को एक नए राजनीतिक युग का प्रतीक बताया है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है और आम लोगों के कल्याण के लिए काम करता है।

2025 के चुनावों के लिए निकाले गए एग्जिट पोल मिश्रित परिणाम दिखा रहे हैं, जिसमें कुछ पोल बीजेपी की जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं, जबकि अन्य AAP की जीत की संभावना जता रहे हैं। चुनाव परिणाम निकट भविष्य में दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देंगे।

दिल्ली की राजनीति ने कई दशकों में कई मोड़ लिए हैं, जिसमें कांग्रेस के एकछत्र शासन से लेकर AAP जैसे क्षेत्रीय दलों का उभार तक कई महत्वपूर्ण घटनाएँ शामिल हैं। 2025 का चुनाव दिल्ली के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण होगा। चुनावी परिणाम दिल्ली के विकास और पूरे देश की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण संकेत हो सकते हैं।

जैसे-जैसे दिल्ली के मतदाता शासन, भ्रष्टाचार और विकास जैसे मुद्दों पर विचार करेंगे, इन चुनावों का परिणाम दिल्ली की राजनीति के भविष्य को तय करेगा। दिल्ली का भविष्य, राज्य का दर्जा और इसके राष्ट्रीय राजनीति में स्थान पर आगे आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण प्रभाव डालेगा।

अवैध भारतीय प्रवासी: एक गहरी समस्या और अमेरिका में उनकी स्थिति

#whoaretheseillegalmigrantsofamerica

Picture used in reference (CNN)

अमेरिका, जो विश्व में अपने सशक्त अर्थव्यवस्था और बेहतरीन अवसरों के लिए प्रसिद्ध है, लाखों लोगों का सपना है। हर साल, हजारों भारतीय नागरिक अमेरिका में नौकरी, शिक्षा, और बेहतर जीवन के लिए जाते हैं। हालांकि, कुछ लोग कानूनी तरीके से अमेरिका में प्रवेश करने में नाकाम रहते हैं, जिसके परिणामस्वरूप वे अवैध प्रवासी बन जाते हैं। भारत के नागरिकों के लिए यह मुद्दा दिन-ब-दिन गंभीर होता जा रहा है। हाल ही में, अमेरिका द्वारा 205 अवैध भारतीय प्रवासियों को स्वदेश भेजने के कदम ने इस समस्या को और भी उजागर किया है।

अवैध प्रवासी कौन होते हैं?

अवैध प्रवासी वे लोग होते हैं जो किसी भी देश में बिना कानूनी दस्तावेजों या अनुमति के रहते हैं। ये लोग या तो वीज़ा की अवधि समाप्त होने के बाद भी वहां बने रहते हैं, या फिर बिना वीज़ा के ही देश में प्रवेश कर लेते हैं। अमेरिका में भारतीय अवैध प्रवासी के रूप में रहने वाले लोग, अधिकतर या तो रोजगार के लिए अमेरिका गए थे, या फिर परिवारों के साथ रहते हुए वीज़ा की अवधि समाप्त कर चुके हैं।

अवैध भारतीय प्रवासियों का अमेरिका में प्रवेश

1. वीज़ा समाप्त होने के बाद अतिक्रमण

  अमेरिका में जाने वाले भारतीय नागरिकों की बड़ी संख्या पर्यटक वीज़ा, छात्र वीज़ा या कार्य वीज़ा पर जाते हैं। हालांकि, इनमें से कई लोग वीज़ा की अवधि समाप्त होने के बाद भी अमेरिका में रहते हैं और उनके पास वैध दस्तावेज नहीं होते।  

2. फर्जी दस्तावेजों का उपयोग

  कुछ लोग फर्जी दस्तावेजों के माध्यम से अमेरिका प्रवेश करते हैं। ये दस्तावेज़ वीज़ा, शरण या अन्य कानूनी कारणों के रूप में हो सकते हैं। जब यह धोखाधड़ी सामने आती है, तो इन्हें अवैध प्रवासी के रूप में माना जाता है।  

3. शरणार्थी के रूप में प्रवेश 

  कुछ भारतीय नागरिक राजनीतिक या धार्मिक कारणों से शरणार्थी के रूप में अमेरिका आते हैं। हालांकि, कई बार इनकी स्थिति की सही जांच नहीं होती और वे अवैध रूप से अमेरिका में रह जाते हैं।  

अवैध प्रवासियों के लिए अमेरिका में जीवन

अवैध रूप से अमेरिका में रहने वाले भारतीय नागरिकों को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इन समस्याओं में प्रमुख हैं:

1.कानूनी सुरक्षा की कमी  

  अवैध प्रवासियों के पास कोई कानूनी सुरक्षा नहीं होती। यदि अमेरिकी सरकार द्वारा उनके खिलाफ कार्रवाई की जाती है, तो वे बिना किसी बचाव के देश से बाहर भेजे जा सकते हैं।  

2. आर्थिक कठिनाइयाँ

  अवैध प्रवासी रोजगार प्राप्त करने में कठिनाई का सामना करते हैं, क्योंकि उन्हें काम करने के लिए कानूनी दस्तावेज़ों की आवश्यकता होती है। हालांकि, वे अक्सर अंशकालिक या असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं, जहाँ मजदूरी कम और अधिकार न के बराबर होते हैं।  

3. स्वास्थ्य सेवाओं की कमी 

  अवैध प्रवासी स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ नहीं उठा सकते। वे बिना बीमा या अन्य सरकारी सेवाओं के मेडिकल सेवाओं के लिए संघर्ष करते हैं।  

4. शैक्षिक अवसरों की कमी

  अवैध प्रवासियों के बच्चों को शिक्षा प्राप्त करने में समस्याएँ होती हैं। अधिकांश राज्य अवैध प्रवासियों के बच्चों को सार्वजनिक स्कूलों में दाखिला देने से मना कर सकते हैं।  

अमेरिका का रुख और कार्रवाई

अमेरिका में अवैध प्रवासियों के खिलाफ कड़े कदम उठाए जा रहे हैं। अमेरिकी प्रशासन ने कई बार इस मुद्दे पर अपनी चिंता व्यक्त की है और अवैध प्रवासियों की पहचान कर उन्हें स्वदेश भेजने की प्रक्रिया को तेज किया है।

1. "डीपी" (Deferred Action for Childhood Arrivals - DACA) नीति

  यह नीति विशेष रूप से उन बच्चों के लिए है जो अवैध रूप से अमेरिका में आकर बड़े हुए हैं। इसे "ड्रीमर्स" कहा जाता है। हालांकि, यह नीति सख्त नहीं है और बार-बार इसकी स्थिति पर सवाल उठते रहे हैं।  

2. आव्रजन और कस्टम्स प्रवर्तन (ICE)

  ICE अमेरिकी सरकार का एक प्रमुख विभाग है, जो अवैध प्रवासियों को ट्रैक करता है और उन्हें देश से बाहर करने के लिए कार्रवाई करता है। 

3. स्वदेश वापसी की योजनाएं

  अमेरिकी सरकार कई कार्यक्रमों के तहत अवैध प्रवासियों को स्वदेश भेजने की योजना बनाती है। हाल ही में, 205 अवैध भारतीय प्रवासियों को सी-17 विमान से स्वदेश भेजने की योजना के तहत यह कार्रवाई की गई।

भारत में अवैध प्रवासियों की स्थिति

भारत में अवैध प्रवासियों की वापसी के बाद, उन्हें स्थानीय समुदाय में समायोजित करने की प्रक्रिया भी चुनौतीपूर्ण होती है। भारत सरकार के पास इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट नीति नहीं है, जिससे इन व्यक्तियों को पुनः स्थापित करने में समस्याएँ आती हैं। 

1. स्वदेश लौटने पर चुनौतियाँ

  कई बार अवैध प्रवासियों के लिए स्वदेश लौटना कोई आसान रास्ता नहीं होता। उनके पास सीमित संसाधन होते हैं, और वे वापस अपने देश में पुनः समायोजित होने के लिए संघर्ष करते हैं।  

2.आर्थिक और मानसिक स्वास्थ्य की चुनौतियाँ

  अवैध प्रवासी अक्सर आर्थिक दृष्टिकोण से कमजोर होते हैं। उन्हें मानसिक स्वास्थ्य की समस्याएँ भी हो सकती हैं, क्योंकि उन्हें लंबे समय तक दबाव और डर का सामना करना पड़ता है।  

अवैध प्रवासियों के लिए समाधान

अवैध प्रवासियों की समस्या केवल एक देश की नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर एक मुद्दा बन चुकी है। इसके समाधान के लिए कई उपाय किए जा सकते हैं:

1. कानूनी मार्गों का विस्तार  

  देशों को अपने आव्रजन नियमों को सुधारने की आवश्यकता है। यदि उचित और वैध मार्ग उपलब्ध हों, तो लोग अवैध तरीके से प्रवेश करने की कोशिश नहीं करेंगे।  

2. कानूनी सहायता  

  अवैध प्रवासियों को कानूनी सहायता मिलनी चाहिए, ताकि वे अपनी स्थिति को समझ सकें और उचित कदम उठा सकें।  

3. शरणार्थी नीति का सुधार

  देशों को शरणार्थियों के मामलों की अधिक गहराई से जांच करनी चाहिए और उन लोगों को मान्यता देनी चाहिए जो सचमुच शरण के योग्य हैं।  

अवैध प्रवासियों की समस्या केवल भारत या अमेरिका तक सीमित नहीं है। यह एक वैश्विक समस्या है, जिसके समाधान के लिए देशों को सामूहिक रूप से कदम उठाने की आवश्यकता है। भारत के नागरिकों की अमेरिका में अवैध स्थिति एक जटिल मुद्दा है, लेकिन इसे कानूनी ढंग से सुलझाया जा सकता है। इसके लिए दोनों देशों को मिलकर प्रयास करने होंगे ताकि इस समस्या का समाधान निकाला जा सके और भविष्य में इस तरह की स्थितियों से बचा जा सके।

*इंडोनेशियाई हिंदू परंपरा: मंदिर प्रतिष्ठापन में कुम्बाभिषेकम का पवित्र अनुष्ठान*

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भारत और इंडोनेशिया का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध बहुत गहरा है, जो प्राचीन व्यापारिक रिश्तों, आध्यात्मिक जुड़ावों और एक-दूसरे की परंपराओं के प्रति सम्मान से जुड़ा हुआ है। वर्षों के दौरान, दोनों देशों ने राजनीतिक, आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को मजबूत किया है, और भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत-इंडोनेशिया संबंधों में महत्वपूर्ण बदलाव आया है।

भारत-इंडोनेशिया संबंधों का ऐतिहासिक संदर्भ

भारत और इंडोनेशिया के बीच प्राचीन समय से ही सांस्कृतिक संबंध रहे हैं, जो प्राचीन समुद्री व्यापार मार्गों और हिंदू धर्म तथा बौद्ध धर्म के प्रसार से प्रभावित थे। ऐतिहासिक पुरावशेष, शिलालेख और सांस्कृतिक प्रथाएँ इन प्राचीन संबंधों को दर्शाती हैं। उदाहरण के लिए, इंडोनेशिया की कला, वास्तुकला और धर्म में भारतीय संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जैसे कि बाली के मंदिरों और जावा के बौद्ध मंदिर बोरोबुदुर में भारतीय प्रभाव स्पष्ट है। इसी तरह, भारतीय महाकाव्य रामायण इंडोनेशियाई नृत्य और नाटक में प्रचलित है।

आधुनिक कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत 20वीं सदी के मध्य में इंडोनेशिया के स्वतंत्र होने के बाद हुई, और दोनों देशों ने आपसी सम्मान और सहयोग पर जोर दिया। हालांकि, राजनीतिक परिस्थितियों के बदलने के साथ संबंधों में उतार-चढ़ाव आया।

मोदी युग: संबंधों में मजबूती

जब से नरेंद्र मोदी 2014 में भारत के प्रधानमंत्री बने हैं, भारत-इंडोनेशिया संबंधों में एक नई गति देखने को मिली है। मोदी की "एक्ट ईस्ट" नीति, जो दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ संबंधों को प्रगाढ़ बनाने पर केंद्रित है, ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मोदी के नेतृत्व में मुख्य बदलाव:

1.रणनीतिक साझेदारी:

  2018 में, भारत और इंडोनेशिया ने अपने संबंधों को "समग्र रणनीतिक साझेदारी" में बदल दिया, जिससे दोनों देशों के बीच आर्थिक, राजनीतिक और रक्षा संबंध मजबूत हुए। दोनों देशों ने संयुक्त राष्ट्र और G20 जैसे वैश्विक मंचों पर सहयोग बढ़ाया।

2. आर्थिक सहयोग:

  मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत और इंडोनेशिया के बीच व्यापार में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। भारत, इंडोनेशिया को पेट्रोलियम उत्पादों, वाहन और मशीनरी निर्यात करता है, जबकि इंडोनेशिया भारत को ताड़ का तेल, कोयला और वस्त्र निर्यात करता है। दोनों देशों ने व्यापार बढ़ाने के लिए प्रक्रियाओं को सरल बनाने और बाधाओं को दूर करने पर ध्यान केंद्रित किया है।

3. सुरक्षा और रक्षा संबंध:

  भारत और इंडोनेशिया ने अपने रक्षा सहयोग को बढ़ाया है, संयुक्त सैन्य अभ्यास आयोजित किए हैं, खुफिया जानकारी साझा की है और समुद्री सुरक्षा को मजबूत किया है। यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों देशों की रणनीतिक स्थिति Indo-Pacific क्षेत्र में बहुत अहम है।

4. सांस्कृतिक कूटनीति:

  मोदी के नेतृत्व में सांस्कृतिक कूटनीति को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। सांस्कृतिक संबंधों पर जोर दिया गया है, और मोदी सरकार ने हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म जैसे साझा ऐतिहासिक और धार्मिक संबंधों का महत्व बढ़ाया है।

जकार्ता मंदिर और कुम्बाभिषेकम का महत्व

भारत और इंडोनेशिया के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक संबंधों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जकार्ता मंदिर और कुम्बाभिषेकम हैं।

1. जकार्ता मंदिर (पुरा अगुंग):

  जकार्ता में कई हिंदू मंदिर हैं, और पुरा अगुंग उन मंदिरों में से एक महत्वपूर्ण है, जो भारत और इंडोनेशिया के बीच आध्यात्मिक संबंधों का प्रतीक है। यह मंदिर इंडोनेशिया में हिंदू-बलिनी प्रभाव का प्रतीक है, साथ ही दोनों देशों के बीच साझा धार्मिक मूल्यों को भी दर्शाता है। प्रधानमंत्री मोदी ने अक्सर भारत और इंडोनेशिया के बीच धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव को स्वीकार किया है, जिसमें ये मंदिर और धार्मिक प्रथाएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

2. कुम्बाभिषेकम एक महत्वपूर्ण हिंदू धार्मिक अनुष्ठान है, जो मंदिरों के प्रतिष्ठापन या विशेष मंदिर आयोजनों के दौरान किया जाता है। यह संस्कृत शब्दों "कुम्भ" (घड़ा) और "अभिषेकम" (स्नान या अभिषेक) से उत्पन्न हुआ है।

इंडोनेशिया में कुम्बाभिषेकम:

इंडोनेशिया, विशेष रूप से बाली में, जहाँ हिंदू धर्म की जड़ें गहरी हैं, कुम्बाभिषेकम समारोह का आयोजन मंदिरों में किया जाता है। यह अनुष्ठान तब होता है जब किसी नए देवता की मूर्ति स्थापित की जाती है या मंदिर के विशेष अवसरों पर उसे शुद्ध और पवित्र किया जाता है। इस अनुष्ठान में एक पवित्र घड़े (कुम्भ) से पवित्र जल से देवता की मूर्ति का अभिषेक किया जाता है, जो मंदिर और समुदाय के लिए आशीर्वाद और शांति की प्राप्ति का प्रतीक माना जाता है।

यह अनुष्ठान बाली के हिंदू मंदिरों में एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा है, जिसमें स्थानीय लोग अपनी आस्था और भक्ति व्यक्त करते हैं।

भू-राजनीति में बदलता हुआ भूमिका

दोनों देशों की भू-राजनीतिक भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। मोदी के नेतृत्व में, भारत ने दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों के साथ अपनी साझेदारी को और मजबूत किया है, और इंडोनेशिया, जो इस क्षेत्र का एक प्रमुख देश है, भारत की रणनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। दोनों देशों का ASEAN और इंडोनेशिया महासागर रिम एसोसिएशन जैसे मंचों पर सहयोग बढ़ा है, जो क्षेत्र में चीन के प्रभाव को चुनौती देने के लिए अहम है।

भारत और इंडोनेशिया का संबंध वर्षों से विकसित हुआ है, जो सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आदान-प्रदान से लेकर एक मजबूत रणनीतिक साझेदारी में बदल गया है, विशेष रूप से नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद। जकार्ता मंदिर और महाकुम्भिकम जैसे महत्वपूर्ण क्षण, दोनों देशों के बीच गहरे सांस्कृतिक संबंधों को दर्शाते हैं। जैसे-जैसे दोनों देश अपने संबंधों को और मजबूत करेंगे, यह संभावना है कि उनकी साझेदारी इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की भू-राजनीति को प्रभावित करती रहेगी।

निर्मला सीतारमण: भारत की वित्त मंत्री के रूप में उनके योगदान और भूमिका

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Nirmala Sitaraman (Union FM)

निर्मला सीतारमण भारत की केंद्रीय वित्त मंत्री के रूप में एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली नेता के रूप में उभरी हैं। उनका कार्यकाल भारतीय अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण साबित हुआ है। यहाँ उनके योगदान और वित्त मंत्री के रूप में उनके कार्यों पर विस्तृत चर्चा की जा रही है:

1. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

-जन्म: निर्मला सीतारमण का जन्म 18 अगस्त 1959 को तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में हुआ था।

- शिक्षा: उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की डिग्री प्राप्त की और फिर जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय से आर्थिक और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में पोस्ट-ग्रेजुएशन की डिग्री ली। 

-प्रारंभिक करियर: इससे पहले कि वे भारतीय राजनीति में प्रवेश करतीं, उन्होंने एक शिक्षक, अर्थशास्त्र के विद्वान और कॉर्पोरेट दुनिया में काम किया था। वे ब्रिटेन स्थित एक प्रमुख थिंक टैंक "हेरिटेज फाउंडेशन" की सदस्य भी रह चुकी हैं। 

2. राजनीति में प्रवेश

निर्मला सीतारमण भारतीय जनता पार्टी (भा.ज.पा.) से जुड़ीं और 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के गठन के समय, उन्हें केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्यभार सौंपा गया। उन्हें पहले रक्षा मंत्री के रूप में कार्यभार सौंपा गया था, और बाद में 2019 में वित्त मंत्री का पद मिला।

3. वित्त मंत्री के रूप में कार्यकाल (2019 - वर्तमान)

निर्मला सीतारमण ने जुलाई 2019 में भारत की केंद्रीय वित्त मंत्री के रूप में शपथ ली। वे पहली महिला वित्त मंत्री थीं जिन्हें स्वतंत्र भारत में यह महत्वपूर्ण पद मिला। उनके कार्यकाल में भारतीय अर्थव्यवस्था को पुनर्निर्माण और विकास की दिशा में कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए:

   3.1. आर्थिक सुधारों को बढ़ावा

- विकसित और उदार नीतियाँ: निर्मला सीतारमण ने भारत की आर्थिक नीतियों को लचीला और उदार बनाने की दिशा में कई कदम उठाए, जैसे कॉर्पोरेट टैक्स में कटौती और व्यापारों को बढ़ावा देने के लिए नई योजनाओं की शुरुआत।

- वित्तीय विनियमन: वित्तीय क्षेत्र में सुधार और मजबूत विनियमन की दिशा में उन्होंने कई महत्वपूर्ण कदम उठाए, जिसमें बैंकों की पूंजी में वृद्धि, वित्तीय संस्थानों के सुधार और अनुकूलित टैक्स नीतियाँ शामिल हैं।

  

  3.2. कोविड-19 संकट के दौरान प्रभावी कदम

- आर्थिक पैकेज: कोविड-19 महामारी के संकट के समय, निर्मला सीतारमण ने भारत सरकार के द्वारा घोषित किए गए आर्थिक पैकेज को लागू किया। उन्होंने गरीबों, श्रमिकों और छोटे व्यापारों के लिए राहत उपायों का ऐलान किया, जैसे प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना, ECLGS (Emergency Credit Line Guarantee Scheme), और मुद्रा लोन योजनाएँ। 

- माइक्रो, स्मॉल और मीडियम एंटरप्राइजेज (MSMEs) के लिए योजनाएँ: कोविड-19 से प्रभावित MSMEs को पुनः सक्षम बनाने के लिए वित्त मंत्री ने कई योजनाओं की शुरुआत की, जिससे अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया जा सके।

  

     3.3. स्वच्छ भारत और आत्मनिर्भर भारत अभियान

- आत्मनिर्भर भारत पैकेज: निर्मला सीतारमण ने आत्मनिर्भर भारत अभियान के तहत 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की, जिसका उद्देश्य भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाना था। इस योजना में कृषि, उद्योग, MSMEs, और अन्य क्षेत्रों के लिए विभिन्न सुधार और सहायता पैकेज शामिल थे।

  

    3.4. जीएसटी सुधार

- जीएसटी (GST) में सुधार: निर्मला सीतारमण ने जीएसटी प्रणाली में सुधार की दिशा में कई पहल कीं। उन्होंने छोटे व्यापारियों के लिए जीएसटी रिटर्न भरने में सरलता लाने और जीएसटी दरों में बदलाव करने की दिशा में कदम उठाए। 

- जीएसटी काउंसिल की बैठकें: उन्होंने जीएसटी काउंसिल की बैठक में राज्यों और केंद्रीय सरकार के बीच सामंजस्य स्थापित करने का कार्य किया, जिससे कर प्रणाली को सशक्त किया गया।

    3.5. कृषि क्षेत्र में सुधार

- कृषि सुधार: निर्मला सीतारमण ने कृषि क्षेत्र के सुधार के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए, जैसे कृषि सुधार विधेयक, जो किसानों को अधिक अधिकार और समर्थन देने के लिए लाए गए थे। हालांकि, यह विधेयक विवादों में भी रहा, लेकिन इसका उद्देश्य भारतीय कृषि क्षेत्र को अधिक प्रतिस्पर्धात्मक और लाभकारी बनाना था।

     3.6. बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र में सुधार

- बैंकिंग क्षेत्र की पुनर्पूंजीकरण: उन्होंने भारतीय बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए कई योजनाएँ बनाई, ताकि बैंकों को मजबूती से कार्य करने के लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन मिल सकें।

- एनपीए (NPA) समस्या पर काबू पाना: वित्त मंत्री ने एनपीए की समस्या को हल करने के लिए कई उपाय किए और दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता (IBC) को और प्रभावी बनाने की दिशा में काम किया।

  

     3.7. डिजिटल भुगतान को बढ़ावा

- डिजिटल इंडिया और कैशलेस ट्रांजैक्शंस: निर्मला सीतारमण ने डिजिटल भुगतान को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएँ लागू कीं। उन्होंने मोबाइल पेमेंट्स, यूपीआई (Unified Payments Interface) और अन्य डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म के उपयोग को बढ़ावा दिया।

 4. उनकी नेतृत्व क्षमता और आलोचनाएँ

निर्मला सीतारमण को उनकी उत्कृष्ट नेतृत्व क्षमता और दूरदर्शिता के लिए पहचाना जाता है, लेकिन उनके कार्यकाल में कुछ आलोचनाएँ भी रही हैं। विशेष रूप से, कुछ आलोचकों का मानना है कि सरकार के फैसलों की कार्यान्वयन में प्रभावी सुधारों की कमी हो सकती है, और कुछ योजनाएँ अधिक प्रभावी रूप से लागू नहीं हो पाई हैं। साथ ही, किसानों और व्यापारियों द्वारा कई बार सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए गए हैं। 

5. अंतर्राष्ट्रीय मंच पर सीतारमण की स्थिति*

निर्मला सीतारमण को न केवल भारतीय राजनीति में, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी वित्त और आर्थिक मामलों में एक प्रभावशाली नेता के रूप में देखा जाता है। उन्होंने G20, IMF, और विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारतीय नीतियों और हितों का प्रतिनिधित्व किया है। उनके नेतृत्व में भारत ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी स्थिति को मजबूत किया और प्रमुख वैश्विक सुधारों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

निर्मला सीतारमण का कार्यकाल भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने और वित्तीय सुधारों की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाने वाला रहा है। उन्होंने भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों के लिए वित्तीय समावेशिता, व्यवसाय को बढ़ावा देने और श्रमिकों के हित में कई योजनाएँ बनाई हैं। हालांकि, उनके कार्यों की आलोचना भी की गई है, लेकिन उनके योगदान और नेतृत्व के कारण वे एक स्थायी और महत्वपूर्ण स्थान पर खड़ी हैं। निर्मला सीतारमण ने यह साबित किया है कि महिला नेतृत्व केवल दायित्व नहीं, बल्कि उत्कृष्टता की ओर भी कदम बढ़ाता है।

तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण का महत्व: भारत-पाकिस्तान आतंकवाद संबंध और वैश्विक सुरक्षा पर प्रभाव

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(बाएं से दाएं): डेविड कोलमैन हेडली उर्फ ​​दाऊद गिलानी, हाफिज सईद और तहव्वुर राणा

26/11 के मुंबई हमले के बाद से आतंकवाद और वैश्विक सुरक्षा को लेकर एक नई दृष्टिकोण सामने आई है। यह हमला न केवल भारत के लिए बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक चेतावनी थी कि आतंकवाद के जड़ें केवल एक क्षेत्र में नहीं बल्कि कई देशों में फैली हुई हैं। 25 जनवरी 2025 को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट द्वारा तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण को मंजूरी देने के बाद, यह मामला एक बार फिर से वैश्विक सुरक्षा और पाकिस्तान की भूमिका को प्रमुख रूप से उजागर करता है। राणा, जो 26/11 हमले में शामिल था, उसकी गिरफ्तारी और प्रत्यर्पण के परिणामस्वरूप नई जानकारी और प्रमाण मिल सकते हैं, जो आतंकवाद की जड़ों को और गहरे तक समझने में मदद करेगा। 

1. 26/11 की जांच और तहव्वुर राणा का कनेक्शन

तहव्वुर राणा, जो पाकिस्तानी मूल का कनाडाई नागरिक है, 26/11 के मुंबई हमले में प्रमुख भूमिका निभाने वालों में से एक था। वह डेविड कोलमैन हेडली के सहयोगी के रूप में काम कर रहा था, जिसने भारत में आतंकवादी ठिकानों का सर्वेक्षण किया था। राणा ने इस हमले के लिए जरूरी रसद, योजना और मार्गदर्शन प्रदान किया था। 25 जनवरी को अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने उसके प्रत्यर्पण को मंजूरी दी, जिससे अब उसे भारत लाया जाएगा। यह महत्वपूर्ण कदम इसलिए है क्योंकि राणा से प्राप्त जानकारी से 26/11 के हमले के पीछे की साजिश और पाकिस्तान में चल रहे आतंकवादी नेटवर्क के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं।

2. पाकिस्तान का आतंकवाद के केंद्र के रूप में उभरना

तहव्वुर राणा का प्रत्यर्पण पाकिस्तान को वैश्विक आतंकवाद के केंद्र के रूप में फिर से उजागर कर सकता है। पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी समूह जैसे लश्कर-ए-तैयबा (LET) और जैश-ए-मोहम्मद (JEM), अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी अभियानों में सक्रिय हैं। ये समूह न केवल भारत बल्कि अफगानिस्तान और अन्य देशों में भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं। राणा का भारत प्रत्यर्पण पाकिस्तान के आतंकवाद में सक्रिय भूमिका को दर्शाता है और यह साबित करता है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद को एक राज्य नीति के रूप में अपनाया है।

3. भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के लिए नई संभावना

राणा का प्रत्यर्पण भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को नई दिशा में जांच करने का अवसर प्रदान करेगा। वह लश्कर-ए-तैयबा के प्रमुख हाफिज सईद, पाकिस्तानी आईएसआई और अन्य आतंकवादी समूहों के रिश्तों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दे सकता है। इसके अलावा, राणा भारतीय इलाकों में आतंकवादी गतिविधियों के बारे में भी जानकारी प्रदान कर सकता है, जिससे भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को आतंकी गतिविधियों को रोकने में मदद मिल सकती है।

4. पाकिस्तान और तालिबान के रिश्ते

तालिबान और पाकिस्तान के रिश्तों पर भी राणा का प्रत्यर्पण प्रकाश डाल सकता है। तालिबान का पाकिस्तान के साथ गहरा संबंध है, खासकर पाकिस्तान की आईएसआई के साथ। हालांकि तालिबान ने भारत के खिलाफ कोई आतंकवादी गतिविधि को मंजूरी नहीं दी है, लेकिन पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी समूहों को तालिबान का समर्थन मिल सकता है। इसके अलावा, तालिबान अफगानिस्तान में भारतीय सहायता को बाधित करने की कोशिश करता है, जबकि पाकिस्तान भी अफगानिस्तान में अपनी रणनीतिक स्थिति मजबूत करने के प्रयासों में शामिल है।

5. 26/11 के आतंकवादी हमले का वैश्विक संदर्भ

26/11 का हमला केवल भारत के लिए एक आघात नहीं था, बल्कि यह वैश्विक आतंकवाद के खतरों को भी उजागर करता है। इस हमले में शामिल आतंकवादी समूहों ने न केवल भारतीय नागरिकों का नरसंहार किया बल्कि वैश्विक सुरक्षा के लिए भी एक गंभीर खतरा उत्पन्न किया। राणा का प्रत्यर्पण आतंकवादियों के वैश्विक नेटवर्क को तोड़ने और उनकी साजिशों को उजागर करने में मदद कर सकता है। इसके साथ ही यह संकेत करता है कि आतंकवाद का वित्तपोषण और उसकी योजना केवल एक देश या क्षेत्र तक सीमित नहीं है, बल्कि यह वैश्विक स्तर पर फैली हुई है।

6. पाकिस्तान का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दबाव बढ़ना

राणा का प्रत्यर्पण पाकिस्तान के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ाने का एक और अवसर हो सकता है। यह पाकिस्तान के लिए एक नई चुनौती है, क्योंकि उसे आतंकवाद को समर्थन देने के आरोपों का सामना करना पड़ेगा। पाकिस्तान ने कई बार इस आरोप से इनकार किया है कि वह आतंकवाद का समर्थन करता है, लेकिन राणा के प्रत्यर्पण और उससे प्राप्त जानकारी के बाद पाकिस्तान पर नए सिरे से दबाव डाला जा सकता है।

7. अफगानिस्तान और पाकिस्तान के आतंकवाद के समर्थन में अंतर्राष्ट्रीय भूमिका

अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद, यह स्थिति और जटिल हो गई है। तालिबान का पाकिस्तान से करीबी संबंध है, और पाकिस्तान की आईएसआई अफगानिस्तान में सक्रिय आतंकवादी समूहों का समर्थन करती है। तालिबान द्वारा पाकिस्तान से आतंकवादियों की सहायता प्राप्त करना भारत के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। हालांकि तालिबान ने भारत के खिलाफ कोई कार्रवाई की अनुमति नहीं दी है, लेकिन पाकिस्तान में स्थित आतंकवादी संगठन भारत के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा दे रहे हैं।

8. भारत का सुरक्षा रणनीति में परिवर्तन

राणा के प्रत्यर्पण से भारतीय सुरक्षा रणनीति में कुछ बदलाव हो सकते हैं। भारतीय सुरक्षा एजेंसियां अब नए सबूतों और जानकारी के आधार पर पाकिस्तान के आतंकवादी नेटवर्क का पर्दाफाश करने के लिए और सख्त कदम उठा सकती हैं। भारत का यह निर्णय कि वह आतंकवाद के खिलाफ किसी भी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं है, यह दिखाता है कि भारत आतंकवाद के खिलाफ अपने संघर्ष को और मजबूत करेगा।

तहव्वुर राणा के प्रत्यर्पण के बाद भारत को न केवल 26/11 के हमले के संदर्भ में नई जानकारी प्राप्त हो सकती है, बल्कि यह पाकिस्तान और उसके आतंकवादी नेटवर्क के खिलाफ अंतर्राष्ट्रीय दबाव को भी बढ़ा सकता है। यह घटनाक्रम भारत, पाकिस्तान, और अफगानिस्तान के आतंकवाद से जुड़े मुद्दों पर एक नया मोड़ ला सकता है, और इससे वैश्विक सुरक्षा पर भी असर पड़ सकता है। राणा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई और उसके द्वारा दी गई जानकारी से यह उम्मीद की जा सकती है कि आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए जाएंगे और पाकिस्तान की आतंकवाद की नीति को लेकर अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में और अधिक जागरूकता पैदा होगी।

जलवायु परिवर्तन और लॉस एंजिल्स की आग: 32 जलवायु वैज्ञानिकों का विश्लेषण

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वर्ल्ड वेदर एट्रिब्यूशन के तहत 32 जलवायु वैज्ञानिकों ने हाल में एक विश्लेषण प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन ने लॉस एंजिल्स के जंगलों की आग को और भी अधिक विनाशकारी बना दिया है। इस विश्लेषण के अनुसार, यदि मानवजनित जलवायु परिवर्तन न होता, तो ऐसी परिस्थितियाँ 35% कम संभावित होतीं। यह बढ़ता हुआ खतरा मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन के जलने से उत्पन्न गर्मी और शुष्क मौसम के कारण है, जो आग की घटनाओं को और भी गंभीर बना रहे हैं।

आग की बढ़ती गंभीरता

विश्लेषण में वैज्ञानिकों ने यह पाया कि आग की परिस्थितियाँ – गर्म, शुष्क और तेज हवाएँ – जलवायु परिवर्तन के कारण ज्यादा गंभीर हो गई हैं। इनके कारण लॉस एंजिल्स में आग लगने की संभावना 35% अधिक हो गई है। इससे भी अधिक चिंताजनक यह है कि अगर वैश्विक तापमान 2.6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ता है, जैसा कि 2100 तक होने का अनुमान है, तो आग लगने की संभावना और बढ़ जाएगी। वैज्ञानिकों ने इस बात की भी चेतावनी दी कि यदि जलवायु परिवर्तन के कारण यह वृद्धि जारी रहती है, तो आने वाले वर्षों में इस प्रकार की घटनाएँ और भी बढ़ सकती हैं।

डोनाल्ड ट्रम्प की जलवायु नीतियाँ और उनका प्रभाव

पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के कार्यकाल में पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका का बाहर निकलना और जलवायु नीतियों में बदलाव ने जलवायु संकट को और बढ़ा दिया। ट्रम्प के शासन में जलवायु परिवर्तन को लेकर कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए, और कई नीतियाँ उलट दी गईं। इसके कारण जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में तेजी आई है, जैसे कि जंगलों में आग लगने की घटनाओं में वृद्धि। 

सूखा और आग के मौसम की बढ़ती संभावना

विश्लेषण में यह पाया गया कि अक्टूबर से दिसंबर तक कम वर्षा होने की संभावना अब औद्योगिक-पूर्व जलवायु की तुलना में लगभग 2.4 गुना अधिक हो गई है। इसका मतलब यह है कि सूखा और आग के मौसम की संभावना बढ़ गई है। विशेष रूप से सांता एना हवाओं के दौरान आग लगने की संभावना अधिक होती है, जो दिसंबर और जनवरी के महीनों में सबसे तेज होती हैं। इन हवाओं के कारण आग जल्दी फैल जाती है और इसका प्रभाव काफी गंभीर हो सकता है। 

जंगली आग का विनाशकारी प्रभाव

एलए में हाल ही में हुई जंगली आग को शहर के इतिहास की सबसे विनाशकारी आग माना गया है। इस आग ने लगभग 10,000 घरों और वाणिज्यिक संपत्तियों को नष्ट कर दिया और 28 लोगों की जान ले ली। इसके अलावा, यह आग कैलिफोर्निया में एक बहुत महंगा नुकसान साबित हुई है। अनुमान के अनुसार, आग के कारण हुए निजी बीमाकृत नुकसान का आंकड़ा $27.2 बिलियन था, जबकि AccuWeather ने कुल नुकसान को $250 बिलियन से अधिक होने का अनुमान जताया है।

इसके अलावा, इस आग के कारण स्वास्थ्य पर भी गंभीर प्रभाव पड़ा, क्योंकि जंगल की आग से निकलने वाला धुंआ और प्रदूषण सांस की बीमारियाँ उत्पन्न कर सकता है। यह सभी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन के कारण और भी गंभीर हो गई हैं।

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव और अगली पीढ़ियों के लिए खतरे

जलवायु परिवर्तन ने जंगली आग के मौसम को लंबा और खतरनाक बना दिया है। शुष्क, ज्वलनशील स्थितियाँ अब औद्योगिक-पूर्व जलवायु के मुकाबले औसतन 23 दिनों तक लंबी रहती हैं। इन सूखे स्थितियों के कारण आग लगने की संभावना अधिक होती है। वहीं, वर्षा के पैटर्न में भी परिवर्तन हो रहा है, जिससे सूखा कुछ वर्षों तक लंबा हो सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण, पौधों से नमी अधिक तेजी से वाष्पित हो रही है, जिससे वे जल्दी जल सकते हैं और आग की स्थिति और भी विकराल हो जाती है।

जलवायु मॉडलिंग और भविष्य के प्रभाव

शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडलिंग प्रयोगों में दो बहु-मॉडल समूहों का उपयोग किया: समुद्री सतह तापमान (SST)-संचालित वैश्विक परिसंचरण उच्च-रिज़ॉल्यूशन मॉडल और क्षेत्रीय जलवायु मॉडल। इन प्रयोगों से पता चला कि यदि दुनिया अपने वर्तमान उत्सर्जन पथ पर चलती रही, तो औद्योगिक-पूर्व स्तरों से तापमान में 3.1 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि हो सकती है, जैसा कि उत्सर्जन अंतर रिपोर्ट 2024 में कहा गया है। इसका मतलब यह है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और बढ़ेंगे, और आग जैसी घटनाओं में वृद्धि होगी।

जलवायु नीतियाँ और भविष्य की दिशा

अमेरिका में बिडेन प्रशासन ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। उन्होंने 2035 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2005 के स्तर से 61-66% तक कम करने का लक्ष्य रखा है। यह कदम जलवायु संकट से निपटने की दिशा में एक सकारात्मक प्रयास है। हालांकि, ट्रम्प प्रशासन के तहत पेरिस जलवायु समझौते से बाहर निकलने और जलवायु नीतियों को रद्द करने के कारण जलवायु संकट को और बढ़ावा मिला था।

वर्तमान में, कई देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कदम उठा रहे हैं। 2035 के लिए राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) के तहत कई देशों ने उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य तय किए हैं। इनमें से चार देश – यूएई, ब्राजील, अमेरिका और उरुग्वे – ने अपने जलवायु लक्ष्यों को प्रस्तुत किया है। इस प्रकार, जलवायु नीति में बदलाव और उत्सर्जन में कमी की दिशा में और प्रयास किए जा रहे हैं।

यह समय है कि हम जलवायु परिवर्तन के समाधान के लिए वैश्विक स्तर पर कदम उठाएँ और जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने के लिए त्वरित उपाय करें। अगर हम इसी दिशा में काम करते हैं, तो हम जलवायु संकट से निपटने में सक्षम हो सकते हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित और स्थिर पर्यावरण सुनिश्चित कर सकते हैं।

महाकुंभ 2025 में अराजक भीड़: काशी विश्वनाथ और अयोध्या में भी बढ़ी भीड़ का दबाव

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Mahakumbh 2025

प्रयागराज (इलाहाबाद) में चल रहे महाकुंभ ने कड़ोड़ों श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित किया है। यह दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक सम्मेलन है, और जैसे-जैसे यह महाकुंभ बढ़ रहा है, इसे लेकर सुरक्षा, यातायात और स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ भी बढ़ रही हैं। महाकुंभ के कारण बढ़ी भीड़ अब काशी विश्वनाथ मंदिर और अयोध्या जैसे प्रमुख तीर्थ स्थलों पर भी दबाव डाल रही है, जिससे इन धार्मिक केंद्रों पर भीड़ को नियंत्रित करना एक बड़ी चुनौती बन गई है।

 महाकुंभ 2025: श्रद्धा या अराजकता?

महाकुंभ, जो हर 12 साल में एक बार आयोजित होता है, हिंदू श्रद्धालुओं के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक आयोजन है। इस बार के महाकुंभ में 12 करोड़ से अधिक श्रद्धालुओं के आने की संभावना है, जो पहले से ही प्रयागराज के बुनियादी ढांचे पर भारी दबाव डाल रहे हैं। हालांकि, आयोजकों ने शहर की सड़कों, अस्थायी पुलों, और अस्थायी सुविधाओं के निर्माण के माध्यम से तैयारियाँ की हैं, लेकिन तीव्र भीड़ के कारण शहर में अराजकता बढ़ती जा रही है। संकरे रास्ते, लंबी कतारें और भारी भीड़ के कारण सुरक्षा और सुव्यवस्था बनाए रखना बेहद मुश्किल हो गया है। इस दौरान सोशल मीडिया के माध्यम से महाकुंभ के प्रचार के कारण और भी ज्यादा श्रद्धालु पहुंच रहे हैं, जिससे हालात और भी जटिल हो गए हैं। कई श्रद्धालु, जो कुंभ मेला स्थल पर जगह नहीं पा रहे हैं, वे अब काशी और अयोध्या जैसे आसपास के शहरों की ओर रुख कर रहे हैं, जिससे इन स्थानों पर भी दबाव बढ़ गया है।

काशी विश्वनाथ: बढ़ी हुई भीड़ से दबाव

महाकुंभ की वजह से बढ़ी हुई भीड़ का असर काशी विश्वनाथ मंदिर में भी देखा जा रहा है। यह मंदिर हमेशा से ही एक प्रमुख तीर्थ स्थल रहा है, लेकिन अब लाखों श्रद्धालु यहाँ पहुँच रहे हैं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, जो श्रद्धालुओं के सुगम आवागमन के लिए एक प्रमुख परियोजना थी, के बावजूद, यहां की भीड़ को नियंत्रित करना बहुत मुश्किल हो रहा है। श्रद्धालुओं को घंटों तक मंदिर में प्रवेश पाने के लिए इंतजार करना पड़ रहा है और कई बार उन्हें मंदिर के अंदर जाने का मौका भी नहीं मिल रहा। काशी विश्वनाथ मंदिर के पास की सड़कों पर यातायात जाम लग जाता है और सार्वजनिक सुविधाएं अत्यधिक दबाव में हैं। इससे स्थानीय प्रशासन को स्थिति नियंत्रित करने में मुश्किलें आ रही हैं।

अयोध्या: राम मंदिर के साथ बढ़ी हुई भीड़

अयोध्या, जहां भगवान राम का जन्म हुआ और नए राम मंदिर का निर्माण हुआ, भी श्रद्धालुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थल बन चुका है। महाकुंभ के दौरान यहां भी भक्तों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। हालांकि शहर में तीव्र गति से बुनियादी ढांचे का विकास हो रहा है, फिर भी बढ़ती संख्या में श्रद्धालुओं को समायोजित करने में कठिनाई हो रही है। अयोध्या की सड़कें अक्सर पैदल यात्रा करने वालों से भरी रहती हैं और मंदिरों के आसपास जगह-जगह भीड़ लग जाती है। प्रमुख धार्मिक आयोजनों और उत्सवों के दौरान, अयोध्या की सड़कों पर चलना भी मुश्किल हो जाता है। इससे शहर की संसाधन व्यवस्थाएं और अधिक दबाव में आ जाती हैं।

बढ़ी हुई भीड़ के कारण

महाकुंभ, काशी विश्वनाथ और अयोध्या में भीड़ का मुख्य कारण निम्नलिखित है:

1. श्रद्धालुओं का प्रवाह: प्रयागराज में महाकुंभ स्थल की सीमित क्षमता के कारण कई श्रद्धालु अब काशी और अयोध्या जैसी जगहों पर आकर वहां धार्मिक गतिविधियों में भाग ले रहे हैं, जिससे इन शहरों में भी भीड़ बढ़ रही है।

2. धार्मिक महत्व: इन तीर्थ स्थलों का धार्मिक महत्व श्रद्धालुओं को यहां आने के लिए आकर्षित करता है। महाकुंभ के दौरान ये स्थान विशेष रूप से भीड़-भाड़ से भर जाते हैं।

3. सोशल मीडिया और सुगमता: सोशल मीडिया के जरिए धार्मिक आयोजनों की जानकारी जल्दी फैल जाती है, जिससे श्रद्धालुओं की संख्या और बढ़ जाती है। साथ ही, इन स्थलों तक पहुंच अब पहले से कहीं अधिक सुगम हो गई है।

4. तैयारी की कमी: इन तीर्थ स्थलों के बुनियादी ढांचे में अभी भी सुधार की आवश्यकता है, ताकि अचानक आई भीड़ को सही तरीके से नियंत्रित किया जा सके।

स्थानीय प्रशासन की चुनौती

प्रयागराज, वाराणसी और अयोध्या में स्थानीय प्रशासन भारी संख्या में श्रद्धालुओं के साथ शांति और सुरक्षा बनाए रखने के लिए निरंतर प्रयास कर रहा है। हजारों सुरक्षा कर्मियों की तैनाती, डिजिटल टिकटिंग सिस्टम, और बढ़ी हुई निगरानी व्यवस्था को लागू किया गया है। हालांकि, इन उपायों के बावजूद, बढ़ती भीड़ के बीच स्थिति को नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा है। 

शाही स्नान के पूर्व भक्तों की भीड़ का आकलन कर पाना मुश्किल है , इन शहरों के तक पहुचना भी अपने आप में एक कार्य है घंटों लम्बे जाम में पूरी यातायात को बिगाड़ दिया है इससे यात्रा कर रहे लोगों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है, और तो और जो लोग हिम्मत कर भी जा रहे है उमड़ती कारण अपनी यात्रा को बिना दर्शन किये पूरी नहीं कर पा रहे हैं। 

आपातकालीन चिकित्सा सेवाएं भी अत्यधिक दबाव में हैं, और सर्दी के मौसम में यात्रा की गति धीमी हो रही है। स्थानीय व्यवसायियों को भी इस भीड़ के कारण समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि आवास, परिवहन और खाद्य सामग्री की भारी मांग बढ़ गई है।

प्रशासन का समाधान

स्थिति को नियंत्रण में रखने के लिए स्थानीय सरकारें और मंदिर प्राधिकरण कई कदम उठा रहे हैं। अस्थायी आवास, बेहतर समन्वय, और कृत्रिम बुद्धिमत्ता-आधारित भीड़ प्रबंधन तकनीकी उपायों पर विचार किया जा रहा है। इसके अलावा, आपातकालीन योजनाओं के लिए आपदा प्रबंधन टीमों को भी तैनात किया गया है। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि यदि बुनियादी ढांचे, भीड़ प्रबंधन और लॉजिस्टिक योजना में लंबी अवधि के सुधार नहीं किए गए, तो सार्वजनिक सुरक्षा संबंधी खतरे बढ़ सकते हैं।

महाकुंभ 2025 ने लाखों श्रद्धालुओं के धार्मिक उत्साह को उजागर किया है, लेकिन इसने भारत के तीर्थ स्थल बुनियादी ढांचे की कमजोरियों को भी उजागर किया है। प्रयागराज में बढ़ी भीड़ के कारण काशी विश्वनाथ और अयोध्या जैसे आसपास के शहर भी प्रभावित हो रहे हैं। श्रद्धालुओं की सुरक्षा और सुविधा के लिए तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है, ताकि इन धार्मिक स्थलों पर श्रद्धा और समर्पण के साथ साथ शांति और व्यवस्था भी सुनिश्चित की जा सके।

स्वर्णमढ़ित 'बग्गी' का पुनरुद्धार: राष्ट्रपति मुर्मू और इंडोनेशियाई अतिथि को कर्तव्य पथ पर लाने में हुआ उपयोग

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और उनके इंडोनेशियाई समकक्ष प्रबोवो सुबियांटो, गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि, को रविवार को पारंपरिक घोड़े से खींची जाने वाली ‘बग्गी’ में सवार होकर दिल्ली के कर्तव्य पथ पर लाया गया। 1984 में बंद की गई यह बग्गी पिछले साल वापस लौटी। इसने राष्ट्रपति मुर्मू और उनके फ्रांसीसी समकक्ष इमैनुएल मैक्रों, जो पिछले साल मुख्य अतिथि थे, को कर्तव्य पथ पर पहुंचाया।

परंपरा

सोने की परत चढ़ी, घोड़े से खींची जाने वाली यह बग्गी एक काले रंग की गाड़ी है, जिस पर सोने से राष्ट्रीय प्रतीक (चार शेर) उकेरे गए हैं। भारतीय और ऑस्ट्रियाई घोड़ों की मिश्रित नस्ल द्वारा खींची जाने वाली इस गाड़ी में सोने की परत चढ़ी रिम भी है। राष्ट्रपति, जो भारत के राष्ट्राध्यक्ष हैं, और मुख्य अतिथि को ले जाने वाली बग्गी को ‘राष्ट्रपति के अंगरक्षक’ या राष्ट्रपति के अंगरक्षक, भारतीय सेना की सबसे वरिष्ठ रेजिमेंट द्वारा अनुरक्षित किया जाता है।

बग्गी को क्यों बंद कर दिया गया था ?

ज्ञानी जैल सिंह ने 1984 में राष्ट्रपति बग्गी का इस्तेमाल किया था। उस वर्ष अक्टूबर में, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई थी। इसके कारण सुरक्षा कारणों से यह परंपरा बंद कर दी गई। इसके बाद राष्ट्रपति लिमोसिन में आने लगे, जब तक कि बग्गी को लगभग 40 साल बाद, जनवरी 2024 में वापस नहीं लाया गया।

2014 में, तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने बग्गी का इस्तेमाल किया, लेकिन बीटिंग रिट्रीट समारोह के लिए, जो 29 जनवरी को आयोजित किया जाता है, और गणतंत्र दिवस समारोह का समापन होता है। प्रणब मुखर्जी के उत्तराधिकारी रामनाथ कोविंद ने 2017 में शपथ लेने के बाद राष्ट्रपति की गाड़ी से गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण किया।

गणतंत्र दिवस

26 जनवरी को, राष्ट्र 1950 में इस तिथि पर संविधान के लागू होने का स्मरण करता है, जिसने 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के लगभग तीन साल बाद भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य बनाया। संविधान सभा द्वारा तैयार संविधान को 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था। 26 जनवरी 1950 में इसे लागू किया गया, वही 1930 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा 'पूर्ण स्वराज' (पूर्ण स्वतंत्रता) की घोषणा के उपलक्ष्य में चुना गया था। दूसरी ओर, 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

झूठ का पुलिंदा, मासूम चेहरा’: अमित शाह ने अरविंद केजरीवाल पर हमला बोला

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शनिवार को आम आदमी पार्टी (आप) के संयोजक अरविंद केजरीवाल पर दिल्ली के लोगों से “झूठ” बोलने का आरोप लगाया।

“अरविंद केजरीवाल दिल्ली में ऐसी सरकार चला रहे हैं जो अपने वादों को पूरा नहीं करती और फिर से झूठ का पुलिंदा और मासूम चेहरा लेकर सामने आते हैं। अपने राजनीतिक जीवन में मैंने कभी इतना झूठा व्यक्ति नहीं देखा। मुझे ऐसे कठोर शब्दों का इस्तेमाल करने में कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि मैं आश्वस्त हूं,” एएनआई ने शाह के हवाले से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा।

शाह ने 5 फरवरी को होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा का तीसरा घोषणापत्र जारी किया। केजरीवाल की तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री ने कहा, "2014 से नरेंद्र मोदी जी ने इस देश में काम की राजनीति स्थापित की है और तब से हर चुनाव में भाजपा ने अपने वादों को पूरा करने का प्रयास किया है। हमने इसके लिए विभिन्न लोगों से सुझाव मांगे हैं। केजरीवाल दिल्ली में ऐसी सरकार चलाते हैं जो वादे तो करती है, लेकिन उन्हें पूरा नहीं करती और फिर जनता के सामने झूठे चेहरे पेश करती है। मैंने अपने राजनीतिक जीवन में कभी किसी को इतना साफ झूठ बोलते नहीं देखा।" 

शाह ने यमुना के प्रदूषण को लेकर केजरीवाल पर निशाना साधा केजरीवाल पर लगातार हमला बोलते हुए शाह ने शराब मामले और यमुना नदी के प्रदूषण का मुद्दा उठाया। शाह ने कहा, "उन्होंने स्कूलों, मंदिरों और गुरुद्वारों के पास शराब की दुकानें खोली हैं और हजारों करोड़ रुपये के घोटाले किए हैं। शराब घोटाला दिल्ली के पूर्व शिक्षा मंत्री ने किया था। उन्होंने (केजरीवाल) सात साल में यमुना नदी को साफ करने का वादा किया था, ताकि यह लंदन की टेम्स नदी जितनी साफ हो जाए और कहा था कि वह दिल्ली की जनता के सामने डुबकी लगाएंगे। केजरीवाल जी, जनता आपकी उस मशहूर डुबकी का इंतजार कर रही है।" 

शाह ने कहा, "वह पाइप के जरिए साफ पानी उपलब्ध कराने का अपना वादा भी पूरा नहीं कर पाए। उन्होंने भ्रष्टाचार मुक्त सरकार की बात की, लेकिन केजरीवाल खुद अपने कई मंत्रियों के साथ भ्रष्टाचार के मामलों में जेल गए। उन्हें सिर्फ जमानत मिली और जमानत को क्लीन चिट के तौर पर इस्तेमाल करना उन्हें आरोपों से बरी नहीं कर सकता।" शाह ने कहा, "सबसे गंभीर मुद्दा दिल्ली में भ्रष्टाचार का स्तर है, जो केजरीवाल के शासन में जितना ऊंचा है, उतना पहले कभी नहीं रहा। शराब घोटाला, दिल्ली जल बोर्ड में 28,400 करोड़ का घोटाला, राशन वितरण में 5,400 करोड़ का घोटाला, स्कूल कक्षाओं में 1,300 करोड़ का घोटाला और सीसीटीवी लगाने में 571 करोड़ का घोटाला जैसे घोटाले हुए हैं।"

अमेरिका, ट्रंप और मोदी के नेतृत्व में क्वाड: ताइवान के संदर्भ में एक नई चुनौती

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2027 में चीन के द्वारा ताइवान पर कब्जा करने की योजना और इसके परिणामस्वरूप अमेरिका को जो सैन्य और कूटनीतिक चुनौती मिल सकती है, वह वैश्विक राजनीति और सैन्य रणनीति में एक अहम मोड़ को दर्शाता है। यह समय अमेरिका, भारत, जापान, और ऑस्ट्रेलिया के सहयोगी गुट, अर्थात् क्वाड (क्वाड्रिलैट्रल सिक्योरिटी डायलॉग), के लिए एक चुनौतीपूर्ण दौर हो सकता है। क्या ट्रंप और पीएम मोदी के नेतृत्व में क्वाड खड़ा होगा और क्या यह चीन के बढ़ते प्रभाव के खिलाफ एक मजबूत रक्षा ढांचा बना सकेगा? यह सवाल हमारे समक्ष एक महत्वपूर्ण राजनीतिक और सैन्य मुद्दे के रूप में उभरता है। 

इस लेख में हम इस जटिल परिस्थिति का विश्लेषण करेंगे, जिसमें चीन की बढ़ती नौसैनिक शक्ति, ताइवान संकट, और क्वाड देशों के बीच समन्वय की आवश्यकता को शामिल करेंगे।

1. क्वाड की भूमिका और महत्व

क्वाड, जिसे क्वाड्रिलैट्रल सिक्योरिटी डायलॉग भी कहा जाता है, अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया का एक अनौपचारिक गुट है, जो इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी सामरिक और रणनीतिक साझेदारी को मजबूत करने के लिए काम कर रहा है। इसका उद्देश्य क्षेत्र में सुरक्षा, नेविगेशन स्वतंत्रता, और कानून-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बढ़ावा देना है। जब अमेरिका के विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने 2025 के प्रारंभ में क्वाड देशों के साथ पहली बहुपक्षीय बैठक की, तो यह बैठक एक नई दिशा को दर्शाती है। भारत के विदेश मंत्री सुब्रह्मण्यम जयशंकर, ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री पेनी वोंग, और जापानी विदेश मंत्री ताकेशी इवाया के साथ यह बैठक न केवल एक कूटनीतिक कदम था, बल्कि एक संकेत भी था कि अमेरिका और इसके सहयोगी राष्ट्र चीन के खिलाफ एकजुट होने के लिए तैयार हैं। 

2. चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति और ताइवान संकट

चीन ने पिछले एक दशक में अपनी सैन्य शक्ति में भारी वृद्धि की है। विशेष रूप से, चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (PLA) की नौसेना आज दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना बन चुकी है, जिसमें लगभग 500 युद्धपोत हैं। यह चीन की सैन्य रणनीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसका उद्देश्य इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी समुद्री शक्ति को बढ़ाना है। इसके अलावा, चीनी रक्षा बजट का अधिकांश हिस्सा पीएलए नौसेना को सौंपा गया है, जो इस क्षेत्र में बढ़ते तनाव को दर्शाता है। 

 3. भारत और चीन के बीच बढ़ते तनाव

भारत और चीन के बीच संबंधों में हाल के वर्षों में तनाव बढ़ा है, विशेष रूप से 2020 में पूर्वी लद्दाख में हुई सैन्य झड़पों के बाद। हालांकि मोदी सरकार द्विपक्षीय संबंधों में सुधार की कोशिश कर रही है, लेकिन चीन की बढ़ती सैन्य गतिविधियाँ, खासकर हिंद महासागर क्षेत्र में, भारत के लिए चिंता का विषय हैं। चीन ने हिंद महासागर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति बढ़ाते हुए महत्वपूर्ण बंदरगाहों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है, जिससे भारत को अपनी सुरक्षा को लेकर गंभीर कदम उठाने की आवश्यकता महसूस हो रही है। यही कारण है कि भारत ने क्वाड में अपनी सक्रिय भागीदारी बढ़ाई है, ताकि चीन के प्रभाव को सीमित किया जा सके और क्षेत्रीय सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। 

4. भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और क्वाड में भागीदारी

भारत की रणनीतिक स्वायत्तता पर बहस हमेशा से चली आ रही है। एक ओर जहां कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष में नहीं फंसना चाहिए और उसे अपनी स्वतंत्र रणनीतिक नीति पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, वहीं दूसरी ओर दक्षिणपंथी विचारक यह मानते हैं कि भारत को अमेरिका के साथ मिलकर चीन के बढ़ते सैन्य खतरे का मुकाबला करना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दृष्टिकोण थोड़ा अलग है। वे अमेरिका और चीन दोनों के साथ संतुलित संबंध बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि भारत के राष्ट्रीय हित सुरक्षित रह सकें। मोदी सरकार ने “आत्मनिर्भर भारत” के तहत घरेलू सैन्य-औद्योगिक आधार को मजबूत करने की दिशा में कई कदम उठाए हैं। 

5. चीन के खिलाफ सामरिक तैयारियाँ और क्वाड का भविष्य

भारत की सामरिक तैयारियाँ और क्वाड के भीतर सहयोगी देशों की भूमिका इस समय अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। भारत को अपनी सैन्य शक्ति को और अधिक सशक्त बनाने की आवश्यकता है, ताकि वह चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला कर सके। इसके लिए, क्वाड के देशों को एकजुट होकर सामरिक ढांचा तैयार करना होगा, जिससे चीन की सैन्य चुनौती का प्रभावी तरीके से सामना किया जा सके। क्वाड देशों के बीच रक्षा, प्रौद्योगिकी, और संचार क्षेत्र में सहयोग को और अधिक गहरा किया जाना चाहिए। खासकर, भारत को अमेरिका से नवीनतम तकनीकी सहायता और रक्षा उपकरणों की आवश्यकता है, ताकि वह अपनी रक्षा तैयारियों को और मजबूत कर सके। 

6. भारत और अमेरिका के बीच बढ़ता सहयोग

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में भारत और अमेरिका के बीच रक्षा, व्यापार और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा है। 2025 के शुरुआती महीनों में, अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने संकेत दिया कि ट्रंप प्रशासन भारत के साथ अपनी रक्षा साझेदारी को और मजबूत करेगा, खासकर जब भारत अपनी घरेलू सैन्य-औद्योगिक क्षमता को विकसित करने की दिशा में कदम उठा रहा है। भारत के लिए यह समय की मांग है कि वह अपने घरेलू विनिर्माण क्षेत्र को सशक्त बनाए और विदेशी तकनीक पर अपनी निर्भरता कम करे। जैसे-जैसे भारत के सैन्य और औद्योगिक आधार का विस्तार होता है, वैसे-वैसे वह चीन की चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हो सकता है। 

7. इंडो-पैसिफिक में चीन के खिलाफ क्वाड का सामरिक महत्व

इंडो-पैसिफिक क्षेत्र वैश्विक व्यापार और समुद्री मार्गों का केंद्र है, जो खरबों डॉलर के व्यापार का स्रोत है। इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती सैन्य उपस्थिति और आक्रामकता को देखते हुए, क्वाड को अपनी भूमिका को और मजबूत करना होगा। यह न केवल चीन के खिलाफ सामरिक संतुलन बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि वैश्विक समुद्री मार्गों पर नेविगेशन की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए भी आवश्यक है। अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया का सामूहिक प्रयास क्षेत्र में चीनी विस्तार को रोकने में प्रभावी हो सकता है। 

2027 में चीन द्वारा ताइवान पर कब्ज़ा करने की संभावना, अमेरिका, भारत और अन्य क्वाड देशों के लिए एक गंभीर चुनौती पेश करती है। हालांकि, ट्रंप और मोदी के नेतृत्व में क्वाड देशों के बीच मजबूत साझेदारी और सहयोग इस चुनौती का सामना करने के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है। चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति के बीच, क्वाड को अपनी रणनीतिक साझेदारी को और गहरा करना होगा, ताकि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में शांति और स्थिरता बनाए रखी जा सके। भारत को अपनी सामरिक तैयारियों को तेज़ी से बढ़ाना होगा और घरेलू सैन्य-औद्योगिक आधार को सशक्त बनाना होगा। इसके साथ ही, अमेरिका और अन्य क्वाड देशों के साथ मजबूत सहयोग इस क्षेत्र में सामरिक संतुलन को बनाए रखने के लिए आवश्यक होगा।