सिंधिया परिवार का गढ़ गुना, राजघराने के आगे जातिवाद की राजनीति का भी असर नहीं
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गुना सीट का गणित है काफी दिलचस्प
गुना में नहीं होता जातिवाद की राजनीति का असर
यहां पार्टी नहीं, सिंधिया उम्मीदवार रखता है मायने
नेहरू के कहने पर चुनावी मैदान में उतरा सिंधिया परिवार
1957 में राजमाता ने पहली बार जीता लोकसभा चुनाव
कभी ग्वालियर रियासत का हिस्सा रही गुना लोकसभा सीट मध्य प्रदेश की हाई प्रोफाइल सीट मानी जाती है। भले ही सिंधिया परिवार राजशाही से लोकशाही में आ गया हो पर यहां के लोग इस खानदान को काफी सम्मान देते हैं। गुना सीट का गणित काफी दिलचस्प है। यहां पार्टी कोई मायने नहीं रखती, दिखता है बस सिंधिया उम्मीदवार का नाम। शायद यही वजह है कि 1977 में माधवराव सिंधिया निर्दलीय चुनाव में उतरे तो भी बड़े अंतर से जीते।
नेहरु ने सिंधिया परिवार को मनाया
सिंधिया राजपरिवार का चुनावी संबंध भारत के आजाद होने के बाद से शुरु हुआ है। राजतंत्र समाप्त होने के बाद जीवाजी राव सिंधिया का कद गुना क्षेत्र में बढ़ रहा था। उनकी उभरती हुई छवि को देखते हुए पंडित जवाहरलाल नेहरु उन्हें गुना सीट से चुनाव लड़ाना चाहते थे। लेकिन जब वे तैयार नहीं हुए तो ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया को चुनाव लड़ने के लिए मनाया गया। साल 1957 में राजमाता ने कांग्रेस के टिकट से पहली बार लोकसभा का चुनाव जीता।
सिंधिया परिवार में दिखा तनाव
राजमाता सिंधिया के बाद उनके बेटे माधवराव सिंधिया भी बहुत जल्द राजनीति में उतर गए थे। मात्र 26 साल की युवा उम्र में माधवराव सिंधिया ने जनसंघ के टिकट पर चुनाव जीता। साल 1977 में माधवराव ने जनसंघ से किनारा कर लिया और निर्दलीय ही चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया। उन्होंने निर्दलीय खड़े होकर भी गुना सीट पर जीत हासिल की। आगे चलकर साल 1980 में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता। राजनीति के चलते माधवराव और उनकी मां राजमाता विजयाराजे सिंधिया के बीच राजनीतिक मतभेद शुरु हो गया और विचारधारा अलग-अलग हो जाने के कारण दोनों विरोधी पार्टियों में चले गए। साल 1989 में गुना लोकसभा सीट से विजयाराजे सिंधिया ने भाजपा के टिकट से चुनाव लड़कर कांग्रेस के महेंद्र सिंह को करारी मात दी। विजयाराजे सिंधिया ने इसके बाद लगातार चार बार भाजपा के टिकट से चुनाव जीता।
ज्योतिरादित्य संभाल रहे राजनीतिक विरासत
माधवराव सिंधिया ने गुना सीट से कुल चार चुनाव जीते। साल 1999 में उन्होंने आखिरी बार चुनाव जीता था। इसके बाद साल 2001 में एक विमान हादसे में उनकी असमय मौत हो गई थी। जिसके बाद उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया का सियासी सफर शुरु हुआ। साल 2002 के उप-चुनाव में उन्हें मैदान में उतारा गया और उन्होंने अपने पिता की सीट से कांग्रेस को जीत दिलाई।
गुना में जातिवाद की राजनीति का असर नहीं
गुना सीट के चुनावी इतिहास देखने पर पता चलता है कि यहां पर सिंधिया राजघराने का वर्चस्व रहा है। राजमाता विजयाराजे यहां से 6 बार सांसद रहीं, उनके बेटे माधवराव चार बार लोकसभा का चुनाव जीतकर यहां से सांसद बने। फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया भी तीन बार गुना सीट से सांसद रहे। फिर भी जातिवाद की राजनीति यहां बेअसर रही। जातिवाद का कार्ड यहां नहीं चल पाने का सबसे बड़ा कारण ही सिंधिया परिवार है। सिंधिया परिवार के प्रति लोगों का प्रेम अब भी बरकरार है और स्थानीय लोग अब भी रियासत के हिसाब से सिंधिया परिवार को देखते हैं।
Apr 02 2024, 15:05