गया में पितरों को पिंडदान करने से होती है पितरों का उद्धार, किया है पौराणिक मान्यता जानने के लिए पढिये पुरे आलेख
गया : पितृपक्ष में पूर्वजों (पितरों) के आत्मा को शांति प्रदान के लिए पिंडदान सहित श्राद्ध किया जाता है। गया- तीर्थ में "प्रेतशिला वेदी" पर भगवान विष्णुजी के चरण चिह्न बने हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान प्रेत शिला की छिद्रों और दरारों से प्रेतात्माएं बाहर निकलती हैं और अपने परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान को स्वीकार कर स्वर्ग प्राप्त होते हैं।।
सनातन धर्म में पितरों को "पिंडदान" उनके मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग माना जाता है। इसलिए परम्परा क्रमिक रीति- रिवाज के साथ पितृपक्ष में पूर्वजों की आत्मा को मोक्ष प्रदान के लिए पिंडदान और श्राद्ध व्यवस्था प्रचलित। पितृपक्ष में पिंडदान के लिए कई जगहें प्रसिद्ध हैं; लेकिन लोगों ने "बोधगया" में पिंडदान को खास महत्व देते है।।
त्रेता और द्वापर में पिंडदान दृष्टांत
ऐसे तो महाभारत कालीन निमि महर्षि से पितरों को (श्राद्ध) पिंडदान प्रक्रिया शुरु होने की विश्वास किया जाता है किंतु इसीसे पहले सीता माता भी दशरथ जी को पिंडदान करने की दृष्टांत रामायण में है। ऐसे विरोधभाष को लेकर समाधान किया जा सकता है कि, त्रेता में सीतामाता के द्वारा किये गए पिंडदान क्रिया किसी भी इंसान के सामने नहीं हुआ और इसलिए सायद लोकाचार में शामिल नहीं हो पाया था।
किंतु द्वापर कालीन निमि- कृत पिंडदान क्रिया महर्षियों के सामने होने की कारण, उनके माध्यम लोकाचार में शामिल होना स्वाभाविक था।।
सीतामाता के द्वारा पिंडदान
रामायण के अनुसार वनवास काल में पिता दशरथ जी को श्राद्ध पिंड अर्पण करने के लिए दोनों भाई राम- लक्षण फल्गुनदी में स्नान कर रहे थे और स्नान के बाद उन्हें पिंड प्रस्तुति के लिए आवश्यक वस्तु संग्रह करना था। नदी किनारे बैठे माता सीता ने सोच में पड़ गए कि इसी से तो निर्धारित समय के अंदर पिंडदान सम्भव होना कठिन है! ऐसा भी होते जा रहा था। इस अनहोनी को टालने के लिए माता सीता ने श्वसुर दशरथ जी के लिए खुद रेत की पिंड प्रस्तुत कर सश्रद्ध अर्पण की तो दशरथ जी ने हाथ बढ़ाकर खुसी से स्वीकार किया किंतु स्नानरत राम- लक्षण यह दृश्य को देख नहीं पाए। सीता जी के लिए फल्गु नदी के यह स्थान को भी "गया तीर्थ" कहा जाता है।।
बोध गया
बिहार राज्य में स्थित गयासुर के वध- स्थान "बोधगया" और यंहा के "विष्णुपद मंदिर" पितरों के लिये श्राद्ध- तर्पण हेतु बहुत प्रसिद्ध है। मान्यता है कि-- इस गया तीर्थ में कोई भी व्यक्ति अपने पितरो के निमित्त पिंड दान करेगा तो, उसके पितृ उससे तृप्त रहेंगे और वह व्यक्ति अपने पितृऋण से उरिण हो जायेगा।।
गयासुर कथा
पुराणों के अनुसार, गयाराजा थे भगवान विष्णु के एक परम् भक्त। एक बार वे शिकार पर हिरण को मारने के लिए एक तीर चलाई; लेकिन वो तीर हिरण की बजाए एक ब्राह्मण को जा लगी, जो घायल होकर राजा को श्राप दिया कि-- वो असुर योनि में जन्म लेगा। श्राप मिलते ही गया का शरीर पांच कोस तक फैल गया और वो राजा से गयासुर बन गया। भगवान विष्णु के भक्त होने की वजह से गयासुर में आसुरी प्रवृत्ति नहीं आ पाई और वो अपना राजपाट छोड़कर जंगलवास के लिए चला गया। जंगल वासी होकर गयासुर ने कड़ी तपस्या की और ब्रह्माजी को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त कर लिया कि-- उसके दर्शन मात्र से पापी लोगों का भी उद्धार हो जाएगा।।
गयासुर तपस्वी होने के बाद भी वंहा के असुरों ने अधिक से अधिक अत्याचारी बन कर पाप करने लगे और इसके बावजूद अंत समय में गयासुर के दर्शन कर पुण्य लोक को पधारे। ऐसा होने से स्वर्ग और नरक का संतुलन बिगड़ने लगा। स्वर्ग में पापियों की संख्या बढ़ने लगी। ईस अनहोनी स्थिति में सारे देवताओं भगवान विष्णु से गयासुर का अंत करने की प्रार्थना की। देवताओं की समस्या को समझ कर भगवान विष्णु ने ब्रह्मावर से सिद्ध उस गयासुर के पास गए और बोले-- "एक यज्ञ करना है और उसके लिए एक पवित्र स्थान चाहिए।" गयासुर ने कहा-- "हे प्रभु, मेरे दर्शन मात्र से ही सभी पापी लोग मुक्त हो जाते हैं, तो आप मेरे ऊपर ही हवन कर ले। क्योंकि इससे पवित्र जगह कुछ और नहीं हो सकता।"
भगवान विष्णु जी ने गयासुर पर यज्ञ कुंड स्थापन कर हवन किया; लेकिन कई प्रयास किए जाने के बाद भी गयासुर की मौत नहीं हुई। भगवान विष्णु ने कहा-- "गयासुर, तुमने कोई पाप नहीं किया; लेकिन तुम्हारे कारण सभी असुर स्वर्ग जा रहे, जिससे स्वर्ग- नरक का संतुलन बिगड़ रहा है। ना चाहते हुए भी अब मुझे तुम्हें मारना पड़ेगा।।"
गयासुर ने कहा-- "हे प्रभु, आप मेरी केवल दो इच्छाएं पूरी कर दीजिए, मैं खुद ही अपना शरीर त्याग दूंगा।" भगवान विष्णु ने गयासुर की इच्छाओं के बारे में पूछा तो गयासुर ने कहा-- "मेरी पहली इच्छा है कि सभी देवी- देवता हमेशा के लिए अप्रत्यक्ष रूप से मुझ में वास करें और मेरी दूसरी इच्छा है कि अगर कोई मेरे धाम को आकर सच्चे मन से उनके पितरों का मुक्ति के लिए भगवान को प्रार्थना करें तो, आप उनके पितरों को मुक्ति देंगे।" भगवान विष्णु के "तथास्तु" कहते ही गयासुर ने अपना शरीर त्याग दिया। तभी से यह मान्यता चली आ रही है कि गया में किया गया श्राद्ध या प्रार्थना से पितरों को मुक्ति मिल जाती है।
गया में स्थित प्रेतशिला 876 फीट ऊंचा एक पर्वत है और पितरों से इस चट्टान का खास संबंध है। प्रेतशिला वेदी पर भगवान विष्णुजी के चरण चिह्न बने हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष के दौरान प्रेतशिला की छिद्रों और दरारों से प्रेतात्माएं बाहर निकलती हैं और अपने परिजनों द्वारा किए गए पिंडदान को स्वीकार कर स्वर्ग- प्राप्त होते हैं। विष्णु पुराण के मुताबिक, गया में पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष मिल जाता है और वे स्वर्ग चले जाते हैं।
कुछ श्रद्धालुओं के मन में प्रश्न उभरती हैं कि-- पूर्वजों को गया- तीर्थ में पिंड- श्राद्ध देने से, उनको तो मोक्ष प्राप्ति होती है, फिर घर में पूर्ववत् हर साल उनके मृत्यु तिथि में श्राद्ध करने की आवश्यकता है की नहीं ? उत्तर में सिर्फ इतना कहा जा सकता है कि-- "श्रद्धा से श्राद्ध" अर्थ में "गया- श्राद्ध" के बाद भी हमारे लिए हमारे पूर्वजों सदा श्रद्धायोग्य रहेंगे और हम श्रद्धा के साथ आगे भी श्राद्ध देंगे। क्योंकि हमारे परवर्त्ति पीढ़ी को दिखाना है कि काल नियम से पूर्वजों अब हमारे घर में नहीं रहे तो भी क्या हुआ, हम सब उत्तर पीढ़ी के लोग उनके अपना है और हम उनको स्मरण कर श्राद्ध प्रदान करने की सनातन परंपरा को सुरक्षित रखना है।
Oct 07 2023, 09:43