दुमका : मनोहारी दृश्यों का अद्भुत संगम हैं जनजातीय हिजला मेला, जानिए कैसे शुरू हुआ था हिजला मेला, स्पेशल रिपोर्ट..
दुमका : दुमका में प्रकृति के मनोरम दृश्य के बीच संताल परगना का गौरवपूर्ण सांस्कृतिक इतिहास वाला सुप्रसिद्ध राजकीय जनजातीय हिजला मेला महोत्सव शुक्रवार से शुरू हो जाएगा।
आठ दिनों तक चलनेवाला और संताल परगना के प्रमंडलीय मुख्यालय दुमका से करीब चार किलोमीटर दूर हिजला पहाड़ी के नीचे और मयूराक्षी नदी के तट पर विगत एक शताब्दी से अधिक समय से लगनेवाला यह जनजातीय मेला इस क्षेत्र के मनोहारी दृश्यों का अद्भुत संगम हैं।
मनोरंजन और हाटबाज़ार के साथ साथ यह मेला एकता, सदभाव और भाईचारे का भी प्रतीक हैं। हिजला मेला महोत्सव की तैयारियां अब अंतिम चरणों मे है।
प्रकृति के मनोरम दृश्य के बीच संताल परगना का गौरवपूर्ण सांस्कृतिक इतिहासवाला हिजला मेला अब 133 वें साल में प्रवेश कर गया हैं। यह मेला इस क्षेत्र की कला, रास, हर्ष, नृत्य और संगीत के माध्यम से इस क्षेत्र की सांस्कृतिक विरासत को बनाये रखने में करीब एक शताब्दी से अधिक समय से प्रयत्नशील रहा हैं। बसंत ऋतु के आगमन के साथ नदियों और झीलों की निश्चल धारा, जंगली पक्षियों की मधुर आवाज और आदिवासी युवको के बांसुरी की मधुर तान ढोल और मांदर की थाप पर थिरकती आदिवासी महिलाओ के नृत्य और संगीत से संताल परगना का पूरा पहाड़ी इलाके के रोम रोम झूम उठता हैं।
धनकटनी के बाद दूर दराज के इलाको में रहनेवाले लोगो से मिलने के लिए इस इलाके के लोग व्याकुल रहते हैं और इनका समागम होता हैं मयूराक्षी नदी के तट पर हर साल लगनेवाला हिजला मेला में। जानकारों के मुताबिक 3 फरवरी 1890 को तत्कालीन उपायुक्त जान. आर. कास्टेयरस ने इस मेले की नींव रखी थी। तब से यह मेला इस क्षेत्र की संस्कृति को कला, रास-रंग और संगीत के माध्यम से प्रदर्शित करने की परंपरा बन गयी। इतिहासकार बताते हैं कि तत्कालीन उपायुक्त जान. आर. कास्टेयरस द्वारा मेला का शुभारम्भ किये जाने के बाद इस क्षेत्र के ग्राम प्रधान, मांझी, परगनैतो के साथ पहाड़ में बैठकर विचार विमर्श करते थे और इस क्षेत्र से संबंधित नियम बनाया करते थे। इस कारण यहाँ बननेवाली नियमावली को अंग्रेजी में 'हिज़ ला' कहा गया और इस पहाड़ का नाम हिजला हो गया और तब से यहाँ का मेला भी हिजला मेला के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
काफी लंबे समय के प्रयासों के बाद इस सुप्रसिद्ध जनजातीय मेला को राजकीय मेला का दर्जा मिला। आठ दिनों तक चलनेवाले इस मेले का अपना सामाजिक और आर्थिक प्रभाव भी हैं। आठ दिनों तक यहाँ तमाम तरह की व्यावसायिक प्रतिष्ठान, प्रदर्शनियों, विभागीय स्टॉल, कृषि, हस्तशिल्प, उत्पाद और मनोरंजन के साधन लगाये जाते हैं। अलग अलग सांस्कृतिक कार्यक्रम और खेलकूद का आयोजन भी किया जाता हैं।
दरअसल यह मेला मनोरंजन और हाट बाज़ार के साथ ही यहाँ के एकता, सदभाव और भाईचारे का भी प्रतीक हैं, जंहा सभी वर्ग और समुदाय के लोग नृत्य-संगीत के माध्यम से अपनी एकता और सदभाव को प्रदर्शित करते हैं। मेले को कई बार आधुनिक रूप देने का प्रयास किया जाता रहा हालाँकि परिवर्तन के साथ ही यह मेला पुराने ढर्रे ही चल रहा हैं। हालाँकि इतिहासकारों के मुताबिक पिछले सौ सालो में मेले में बदलाव के कई रंग देखने को मिले लेकिन इस बदलाव को इतिहासकार सही नहीं मानते क्योकि इस बदलाव से मेले की मौलिकता पर सवाल उठने शुरू हो जाएंगे।
बताया जाता हैं कि वर्ष 1855 में इस क्षेत्र के लोगो की उपेक्षा और शोषण के खिलाफ उपजे असंतोष के कारण संताल विद्रोह के महानायक सिदो, कान्हू, चाँद और भैरव ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ उग्र जेहाद छेड़ दिया था जिसे इतिहास के पन्नो में 'संताल हूल' के नाम से जाना जाता हैं। इस क्रम में अंग्रेज शासको ने सरकार के खिलाफ होनेवाले विद्रोह और आंदोलनकारियो के अध्ययन करने के लिए बिहार के भागलपुर और बंगाल के वीरभूम जिले के कुछ भागो को मिलकर संताल परगना जिले का गठन किया. तब अंग्रेज शासको द्वारा स्थानीय स्तर पर हाट, बाज़ार और मेले को इनके जीवन के एक महत्वपूर्ण कड़ी मानकर इस दिशा में सुधारवादी कदम उठाये जाने लगे। बहरहाल जरुरत इस बात की हैं कि आदिवासी संस्कृति को जीवंत रखने के लिए इस गौरवशाली मेले की मौलिकता को बचाए रखना होगा ताकि यहाँ आनेवाले हर लोग इस गौरवशाली मेले के अतीत से रूबरू हो सके।
(दुमका से राहुल कुमार गुप्ता की रिपोर्ट)
Feb 23 2023, 19:39