*विदेशी सरजमीं पर फहराया संस्कृत का पताका*
रिपोर्ट -नितेश श्रीवास्तव
भदोही। अंतरराष्ट्रीय संस्कृत विद्वान पद्मश्री डॉ कपिलदेव द्विवेदी आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कीर्ति आज भी विद्यमान है। उनकी रचित सैकड़ों रचनाएं आज भी लोगों को संस्कृत वेद का ज्ञान दे रही है। वेदामृतम से वेद के दुरुह ज्ञान को भी उन्होंने सरल कर दिया। विदेशी सरजमीं पर संस्कृत का पताका फहराने पर 1999 में केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया था। उन्हें देश और विदेश से 25 से अधिक बड़े पुरस्कार मिले। मूल रूप से गाजीपुर के गहमर निवासी डॉ कपिल देव द्विवेदी ने ज्ञानपुर भदोही को अपना कर्मभूमि बनाया। हिंदी, संस्कृत, समेत जर्मन, फ्रेंच समेत अन्य कई विदेशी भाषाओं में वह पारंगत रहे। गोरखपुर और हरिद्वार के कई डिग्री काॅलेज के साथ वह केएनपीजी कॉलेज के कई साल तक प्राचार्य भी रहे। डॉ कपिल देव द्विवेदी ने 35 वर्ष की अवस्था में ग्रेथों का लेखन शुरू किया। करीब 80 से अधिक ग्रथ और रचनाएं लिख डाली। छह दिसंबर 1918 को जन्में डॉ कपिल देव द्विवेदी 28 अगस्त को 2011 को पंचतत्व में विलीन हो गए। मरणोपरांत उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार दिया गया। सेवानिवृत्त प्रोफेसर उनके बेटे डॉ भारतेन्दु द्विवेदी ने बताया कि पिताजी ने संस्कृत और भारतीय संस्कृति का पताका फहराने के लिए अमेरिका, कनाडा, इंग्लैंड, जर्मनी, हाॅलैंड फ्रांस,इटली, स्विट्जरलैंड, सूरीनाम, गुयाना,मारीशस , कीनिया, तंजानिया और सिंगापुर आदि देशों की कई बार यात्रा की। देश-विदेश की अनेक संस्थाओं की ओर से 25 से अधिक सम्मान और पुरस्कार मिले।
Aug 30 2024, 17:12