राजस्थान में वसुंधरा को “साइडलाइन” करना बीजेपी के लिए कितना जोखिम भरा?
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भारतीय जनता पार्टी को 2003 में ऐतिहासिक जीत दिलाने के बाद से वसुंधरा राजे ने राजस्थान की राजनीति में हमेशा केंद्रीय भूमिका निभाई है। लेकिन आगामी विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले बीजेपी के दो महत्वपूर्ण चुनाव पैनलों से राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री की एकदम से गैरहाजिरी ने चौतरफा चर्चाओं को जन्म दे दिया है।चर्चाएं तो पहले से तेज़ थीं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लगातार दो जनसभाओं में मानो उन पर मुहर लगा दी। वह जिस खुली जीप पर सवार होकर आए, उनके साथ सिर्फ़ भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और सांसद सीपी जोशी थे, पूर्व मुख्यमंत्री और प्रदेश की प्रभावशाली नेता वसुंधरा राजे नहीं थीं।मंच पर प्रदेश भाजपा की कई महिला नेताएं भी मौजूद थी, लेकिन राजे नहीं।
राजस्थान में विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने अभी तक जो संकेत दिए हैं उससे यही लगता है कि राजस्थान की पूर्व सीएम वसुंधरा राजे किनारे लगाई जा चुकी हैं।इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सारे कयासों को दरकिनार करते हुए सोमवार को चित्तौड़गढ़ के सांवरियासेठ में हुई सभा में साफ़ कहा, इस विधानसभा चुनाव में सिर्फ़ एक ही चेहरा है और वह कमल, हमारा उम्मीदवार सिर्फ़ कमल है, इसलिए एकजुटता के साथ कमल को जिताने के लिए भाजपा कार्यकर्ता काम करें।
तकरीबन दो दशकों तक प्रदेश बीजेपी को एक अकेली महिला के पावर हाउस की तरह चलाया, लेकिन 2018 की चुनावी हार के बाद उनके सितारे गर्दिश में आए तो बीजेपी आलाकमान ने भी उन्हें दरकिनार कर दिया। न तो उनको अब संगठन में तवज्जो मिल रही है, न ही पीएम मोदी की रैली में मंच पर। प्रदेश के इस मौजूदा राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अब कई प्रश्न उठ खड़े हुए हैं, भाजपा ने राज्य में किसी को मुख्यमंत्री का चेहरा क्यों नहीं बनाया है? इसके पीछे क्या वजह है? वसुंधरा राजे की उपेक्षा क्यों हो रही है? क्या ये स्थिति भाजपा के पक्ष में जाएगी? क्या इस स्थिति का भाजपा को नुक़सान हो सकता है?
वसुंधरा को ही राजस्थान बीजेपी में सबसे लोकप्रिय नेता माना जाता है। पार्टी के लिए उनको साइडलाइन करना इतना आसान नहीं है। वंसुधरा राजे को किनारे करना बीजेपी के लिए कितना जोखिम भरा हो सकता है, ये इन पांच कारणों से आसानी से समझा जा सकता हैः-
गहरा सकता है हार जीत का मामूली अंतर
राजस्थान में जीत और हार का अंतर कम रहता है। कांग्रेस भी लगातार पहले अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच पिस रही थी। लेकिन अब ये खबरें नहीं सुनने को मिल रही हैं। बीजेपी ने कोई सीएम फेस नहीं किया है। कांग्रेस अपनी नीतियों के सहारे पार पाने की कोशिश कर रही है। लेकिन पिछले चुनाव पर नजर डालें, तो 30 ऐसी सीटें थी, जो सिर्फ 5 फीसदी के कम अंतर से बीजेपी हार गई थी। वहीं, 2003 और 08 में लगभग 42 फीसदी सीटें ऐसी थीं, जिन पर हार जीत का अंतर मामूली रहा था। अगर बीजेपी वसुंधरा को साइडलाइन करती है, तो यहां पार्टी को उनकी कमी खल सकती है। वोट छिटक सकता है।
महिला प्रवासी वोटों पर हो सकती है असर
पिछली बार कांग्रेस जीती जरूर, लेकिन जीत का अंतर बीजेपी की तुलना में 0.5 फीसदी वोट ज्यादा था। इस बार बीजेपी का फोकस महिला प्रवासी वोटों पर है। यानी इनकी आबादी 5 फीसदी है। बीजेपी की सोच है कि जो नुकसान हुआ था, उसकी भरपाई इससे हो जाएगी। इन महिलाओं में वसुंधरा की अच्छी पकड़ मानी जाती है। अगर वसुंधरा राजे को तवज्जो नहीं मिलती, तो कहीं न कहीं नुकसान बीजेपी को हो सकता है।
वसुंधरा की अनदेखी से छिटक सकती है महिला वोटर
बीजेपी को महिलाओं का वोट खूब मिलता है। इसका कारण मानी जाती हैं वसुंधरा राजे, जिन्होंने महिलाओं के लिए सीएम रहते काम किए थे। उनका रक्षा सूत्र कार्यक्रम काफी लोकप्रिय हुआ था। फिलहाल बीजेपी की कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश में जो हार हुई है, उसका कारण महिला वोटरों का छिटकना माना जा रहा है। राजस्थान में महिलाओं के वोट पुरुषों के मुकाबले बीजेपी के खाते में जाते रहे हैं। 2013 और 18 के आंकड़े कुछ ऐसा ही दिखाते हैं। कांग्रेस पर बीजेपी महिला विरोधी होने के आरोप लगाती रही हैं। अगर वसुंधरा की अनदेखी होती है, तो माइलेज कांग्रेस को मिल सकती है।
एक साथ तीनों जातियों को साधतीं हैं वसुंधरा
वसुंधरा खुद को राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन कह तीनों जातियों को साधती रही हैं। उनके बेटे ने गुर्जर जाति में विवाह किया है। जिनकी समधन होने की बात कहती हैं। गुर्जरों के वोट अधिकतर बीजेपी और प्रतिस्पर्धा में मीणा के वोट कांग्रेस को जाते रहे हैं। वसुंधरा गुर्जरों से रोटी-बेटी का रिश्ता बता पार्टी के लिए वोट जुटाती रही हैं। अगर वसुंधरा नाराज होती हैं, तो ये वोट कांग्रेस को जा सकते हैं। वहीं, कांग्रेस में गुर्जर नेता सचिन पायलट भी लगातार कांग्रेस के लिए जोर लगा रहे हैं। ऐसे में उनको फायदा मिल सकता है। वहीं, मीणा की अगर बात करें, तो ये लगभग 50 सीटों पर निर्णायक हैं। वसुंधरा खुद जाट जाति में विवाहित हैं। जाट जागीरदारी प्रथा खत्म करने और भू अधिकार मिलने के बाद से कांग्रेस के वोटर माने जाते हैं। जाट लगभग 15 फीसदी विधायक तय करते हैं। 60 सीटों पर निर्णायक की भूमिका में हैं। लेकिन वाजपेयी सरकार में इनको ओबीसी में शामिल किया गया था। 1998 में कांग्रेस ने भी जाट नेता को सीएम नहीं चुना। माना जा रहा है कि इसके बाद से ये लोग वसुंधरा के पीछे वोट देने लगे हैं। वसुंधरा की नाराजगी का कांग्रेस को फायदा मिल सकता है।
वसुंधरा का 20 से 25 सीटों पर सीधा असर
वसुंधरा राजे का संगठन पर तगड़ा प्रभाव है। हर सीट पर उनके वोटर हैं। वे बीजेपी की लाइन से हटकर भी प्रदेश का दौरा समय-समय पर करती रही हैं। विशेषज्ञ मानते हैं कि वसुंधरा लगभग 20 से 25 सीटों पर सीधे तौर पर पार्टी को फायदा या नुकसान पहुंचा सकती हैं। उनके इशारे पर पार्टी के खिलाफ समर्थक चुनाव लड़ सकते हैं। जिससे बीजेपी का वोट बंट सकता है और फायदा कांग्रेस को मिल सकता है। ऐसे में वसुंधरा को पार्टी पूरी तरह से अलग-थलग करना भाजपा के लिए घातक साबित हो सकता है।
Oct 04 2023, 16:33