वर्तमान समय में आवश्यक है कि कुलपतियों के चयन के मापदंड बदलें कल्याण सिंह शोध छात्र
“उच्च शैक्षणिक संस्थानों में कुलपति चयन के मापदंड अतीत और वर्तमान समय” समाज तब असली संकट में पड़ जाता हैं जब समाज का मार्गदर्शन एंव उसका नेतृत्व करने वाले लोगों के अंदर सामाजिकता, नैतिकता तथा चरित्र का ह्रास होने लगता है फिर वही समाज अपने मूल उद्देश्यों एंव कर्तव्यों से विमुख होकर गलत रास्ते की तरफ गतिमान हो चलता हैं यह हो भी क्यों नहीं क्योंकि समाज में अंतर्गत ही सभ्यता और साहित्य दोनों अंतर्निहित होता है । समाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक तथा राजनीतिक जीवन में चरित्र की पवित्रता तथा नैतिक मूल्यों से युक्त आचरण, कार्यशैली तथा जीवन पद्धति इंसान की मापक कसौटिया होती है, जिससे समाज आपका मूल्यांकन करता है । सामान्यतः चरित्र गढ़ने, नैतिक मूल्यों का निर्माण करने तथा सदाचार का पाठ पढ़ाने की मुख्यरूप से दो पाठशालाऍ होती है । पहला परिवार तथा दूसरा शिक्षा जगत का कर्णधार शिक्षक । वर्तमान दौर के बदलते परिदृश्य में आज दोनों जगह कैसा माहौल है ? इसकी सच्चाई अपने आप खुद बयां हो रही है ? परिवार आज संस्कारविहीन मोबाईल, टीवी, सोशल मीडिया में आत्मलिप्त है ? पर अपवाद भी जरूर है ? पर मुख्यधारा में अधिकांश परिवेश वैसा ही प्रतीत हो रहा है ? शिक्षा का बाजारीकरण तथा राजनीतिकरण आज के परिवेश में आम बात हो चली है ? पर भी अपवाद है ? आमतौर पर जब आजादी के बाद देश के अंदर गरीबी का आलम था अनपढ़ लोगों की भारी तादाद भी, शिक्षा के उच्च संस्थान गिने – चुने थे, सूचना एंव प्रौद्योगिक का दौर नहीं था परंतु फिर भी परिवार तथा शिक्षा जगत में उस दौर में पढे – लिखे लोगों का सम्मान आज के दौर के लोगों से ज्यादा थी कारण ? नैतिक मूल्य तथा उच्च आदर्श एंव पवित्रता थी ? आज भी है परंतु अपवाद स्वरूप ? शिक्षा जगत का अध्यापक तथा शिक्षा प्रणाली ही समाज और उसके नागरिकों का मार्गदर्शन करती थी तथा आमतौर पर उस दौर में शिक्षाविद ही कुलपति बनते थे ? परिवार के बाद शिक्षक ही समाज तथा राष्ट्र के नागरिकों के चरित्र को गढ़ने का कार्य करते है ? वैसे ही जैसे मिट्टी का बर्तन बनाने वाला कुम्हार मिट्टी के स्वरूप को ढालकर एक सुंदर आकार का रूप देता है । आज जिस तरीके से उच्च शिक्षा में भ्रस्टाचार उजागर हो रहे है उस से यह बात स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रही है तथा यह कहना कोई अतिश्योक्ति नही होगी कि संस्थानों के अंदर राजनीतिक हस्तक्षेप आज कही ज्यादा बढ़ गया है जिसके आगे विद्वता तथा योग्यता की कसौटिया बौनी प्रतीत हो रही है । यह अत्यंत ही चिंताजनक स्थिति है ? हा अपवाद स्वरूप भी हैं परंतु बहुतायत यही स्थिति है । पुरातन कालखंड में कुलपति चयन के लिए समय – समय पर विभिन्न सर्च कमेटियों तथा आयोगों का गठन करके उनकी चयन प्रक्रिया को मूर्त रूप दिया जाता रहा है । देश के अंदर राधाकृषणन आयोग (1948), कोठारी आयोग (1964-66, ज्ञानम समिति (1990 ) तथा रामलाल पारिख समिति (1993) का गठन किया गया तथा उसकी सिफ़ारिसे सरकार को प्रस्तुत की गई । दशकों पहले देश के अंदर कुलपति चयन के लिए राष्ट्रीय ज्ञान आयोग तथा यशपाल कमेटी का गठन किया गया था जिसकी अंतरिम रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आए थे कि देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में वही शिक्षाविद कुलपति बनने की अहर्ता रखते हैं नाम राष्ट्रीय रजिस्ट्री में अंकित हो ! यह राष्ट्रीय रजिस्ट्री उच्चतर शिक्षा के राष्ट्रीय आयोग के पास होगी । कुलपति चयन के लिए हर खाली पदों के लिए पाँच नामों की सिफारिश होगी । सन 1964 में कोठारी आयोग का जब गठन किया गया था तब इस आयोग कि यह सिफारिस थी कि देश के अंदर जाने- माने विद्वान एंव उत्कृष्ठ शिक्षाविद ही कुलपति होंगे । आजादी के बाद देश के अंदर सामाज के प्रति गहरी समझ रखने वाले शिक्षाविद कुलपति बने ? परंतु आज कुलपति का पद एंव उसकी चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप इस कदर हावी हो गया है कि चयन के बाद उसके परिणाम वित्तीय अनियमिता, नियुक्तियों में भ्रस्टाचार करने की संलिप्तता तक में नाम उजागर हो रहे है यह अत्यंत ही चिंताजनक स्थिति है । पर अपवाद जरूर है ? देश के अंदर महान शिक्षाविद सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ हरि सिंह, सर सुंदरलाल, महामना पंडित मदन मोहन मालवीय, महान समाजवादी संत आचार्य नरेंद्र देव जैसे तपे – तपाये संत ऋषि कुलपति हुए जिन्होंने छात्रहित एंव राष्ट्रहित को प्रथम एंव सर्वोपरि रखकर आजीवन सेवा की भांति कार्य किया जिनके योगदानों को समाज हमेशा उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करता है । आचार्य नरेंद्र देव जब सन 1952 में लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति थे तब उन्होंने छात्रों के लिए रहने की समस्या पर अपना सरकारी आवास छात्रावास में तब्दील कराकर खुद किराये के मकान में रहने लगे थे तथा 150 रुपये मासिक वेतन लेते थे जिससे किसी भी तरह खुद का जीवन निर्वाह हो सके ऐसे थी हमारे देश में कुलपति परंपरा । शायद यही वजह है कि आज ऐसे विभूतियों के नाम इतिहास के पन्नों में हमेशा स्वर्ण अक्षरों की तरह दैय दीप्तिमान है जिसकी आभामण्डल से पूरा शिक्षा जगत आज भी आलोकित है । परंतु आज उच्च शिक्षा जगत में जब समाचार पत्रों के माध्यम से यह खबरे सामने आती है कि उच्च शिक्षा के विभिन्न राज्यों के विभिन्न विश्वविद्यालयों में अमुक कुलपति तथा विश्वविद्यालय प्रशासन भर्ती प्रक्रिया में जांच एंव आरोपों के घेरे में हैं तथा आरोप सिद्ध हुए तब यह स्थिति भयावह हो जाती है तथा शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त भ्रस्टाचार की कलई खुल कर सामने उभर आती है । आज भारत के विभिन्न राज्यों के विभिन्न विश्वविद्यालयों के अंदर अराजकता का माहौल स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है कारण विश्वविद्यालय प्रशासन की संवाद शैली का घोर आभाव ? सर्वविद्या की राजधानी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, पूरब का आक्सफोर्ड कहा जाने वाला केन्द्रीय विश्वविद्यालय प्रयागराज, गोरखपुर विश्वविद्यालय, सहित अन्य विश्वविद्यालयों के अंदर जिस तरीके से घटनाए उभर कर आई है उससे यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि समस्याओ के उन्मूलन हेतु संवाद शैली की घोर उदासीनता है । वर्तमान दौर में सादगी एंव ईमानदारी की साक्षात प्रतिमूर्ति देश के मूर्धन्य दलहन वैज्ञानिक प्रोफेसर नरेंद्र प्रताप सिंह का नाम भी अत्यंत प्रासंगिक है जिन्होंने बांदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय में कुलपति रहते हुए बड़े पैमाने की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी तरीके से अंजाम दिया था । भारतीय ज्ञान परंपरा में गुरुकुल के प्रधान आचार्य को कुलपति कि संज्ञा से विभूषित किया गया जिसके क्रम में कालिदास ने अपने गुरु वशिष्ठ तथा कण्व ऋषि को कुलपति कि संज्ञा दी थी । विश्वविद्यालय एक कार्यशाला होती जहाँ नए विचार अंकुरित होते हैं, जड़ें जमाते हैं और ऊँचे और मज़बूत होते हैं । यह एक अनूठी जगह है, जो ज्ञान के पूरे ब्रह्मांड को समेटे हुए है । जहाँ रचनात्मक दिमाग एक साथ आते हैं, एक-दूसरे से बातचीत करते हैं और नई वास्तविकताओं के दर्शन का निर्माण करते हैं । ज्ञान की खोज में सत्य की स्थापित धारणाओं को चुनौती दी जाती है । इमर्सन ने कहा है, चरित्रवान लोग समाज की अंतरात्मा हैं। चरित्र खत्म तो मुल्क-सभ्यताएं खत्म। चरित्र ही मुल्कों का इतिहास लिखा करते हैं। जब विश्वविद्यालयों में सरस्वती के उपासक आपराधिक कामों में लीन होंगे, तो उस मुल्क का भविष्य क्या होगा? आवश्यक है कि कुलपतियों के चयन के मापदंड बदलें अब सख्त तथा बदलने चाहिए ?
लेखक: कल्याण सिंह
शोध छात्र बांदा कृषि एंव प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, बांदा / स्वतंत्र स्तंभकार
Jun 29 2025, 19:20