. विद्यासागर उपाध्याय : दो नये महाग्रंथों के साथ 20 दार्शनिक कृतियों का दिव्य शिखर
संजीव सिंह बलिया|भारतीय बौद्धिक–परंपरा में समय–समय पर ऐसे मनीषी अवतरित होते रहे हैं, जिनकी सोच केवल अपने युग को नहीं, आने वाली सहस्राब्दियों को दिशा देती है। समकालीन भारत में ऐसा ही एक तेजस्वी नाम है—डॉ. विद्यासागर उपाध्याय, जिनके द्वारा लिखित 20 महत्वपूर्ण ग्रंथ भारतीय दर्शन, समाज–चिंतन और राष्ट्रीय विमर्श के क्षेत्र में अमूल्य योगदान हैं। भारतीय ज्ञानपरंपरा के आकाश में यह तारा अत्यन्त उज्ज्वल हो उठा है, जिसे समकालीन युग “विद्या–सरस्वती का जीवंत पुरुष विस्तार” कहकर श्रद्धा प्रकट करता है। डॉ. उपाध्याय के ग्रंथों की विलक्षणता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अनेक कृतियाँ 800 पृष्ठों के ज्ञान-हिमालय की तरह खड़ी हैं, जबकि अन्य 300 पृष्ठों में भी “गागर में सागर” भर देती हैं। कई ग्रंथों के मूल्य 1000 रुपये से अधिक होने पर भी पाठकों का अटूट अनुराग, उनकी लेखनी की स्वर्ण-तुल्य गुणवत्ता का प्रमाण है। उनके 100 से अधिक शोध-आलेख देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। भारतवर्ष के समस्त प्रान्त व अनेक अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक संस्थान उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करते रहे हैं। उनकी ओजस्वी वाणी, व्यापक दृष्टि और विश्लेषण की तीक्ष्णता श्रोताओं पर अमिट छाप छोड़ती है। अब तक उन्हें सैकड़ों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान/उपाधि प्राप्त हैं—जो उनकी प्रज्ञा, तपस्या और दार्शनिक ऊँचाई का प्रमाण है। मात्र 39 वर्ष की आयु में 20 दार्शनिक ग्रंथों का विरल शिखर स्पर्श करने वाले, अंतरराष्ट्रीय वक्ता, मौलिक चिंतक, प्रसिद्ध शिक्षाविद् और शोध-प्रज्ञा के आलोक–पुंज डॉ. विद्यासागर उपाध्याय ने वर्तमान में बौद्धिक-जगत को दो महत् वैचारिक नवीन ग्रंथ सौंपकर आधुनिक भारतीय विमर्श को नए आयाम प्रदान किए हैं। नवप्रकाशित दोनो महाग्रंथ— “सत्य कौन? तिलक अथवा आम्बेडकर! : विलुप्त प्रज्ञा का महाकोष”। और “लॉर्ड मैकाले : नायक अथवा खलनायक?” — पहुँचते ही विद्वत्-समाज में गहन बहस, विचार-मंथन और दार्शनिक पुनर्पाठ का सृजन कर चुके हैं। यह दोनों कृतियाँ ऐसी हैं, मानो भारतीय चिंतनभूमि के लिए दो दीप्तिमान वैचारिक यज्ञाहुतियाँ प्रस्तुत हो गई हों। प्रस्तुत निबंध में मैं इन दोनों ग्रंथों के गहन अध्ययन के आधार पर डॉ. उपाध्याय की शोध–दृष्टि, वैचारिक प्रस्तुति, तर्कप्रणाली और उनके विचार–लोक की व्यापकता का समीक्षात्मक विश्लेषण कर रही हूँ। 1. डॉ. विद्यासागर उपाध्याय : परंपरा और आधुनिकता के अद्वितीय सेतु - अध्ययन के दौरान यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आता है कि डॉ. उपाध्याय न तो परंपरा के अंध–समर्थक हैं और न ही आधुनिकता के अंध–अनुयायी। उनकी लेखनी में परंपरा की आत्मा और आधुनिकता की वैज्ञानिक दृष्टि दोनों साथ–साथ चलती हैं। ऐसे लेखक आज विरले हैं जो प्राचीन भारतीय ग्रंथों—उपनिषदों, धर्मशास्त्रों, न्याय–मीमांसा—की तर्क–शक्ति को आधुनिक राजनीतिक–समाजशास्त्रीय विमर्श के साथ जोड़कर प्रस्तुत करते हों। डॉ. उपाध्याय का यह समन्वय–बोध स्वयं में एक उपलब्धि है। 2. “लॉर्ड मैकाले : नायक अथवा खलनायक?”—इतिहास पर पुनर्विचार का आह्वान - यह एक ऐसी साहसिक बौद्धिक शल्य-क्रिया है, जिसने आधुनिक भारत की शिक्षा-नीति, सांस्कृतिक चेतना और मानसिक रूपांतरण की जटिल परतों को निर्भीकता से उघाड़ दिया है। ग्रंथ में मैकाले की नीतियों के भारतीय मन, सामाजिक ढाँचे और सांस्कृतिक अस्मिता पर पड़े दीर्घकालीन घावों का सुसंगत, निष्पक्ष और अत्यंत मौलिक पुनर्मूल्यांकन किया गया है। लेखक केवल आलोचना नहीं करते, बल्कि उबरने का मार्ग भी प्रदान करते हैं—जो इस कृति की सर्वाधिक विशिष्टता है। वर्तमान भारत में हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान प्रो. (डॉ.) पुनीत बिसारिया, अधिष्ठाता कला संकाय एवं विभागाध्यक्ष (हिन्दी), बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, इसे “सांस्कृतिक पुनरुत्थान का घोषणापत्र” बताते हुए लिखते हैं कि "डॉ. उपाध्याय की लेखनी इतिहास को केवल तिथियों का दस्तावेज़ नहीं रहने देती, बल्कि भारतीय आत्मा की जीवित आवाज़ बना देती है। न अंधभक्ति, न अंधघृणा—बल्कि संतुलन, तर्क, और भावनात्मक पारदर्शिता—इस कृति को अद्वितीय बनाती है।"इस ग्रंथ का मूल उद्देश्य किसी व्यक्तिविशेष का महिमागान अथवा निंदा करना नहीं, बल्कि मैकाले की शिक्षा–नीति के माध्यम से भारतीय मानसिकता के औपनिवेशिक पुनर्गठन का विश्लेषण करना है। डॉ. उपाध्याय ने यहाँ मात्र इतिहास नहीं बताया; अपितु उन्होंने इतिहास का तर्कसंगत पुनर्पाठ प्रस्तुत किया है। उनका प्रश्न— “क्या अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीय मन को स्वतंत्र बनाया या परतंत्र?” आज भी प्रासंगिक है। यह पुस्तक न केवल शोधार्थियों के लिए उपयोगी है, बल्कि उन बुद्धिजीवियों के लिए भी अत्यंत आवश्यक है, जो भारतीय शिक्षा–दर्शन की पुनर्स्थापना में रुचि रखते हैं। 3. “सत्य कौन? तिलक अथवा आम्बेडकर!”— विलुप्त प्रज्ञा का वास्तव में महाकोष - यह ग्रंथ आधुनिक भारतीय मनीषा के दो महान विचारकों—लोकमान्य तिलक और डॉ. आम्बेडकर—के विचारों का गहन तुलनात्मक विश्लेषण तो है ही; परंतु इसका वास्तविक वैभव यह है कि इसमें विश्व के चालीस महान दार्शनिकों के दृष्टिकोणों का अद्भुत समन्वय उपस्थित है। बौद्ध दिग्नाग, जैन अकलंकदेव, वेदांती विद्यारण्य, महर्षि रमण, अरविन्द, हेगेल, मेकियावली, एक्विनास, ओशो, स्वामी करपात्री, शोज, फिरदौसी, टैगोर, गाँधी तथा अनगिनत दार्शनिक धाराएँ—सब एक ही वैचारिक पट पर ऐसे संलयित होती हैं, जैसे अनेक पवित्र सरिताएँ अंततः एक ही महासागर में विलीन होती हों। इस वैचारिक महाकोष की मंगल-शुभाशंसा करते हुए आयरलैंड में भारत के राजदूत एवं दर्शन शास्त्र के शीर्ष विद्वान् आई.एफ.एस. डॉ. अखिलेश मिश्र लिखते हैं कि - यह कृति भारतीय ज्ञान-परंपरा के “सत्य–अन्वेषण की अनन्त यात्रा” का अद्भुत दस्तावेज है, जो इन्द्रियातीत सत्ता, आत्मबोध और विश्वमानवता के विराट भाव को पुनर्जीवित करती है। वहीं नेपाल के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्यावाचस्पति अजय कुमार झा इसे “विलुप्त प्रज्ञा के पुनरुत्थान का महाग्रंथ” बताते हुए लिखते हैं कि यहाँ झ्वांग-त्ज़ु, बर्द्यायेव, गुरुदास, माइमोनीडीज़, कबीर, रामतीर्थ, पतंजलि और वाचस्पति—सभी के विचार एक ही विश्वदर्शी चेतना में एकाकार हो जाते हैं। यह ग्रंथ डॉ. उपाध्याय की विद्वत्ता का अद्भुत और तेजोमय उदाहरण है जहां उन्होंने तिलक और आम्बेडकर के साथ ही चालीस चिन्तनधाराओं का दार्शनिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक तर्कों का गहन तुलनात्मक विश्लेषण करके गागर में सागर भर दिया है। ऐसा दुर्लभ वैचारिक साहस और व्यापक अध्ययन आज के लेखक–जगत में बहुत कम देखने को मिलता है। ग्रंथ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि लेखक न तो किसी विचारक का चयनित समर्थन करते हैं, और न ही किसी का पक्षपातपूर्ण खंडन; वे केवल यह पूछते हैं— “सत्य किसके पास है?” यही प्रश्न और उसका प्रामाणिक उत्तर पाठक को विचार–यात्रा पर ले जाता है। 4. शोध–दृष्टि और प्रस्तुति : स्पष्टता, निर्भीकता और तर्क–समृद्धि का समन्वय - डॉ. उपाध्याय की सबसे बड़ी विशेषता है बौद्धिक निर्भीकता। वे जटिल विषयों को सरल बनाकर प्रस्तुत करते हैं, परन्तु सरलता में उथलापन नहीं आने देते। उनके ग्रंथ संदर्भ–समृद्ध, तथ्य–संगत, प्रमाण–निष्ठ और दार्शनिक गहराई से पूर्ण हैं। वाक्य–बंध में साहित्यिक माधुर्य है और तर्क में ऐसी कठोरता जो पाठक को हर पंक्ति पर चिंतन करने को बाध्य करती है। 5. भारतीय चिंतन–जगत में उनका स्थान - समग्रता में देखा जाए तो डॉ. उपाध्याय उन दुर्लभ लेखकों में हैं जो न केवल इतिहास को पुनर्पाठित करते हैं, बल्कि आने वाले कालखंड के लिए विचार–ईंधन भी प्रदान करते हैं। उनके 20 ग्रंथ — दर्शन, समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य— हर क्षेत्र में नवीन दृष्टि का उद्घाटन करते हैं। उनकी लेखनी में ज्ञान की प्रखरता, अध्ययन की व्यापकता, और राष्ट्र–चिंतन की गरिमा स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित होती है। एक अध्येता होने के नाते मैं यह निस्संकोच कह सकती हूँ कि डॉ. विद्यासागर उपाध्याय आज के भारतीय चिंतन–जगत के सबसे प्रभावशाली, सबसे साहसी और सबसे अधिक मौलिक लेखकों में से एक हैं। उनकी नवीनतम कृतियाँ केवल पुस्तकें नहीं— वे विमर्श का आमंत्रण, चिंतन का आलोक, और राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्मृति हैं। ज्ञान–क्षेत्र में ऐसे तेजस्वी प्रतिभाशाली लेखक का होना भारतीय बौद्धिक परंपरा के लिए एक अत्यंत शुभ संकेत है। दोनों महाग्रंथों के प्रकाशन के साथ यह तथ्य पुनः प्रतिष्ठित हो गया कि डॉ. विद्यासागर उपाध्याय केवल लेखक नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान–परंपरा के जीवंत प्रतिनिधि, मौलिक शोध के अग्रदूत और आधुनिक वैचारिक जगत् के धैर्यवान तपस्वी हैं। उनकी कृतियाँ केवल पठन का विषय नहीं—बल्कि सतत् मनन, विमर्श और आत्मबोध के शाश्वत निमंत्रण हैं। समकालीन भारतीय दर्शन को इन ग्रंथों ने नई ऊँचाई, नई दृष्टि और नया गौरव प्रदान किया है। यह ग्रंथ निस्संदेह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमर वैचारिक दीपस्तम्भ सिद्ध होंगे। समीक्षक डॉ. मणिकर्णिका (NET, JRF, SRF, Ph.D)

भारतीय बौद्धिक–परंपरा में समय–समय पर ऐसे मनीषी अवतरित होते रहे हैं, जिनकी सोच केवल अपने युग को नहीं, आने वाली सहस्राब्दियों को दिशा देती है। समकालीन भारत में ऐसा ही एक तेजस्वी नाम है—डॉ. विद्यासागर उपाध्याय, जिनके द्वारा लिखित 20 महत्वपूर्ण ग्रंथ भारतीय दर्शन, समाज–चिंतन और राष्ट्रीय विमर्श के क्षेत्र में अमूल्य योगदान हैं। भारतीय ज्ञानपरंपरा के आकाश में यह तारा अत्यन्त उज्ज्वल हो उठा है, जिसे समकालीन युग “विद्या–सरस्वती का जीवंत पुरुष विस्तार” कहकर श्रद्धा प्रकट करता है। डॉ. उपाध्याय के ग्रंथों की विलक्षणता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि अनेक कृतियाँ 800 पृष्ठों के ज्ञान-हिमालय की तरह खड़ी हैं, जबकि अन्य 300 पृष्ठों में भी “गागर में सागर” भर देती हैं। कई ग्रंथों के मूल्य 1000 रुपये से अधिक होने पर भी पाठकों का अटूट अनुराग, उनकी लेखनी की स्वर्ण-तुल्य गुणवत्ता का प्रमाण है। उनके 100 से अधिक शोध-आलेख देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। भारतवर्ष के समस्त प्रान्त व अनेक अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक संस्थान उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित करते रहे हैं। उनकी ओजस्वी वाणी, व्यापक दृष्टि और विश्लेषण की तीक्ष्णता श्रोताओं पर अमिट छाप छोड़ती है। अब तक उन्हें सैकड़ों राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान/उपाधि प्राप्त हैं—जो उनकी प्रज्ञा, तपस्या और दार्शनिक ऊँचाई का प्रमाण है। मात्र 39 वर्ष की आयु में 20 दार्शनिक ग्रंथों का विरल शिखर स्पर्श करने वाले, अंतरराष्ट्रीय वक्ता, मौलिक चिंतक, प्रसिद्ध शिक्षाविद् और शोध-प्रज्ञा के आलोक–पुंज डॉ. विद्यासागर उपाध्याय ने वर्तमान में बौद्धिक-जगत को दो महत् वैचारिक नवीन ग्रंथ सौंपकर आधुनिक भारतीय विमर्श को नए आयाम प्रदान किए हैं। नवप्रकाशित दोनो महाग्रंथ— “सत्य कौन? तिलक अथवा आम्बेडकर! : विलुप्त प्रज्ञा का महाकोष”। और “लॉर्ड मैकाले : नायक अथवा खलनायक?” — पहुँचते ही विद्वत्-समाज में गहन बहस, विचार-मंथन और दार्शनिक पुनर्पाठ का सृजन कर चुके हैं। यह दोनों कृतियाँ ऐसी हैं, मानो भारतीय चिंतनभूमि के लिए दो दीप्तिमान वैचारिक यज्ञाहुतियाँ प्रस्तुत हो गई हों। प्रस्तुत निबंध में मैं इन दोनों ग्रंथों के गहन अध्ययन के आधार पर डॉ. उपाध्याय की शोध–दृष्टि, वैचारिक प्रस्तुति, तर्कप्रणाली और उनके विचार–लोक की व्यापकता का समीक्षात्मक विश्लेषण कर रही हूँ। 1. डॉ. विद्यासागर उपाध्याय : परंपरा और आधुनिकता के अद्वितीय सेतु - अध्ययन के दौरान यह तथ्य स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आता है कि डॉ. उपाध्याय न तो परंपरा के अंध–समर्थक हैं और न ही आधुनिकता के अंध–अनुयायी। उनकी लेखनी में परंपरा की आत्मा और आधुनिकता की वैज्ञानिक दृष्टि दोनों साथ–साथ चलती हैं। ऐसे लेखक आज विरले हैं जो प्राचीन भारतीय ग्रंथों—उपनिषदों, धर्मशास्त्रों, न्याय–मीमांसा—की तर्क–शक्ति को आधुनिक राजनीतिक–समाजशास्त्रीय विमर्श के साथ जोड़कर प्रस्तुत करते हों। डॉ. उपाध्याय का यह समन्वय–बोध स्वयं में एक उपलब्धि है। 2. “लॉर्ड मैकाले : नायक अथवा खलनायक?”—इतिहास पर पुनर्विचार का आह्वान - यह एक ऐसी साहसिक बौद्धिक शल्य-क्रिया है, जिसने आधुनिक भारत की शिक्षा-नीति, सांस्कृतिक चेतना और मानसिक रूपांतरण की जटिल परतों को निर्भीकता से उघाड़ दिया है। ग्रंथ में मैकाले की नीतियों के भारतीय मन, सामाजिक ढाँचे और सांस्कृतिक अस्मिता पर पड़े दीर्घकालीन घावों का सुसंगत, निष्पक्ष और अत्यंत मौलिक पुनर्मूल्यांकन किया गया है। लेखक केवल आलोचना नहीं करते, बल्कि उबरने का मार्ग भी प्रदान करते हैं—जो इस कृति की सर्वाधिक विशिष्टता है। वर्तमान भारत में हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान प्रो. (डॉ.) पुनीत बिसारिया, अधिष्ठाता कला संकाय एवं विभागाध्यक्ष (हिन्दी), बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय, इसे “सांस्कृतिक पुनरुत्थान का घोषणापत्र” बताते हुए लिखते हैं कि "डॉ. उपाध्याय की लेखनी इतिहास को केवल तिथियों का दस्तावेज़ नहीं रहने देती, बल्कि भारतीय आत्मा की जीवित आवाज़ बना देती है। न अंधभक्ति, न अंधघृणा—बल्कि संतुलन, तर्क, और भावनात्मक पारदर्शिता—इस कृति को अद्वितीय बनाती है।"इस ग्रंथ का मूल उद्देश्य किसी व्यक्तिविशेष का महिमागान अथवा निंदा करना नहीं, बल्कि मैकाले की शिक्षा–नीति के माध्यम से भारतीय मानसिकता के औपनिवेशिक पुनर्गठन का विश्लेषण करना है। डॉ. उपाध्याय ने यहाँ मात्र इतिहास नहीं बताया; अपितु उन्होंने इतिहास का तर्कसंगत पुनर्पाठ प्रस्तुत किया है। उनका प्रश्न— “क्या अंग्रेज़ी शिक्षा ने भारतीय मन को स्वतंत्र बनाया या परतंत्र?” आज भी प्रासंगिक है। यह पुस्तक न केवल शोधार्थियों के लिए उपयोगी है, बल्कि उन बुद्धिजीवियों के लिए भी अत्यंत आवश्यक है, जो भारतीय शिक्षा–दर्शन की पुनर्स्थापना में रुचि रखते हैं। 3. “सत्य कौन? तिलक अथवा आम्बेडकर!”— विलुप्त प्रज्ञा का वास्तव में महाकोष - यह ग्रंथ आधुनिक भारतीय मनीषा के दो महान विचारकों—लोकमान्य तिलक और डॉ. आम्बेडकर—के विचारों का गहन तुलनात्मक विश्लेषण तो है ही; परंतु इसका वास्तविक वैभव यह है कि इसमें विश्व के चालीस महान दार्शनिकों के दृष्टिकोणों का अद्भुत समन्वय उपस्थित है। बौद्ध दिग्नाग, जैन अकलंकदेव, वेदांती विद्यारण्य, महर्षि रमण, अरविन्द, हेगेल, मेकियावली, एक्विनास, ओशो, स्वामी करपात्री, शोज, फिरदौसी, टैगोर, गाँधी तथा अनगिनत दार्शनिक धाराएँ—सब एक ही वैचारिक पट पर ऐसे संलयित होती हैं, जैसे अनेक पवित्र सरिताएँ अंततः एक ही महासागर में विलीन होती हों। इस वैचारिक महाकोष की मंगल-शुभाशंसा करते हुए आयरलैंड में भारत के राजदूत एवं दर्शन शास्त्र के शीर्ष विद्वान् आई.एफ.एस. डॉ. अखिलेश मिश्र लिखते हैं कि - यह कृति भारतीय ज्ञान-परंपरा के “सत्य–अन्वेषण की अनन्त यात्रा” का अद्भुत दस्तावेज है, जो इन्द्रियातीत सत्ता, आत्मबोध और विश्वमानवता के विराट भाव को पुनर्जीवित करती है। वहीं नेपाल के प्रसिद्ध दार्शनिक विद्यावाचस्पति अजय कुमार झा इसे “विलुप्त प्रज्ञा के पुनरुत्थान का महाग्रंथ” बताते हुए लिखते हैं कि यहाँ झ्वांग-त्ज़ु, बर्द्यायेव, गुरुदास, माइमोनीडीज़, कबीर, रामतीर्थ, पतंजलि और वाचस्पति—सभी के विचार एक ही विश्वदर्शी चेतना में एकाकार हो जाते हैं। यह ग्रंथ डॉ. उपाध्याय की विद्वत्ता का अद्भुत और तेजोमय उदाहरण है जहां उन्होंने तिलक और आम्बेडकर के साथ ही चालीस चिन्तनधाराओं का दार्शनिक, सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक तर्कों का गहन तुलनात्मक विश्लेषण करके गागर में सागर भर दिया है। ऐसा दुर्लभ वैचारिक साहस और व्यापक अध्ययन आज के लेखक–जगत में बहुत कम देखने को मिलता है। ग्रंथ की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि लेखक न तो किसी विचारक का चयनित समर्थन करते हैं, और न ही किसी का पक्षपातपूर्ण खंडन; वे केवल यह पूछते हैं— “सत्य किसके पास है?” यही प्रश्न और उसका प्रामाणिक उत्तर पाठक को विचार–यात्रा पर ले जाता है। 4. शोध–दृष्टि और प्रस्तुति : स्पष्टता, निर्भीकता और तर्क–समृद्धि का समन्वय - डॉ. उपाध्याय की सबसे बड़ी विशेषता है बौद्धिक निर्भीकता। वे जटिल विषयों को सरल बनाकर प्रस्तुत करते हैं, परन्तु सरलता में उथलापन नहीं आने देते। उनके ग्रंथ संदर्भ–समृद्ध, तथ्य–संगत, प्रमाण–निष्ठ और दार्शनिक गहराई से पूर्ण हैं। वाक्य–बंध में साहित्यिक माधुर्य है और तर्क में ऐसी कठोरता जो पाठक को हर पंक्ति पर चिंतन करने को बाध्य करती है। 5. भारतीय चिंतन–जगत में उनका स्थान - समग्रता में देखा जाए तो डॉ. उपाध्याय उन दुर्लभ लेखकों में हैं जो न केवल इतिहास को पुनर्पाठित करते हैं, बल्कि आने वाले कालखंड के लिए विचार–ईंधन भी प्रदान करते हैं। उनके 20 ग्रंथ — दर्शन, समाज, राजनीति, इतिहास, साहित्य— हर क्षेत्र में नवीन दृष्टि का उद्घाटन करते हैं। उनकी लेखनी में ज्ञान की प्रखरता, अध्ययन की व्यापकता, और राष्ट्र–चिंतन की गरिमा स्पष्ट रूप से प्रतिध्वनित होती है। एक अध्येता होने के नाते मैं यह निस्संकोच कह सकती हूँ कि डॉ. विद्यासागर उपाध्याय आज के भारतीय चिंतन–जगत के सबसे प्रभावशाली, सबसे साहसी और सबसे अधिक मौलिक लेखकों में से एक हैं। उनकी नवीनतम कृतियाँ केवल पुस्तकें नहीं— वे विमर्श का आमंत्रण, चिंतन का आलोक, और राष्ट्रीय स्वाभिमान की पुनर्स्मृति हैं। ज्ञान–क्षेत्र में ऐसे तेजस्वी प्रतिभाशाली लेखक का होना भारतीय बौद्धिक परंपरा के लिए एक अत्यंत शुभ संकेत है। दोनों महाग्रंथों के प्रकाशन के साथ यह तथ्य पुनः प्रतिष्ठित हो गया कि डॉ. विद्यासागर उपाध्याय केवल लेखक नहीं, बल्कि भारतीय ज्ञान–परंपरा के जीवंत प्रतिनिधि, मौलिक शोध के अग्रदूत और आधुनिक वैचारिक जगत् के धैर्यवान तपस्वी हैं। उनकी कृतियाँ केवल पठन का विषय नहीं—बल्कि सतत् मनन, विमर्श और आत्मबोध के शाश्वत निमंत्रण हैं। समकालीन भारतीय दर्शन को इन ग्रंथों ने नई ऊँचाई, नई दृष्टि और नया गौरव प्रदान किया है। यह ग्रंथ निस्संदेह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमर वैचारिक दीपस्तम्भ सिद्ध होंगे। समीक्षक डॉ. मणिकर्णिका (NET, JRF, SRF, Ph.D)











लखनऊ । एंथ्रोलॉजी विभाग, शिया पी.जी. कॉलेज लखनऊ एवं ह्यूमेन फाउंडेशन के संयुक्त तत्वावधान में 18 नवम्बर 2025 को स्वैच्छिक रक्तदान शिविर का सफल आयोजन किया गया। शिविर में युवाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, जहां 60 से अधिक प्रतिभागियों ने रजिस्ट्रेशन कराया और 35 रक्तदाताओं ने स्वैच्छिक रक्तदान किया।
लखनऊ । राजधानी में खुदकुशी करने वाले आये दिन लखनऊ पहुंच रहे है। बुधवार को मथुरा से पहुंचे मां और बेटे ने पर्यटन मंत्री आवास के पास आत्महत्या करने की कोशिश की। इससे मौके पर हड़कंप मच गया। चूंकि दोनों जहर खाने के बाद सड़क पर तड़प रहे थे। यह देखकर वहां पर तैनात सुरक्षा कर्मियों व राहगीरों के होश उड़ गए और फौरन पुलिस को सूचित किया।
36 min ago
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