अपनी ही मिट्टी में क्यों हीनभावना ?

(अभिर्या उम्दा — झारखंड की लेखिका, हाशिए की आवाज़ कविता-संग्रह से चर्चित)
हिंदी दिवस:
हर साल 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है। यह केवल औपचारिक आयोजन नहीं, बल्कि आत्ममंथन का दिन है। यह दिन हमें याद दिलाता है कि हिंदी सिर्फ़ बोलचाल का माध्यम नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, सभ्यता और पहचान की धड़कन है।
फिर भी आज स्थिति यह है कि अपनी ही राजभाषा हिंदी को लेकर हम गर्व से ज़्यादा हीनभावना महसूस करने लगे हैं। हाल ही में मैंने एक पॉडकास्ट देखा, जिसमें सवाल था—“झारखंड के लोग अंग्रेज़ी न बोल पाने के कारण बदनाम हैं।” यह सवाल सुनकर मन दुखी हो गया। आखिर क्यों? हम कभी चीनी, जापानी या जर्मन प्रतिनिधियों से यह क्यों नहीं पूछते कि वे अंग्रेज़ी क्यों नहीं बोलते? उनकी मातृभाषा ही उनके लिए गर्व का विषय होती है। तो फिर भारत में अपनी ही भाषा को लेकर उपेक्षा का भाव क्यों है? आजकल हालात यह हैं कि माता-पिता अपने बच्चों का अंग्रेज़ी स्पीकिंग देखकर गर्व महसूस करते हैं, लेकिन जब वही बच्चा हिंदी में कमजोर होता है तो भी वे इसे शान से बताते हैं।
क्या यह चिंताजनक नहीं है कि हम अपने बच्चों को सिखा रहे हैं—“अंग्रेज़ी आना आधुनिकता है, हिंदी आना पिछड़ापन”?
यह स्थिति वैसी ही है जैसे कोई बच्चा अपनी चाची को सफलता की सीढ़ी मान ले और अपनी माँ को पहचानने में शर्म महसूस करे।
मैं यह नहीं कहती कि अंग्रेज़ी बुरी है या हमें उसे नहीं सीखना चाहिए। ज्ञान की कोई भी भाषा हमारे लिए अमूल्य है। लेकिन अंग्रेज़ी को सीखने-सिखाने के नाम पर हिंदी को नीचा दिखाना, उसे पिछड़ेपन से जोड़ना—यह दुखद और चिंताजनक है।यह समस्या केवल समाज तक सीमित नहीं है। यह राजनीतिक और प्रादेशिक विवादों में भी दिखाई देती है।
तमिलनाडु में दशकों से “हिंदी थोपने” के विरोध में आंदोलन होते रहे हैं।
महाराष्ट्र में हिंदी भाषियों को कई बार ‘बाहरी’ कहकर निशाना बनाया गया।
कर्नाटक में बंगलुरु मेट्रो से हिंदी नामपट्टियाँ हटाने की माँग उठी।
और उत्तर भारत में ही अंग्रेज़ी fluency को प्रतिष्ठा और हिंदी को पिछड़ेपन का प्रतीक मान लिया गया।
क्या यह विडंबना नहीं कि अपनी ही मिट्टी की भाषा को हम या तो राजनीतिक विवादों में झोंक देते हैं, या सामाजिक उपेक्षा की आग में धकेल देते हैं?
हिंदी केवल शब्दों का समूह नहीं है, यह हमारी संस्कृति, हमारी लोक-परंपरा और हमारी अस्मिता का प्रतीक है। यदि हम ही इसे पिछड़ेपन से जोड़ देंगे तो आने वाली पीढ़ियों के लिए क्या संदेश छोड़ेंगे?
आज ज़रूरत है कि हम हिंदी को केवल “राजभाषा” नहीं बल्कि “गर्वभाषा” मानें। हिंदी दिवस पर यह संकल्प लें कि हम अपनी भाषा को कभी पिछड़ेपन की निशानी नहीं मानेंगे। हिंदी हमारी ताक़त है, हमारी पहचान है और भारत की आत्मा है।
……और क्या यह चिंताजनक नहीं है कि आज का समाज उस बच्चे जैसा हो गया है जो अपनी चाची को सफलता की सीढ़ी मानने लगे और अपनी माँ को पहचानने में शर्म महसूस करे?
“अंग्रेज़ी अवसर की भाषा है, पर हिंदी हमारी आत्मा की भाषा ”
11 hours ago