भूख हड़ताल के माध्यम से जतींद्र नाथ दास ने ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर किया, आईए जानते हैं उनके भूख हड़ताल और शहादत की कहानी
जतींद्र नाथ दास, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण योद्धा, जिन्होंने अपनी भूख हड़ताल से ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दिया था। उनका यह संघर्ष आज़ादी के आंदोलन में एक प्रेरणादायक प्रतीक बन गया। उनका यह कदम न केवल व्यक्तिगत साहस का उदाहरण था, बल्कि उस समय की ब्रिटिश हुकूमत के क्रूर और अन्यायी रवैये के खिलाफ एक मजबूत विरोध भी था।
दिसंबर, 1928 में कांग्रेस सम्मेलन के दौरान जब भगत सिंह कलकत्ता गए थे, वहां फणींद्र घोष ने उनकी मुलाकात हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कर्मठ क्रांतिकारी जतींद्र नाथ दास से करवाई थी.
ये मुलाकात कपिला टोला लेन के उत्तर में एक पार्क में करवाई गई थी. भगत सिंह उस ज़माने में एक ऐसे शख़्स की तलाश में थे जो उन्हें बम बनाना सिखा दे.
जतींद्र को बम बनाने में महारत हासिल थी. ये कला उन्होंने सचींद्र नाथ सान्याल से सीखी थी.
शुरुआत में जतींद्र, भगत सिंह को बम बनाना सिखाने के लिए राज़ी नहीं हुए. लेकिन भगत सिंह के ज़ोर देने पर वो इसके लिए राज़ी हो गए.
मलविंदरजीत सिंह वड़ैच अपनी किताब 'भगत सिंह द एटरनल रेबेल' में लिखते हैं, "भगत सिंह ने जतींद्र से कहा कि इसके लिए उन्हें आगरा आना होगा. जतींद्र ने कहा कि चूँकि इस समय आगरा में जाड़ा पड़ रहा होगा इसलिए बम बनाने के लिए ज़रूरी गन कॉटन के लिए बर्फ़ वहाँ नहीं मिल पाएगी."लेकिन कलकत्ता में ये आसानी से उपलब्ध होगी. इसलिए कलकत्ता में ही बम बनाना उपयुक्त होगा.
उन्होंने फणींद्र और भगत सिंह से कहा कि वो उन्हें कलकत्ता में एक जगह उपलब्ध करा दें.फणींद्र ने इसके लिए आर्य समाज मंदिर की सबसे ऊपरी मंज़िल का एक कमरा चुना. भगत सिंह ने उन्हें बम बनाने की सामग्री खरीदने के लिए 50 रुपए दिए.
उन्होंने कॉलेज स्क्वायर की पास की दुकानों से सारा सामान खरीद लिया. जब भगत सिंह, कलकत्ता से वापस लौटे तो जतींद्र ने उन्हें बमों के दो खोल दिए।राम प्रसाद बिस्मिल और उनके नौ साथियों ने काकोरी में कैसे लूटी थी ट्रेन आगरा पहुंच कर क्रांतिकारियों को बम बनाना सिखाया।फ़रवरी, 1929 में जतींद्र नाथ दास ट्रेन से क्रांतिकारियों के गढ़ आगरा पहुंचे, जहां भगत सिंह ने उन्हें स्टेशन पर रिसीव किया।
वहां जतींद्र का नया नाम ‘मास्टरजी’ रखा गया. आगरा में बम बनाने के लिए हींग की मंडी में एक घर किराए पर लिया, वहां उन्होंने क्राँतिकारियों के लिए कई बम बनाए और वहाँ मौजूद लोगों को बमों का कवर डिज़ाइन करना, गन कॉटन से फ़्यूज़ बनाने और विस्फोटक बनाने की ट्रेनिंग भी दी.
भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सदाशिव राव और फणींद्र ने झाँसी से 20 किलोमीटर दूर जाकर इस बम का परीक्षण भी किया.
जतींद्र नाथ दास के सम्मान में भारत सरकार की ओर से जारी किया गया डाक टिकट।
महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया
दिलचस्प बात ये है कि क्रांतिकारी बनने से पहले जतींद्र ने 1920-21 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था और कई बार जेल भी गए थे.
उनको बंगाल की कई जेलों में रखा गया था और तरह-तरह की यातनाएं दी गई थीं.
तब वो जेल प्रशासन के खराब व्यवहार के विरोध में 23 दिनों तक भूख हड़ताल पर चले गए थे.
उसके बाद उनको बंगाल की जेल से शिफ़्ट कर मियांवाली जेल भेज दिया गया था.
आंदोलन समाप्त होने के बाद उन्होंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई फिर से शुरू कर दी थी लेकिन देश की आज़ादी के लिए लड़ने के अपने जज़्बे को उन्होंने कभी छोड़ा नहीं.
जब 7 नवंबर, 1926 में काकोरी ट्रेन एक्शन के बाद स्वतंत्रता सेनानियों की धरपकड़ शुरू हुई तो जतींद्र को भी गिरफ़्तार कर लिया गया.
जतींद्र गंभीर, कम बोलने वाले मृदुभाषी व्यक्ति थे. हालांकि, वो कम बोलते थे लेकिन उनके साथी उनकी तरफ़ खिंचे चले आते थे. उनको लाहौर कॉन्सपिरेसी केस के सिलसिले में एक बार फिर गिरफ़्तार किया गया. ये उनकी पांचवीं गिरफ़्तारी थी.
10 जुलाई, 1929 को शुरू की भूख हड़ताल
उन दिनों भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त भूख हड़ताल पर थे लेकिन सरकार उनकी मांग मानने के लिए तैयार नहीं थी.
तब ये तय किया गया कि सरकार को झुकाने के लिए कुछ और कॉमरेड भूख हड़ताल पर चले जाएं. उस समय सिर्फ़ जतींद्र दास को भूख हड़ताल का पूर्व अनुभव था.
लेकिन वो भावनात्मक कारणों से भूख हड़ताल करने के पक्ष में नहीं थे. उनका मानना था भूख हड़ताल रिवॉल्वर और पिस्टल की लड़ाई से कहीं कठिन लड़ाई है. लेकिन फिर भी उन्होंने 10 जुलाई 1929 को बेहतर जेल सुविधाओं की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू कर दी.
ये भी तय हुआ कि हड़ताल के दौरान अगर वो बीमार पड़ते हैं तो वो दवाएं भी नहीं लेंगे और जहाँ तक संभव हो अफ़सरों को उन्हें ज़बरदस्ती दूध पिलाने के प्रयासों को कामयाब नहीं होने देंगे।
मशहूर स्वतंत्रता सेनानी शिव वर्मा अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ फेलो रिवोल्यूशनरीज़’ में लिखते हैं, ''शुरू में तो सभी कॉमरेडों ने चलना फिरना जारी रखा और सरकार ने भी इस उम्मीद में उनकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया कि शरीर में कमज़ोरी आते ही वो अपनी हड़ताल तोड़ देंगे.
जेल अधिकारी हमें लालच देने के लिए हमारी कोठरियों में खाने की चीज़ें रख देते. जैसे ही उनकी पीठ मुड़ती सारे कॉमरेड उन खाने की चीज़ों को नष्ट कर देते. जतींद्र दास अकेले शख़्स थे जिन्होंने उन खाने की चीज़ों की तरफ़ नज़र भी नहीं डाली.''।
मशहूर स्वतंत्रता सेनानी शिव वर्मा की किताब ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ फेलो रिवोल्यूशनरीज़’
नाक के ज़रिए हड़तालियों को दूध पिलाने की कोशिश
दस दिन बाद जब कुछ कैदियों की हालत बिगड़नी शुरू हुई तो सरकार द्वारा बुलाए गए डॉक्टरों ने जबरदस्ती भूख हड़ताल पर बैठे कैदियों को दूध पिलाने का बीड़ा उठाया.
शिव वर्मा लिखते हैं, ''8 या 10 तगड़े लोग आगे आकर हममें से किसी एक को घेर लेते फिर वो उसे ज़बरदस्ती पकड़कर ज़मीन पर लिटा देते. जब तक उसकी ताकत रहती कैदी उसका विरोध करता लेकिन एक बनाम दस के मुकाबले में ये लोग कैदी पर भारी पड़ते और उसे गिरा देने में सफल हो जाते. फिर उसकी नाक के ज़रिए उसके पेट में एक लंबी ट्यूब डाल दी जाती.
हड़ताली कैदी या तो ज़ोर से खाँसता या फिर ट्यूब के पेट में जाने में अवरोध खड़ा करता. कभी कभी वो ट्यूब नाक से फिसल कर मुंह में आ जाती और वो उसे अपने दांतों से दबा लेता. यहाँ पर डॉक्टर के धैर्य की परीक्षा होती. कभी कभी डॉक्टर अपना धैर्य खो देते और उस कैदी को उसी हाल में छोड़कर अगले कैदी की तरफ़ बढ़ जाते।
जतींद्र के फेफड़ों में एक सेर दूध उड़ेला गया
जतींद्र को इस पूरी कवायद का पहले से ही अंदाज़ा था इसलिए डॉक्टरों ने पहले दिन ही उनसे हार मान ली. जिस डॉक्टर का जतींद्र दास से वास्ता पड़ा था वो पहले लाहौर के एक मेंटल हॉस्पिटल का इंचार्ज था और उसे लोगों को ज़बरदस्ती दूध पिलाने में महारत हासिल थी.
दिमागी मरीज़ों के साथ लगातार रहने के कारण उसका अपना स्वभाव भी उन जैसा हो गया था.
जतींद्र के सामने दाल न गल पाने के कारण वो चिड़चिड़ा हो गया था. उसने सबके सामने दास को चुनौती देते हुए कहा था, ''देखता हूँ कल तुम कैसे मेरे काम में अड़ंगा डालते हो?''
26 जुलाई को सारे कैदियों को निपटा देने के बाद वो डॉक्टर जतींद्र दास के पास आया. जब ज़बरदस्ती दूध पिलाने का पहला चरण असफल हो गया तो उसने पहले जतींद्र की नाक के नथुने में पाइप डाला. दास ने उस पाइप को अपने दांतों से दबा लिया.
शिव वर्मा लिखते हैं, ''डॉक्टर ने फिर दूसरे नथुने से पाइप डालने की कोशिश की. दास को लगा जैसे उनका दम घुट रहा हो. तब भी उन्होंने अपना मुंह खोले बिना पाइप को पेट तक पहुंचने से रोकने की कोशिश की. पेट में जाने के बजाए दूसरा पाइप उनके फेफड़ों में चला गया. दर्द से उनकी आँखे पलटने लगीं लेकिन डॉक्टर ने उनके चेहरे की तरफ़ देखा भी नहीं और उनके फेफड़ों में एक सेर दूध उड़ेल दिया. सफल होने के संतोष में वो उन्हें वहीं तड़पता हुआ छोड़ कर अगले क़ैदी की तरफ़ बढ़ गया.''
दवा लेने और इंजेक्शन लगवाने से इनकार
ये घटना अस्पताल में हुई थी. दास की खराब हालत देख कर उनके करीब एक दर्जन साथी उनके पास पहुंच गए.
जतींद्र के शरीर का तापमान बढ़ता जा रहा था. उनको रह रह कर तेज़ खांसी उठ रही थी और उन्हें सांस लेनें में बहुत तकलीफ़ हो रही थी.
आधे घंटे बाद डॉक्टरों की पूरी टीम वहां पहुंच गई. उन्होंने जतींद्र को एक पलंग पर लिटा दिया. तब तक दास करीब-करीब बेहोशी की हालत में पहुंच चुके थे. जब डॉक्टरों ने उनके मुंह में दवा डालनी शुरू की, उनके शरीर मे पता नहीं कहां से इतनी ताकत आ गई और उन्होंने चिल्ला कर कहा, 'नहीं'. जब उनके साथियों ने ज़ोर दिया कि वो दवा ले लें तो वो उस दर्द में भी मुस्कराए.
अंत तक उन्होंने न तो खुद को कोई इंजेक्शन लगवाने दिया और न ही कोई दवा ली. थक हार कर जब डॉक्टर चले गए तब उन्होंने अपनी आँखें खोलीं. खुद को चारों ओर से अपने साथियों से घिरा देखकर वो एक बार फिर मुस्कराए और बहुत कमज़ोर आवाज़ में जितेंद्र सान्याल को संबोधित करते हुए बोले, ''अब वो मुझे कभी कुछ नहीं खिला पाएंगे.''
भगत सिंह के कहने पर अनीमा करवाया
उस दिन के बाद से वो धीरे-धीरे मौत के करीब जाते चले गए. कुछ दिनों में उनकी हालत बहुत बिगड़ गई. उनके सारे शरीर में ज़हर फैल गया.
उनकी आंखें आधी मुंदी रहने लगीं. डॉक्टर उन्हें अनीमा देना चाहते थे लेकिन दास इसके लिए राज़ी नहीं हुए.
शिव वर्मा लिखते हैं, ''किसी ने सरकार को सुझाया कि शायद जतींद्र दास, भगत सिंह की बात सुन लें. इस काम के लिए भगत सिंह को सेंट्रल जेल लाया गया. भगत सिंह के अनुरोध पर वो ऐसा करवाने के लिए तैयार हो गए. इस पर एक जेल अधिकारी ने उन्हें उलाहना दिया कि पहले तो आप अनीमा करवाने के लिए तैयार नहीं थे. भगत सिंह के कहने पर आप इसके लिए क्यों राज़ी हो गए?"
''जतींद्र का जवाब था, 'मिस्टर, आपको अंदाज़ा भी है कि भगत सिंह कितने महान हैं? मैं उनकी किसी बात को नहीं टाल सकता.’ इसी तरह एक बार जब भगत सिंह ने उनसे दवा लेने के लिए कहा तो उनका जवाब था, ‘देखो भगत सिंह. मुझे मालूम है कि मुझे अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़नी चाहिए, लेकिन मैं तुम्हारी किसी बात से इनकार नहीं कर सकता. इसलिए भविष्य में मुझसे इस तरह का अनुरोध मत करना.'''
ज़मानत का प्रस्ताव ठुकराया
उनकी बिगड़ती हालत को देखते हुए सरकार उन्हें पहले मेयो अस्पताल भेजना चाहती थी लेकिन जब उन्होंने उनकी बात नहीं मानी तो सरकार उन्हें ज़मानत पर छोड़ने के लिए राज़ी हो गई.
इस बीच जेल कमेटी ने भी सिफ़ारिश की कि जतींद्र को बिना किसी शर्त के रिहा कर दिया जाए. लेकिन सरकार ने इसे अपनी इज़्ज़त का मामला बनाते हुए इस प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया.
कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘विदाउट फ़ियर द लाइफ़ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह’ में लिखते हैं, ''सरकार ने उन्हें ज़मानत पर रिहा करने की पेशकश की लेकिन जतींद्र इसके लिए राज़ी नहीं हुए. किसी व्यापारी ने प्रशासन के कहने पर उनकी ज़मानत के लिए पैसे भी जमा करा दिए लेकिन जतींद्र ने इसे मानने से मना कर दिया. सरकार ने दावा किया कि वो उन सभी कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे जो भूख हड़ताल पर थे. लेकिन ये सही नहीं था. उन्होंने इस मामले को जेल में मिल रही सुविधाओं पर हो रही लड़ाई से अलग रखा था.''
सभी साथियों को एक-एक बिस्किट खिलाया
कुछ दिनों के बाद जेल अधिकारियों ने जतींद्र दास को पूरी ताकत से जेल से बाहर फेंकने की कोशिश भी की. दास ने जेल सुपरिटेंडेंट को कहलवाया कि वो ज़मानत स्वीकार नहीं करेंगे.
इस पर अंग्रेज़ सुपरिटेंडेंट ने ईसा मसीह के नाम पर कसम खाई कि वो ज़बरदस्ती जतींद्र को उनकी इच्छा के ख़िलाफ़ जेल से हटाने की कोशिश नहीं करेगा.
शिव वर्मा लिखते हैं, ''करीब एक हफ़्ते बाद जतींद्र ने हम सब लोगों को इकट्ठा किया. उनके भाई किरन दास को उनके साथ रहने की इजाज़त दी गई थी. वो एक बिस्किट का पैकट लेकर आए. जतींद्र ने एक एक बिस्किट हम सबको देकर कहा, ‘हम अपनी भूख हड़ताल नहीं तोड़ रहे हैं. ये हमारा आपके साथ आखिरी खाना है. ये मेरे आपके प्रति प्रेम का प्रतीक है.’ हम सबने वो बिस्किट खाया."
''फिर उन्होंने नज़रुल इस्लाम का वो मशहूर गीत सुना, ‘बोलो वीर, चिर उन्नत माम शीर.’ वो देर रात तक अपनी कमज़ोर आवाज़ में हम सबसे बात करते रहे. वो उन लोगों के बारे में पूछते रहे तो उस समय हमारे साथ नहीं थे. ये सब बातें एक तरह से उस चिराग की तरह थीं जो बुझने से पहले फड़फड़ाता है. कुछ दिनों बाद उन्होंने बातें करना बंद कर दिया. उनके हाथ और पांव में सूजन आ गई और आंखें करीब-करीब बंद हो गईं. इस हालत में भी उन्होंने अपना सिर हिला कर हर सवाल का हां या ना में जवाब दिया.''
जतींद्र दास ने दम तोड़ा
भूख हड़ताल के 63वें दिन 13 सितंबर को जब उनकी हालत और गंभीर हो गई डॉक्टर उन्हें इंजेक्शन देना चाहते थे.
उनको गलतफ़हमी थी कि करीब-करीब बेहोश जतींद्र को पता नहीं चलेगा कि उन्हें इंजेक्शन लगाया जा रहा है. लेकिन जैसे ही उन्होंने उनकी बांह पर स्पिरिट लगाई, उन्होंने अपनी आंखें खोली और फटी हुई आवाज़ में चिल्लाए, 'नहीं.'
ये सुनते ही डॉक्टरों के बढ़ते कदम पीछे चले गए. कुछ देर बाद उनकी आंखें हमेशा के लिए मुंद गईं. उस दिन जेलों में बंद उनके साथियों को उनके अंतिम दर्शन के लिए अस्पताल ले जाया गया. उनके चारों ओर खड़े होकर उन्होंने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि दी.
जतींद्र दास ने 63 दिनों के अनशन के बाद दम तोड़ा था. उस समय उनकी उम्र सिर्फ 25 साल थी.
डॉक्टरों ने भी एक पंक्ति में खड़े होकर उनके सम्मान में सिर झुकाया. जेल के अंग्रेज़ सुपरिटेंडेंट ने उनके सम्मान में अपनी टोपी उतार कर उन्हें सैनिक सैल्यूट किया. उसी दिन वायसराय ने लंदन संदेश भेजकर सूचित किया, ''कॉन्सपिरेसी केस के जतिन दास जो भूख हड़ताल पर थे आज दोपहर 1 बज कर 10 मिनट पर उनकी मौत हो गई. पिछली रात भूख हड़ताल कर रहे पांच लोगों ने अपनी हड़ताल तोड़ दी. अब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ही हड़ताल पर हैं.''
हज़ारों लोगों ने पार्थिव शरीर के दर्शन किए*
जतींद्र दास की हालत बिगड़ने की ख़बर जंगल की आग की तरह पूरे लाहौर में फैल गई और अस्पताल के चारों ओर लोगों की भीड़ जमा हो गई.
उनके पार्थिव शरीर को कलकत्ता लाने के लिए सुभाषचंद्र बोस ने 600 रुपए भेजे. लाहौर से कलकत्ता के बीच हर स्टेशन पर हज़ारों लोगों ने उनके पार्थिव शरीर को श्रद्धांजलि दी. जेल से लाहौर स्टेशन तक उनकी शव यात्रा का नेतृत्व दुर्गा भाभी ने किया. उनके साथ पंजाब कांग्रेस के कई शीर्ष नेता चल रहे थे.
कानपुर स्टेशन पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने पहुंच कर जतींद्र दास को श्रद्धांजलि दी. इलाहाबाद स्टेशन पर कमला नेहरू उनके अंतिम दर्शन के लिए मौजूद थीं. जब उनका पार्थिव शरीर हावड़ा पहुंचा तो सुभाषचंद्र बोस खुद उसे रिसीव करने पहुंचे. हुगली नदी के तट तक उसे पहुंचने में घंटों लग गए.
रास्ते भर जतींद्र दास के पार्थिव शरीर पर फूल बरसाए जाते रहे. सबसे मार्मिक श्रद्धांजलि आयरिश क्रांतिकारी टेरेंस मैक्स्वीनी की विधवा मैरी मैकस्वीनी की तरफ़ से आई. उनके पति ने सन 1921 में 74 दिनों की भूख हड़ताल के बाद दम तोड़ दिया था.
मैरी ने लिखा, ''हमारा परिवार जतींद्र दास की शहादत के दुख और गर्व में भारत के लोगों के साथ खड़ा है. आज़ादी ज़रूर आएगी.''
Sep 16 2024, 13:05