अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला सुरक्षित, जानें क्या है मामला
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भारत के चीफ़ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर 57 साल पुराने विवाद मामले की सुनवाई कर रही है। सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर फैसला सुरक्षित रख लिया है। बेंच इस मामले में बीते आठ दिनों से लगातार सुनवाई कर रही थी। इस दौरान अदालत ने सभी पक्षों की दलीलें विस्तार से सुनीं।जल्दी ही इस मामले पर कोर्ट अपना फैसला सुनाएगी। बेंच में जस्टिस संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जे बी पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा भी शामिल हैं।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) को अल्पसंख्यक दर्जा देने के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को तमाम दलीलें सुनीं। सुनवाई के दौरान कोर्ट में केंद्र सरकार ने कहा कि किसी भी राष्ट्रीय महत्व के संस्थान को राष्ट्र के ढांचे को प्रतिबिंबित करना चाहिए। एएमयू में 70 से 80 फीसदी मुस्लिम छात्र पढ़ रहे हैं और वे आरक्षण के बगैर वहां पढ़ रहे हैं। मेहता ने कहा, 'मैं धर्म के नजरिए से बात नहीं कर रहा हूं। यह बहुत ही गंभीर मामला है। संविधान में जिस संस्थान को राष्ट्रीय महत्व का घोषित किया गया है, उसे राष्ट्रीय ढांचे को प्रतिबिंबित करना चाहिए। प्रवेश में आरक्षण के बिना यह स्थिति है।' मेहता ने कहा है कि एक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान को केंद्रीय शिक्षण संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम, 2006 (2012 में संशोधित) की धारा 3 के तहत आरक्षण नीति लागू करने की आवश्यकता नहीं है। इस पर अदालत ने कहा कि किसी अल्पसंख्यक संस्थान के राष्ट्रीय महत्व का संस्थान होने में कुछ गलत नहीं है।
बता दें कि मुसलमानों में शिक्षा की कमी को देखते हुए सुधारवादी नेता सर सैय्यद अहमद ख़ान ने 1877 में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (एमएओ कॉलेज) की स्थापना की थी। एमएओ कॉलेज और मुस्लिम यूनिवर्सिटी एसोसिएशन को एएमयू में लाने के लिए द अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक्ट 1920 (एएमयू एक्ट) पास किया गया। 1951 में एएमयू एक्ट में संशोधन किया गया और इसमें मुसलमानों के लिए धार्मिक शिक्षा को बाध्यकारी बनाने और यूनिवर्सिटी कोर्ट में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के मैन्डेट को हटा दिया गया। इस एक्ट में 1965 में एक बार फिर संशोधन किया गया और कोर्ट की शक्तियों को कार्यपालिका के साथ साथ दूसरे निकायों के बीच बाँट दिया गया, जिसमें गवर्निंग बॉडी के लिए सदस्यों के नामांकन की ज़िम्मेदारी राष्ट्रपति को दी गई।
इस विवाद की शुरुआत 1967 में हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने एस अज़ीज़ बाशा बनाम भारत सरकार मामले में एएमयू एक्ट में 1951 और 1965 में हुए संशोधन की समीक्षा की। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि चूंकि एएमयू की स्थापना मुसलमानों ने की है इसके कामकाज के संचालन का हक़ उनके पास होना चाहिए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने संविधान में किए गए संशोधनों को बरकरार रखा। बेंच ने कहा कि न तो अल्पसंख्यक मुसलमानों ने इसकी स्थापना की है और न ही वो इसका प्रबंधन करते हैं। कोर्ट ने कहा कि इस एक्ट को केंद्रीय क़ानून के ज़रिए लागू किया गया था। कोर्ट के इस फ़ैसले को लेकर देशभर में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए, जिसके बाद 1981 में एएमयू एक्ट में एक और संशोधन किया गया, इसमें इसके अल्पसंख्यक दर्जे पर मुहर लगाई गई।
साल 2005 में एएमयू ने स्नातकोत्तर मेडिकल सीटों में से 50 फ़ीसदी को मुसलमान छात्रों के लिए रिज़र्व किया। इसी साल डॉक्टर नरेश अग्रवाल बनाम भारत सरकार मामले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने रिज़र्वेशन पॉलिसी को रद्द कर दिया और कहा कि 1981 का संशोधन अधिकार क्षेत्र से बाहर था। इसके बाद 2006 में भारत सरकार और यूनिवर्सिटी दोनों ने ही सुप्रीम कोर्ट में अपील की।
फिर भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह पूर्ववर्ती यूपीए सरकार द्वारा दायर अपील वापस ले लेगी। इसने बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्त पोषित एक सेंट्रलल यूनिवर्सिटी है।
Feb 01 2024, 19:55