हमास और ईरान में कैसे हुई गहरी दोस्ती, जानें पूरी कहानी
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इजराइल-हमास युद्ध अब अगले लेकिन बेहद घातक चरण में प्रवेश कर चुका है।इजरायली फौज के सपोर्ट में अमेरिकी सेना भी उतर चुकी है।ऐसे में सबसे बड़ी चिंता युद्ध में पूरे पश्चिम एशिया के चपेट में आने की है।दरअसल, इस युद्द में अमेरिका भारत समेत कई देश इजराइल का साथ दे रहे है वहीं हमास का साथ इरान जैसा देश दे रहा है। आपको बता दें ये वही इरान है जो एक समय में इजराइल का दोस्त था। लेकिन अब ईरान और इजराइल एक दूसरे के दुश्मन है क्योंकी अब ईरान हमास का साथ दे रहा है और खुलकर समर्थन भी कर रहा है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि हमास और ईरान के बीच गहरी दोस्ती कैसे हो गई है? ऐसा क्या है कि युद्ध के हालात में जब पूरी दुनिया हमास की इस कार्रवाई को आतंकी करार दे रहे हैं, वहीं ईरान खुलकर समर्थ कर रहा है?
हमास-ईरान की दोस्ती की शुरुआत साल 1979 में इस्लामिक क्रांति से हुई थी ।मोहम्मद रजा पहलवी जब ईरान के शासक थे, तब तक हमास से उनका कोई मतलब नहीं था, बल्कि उन्होंने इजराइल को मान्यता भी दी थी और व्यापार भी शुरू किया। वहीं जब ईरान में नई सत्ता ने कामकाज संभाला तब से इजराइल-ईरान के रिश्ते एकदम खत्म हो गए और हमास की एंट्री हुई। हालांकि, तब हमास का यह रूप नहीं था, लेकिन चरमपंथ को बढ़ावा देने की अपनी नीति के तहत ईरान ने इस संगठन की मदद की।
इस्लामिक क्रांति से पहले ईरान दूसरा मुस्लिम बहुल देश था, जिसने अपने शासक मोहम्मद रज़ा पहलवी के शासन में इसराइल को मान्यता दी थी।लेकिन अब मध्य-पूर्वी देशों में ईरान एकदम अलग राह पर है और वो इसराइल को मान्यता देने से इनकार करता है। वहीं, इस क्षेत्र के अन्य मुस्लिम देशों ने इसराइल के संबंध सामान्य करने शुरू कर दिए हैं। इस्लामिक गणराज्य ईरान के संस्थापक अयोतुल्लाह रुहोल्लाह खुमैनी ने इजराइल की तुलना 'कैंसर वाले ट्यूमर' से की थी। उन्होंने फ़लस्तीन के मुद्दे को मुस्लिम वर्ल्ड में अपनी सरकार की वैधता बढ़ाने और शिया-सुन्नी के बीच विभाजन से परे इस्लामी एकता को बढ़ावा देने के लिए इस्तेमाल किया।
खुमैनी ने हर साल रमज़ान के आख़िरी दिन को फ़लस्तीन के समर्थन में 'कुद्स (यरुशलम) दिवस' के तौर पर मनाने की भी शुरुआत की। फ़लस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) का हित चाहने वालों में से एक ईरान भी था। हालांकि, पीएलओ के साथ ईरान के रिश्ते तब खराब हुए जब इराक़ के साथ जंग में पीएलओ के नेता यासर अराफ़ात ने इराक़ का समर्थन किया। अराफ़ात को वर्ष 1988 में ईरान के सर्वोच्च नेता अयोतुल्लाह अली ख़ुमैनी ने 'ग़द्दार और मूर्ख' बताया था। उस समय यासर अराफ़ात इसराइल के साथ राजनीतिक समझौते की ओर बढ़ते दिख रहे थे, लेकिन ईरान का नेतृत्व इसराइल के साथ किसी भी तरह की शांति वार्ता के ख़िलाफ़ था. अली खुमैनेई अभी भी ईरान के सर्वोच्च नेता हैं। जैसे ही इसराइल को स्वीकार करने के मुद्दे पर फ़लस्तीन के गुट बंटने शुरू हुए, ईरान ने अपना रुख पीएलओ और उसके प्रभावशाली धड़े फ़तह से मोड़कर अधिक कट्टर और प्रतिद्वंद्वी हमास और फ़लस्तीन इस्लामिक जिहाद (पीआईजे) की ओर कर लिया।
साल 2007 में चुनाव के बाद से हमास ने ग़ज़ा और फ़तह ने वेस्ट बैंक पर नियंत्रण पा लिया। फ़लस्तीनी क्षेत्रों में राजनीतिक ताकतों के बीच इस बंटवारे को देखते हुए ईरान का समर्थन अब मुख्य रूप से ग़ज़ा पट्टी पर शासन करने वाले गुट यानी हमास और पीआईजे की ओर चला गया।ये चरमपंथी समूह इस क्षेत्र में इसराइल और अमेरिका के ख़िलाफ़ एकजुट ईरान के अन्य सहयोगी जैसे हिज़बुल्ला और सीरियाई संगठनों से मिल गए।
Oct 19 2023, 10:19