औरंगाबाद के दाउदनगर का जिउतिया पर्व प्रसिद्धि के मामले में किसी से कमतर नहीं
औरंगाबाद जैसे दिल्ली की दीवाली, कोलकाता की दशहरा, मुंबई का गणेशोत्सव, पुरी की रथयात्रा एवं केरल का ओनम विश्व प्रसिद्ध है, वैसे ही बिहार के औरंगाबाद के दाउदनगर का जिउतिया पर्व भी प्रसिद्धि के मामले में कमतर नहीं है। यह बात अलग है कि दाउदनगर के जिउतिया को प्रसिद्धि की उंच्चाइयों तक पहुंचाने का कभी भी किसी भी स्तर से पूरे मनोयोग से प्रयास नहीं किया गया।
अन्यथा यहां की जिउतियां भी जगत प्रसिद्ध होती और देश विदेश के लोग जिउतिया के मौके पर दिखाए जाने वाले साहसिक, रोमांचक और हैरतअंगेज करतबों को देखने जरूर आया करते। दाउदनगर का जिउतियां देशभर में संतानो के दीर्घायु होने की कामना को लेकर महिलाओं द्वारा किये जाने वाले कामना व्रत जीवित्पुत्रिका व्रत का ही अंग है लेकिन यहां जिउतियां व्रत के पहले पिछले 9 दिनों में जो खास साहसिक, रोमांचक और हैरतअंगेज करतब प्रस्तुत किये जाते हैं, वे ही इस पर्व को अनूठापन प्रदान करते है और खास बनाते है।
औरंगाबाद जिला मुख्यालय से 32 किलोमीटर की दूरी पर मुगल शासक औरंगजेब के सिपहसालार दाउद खां द्वारा बसाए गए दाउदनगर शहर में जिउतिया पर्व के आरंभ के बारे में कोई लिखित प्रमाण तो उपलब्ध नहीं है लेकिन जनश्रुतियों एवं लोक कथाओं के अनुसार यहां की जिउतियां अत्यंत प्राचीन है। जनश्रुतियों के अनुसार डेढ़ सौ साल से अधिक समय पहले दाउदनगर शहर को प्लेग जैसी भयंकर बीमारी ने अपने आगोश में ले रखा था।
बड़ी संख्या में लोगों के मौत के मुंह में समा जाने से पूरा शहर मृतकों से पट गया था। इस विकट परिस्थिति से छुटकारा पाने के अनेको तरह के प्रयास किए गए लेकिन सुधार के कोई लक्षण नहीं दिखे। तब तत्कालीन समाज के प्रबुद्धों ने इसे देवी का प्रकोप माना और प्रकोप से शांति के लिए दक्षिण भारत के पुजारियों एवं गुणियों से संपर्क साधा। वहां से आए पुजारियों एवं गुणियों ने इसे बम्मा देवी का प्रकोप बताया। देवी के गुस्से से शहर को निजात दिलाने के लिए जगह-जगह प्रतिमाएं स्थापित कर विधि विधान से पूजा अर्चना की गई। यह पूजा करीब एक माह तक चली। देवी का प्रकोप शांत हुआ। लोगों ने चैन की सांस ली। तब से आजतक शहरवासियों द्वारा इसे पूरे विधि विधान के साथ मनाने की परंपरा चली आ रही है।
चूंकि बम्मा देवी की पूजा-अर्चना का समय जिउतियां के ईर्द-गिर्द ही पड़ा था। इसी वजह से इसका प्रचलन दिन-प्रतिदिन बढ़ता गया गया और कालांतर में इसने एक पर्व का रूप धारण कर लिया। पर्व की शुरूआत के बारे में दाउदनगर के जिउतियां कलाकारों द्वारा गाये जाने वाले गीत के बोल-‘‘आश्विन अंधेरिया दूज रहे, संवत 1917 के साल रे जिउतियां, अरे धनभाग रे जिउतियां जे रोपे ले हरिचरण, तुलसी, दमड़ी जुगुल, रंगलाल रे जिउतियां, अरे धनभाग रे जिउतिया’’ में भी इसकी प्राचीनता की झलक मिलती है। पर्व का आरंभ भी कलाकारों द्वारा इसी गीत को गाकर किया जाता है।
गीत के मुखड़ों से यह स्पष्ट है कि इस क्षेत्र के हरिचरण, तुलसी, दमड़ी, जुगुल और नंदलाल नाम के चार प्रबुद्धों द्वारा आश्विन कृष्णपक्ष की द्वितीया तिथि के दिन विक्रम संवत 1917 को इसकी आधारशिला रखी गयी और तब से यह पर्व दाउदनगर में अनूठे रूप मे मनाया जाने लगा। इस अवसर पर लोक कलाकारो द्वारा लोकनृत्य की हर विधा का प्रदर्शन पर्व के दौरान किया जाता है। यहां कलाकारों के कला प्रदर्शन के लिए कोई रंगमंच नहीं होता बल्कि शहर के नुक्कड़, गली और पूरे शहर की सड़कें ही रंगमंच बन जाती है। इस बार के जिउतियां पर भी यह सब देखते ही बन रही है।
दाउदनगर की जिउतियां की यह प्रमुख विशेषता है कि इसके माध्यम से विलुप्त होती सांस्कृतिक परंपरा को स्वांग के रूप में जीवित रखा जा रहा है। इस विधा के तहत कलाकार दम-दमाड़ एवं मुड़ीकटवा का स्वांग रचते हैं जिसे देखना अपने आप में एक अनोखा अनुभव है।
जिउतियां पर दाउदनगर शहर की सड़कों, गलियों एवं नुक्कड़ों पर कलाकारों द्वारा राजा-रानी, चुड़ैल, भूतनी, डाकिनी, राम-लक्ष्मण, राधा-कृष्ण एवं अनेक प्रकार के वेशधारी बहुरूपिए नजर दिखते है। ये आज भी दिख रहे है। विरासत में मिली इस संस्कृति के अलावा इस मौके पर तलवारबाजी, खेल-तमाशा, झाकियां, नौटकी, लोकनृत्य का सफल मंचन भी पर्व को विशिष्टता प्रदान करती है।
इस दौरान दम-दमाड़ के कलाकारों के हैरत अंगेज कारनामों से दर्शक दंग रह जाते हैं। इन कलाकारों के द्वारा गर्म तप्त लोहे की लपलपाती जंजीर को नंगे हाथों से दुहना, दांतों से गर्म तप्त लोहे के पिंड को उठाना एवं शरीर के विभिन्न हिस्सों में सुई, त्रिशूल को आर-पार करना दर्शकों को रोमांचित कर देता है। ऐसी तस्वीरें आज दाउदनगर की सड़कों पर दिख रही है।
जिउतियां की रात में जब डाकिनी सड़क पर उतरेगी तो, उसके रूप को देखकर और मुंह से आती हिंसक आवाज को सुनकर रूह कांप उठती है। रोंगटे खड़े हो जाते है। सांसे थमती सी महसूस होती है और कमजोर दिल वाले बेहोश हो जाते है। ऐसा नजारा आज रात भी दाउदनगर में दिखेगा।
दाउदनगर शहर को अनचाहे प्रकोप से बचाने के लिए आरंभ किया गया यह पर्व आज यहां की लोक संस्कृति का एक अहम हिस्सा बन चुका है। यही कारण है कि देश-विदेश में दाउदनगर ही एक ऐसा इकलौता शहर है, जहां जिउतियां के पर्व को निराले और अनूठे अंदाज में मनाया जाता है।
Oct 09 2023, 19:37