कॉमेडी के नाम पर फुहड़ता, समाज को आज क्या दे रहा युवावर्ग?
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ये बदलता युग है। ऐसा बदलाव जिसने स्वतंत्र अभिव्यक्ति और नैतिक जिम्मेदारी के बीच की रेखाओं को धुंधला कर दिया। जहां भाषाई और सामाजिक सीमाओं का सुनियोजित क्षरण शुरू हुआ। आज गंदी बातें बोलना, सुनना और उन पर हंसना आम हो गया है। सड़क पर चलते हुए जिस तरह से युवा धड़ल्ले से गालियों की भाषा बोल रहे हैं, हम जैसे भाषाई शुद्धता को सर्वोपरी समझने वाले जब आते-जाते राह चलते, बसों, मेट्रो या ट्रेनों में हर तरफ गालियां से शुरू और गालियां से खत्म बातें सुनते हैं तो मानों कान से “लावा” रिसने लगता है। सच मानिए ये अतिशयोक्ति नहीं है।
आज हम उस सदी का हिस्सा हैं, जो खुल्लमखुल्ला कुछ भी कह देने या कुछ भी सुना देने की सदी है। चाहे वो यू-ट्यूबर रणवीर अलाहबादिया हों या कॉमेडियन समय रैना। ये वो युवा है, जिन्होंने एक ऐसी स्याह राह दिखाई है, जो आज की पीढ़ी को बड़ी लुभावनी लग रही है। लेकिन उसकी ज़द में वो मासूम भी आ रहे हैं, जो रील देखने के नाम पर समय से पहले बहुत कुछ सीख रहे हैं। क्या आप सोच सकते हैं कि पांचवी कक्षा में पढ़ने वाला कोई गाली दे सकता है? आप कहेंगे, इतना छोटा बच्चा गाली का मतलब ही क्या समझता होगा। सही कहा, छोटा बच्चा गाली का मतलब तो नहीं समझता, लेकिन बार-बार उन्हीं बातों को सुनकर ही तो सीख लेता है। इन रणवीर और समय जैसे लोगों के कंटेंट रील के रूप में खूब वायरल होते हैं। ये “वायरस” तेजी से समाज को संक्रिमित कर रहे हैं।
सोसाइटी को क्या दे रहे ये युवा?
रणवीर अलाहबादिया और समय रैना आज के दौर के युवा है। इन्हें आज की पीढ़ी का युवा कहते भी शर्म आती है। इन लोगों को कतई यह पता ही नहीं है कि एक युवा होना क्या होता है? ये वो युवा हैं, जिन्हें पैसे और शोहरत की भूख है। ये इस भूख को मिटाने के लिए हर रास्ता अख्तियार करने को तैयार है। ये अच्छी तरह जानते हैं कि गंदी बातें परोस कर ये सोशल मीडिया पर छाए रह सकते हैं। मिलियन व्यूज पाने की होड़ में ये भूलना गए हैं कि सोसाइटी को क्या दे रहे हैं?
ऐसे कंटेंट को लेकर क्या होना चाहिए सरकार का रूख?
समय रैना का 'इंडियाज गॉट लेटेंट' शो पहली बार विवादों में नहीं आया है। वह इससे पहले भी आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए यह विवादों में रह चुका है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या सरकार को या यू-ट्यूब को ऐसे कंटेंट पर बैन नहीं लगाना चाहिए?सरकार को ऐसे एडल्ट कंटेंट पर भी नजर रखनी चाहिए कि इसके नाम पर कुछ भी नहीं परोसा जा सकता है। इसके लिए हमें संविधान के अनुच्छेद 19 की शर्तों को ध्यान में रखना चाहिए। किसी की बोलने की आजादी तभी तक होनी चाहिए, जब उससे समाज के दूसरे का अहित न हो। एक बाकायदा निगरानी तंत्र भी होना चाहिए, जो सोशल मीडिया पर पब्लिश होने से पहले उसकी 'छंटाई' करे।
फ्रीडम ऑफ स्पीच की हद कितनी हो?
संविधान में अनुच्छेद 19 से 22 तक कई तरह के अधिकार दिए गए हैं। अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत देश के सभी नागरिकों को वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है। वाक और अभिव्यक्ति की आजादी को आसान भाषा में समझे तो एक भारतीय नागरिक इस देश में लिखकर, बोलकर, छापकर, इशारे से या किसी भी तरीके से अपने विचारों को व्यक्त कर सकता है। वहीं, अनुच्छेद 19 (2) में उन नियमों के बारे में भी जानकारी दी गई है जब बोलने की आजादी को प्रतिबंधित किया जा सकता है। वो शर्ते हैं-कुछ भी ऐसा नहीं बोला जाना चाहिए जिससे भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरा हो। राज्य की सुरक्षा को खतरा हो। पड़ोसी देश या विदेशी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बिगड़ने का खतरा हो। सार्वजनिक व्यवस्था के खराब होने का खतरा हो। शिष्टाचार या सदाचार के हित खराब हो। कोर्ट की अवमानना हो। किसी की मानहानि हो। अपराध को बढ़ावा मिलता हो। यही बोलने की हद है, जिसे हम सभी को समझना होगा और अपने बच्चों को भी सिखाना होगा।
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