पुस्तक समीक्षा -लखनऊ एक जुदा ही अदा
निहारिका गौड़
इस क़िताब के हर पन्ने में लखनऊ की अलमस्त, बेपरवाह और बेलौस ज़िंदगी का चेहरा रौशन है। बेहतर वाक़यात मौज़ूद हैं और साथ ही मश़रिकी तहज़ीबो-तमद्दून की बानगी भी। कुल तिरपन कहानियों में पिरोये हुए तमाम किरदार और तहज़ीबयाफ्ता शीरीं जुबां। हर किस्सा ताज़गी लिए हुए, वो भी बिना किसी दोहराव के। अलग-अलग देखिए, तो ये मामूली लोग मालूम होंगे, लेकिन इनमें से हर एक का रिश्ता किसी न किसी सूरत से अवध की खोई हुई तहज़ीब से जुड़ा हुआ है, जिस तहज़ीब को इन्हीं लोगों ने बनाया है। ठीक उसी तरह, जिस तरह छोटी-छोटी नदियां मिलकर बड़ा समन्दर बनाती हैं। अगर इसे डूब कर समझा और महसूस किया जाए, तो पाएंगे कि रहन-सहन, बातचीत, सोच-विचार और अनोखी अभिरुचि की ये विधा यहाँ के आदमी-आदमी में तक्सीम होकर बंटती रही है। इसी की गवाह है यह किताब “लखनऊ एक जुदा ही अदा” जिसके पात्र, प्रसंगो, शब्दचित्रों को पढ़कर उस नर्म नाजुक ख़ुशगवार वातावरण की ख़ुशबू को महसूस कर सकना मुमकिन हुआ है।
लेखन शैली एक ऐसी कला है, जिसे इस धरती पर सर्वश्रेष्ठ का दर्जा हासिल है। युग कोई भी रहा हो, लेखन शैली का अपना महत्त्व है। इस क़िताब में एक जुदा सी अनूठी शैली उभरकर सामने आती है। लेखक ने उर्दू को खूबसूरत लबोलहजे़ में देवनागरी के लिबास में प्रस्तुत किया है, जो ख़ास लखनऊ की आम बोलचाल की जुबां है। किस्सागोई में किस्सों के बीच-बीच में अवधी मुहावरों के रंगीन हुबाब पट-पट फूटतें हैं, जिसे पढ़ते वक़्त एक ताज़गी और अपनेपन का एहसास होता है। पाठक उस दौर में पहुँच जाता है, जहाँ दिल-ए-लखनऊ ख़रामा ख़रामा धड़कता है। तहज़ीबी रंग के ख़ुशनुमा साए में रची-बसी जिंदादिल लोगों की दास्तां, ज़िंदगी की ज़हमत के बीच चंद सुकून के पल दे जाती है। क़िताब में मौजूद कुछ ख़ास किस्से भी हैं जहाँ पाठक स्वयं को जोड़ पाता है।
लखनऊ के अनोखे अंदाज़ के तमाम दिलचस्प किस्से, इस शहर की खुशबू बनकर दुनिया जहान में बिखरते रहे हैं, लेकिन ये सिर्फ अफसाने नहीं होते। ऐसे सच की कुछ गुमशुदा तस्वीरें भी होती हैं, जो अवध की पहचान बन गई हैं। सोचिए ये जुमला कैसे ईजाद हुआ “मुस्कुराइए आप लखनऊ में हैं।” तो अपनी गहन खोजबीन के बाद लेखक ने कल्लन मियां को ढूढ़ निकाला। ये वही कल्लन मियां हैं, जिन्होंने प्रथम विश्वयुद्ध का जमाना भी पूरे होशोहवास में देखा था और इन्होंने ही इस लखनऊ और लखनऊ वासियों को मुस्कुराने के वाज़िब मौके दिए हैं। जिनकी वजह से आज लखनऊ मुस्कुरा रहा है।लखनऊ वालों का शायराना मिजाज भी इस क़िताब में अलग कलेवर के साथ मौजूद है। लखनवी उपन्यासों के मशहूर किरदार भी इस किस्सागोई में शामिल किए गए हैं। शहर के तमाम जगहों जैसे अमीनाबाद , हजरतगंज, नक्खास इत्यादि का लेखक ने बेहद सजीव चित्रण किया है। पान लगाने और खाने का अंदाज़, पान की भीतरी आराइश, तमाम मुश्की मसालों के अलावा इसमें तवानाई के नुस्खे किस तरह इस्तेमाल किए जाये और खाने के बाद इसका असर, इसका दिलचस्प खुलासा भी इस क़िताब में किया गया है। लखनऊ की पतंगबाजी, आशिकाना मिज़ाज, प्रेमपत्र लिखने की बारीकियाँ, शेख़ीबघारना इत्यादि एक ख़ास अंदाज़ में इस क़िताब में मौजूद है। लखनवी अंदाज़ की जमघट में शामिल होकर पूरी बेफ़िक्री के साथ निहायत इत्मीनान से इस क़िताब को जरूर पढ़ा जा सकता है। जो ज़िंदगी में एक खा़स हिस्से की तरह हँसते-मुस्कुराते और गुदगुदाते हुए जे़हन में शामिल हो जाएगी, जिसमें लखनऊ से जुड़े लोगों को अपने-अपने समय का शहर मिल जाऐगा।
वर्तमान भारतीय समाज आज दो पाटों के बीच पिस रहा है – एक पश्चिमी आधुनिकतावाद और दूसरा वंशानुगत संस्कारवाद। इससे समाज के भीतर जो द्वन्द्व पैदा हो रहा है, उससे पूर्णता के बीच रिक्तता, स्वच्छन्दता के बीच अवरोध और प्रकाश के बीच अन्धकार आ खड़ा हुआ है। परिणामतः व्यक्ति ऊबने लगा है। अपनी पहचान के लिए पहचानहीन होते जा रहे भारतीय समाज की भौतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक महत्त्वाकांक्षाओं के बीच एक अज़ब सा खेल चल रहा है भागते समय और बीती स्मृतियों का खेल। जो छूट रहा है उसे समेटने का और जो बह रहा है उससे निर्लिप्त हो जाने का। बिताए हुए दिन जरूर जुदा हो जाते हैं, पर यादें कभी जुदा नहीं होती। इस क़िताब में लखनऊ शऊर में पिरोये गए अफ़सानों की वो झालर है, जिसमें गंगा-जमुनी तहज़ीब की विरासत का एक रंग है। जो लखनऊ में रहे, लखनऊ को जिये वो इस एहसास को शिद्दत से महसूस करेंगे। और जो लखनऊ को नहीं जानते, उनके लिए ये क़िताब एक तोहफ़ा है। लखनऊ को जानने का, समझने का, महसूस करने का। हक़ीक़तन लखनऊ की जिस रोजमर्रा ज़िंदगी को तकरीबन सभी ने जिया और महसूस किया है, ये क़िताब उसी का एक अक्स है। अंधाधुंध भागदौड़ और मशीनी युग में लखनऊ एक शै है, जिसे जिया जाता है…एक मिज़ाज है जिसे महसूस किया जाता है।
Oct 24 2024, 07:22