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Editor

Nov 14 2023, 11:05

त्वरित टिप्पणी: धनबाद में फिर आग ने ली जान ,लापरवाही या अव्यवस्था...? फिर उठा सवाल...!

(विनोद आनंद)

धनबाद में फिर आग ने ली तीन लोगों की जान । इसके पहले आशीर्वाद अपार्टमेंट और डॉक्टर हाजरा क्लीनिक में लगी आग और उसमें हुई मौत ने पृरे देश को दहला दिया था। कई सवाल भी उठे थे।कटघरे में सरकारी तंत्र के कई विभाग भी थे ...! 

जिसमें बिल्डिंग निर्माण , नक्शा पास करने वाले विभाग,नगर निगम, अग्निशमन विभाग सहित कई ऐसे विभाग थे जो अपार्टमेंट बनाने के अनुमति से लेकर एनओसी देने वाले विभाग हैं।

आशीर्वाद अपार्टमेंट की घटना के बाद कुछ दिनों तक तो यह विभाग एक्टिव रही, जांच की, कई खामियां पाई लेकिन कारबाई कुछ नही हुआ। क्यों नही हुआ...? कहीं मैनेज तंत्र काम किया या लापरवाही इस पर तो सरकार को सज्ञान लेने की जरूरत है । लेकिन 9 महीने बाद फिर लगी आग लोगों के मन मे डर पैदा कर दिया है।साथ हीं इस विभाग पर प्रश्नचिन्ह भी खड़ा कर दिया।

कल रात लगी केंदुआ में यह आग जिन लोगों की जान ले ली अगर सरकारी व्यवस्था सजग होती तो शायद इन्हें बचाया जा सकता था।स्थानीय लोगों का आरोप है कि आग एस जेनरल सिंगार स्टोर में साढ़े 9 बजे के आस-पास लगी। लोगों ने ज्योही आग लगा देखा भीड़ जुट गयी।तत्काल अग्निशमन विभाग, और 108 एम्बुलेंस को खबर किया लेकिन अग्नि शमन विभाग की दमकल गाड़ी 2 घंटे बाद घटनास्थल पर पहुंची।लापरवाही एम्बुलेंस सेवा द्वारा किया गया।तब तक आस पास के स्थानीय नागरिकों ने अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हुए आग बुझाया

और अपने हिसाब से रेस्क्यू किया।सबसे बड़ी बात यह है कि यह बिल्डिंग जहां था वहां संकरी गली है जहां आसानी से गाड़ी नही पहुंच सकते । दूसरी सबसे बड़ी बात है। सरकारी तंत्र की शिथिलता के कारण रेस्क्यू भी समय पर नही हो पाया। एम्बुलेंस सेवा 108 को फोन करने के बाद भी समय पर घटना स्थल पर नही पहुंची ताकि प्रभावित लोगों को अस्पताल पहुंचाया जा सके।जिससे स्थानीय लोगों में गुस्सा भी है और पूरी व्यवस्था पर सवाल भी उठाया जा रहा घटना का कारण...!

धनबाद में बिल्डिंग और अपार्टमेंट बनाने में भी सरकार द्वारा तय सुरक्षा मानकों का लगातार अवहेलना किया जा रहा है । लेकिन सम्बंधित विभाग को कोई मतलब नही है।

पिछले दिन जब आशीर्वाद अपार्टमेंट हादसा हुआ था तो सरकारी विभाग रेस हुई थी। जांच के बाद कई अपार्टमेंट में खामियां भी पाई गई थी। लेकिन कार्रवाई क्या हुई नही तो इसकी जानकारी आम आदमी को है, और नही सरकार को।लेकिन इस घटना के बाद प्रशासन और सरकार को एक बार फिर सजग होने की जरूरत है। 

लगातार धनबाद में अग्निकांड से हो रही हादसा और लोगों की जा रही जान चिंता का विषय है।अब इसी आशंका से भय बना रहता है कि अब यह घटना कहाँ हो जाये और किनकी जान चली जाए।

नियम है किसी भी अपार्टमेंट में उसके आसपास इतनी जगह हो जहां इस तरह के हादसा में वाहन जा सके।बचाव के लिए ऑपरेशन किया जा सके।हर अपार्टमेंट में अग्निशमन व्यवस्था हो।इन विभागों द्वारा एनओसी दिए जाने के पूर्व ईमानदारी से पड़ताल हो। आम लोग भी जब मकान बनाये तो अपने आस पास जगह छोड़ कर बनाये ताकि सुरक्षा के सारे इंतजाम हो सके।

अब लगातार हो रही इन घटनाओं के बाद प्रशासन को सजग हो जाना चाहिए, जिले के आला अधिकारियों को सज्ञान लेकर फिर से सर्वे कराकर इस में जो भी त्रुटि हो उसे दूर करने के लिए शख़्त कदम उठाना चाहिए।और अग्निशमन तथा एम्बुलेंस सेवा को दुरुस्त कर हमेशा अलर्ट मोड़ नें रखने के लिए शख़्त निर्देश देना चाहिए ताकि इस तरह की हादसा में किसी की जान नही जा सके।

अब देखना है कि प्रशासन सजग होकर इस दिशा में ठोस कदम उठाती है या नही।और जिन लोगों ने नियम को ताक पर रख कर घर या अपार्टमेंट बनाया है उस पर नियम संगत करबाई करती है या नही। ताकि इस तरह घटना को रोका जा सके।

Editor

Nov 12 2023, 11:43

संपादकीय: अंधकार के विरुद्ध मनुष्य के अदम्य आकांक्षा का उद्घोष है दीपावली...! यह आपके जीवन में उजाला लाये और मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहे ,...!

:- विनोद आनंद

आज दीपावली है ..! सनातन संस्कृति में हर पर्व के पीछे कुछ न कुछ उधेश्य छिपा होता है।उस उधेश्य के निहितार्थ पर्व मनाया जाता है। हमारे भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी खासियत रही है कि पर्व को हम जिस कसौटी पर परखने की कोशिश करें कुछ न कुछ वैज्ञानिकता,उधेश्य और सामाजिक परिवेश के लिये कई जरूरी कारण होते हैं। दीपावली को भी हम इसी कसौटी पर परख सकते हैं।

यू तो कहा जाता है कि दीपावली सत्य, शील और धैर्य के प्रतीक श्रीराम के अभिनंदन का पर्व है।  

 इस परम्परा की शुरुआत तब हुई जब श्री राम 14 वर्ष वनबास काट कर लंका विजय और रावण बध के बाद अयोध्या लौटे । उसी समय उनकी प्रजा ने दीपोत्सव का आयोजन कर उनका अभिनदंन किया। लेकिन और भी कई किंबन्दतियां इस पर्व से जुड़ी है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिक्ख धर्म में भी भी इसको लेकर कहानियां है। सभी में इस प्रकाश उत्सव का उधेश्य है अंधकार पर विजय।

 दीपावली उत्सव अंधकार के विरुद्ध मनुष्य के अदम्य आकांक्षा का उद्घोष है। अंधकार कितना भी गहरा क्यों न हो प्रकाश के आगे नही टिक सकता।

   इस पर्व का मकसद हीं रहा कि हमारे जीवन में कई रूपों में प्रवेश किये अंधकार को जड़ से मिटाना।

आज हमारे बीच आपसी मतभेद,असत्य,कपट, छल घर कर गया है। लोगों के बीच आपसी भरोसा टूट रहा है,लोगों में असुरक्षा और अनादर का भाव बढ़ रहा है।निजी स्वार्थ में लोग किसी के भी हित और उसकी भावनाओं को अनदेखा कर रहे हैं ऐसी स्थिति में यह प्रकाश रूपी उजास हमारे अंदर के अंधकार को दूर करे। इसी उधेश्य से यह परम्परा हमारी संस्कृति को विरासत में मिली है। हम सदियों से इस परम्परा का निर्वहन करते आ रहे हैं।

आज दीपावली के पूर्व हम अपने घरों के साथ अपने घर के आस पास भी स्वच्छ करते हैं, अपने व्यस्त समय में से थोड़ा सा समय निकाल कर अपने बच्चों परिवार और इष्ट मित्रों के बीच मिठाई बांट कर गले मिलते हैं।यह पर्व कुछ क्षण के लिए हीं सही हमें सकून, भाईचारा,बच्चों के प्रति स्नेह, परिवार के बीच खुशियों का माहौल देता है। लक्ष्मी पूजन से हमारे अंदर भक्ति भाव को जागता है।आस्था के कारण हमारे मन में भक्ति और भरोसा का भाव जगाता है।

अंधकार पर विजय, स्वच्छ परिवेश ,स्वच्छ मन ,स्वस्थ जीवन के साथ हम इस परम्परा को आत्मसात करें।और जिस उधेश्य से यह दीपोत्सव मनाया जाता है उसे समझें।

साथ हीं साथ संपादकीय और प्रबंधकीय टीम की ओर से सभी स्ट्रीट बज्ज के पाठक, सुवेक्षु,विज्ञापन दाता और हमारे संस्थान के सभी सहयोगी सहकर्मी को दीपावली की ढेर बधाई देता हूँ और  

आप सभी पर मां लक्ष्मी की भी कृपा बनी रहे।आप के मन का अंधेरा दूर हो जीवन में प्रकाश का उजास फैले यह कामना करता हूँ...!

Editor

Oct 26 2023, 07:34

गाज़ा-इज़रायल युद्ध क्या तीसरे विश्वयुद्ध की आहट है..? दुनिया को एक दूसरे के समर्थन में गुटबंदी के बजाय इसे रोकने के लिए आगे आने की जरूरत है..!

  

- (विनोद आनंद)

युद्ध का परिणाम कभी भी अच्छा नही होता।दो शक्तियां लड़ती जरूर लेकिन मारे जाते हैं निरीह लोग जिनका युद्ध से कोई वास्ता नही होता।

भूख, प्यास और अपनों के बिछड़ने का गम क्या होता है ?यह जाकर यूक्रेन,इज़राइल और गाज़ा के लोगों से पूछिये।दुर्भाग्य तो यह है कि इस युद्ध को रोकने के बजाय दुनिया के सभी देश एक दूसरे के समर्थन में जुटकर गोलबंद हो जाते हैं । इसे रोकने या तटस्थ होकर बीच वचाव के वजाय इस युद्ध को अपने लिए अवसर के रूप में देखते हैं। और उसे सह देकर बढ़ाते हैं।

आज युद्ध में किया हो रहा है ..? लोग मरे...! तबाही हो...! कोई देश खंडर बन जाये..! इस से वास्ता नही , लेकिन आज इस युद्ध में भी हर देश अपनी अपेक्षाएं ढूंढते हैं।उनके हथियार बिके, उनके लिए व्यवसाय का मौका बढ़े।यही उनकी अपेक्षा होती है । उस शक्ति के बिरुद्ध कई देशों को एकजूट होकर उसे नीचे दिखाया जा सके जो देश उनका दुश्मन है या उनके लिए चुनौती बना हुआ है।

 अपने इस हित को साधने के लिए किसी देश के कंधे पर बंदूक रख कर चलाना शुरु कर देते हैं । लेकिन बर्बादी होती है उस देश की जिनके कंधे पर बंदूक रखकर चलाया जाता है। बर्बाद होने वाले देश से उनकी कोई सहानुभूति नही होती। बल्कि उनके हित और आकांक्षाओं की पूर्ति हो रही कि नही उसे सिर्फ इस बात से मतलब होता है। यूक्रेन के साथ भी यही हुआ, और आज गाजा इज़राइल के साथ भी यही हो रहा है।

दुर्भाग्य तो ये रहा कि द्वतीय विश्वयुद्ध के बाद जो सयुंक्त राष्ट्रसंघ बना जिसकी जिम्मेबारी थी की दुनिया में जब कोई ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जिससे पूरा विश्व अशांत हो जाये, किसी निरीह देश पर किसी ताकतबर देश हमला कर दे तो वह अंतराष्ट्रीय कानून का पालन करते हुए अमन शांति स्थापित करे,दोषी को अंतराष्ट्रीय कानून के तहत दंडित करे।लेकिन दुर्भाग्य ...! ऐसा नही हो पा रहा है। इसका बजह है इन अंतरष्ट्रीय संघठन में बने कुछ त्रुटिपूर्ण नीतियां,

आज इन संस्था के कुछ गिने चुने देशों के पास वीटो पावर है।अगर वीटो पावर वाले देश कुछ गलतियां भी करे तो उसे अपने विरोध में लगे किसी आरोप या किसी भी कारबाई को रोकने का हथियार उनके लिए ये वीटो पॉवर बन जाता है।

 आरोप या हर कारबाई को इस पावर का उपयोग कर वह रोक सकते हैं ।आश्चर्य तो यह है कि अगर 5 देश के पास वीटो पावर है , चार किसी भी गलती के विरोध में है तो वीटो वाला अकेला देश भी अपने वीटो का इस्तेमाल कर अपने को निर्दोष सावित कर किसी कारबाई को रोक सकता है।

पता नही इस तरह नियम बनाने वाले नीति निर्धारकों का उधेश्य क्या रहा होगा लेकिन इस से इस संस्था के उधेश्य और कार्य पद्धति से आज विश्व में जो परिस्थिति पैदा हो रही है उस पर अंकुश लगाना संभव नही है।इसमें भी सुधार होनी चाहिए।

अब रही वर्तमान संकट इजराइल और हमास युद्ध तो यह युद्ध आज लगभग 20 दिन हो गए।

अब तक गाज़ा के अंदर 4137 लोगों की मौत हो चुकी है, जबकि 12,500 लोग घायल हैं। वहीं, इजराइल ने बीती रात गाजा में 100 जगहों पर बम गिराए, इन हमलों में हमास के एक नेवी कमांडर की भी मौत हो गई। जो 7 अक्टूबर को इजराइल में नरसंहार का दोषी था। 

इस युद्ध में मैं नाम तो नही लूंगा लेकिन जिस तरह दुनिया के कई देश एक दूसरे के समर्थन में ताल ठोंक रहे है। वह दुनिया के सामने एक संकट बनता जा रहा है।आज इज़राइल और फिलिस्तीन के युद्ध में यही हुआ।चरमपंथी हमास के समर्थन में कई और देश आ गए और इजराइल से भी सहानुभूति रखने वाले देश भी गोलबंद हो रहे हैं। आज हालात यह है कि दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध के ओर बढ़ रहा है।इस युद्ध से कितना तबाही होगा इसकी कल्पना करके ही रूह कांप जाता है।

जबकि आज जरूरी था कि पहले सम्मलित शक्ति का प्रयोग कर इस युद्ध को रोके और जो इस युद्ध के लिए दोषी है उसे सम्मिलित रूप से दंडित किया जाय।

यहूदी फिलस्तीन विवाद कोई नया नही है पिछले सात दशक से यह विवाद जारी है लेकिन किसी विवाद के निपटारे के लिये आतंक या खून खराबा का सहारा लेना आज के सभ्य समाज के लिए उचित नही है। आज हमास या कोई भी आतंकी संघटन किसी न किसी देश द्वारा सम्पोषित संस्था है और इन गतिविधि के लिए वह देश जिम्मेवार है। उस देश के विरुद्ध ईमानदारी के साथ दुनिया के सभी देश सर्वसम्मत से एक कानूनी दायरा में कदम उठाए और जो भी देश इस तरह के गतिविधि को बढ़ावा दे रहा है उसके विरुद्ध भी कार्रवाई करे तो इसे रोका जा सकता है।

साथ हीं साथ पीड़ित देश, समुदाय या अन्य कोई कारक जिसके कारण इस तरह की परिस्थिति उत्पन्न हो रही है उसे भी न्याय दिलाने का निरपेक्ष भाव से कदम उठाए तो सारे समस्याओं का हल निकाला जा सकता है।

 आज दुनियां कई आसन्न संकटों से गुजर रही है, हाल में वैश्विक महामारी कोरोना ने दुनिया के करोड़ो लोगों को निगल लिया, कई देश भुखमरी और अभाव से गुजर रहा है। मानव के सामने कई संकट है जिसका हल हमें ढूंढना है।इस लिए अमन जरूरी है। हमें सभी देश को मिलकर सिर्फ अमन के लिए काम करना है।हिंसा करने वाले आतंकी मुख्य धारा से जुड़े,अपने हित साधने के सोच रखने वाले देश पूरी दुनिया का हित को सोचे,अहंकार त्याग कर उदार सोच को विकसित करें और पूरी दुनिया एक दूसरे के परस्पर सहयोग से आगे बढ़े । बस यही कामना के साथ... पूरी दुनिया से अपील करना चाहूंगा कि आप अपने देश या किसी भी देश में उस आतंकी संघटन या आतंकी गतिविधि में संलग्न व्यक्ति या संस्था को कभी भी बढ़ावा या सम्पोषित नही करें।और इसके लिए एकजूट होकर पूरी दुनिया पहल करे।

    मौजूदा हालात में इज़राइल का गुस्सा अपने जगह सही है।जिस तरह हमास ने 7 अक्टूबर को इजराइल में कत्ले आम मचाया, लोगों को बंधक बनाया, छोटे छोटे निरीह बच्चों की हत्या की, महिलाओं के साथ जो कुछ किया इसे कतई माफ नही किया जा सकता लेकिन इसके लिए धैर्य की जरूरत है और अंतराष्ट्रीय संघटन को उस ढांचा को मजबूत करने की जरूरत है जो ऐसे कुकृत्य करने वाले को दंडित कर सके, ना कि एक दूसरे के समर्थन में ताल ठोंक कर आगे आये।

धैर्य इस लिए भी जरूरी है कि आज गाजा में भी इस कारबाई से दोषी के अलावे निर्दोष लोग भी मारे जा रहे है ।

 गुटबंदी इस लिए जरूरी नही है कि इस से विश्व युद्ध की पुनरावृत्ति ना हो।क्योंकि युद्ध से सिर्फ विनाश होता है।हमने पिछले दो विश्वयुद्ध और जापान के नागासाकी और हिरोशिमा पर विनाशकारी परमाणु अटैक को देखा है। इसका हश्र क्या हुआ , तबाही, मौत,हाहाकार.बस हम यह नौबत नही आने दें। नही तो अब जो स्थिति होगी वह कल्पना से परे होगा। क्योंकि अब कई देश परमाणु अस्त्रों से सम्पन्न है।

 इसीलिए हमें सतर्क, सजग,और धैर्य से काम लेने की जरूरत है।और गाजा हो या यूक्रेन या अन्य कोइ देश वहां युद्ध को रोकना है ताकि एक अमन और शांतिपूर्ण विश्व की परिकल्पना हम कर सकें।

Editor

Oct 23 2023, 14:53

त्वरित टिप्पणी: रघुवर दास को राज्यपाल बनाये जाने के पीछे क्या है भाजपा का निहितार्थ ...?

  - विनोद आनंद

राजनीति में कोई भी घटना अप्रत्याशित नही होती,हर घटनाक्रम के पीछे कोई न कोई वजह जरूर होता है। राजनीतिक विश्लेषक अपने तरीके से इन घटनाओं को अपने नजरिये से परखने की कोशिश करते हैं।

कुछ ऐसी ही घटनाक्रम झारखंड में भी हो रही है जिस पर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।

वह घटना है रघुवर दास को उड़ीसा का राज्यपाल बनाया जाना। 

रघुवर दास भाजपा के कद्दावर नेता रहे हैं। मज़दूर राजनीति से अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत करने वाले रघुवर दास की पकड़ संघ में भी मज़बूत रही है।और इन समीकरणों के वजह से उन्हें झारखंड में भाजपा की सरकार में मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। वे झारखंड के पहले गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बने। पांच साल तक सरकार को सफलता पूर्वक चलाया भी।

रघुवर दास ने उस मिथक को तोड़ दिया कि सिर्फ झारखंड में आदिवासी हीं मुख्यमंत्री बन सकते हैं।

 दरअसल जब से झारखंड अलग हुआ एक परिपाटी सी बन गयी थी कि यहां आदिवासी चेहरा हीं सीएम बन रहे थे ।रघुवर दास ने इस मिथक को तोड़ा।वे स्थायी सरकार के पांच साल तक गैर आदिवासी मुख्यमंत्री रहे।

अब प्रश्न उठता है कि सीएम के रूप में भाजपा को सफल सरकार देने वाले रघुवर दास को अचानक सक्रिय राजनीति से अलग कर उड़ीसा का राज्यपाल बनाने के पीछे भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की मंशा क्या है ..?

 यह समझा जाता रहा है कि जब किसी राजनेता को सक्रिय राजनीति से अलग करना हो तो उसे राज्यपाल बनाकर किसी राज्य में बैठा दिया जाता रहा है। इसके दो परिणाम होते हैं वे जब किसी दूसरे राज्य में इस दायित्व को संभाल रहे होते हैं तो उनके अपने कार्यकर्ताओं के बीच कुछ प्रोटोकॉल के कारण खास सम्पर्क नही बना रह पाता है। कार्यकर्ता भी अपने को उस क्षेत्र के जो नए नेता बनते हैं उनके साथ अपने को एडजस्ट कर लेते हैं। तो क्या कोल्हान में यही होने वाला है।कोल्हान के एक बड़ा चेहरा रघुवर दास अब अपने नए दायित्व में उलझ कर अपनी जिम्मेवारी का निर्वहन करेंगे। और पार्टी की रणनीतिकर किसी नए चेहरा को यहां प्रमोट कर अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का रास्ता साफ कर लेंगे। 

 

इस बात को इस लिए भी बल मिल रहा है कि भाजपा 2024 में कहीं भी कोई रिस्क नही लेना चाहती है। जिसमे झारखंड भी एक है। इसका कारण है सरयू राय।सरयू राय भाजपा के नेता रहे।भाजपा की रघुवर सरकार में वे मंत्री भी रहे लेकिन रघुवर दास से उनकी कभी पटी नही,रघुवर सरकार के काम काज से खिन्न भी रहे और आवाज भी उठाते रहे। जिसके कारण उन्हें रघुवर दास ने 2019 के विधान सभा चुनाव में पार्टी से टिकट नही देने दिया।परिणाम स्वरूप वे रघुवर दास के विरुद्ध ही पूर्वी जमशेदपुर से खड़े हो गए। और रघुवर दास को हराकर विधानसभा पहुंचे।

भले हीं शीर्ष नेतृत्व ने इसे प्रदर्शित नही किया लेकिन रघुवर दास से बहुत ज्यादा खुश भी नही थे। इस वार 2024 के चुनाव में भाजपा कोई रिस्क नही लेना चाहती है। 

   कयास लगाया जा रहा है कि भाजपा ने इसी सोच के कारण रघुवर दास को राज्यपाल बनाकर पूर्वी जमशेदपुर सीट पर किसी तरह का पार्टी के अंदरूनी टकराहट को रोकने उपाय खोज लिया। एक तरफ रघुवर दास को राज्यपाल बनाकर उन्हें और उनके कार्यकर्ताओं को सतुष्ट कर दिया तो दूसरी तरफ अपने ही दल के एक नाराज ताकतवर नेता और वर्तमान निर्दलीय विधायक सरयू राय के लिए पार्टी में वापसी के लिए रास्ता साफ कर दिया।

इस बात को इस लिए भी बल मिलता है कि अचानक जमशेदपुर पूर्वी के विधायक सरयू राय की सक्रियता कुछ बढ़ सिबगयी है। वे भाजपा नेताओं से वे मिलने लगे हैं।अभी हाल हीं में महीनों से जेल में बंद रहे अभय सिंह से सरयू राय ने शिष्टाचार मुलाकात की है। जिसके बाद इस बात पर चर्चा होने लगी है कि क्या सरयू राय कि घर वापसी की तैयारी हो रही है।

   सरयू राय की अदावत सिर्फ रघुवर दास के साथ रही।पार्टी के अन्य कार्यकर्ताओं से उनकी कोई अदावत नही रही।और नही कभी उन्होंने पार्टी के कार्यक्रम और नीति का आलोचना ही किया है।

इससे इस बात को बल मिलने लगा है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व का कहीं रघुवर दास को राज्यपाल बनाने के पीछे सरयू राय को पार्टी में वापसी के लिए माहौल तैयार करने की रणनीति तो नही बना रहे हैं।

   इससे पार्टी को दो फायदे होंगे एक तो पार्टी के अंदर का अंतर्कलह बंद हो जाएगा।दूसरी ओर सरयू राय जैसे नेता की भाजपा में पुनर्वापसी हो जाएगी। अब देखिए पार्टी आगे इस दिशा में क्या कदम उठाती है और सरयू राय क्या निर्णय लेते हैं।लेकिन पिछले कुछ दिनों से झारखंड की राजनीति में जिस तरह सरयू राय ने अपनी मज़बूत पकड़ बनाई है उससे सरयू राय जैसे नेता भाजपा के लिए जरूरी हो गया है। इसी लिए कितने समीकरण बदलते है।

Editor

Sep 17 2023, 09:17

विपक्ष द्वारा 14 टीबी एंकरों के कार्यकर्मो का बहिष्कार से मीडिया की निष्पक्षता पर उठ रहे सवाल,और उसके साइड इफेक्ट..?

(विनोद आनंद)

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ प्रेस है।प्रेस को निष्पक्ष होकर अपनी बातों को रखने और सत्ता हो या विपक्ष उनसे सवाल करने का अधिकार है।

प्रेस की भूमिका हमेशा निष्पक्ष होकर उन सारी सूचनाओं को आम जनता तक पहुंचाने का है जो जनता को जानना चाहिए।

 लेकिन क्या आज प्रेस अपनी भूमिका और अपने कर्तव्य का सही ढंग से पालन कर रहा है...?,

क्या प्रेस की भूमिका को पालन करने में सरकारी तंत्र या सामाजिक स्तर पर वह स्पोर्ट और सहयोग मिल रहा है जो मिलना चाहिए।यह आज एक बड़ा सवाल बन गया है ,और इस पर बहस भी हो रही।

इस बहस को तब और बल मिल गया है जब विपक्ष की गठबंधन इंडिया(I .N .D. I .A.) ने देश के 14 प्रसिद्ध टी वी एंकरों के शो का वहिष्कार करने का निर्णय लिया है। 

अब विपक्ष इन एंकरों के कार्यक्रम में अपने प्रवक्ताओं को नही भेजेंगे। विपक्ष द्वारा इन एंकरों का सूची भी जारी कर दिया गया है। ये 14 एंकर हैं अदिति त्यागी,अमन चोपड़ा,अमिष देवगन,आनंद नरसिम्हन,अर्णव गोस्वामी,अशोक श्रीवास्तव,चित्रा त्रिपाठी,गौरव सावंत,नाविका कुमार,प्राची पराशर,रुविका लियाकत,शिव अरुर, सुधीर चौधरी और सुशांत सिन्हा।

विपक्ष द्वारा इन सभी एंकरों के शो से दूरी बनाने की इस करवाई के बाद वे अपने तर्क से विपक्ष की कारबाई को गलत बता रहे हैं,इसे आपातकाल बताकर विपक्ष को कोष रहे हैं , इस कदम पर भाजपा की भी प्रतिक्रिया आ रही है।वे उदाहरण दे रहे हैं कि जवाहर लाल नेहरू से लेकर राजीव गांधी तक प्रेस की स्वतंत्रता को कांग्रेस ने रौंदा है। लेकिन भाजपा सरकार के दौरान कितने पत्रकार को सरकार या मौजूदा सिस्टम पर सवाल उठाने से जेल जाना पड़ा। उन्हें दवाब पर मीडिया संस्थानों से निकाला गया इस पर कोई चर्चा नही हो रही है। जो होनी चाहिए।

मैं ना तो विपक्ष के इस कदम का समर्थन कर रहा हूँ और नही उन पत्रकारों के शो के बहिष्कार का पक्ष ले रहा हूँ। लेकिन एक सवाल जरूर पूछना चाहूंगा उन चंद पत्रकारों से जिन पर अंगुली उठते रहे हैं। 

क्या आप अपनी आत्मा से पूछिए कि आप अब तक जो करते आ रहे थे क्या वह आप के स्वयं का निर्णय था या संस्थान का निर्देश..? अगर आप की अंतरात्मा की यह निर्णय रही है तो आप को यह आत्ममंथन करने की जरूरत है कि आप क्या पत्रकारिता के धर्म का पालन कर रहे हैं...?, क्या भारत के मजबूत लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं..?

  

एक मजबूत लोकतंत्र के लिए जितना सरकार जरूरी है उतना ही मज़बूत विपक्ष भी।सरकार के कार्यों में संतुलन और उसे सही निर्णय लेने के लिए उसकी आलोचना भी जरूरी है। 

मीडिया का काम भी है कि सरकार से सवाल पूछे ना कि उसकी हां में हां मिलाए।सरकार का भी काम है अपनी आलोचना को सुने,उसपर मंथन करे और अगर उनके कोई निर्णय गलत हो रहा है तो उसे सुधार करें । तभी किसी के निरकुंश प्रवृति को रोका जा सकता है। 

आज मीडिया संस्थानों को भी कॉरपरेट घराने चला रहे हैं।इन मीडिया संस्थानों के आड़ में सरकार को खुश करना और उसके सहारे सरकार के विभिन्न प्रतिष्ठानो से काम लेकर व्यवसाय करना रह गया है।

इन संस्थानों का दवाब भी उस कथित पत्रकारों पर होता है कि उन्हें क्या करना है, किन सवालों को पूछना है, किस पार्टी को तरजीह देना है।इस लिए ऐसे संस्थानों की निष्पक्षता और पत्रकारों की विवशता को भी समझा जा सकता है। और उससे निष्पक्ष होकर काम की उम्मीद नही की जा सकती है।

लेकिन विपक्ष के इस कदम और तेवर से एक बार जरूर इन मीडिया संस्थानों में भी डर बैठ गया है ।

इसके कई साइड इफेक्ट पर भी चर्चा हो रही है कि जिन राज्यों में विपक्ष की सरकार है अगर गोदी मीडिया के आरोप लगे इन संस्थानों को सरकारी विज्ञापन उस राज्य की सरकार बंद कर दे तो इन्हें भी बहुत बड़ा नुकशान उठाना पड़ सकता है।और आने वाले दिनों में जब केंद्र में इनकी सरकार बनती है तो भी इसके इफेक्ट पड़ सकते हैं।

वैसे भी इन संस्थानों को यह भी समझना चाहिए कि आज एक पार्टी की सरकार है, कल हो सकता है दूसरी पार्टी की सरकार हो जाये तो उनके इस एजेंडे से उन्हें कितना नुकसान उठाना होगा। इस पर भी उन्हें मंथन करने की जरूरत है। इस लिए समय रहते आत्ममंथन कीजिये और इस कदम के बाद निष्पक्ष होकर स्वतंत्र पत्रकारिता को जिंदा कीजिये।

Editor

Jul 21 2023, 08:37

त्वरित टिप्पणी:मणिपुर की शर्मसार घटना,दोषी कौन..? क्या हर समस्या का समाधान सरकार की चुपी है..!

 ;(विनोद आनंद)

मणिपुर में एक वीडियो सामने आया जिसमे दो महिला को निर्वस्त्र कर भीड़ के सामने घुमाया गया फिर उसे खेत में ले जाकर उसके साथ उसका उत्पीड़न किया गया।

  उस महिला का सिर्फ दोष इतना था कि वह जिस दो समुदाय में हिंसक झड़प हो रही थी उस में से वह एक ऐसे समुदाय की थी जहां यह घटना घाटी वहां उसकी आबादी कम थी।

यह घटना मानवता को तार - तार करने वाली थी,उस घटना के समय वहां उपस्थित लोगों में एक भी आदमी ऐसा नही था जो इस जघन्य अपराध को रोके। मना करे कि यह अपराध मानवीय मूल्य को कम करने वाली है।इस घटना के कारण देश शर्मसार हुआ।और सरकार, शासन को भी कठघड़े में खड़ा कर दिया। साथ ही एक सवाल भी उठने लगा कि इस तरह के घटना के लिए दोषी कौन है। क्या वे लोग जिसके सामने इस तरह की घटना घटी या  शासन व्यवस्था जो ईस तरह के स्थिति में लोगों की सुरक्षा नही कर सकी,या अगर ऐसे मामले पुलिस की सज्ञान में आई भी तो कारबाई में इतनी देरी हुई। कई सवाल हैं जिसका जवाब देना चाहिए।

इस घटना की जीरो एफआईआर अन्य थाना में करने की भी बात सामने आ रही है फिर भी दोषी पर कार्रवाई में इतनी देर क्यों हुई, और अब कार्रवाई भी तब हो रही है जब यह वीडियो वायरल हुआ।

वीडियो वॉयरल होने और हर ओर से प्रतिक्रिया आने के बाद कारबाई भी शुरू हुई। देश के पीएम और मंत्री भी इस पर टिप्पणी कर रहे हैं।और कारबाई कि बात भी कर रहे हैं।

यह घटना और मणिपुर की हालात पर देश की केंद्र तथा मणिपुर की राज्य सरकार पर सवाल तो उठता है कि जनता जिस ईमानदारी और उम्मीद से आप को सत्ता में भेजती है, सुरक्षा,सुशासन,और जनता के दुख दर्द को दूर करने के लिए जो जिम्मेदारी आप को जनता देती है, अपने टैक्स और गाढ़ी कमाई से आप को राज सुख, पर्याप्त वेतन , भत्ता और राजशाही जिंदगी जनता आप को दे रही है क्या आप उसका सही से निर्वहन करते हैं। इस पर आप को मंथन करना होगा ,साथ ही उन जनता को भी मंथन करना होगा कि जिस उम्मीद के साथ आप अपने वोट से चुनकर जिन लोगों को गद्दी पर बैठा रहे हैं वह आप के कसौटी पर कितना खड़ा उतर रहा है..?

वैसे इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वतः सज्ञान लिया है। केंद्र और राज्य सरकार से जवाब भी मांगा है।सरकार क्या जवाब देती है यह तो बक्त बताएगा।लेकिन यह सरकार की पूरी तरह विफलता है। जो एक्शन सरकार को लेनी चाहिए नही ली गयी। इस तरह के मामले को जिस संजीदगी के साथ हल करना चाहिए उसे नही किया जा सका।

अगर मामले की तह और इस घटना के स्थितियों पर चर्चा करें तो जिस आग से मणिपुर जल रहा है उस पर सरकार की रहस्यमय चुपी और एक्शन में शिथिलता कई सवाल खड़े करते हैं।

मणिपुर हिंसा में अगर मीडिया रिपोर्ट की बात माने तो 120 लोगों की जान गई,3000 से ज्यादा लोग घायल हुए, 50,000 लोग अपने घर बार छोड़कर रिलीफ कैम्प में रहने को बाध्य हैं। 

मणिपुर में 3 मई से हिंसा शुरू हुई और लंबे समय तक चली।पूरे राज्य की व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गयी,हालात युद्धग्रस्त लीबिया और सीरिया जैसे हो गया।भीड़ ने केंद्रीय मंत्री के घर तक को फूंक दिये कितने घर जले, दुकाने लूटी गई , राज्य के हालात इतने बदतर हो गए कि वहां सेना भी तैनात करना पड़ा।इसके वाबजूद केंद्र सरकार किसी तरह राज्य के हालात को काबू पाने के लिये हस्तक्षेप नही किया।

क्या इस तरह के हालात किसी गैर भाजपा शासित राज्य में होता तो फिर भी केंद्र सरकार चुप रहती..? कई सवाल हैं जो जनता के बीच है।

मणिपुर के हालात पर भारत समेत दुनिया में चर्चा होने लगी।भारत सरकार पर अंगुली भी उठने लगे,फिर भी केंद्र की चुपी नही टूटी।अब जब कि यह जघन्य मामला सामने आया है तो पीएम मोदी ने छत्तीसगढ़ और राजस्थान को टैग करते हुए मणिपुर की घटना पर चर्चा किया इस जघन्य अपराध पर दुख व्यक्त किया, कार्रवाई की बात भी कही।

किंतु बहुत देर हो गई ,अब ना तो देश की उस बेटी की पीड़ा को कम किया जा सकता है जो इस हालात से गुजरी और नही 120 लोगों की जिंदगी लौटाई जा सकती है जो इस घटना में मारे गए।

इस घटना का कोई बहुत बड़ा कारण भी नही था, अगर सरकार सजग होती। जिस आरक्षण को लेकर आक्रोश बढ़ा उसके लिए दोनों समुदाय से राज्य सरकार या केंद्र सरकार बात करती, केंद्र सरकार भी हस्तक्षेप कर सकारात्मक पहल करती तो स्थिति इतना नही बिगड़ता।

लेकिन मौजूदा सरकार हमेशा अपनी जिम्मेबारी और जनता की समस्या का हल मौन होकर करती है।इन्हें कौन बताए कि हर समस्या का समाधान चुपी नही है। बल्कि सरकार संवाद के जरिये जनता का विश्वास जीत सकती,उनके गुस्से को शांत कर सकती और अपनी स्थिति भी मजबूत कर सकती।

पता नही मौजूदा सरकार के नीति निर्धारण और कार्यशैली के लिए यह सलाह कौन देता..?,किसके हिसाब से सरकार चलती और लगातार जनता का विश्वास खोती जा रही है, यहां हम सरकार की उस सभी गलतियों का जिक्र नही करना चाहेंगे जिस के कारण आज लगातार जनता के बीच मौजूदा सरकार के लिए निगेटिव सोच बनती जा रही है।लेकिन इतना जरूर कहेंगे कि सरकार अगर अपनी अहंकार त्याग कर जनता के लिए ली गयी जिम्मेबारी का निर्वहन करती तो हालात इतने नही बिगड़ती।और नही इतना क्षति होता।

(अगले एपिशोड में पढ़िए मणिपुर हिंसा का कारण,व्यवस्था की कमी ,और उसकी विसंगतियां और समाधान पर स्ट्रीटबज़्ज़ का दृष्टिकोण)

Editor
Editor

Jun 19 2023, 12:23

अर्थव्यवस्था की दौर में तेजी से छलांग लगा रहे भारत से क्यों पलायन कर रहे हैं करोड़पति..? (भाग - 2)


(विनोद आनंद)


जैसा कि पिछले अंक में आपने पढ़ा कि भारत के करीब 65 हज़ार ऐसे करोड़पति व्यवसायी 2023 में भारत छोड़कर विदेशों में बसने जा रहे हैं जो यहां एक मिलियन डॉलर निवेश कर हज़ारों लोगों के लिए रोजगार सृजित कर सकते थे और भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत भी कर सकते थे।

देश छोड़ कर विदेश में बसने की प्रवृति काफी समय से भारत के लोगों में रही है। इसका कारण है भारत में यहां के परिवेश और व्यवस्था से निराशा। इनके विदेशों में बसने का मूल कारण उन्हें एक अच्छा परिवेश, रोजगार की अपार सम्भावनायें, सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था और उनके लिए अनुकूल माहौल...!

पिछले वर्ष 2022 में भी 7500 लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ विदेशों में बस गए हैं।

अगर आंकड़ो की बात करें तो

2015 से 2022 तक का आंकड़ा देखे तो भारत की नागरिकता छोड़ विदेशों में बसने वाले कि शंख्या इस प्रकार है

वर्ष:-     भारत छोड़ने वाले

2015:-     131,489

2015:-     131,489

2015:-     131,489

2015:-     131,489

2016:-     141,603

2017:-     133,409

2018:-     134,561

2019:-     144,017

2020:-     085,256

:2021     163,370

2022:-     2,25,620

सिर्फ वर्तमान सरकार के शासन काल में ही नही भारत से लोगों का पलायन हुआ बल्कि इसके पूर्व भी लोग यहां से जाकर विदेशो में बसते रहे हैं।

अगर बात करें हम 2011 से अब तक 16,63,440 लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी और दुनिया के 135 देशों में जाकर बस गए।

अगर वैश्विक आंकड़ो की बात करें कि उस देश की परिस्थिति और वहां के कई स्थानीय कारणों से लोग अपने देश को छोड़ कर विदेशों में बसने लगे हैं। 2023 कि ही बात करें तो पलायन की प्रवृति में चीन पहले स्थान पर है जहां से इस वर्ष करोड़पति व्यवसायी 13500,पलायन करने के तैयारी में है, वहीं दूसरे नंबर पर भारत है जहां से 6500 लोग पलायन कर रहे हैं वहीं तीसरे नंबर पर ब्रिटेन 3200 और चौथे नंबर पर रूस है जहां से 3000 करोड़पति इस वर्ष पलायन कर रहे हैं।

    संविधान के अनुसार भारत में एकल नागरिकता का प्रावधान है।एक बक्त में भारत के कोई नागरिक एक ही देश की नागरिकता रख सकते हैं।अगर वे किसी अन्य देश की नागरिकता लेते हैं तो भारत की नागरिकता स्वतः हीं समाप्त हो जाती है।

 इस तरह भारत की नागरिकता छोड़ने की बात करें तो 2021 में 1.63 लाख और 2022 में 2.25 लाख लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी है।

पलायन के कारण और मौज़ूदा हालात पर क्या है अर्थशास्त्रियों की राय...?

भारत में लगातार बड़े व्यापारियों और प्रतिभाशालियों के पलायन को चिंतनीय बताते हुए विश्व बैंक के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट और मुख्य आर्थिक सलाहकार के रूप में काम कर चुके जाने माने अर्घशास्त्री कौशिक बसु ने इसे चिंता का विषय बताते हुए कहा कि जिस तरह भारत में ग्रमीण उपभोग की बस्तु की खपत कम हुई है। विकास दर और बेरोजगारी जिस रफ्तार से बढ़ी है, तथा हर सकते के जो आंकड़े आ रहे हैं वह चिंता का विषय है। इस पर सरकार को गंभीरता से सोचना चाहिए।निवेश को भारत में आकर्षित करना चाहिए और रोजगार सृजन के दिशा में नीतिगत फैसले लेने चाहिए। कौशिक बसु 2009 से 2012 तक भारत के आर्थिक सलाहकार के रूप में भी काम किया है।

वहीं विश्व बैंक की सीनियर अर्थशास्त्री इंदिरा संतोष ने भी भारत में लगातार लोगों की छीनती रोजगार और बढ़ते बेरोजगारी की दर पर भी चिंता जाहिर की है।उनका कहना है कि भारत के माध्यम वर्ग की बड़ी आवादी गरीबी रेखा से ऊपर आयी है लेकिन जिस तरह उनका रोजगार छीन रहा फिर वे गरीबी रेखा की ओर जा रहे हैं।

    

इस तरह कई आर्थिक विशेषज्ञ ने माना है कि भारत जिस दौर में भले हीं जहां पहुंचा हो लेकिन इसे झुठलाया भी नही जा सकता है कि भारत में बेरोजगारी बढ़ी है।लोगों के सामने रोजगार की चिंता, बच्चों के बेहतर भविष्य की चिंता,काम के अनुकूल वातावरण की कमी, श्रम के अनुसार आय की कमी और सरकार के अकुशल प्रबधन के अभाव में लोग खासकर व्यापारी वर्ग ज्यादा असुरक्षित महसूस करने लगे हैं।इसीलिए सरकार को इस दिशा में नीतिगत फैसले लेने की जरूरत है। और रोजगार के अवसर सृजित करने और व्यापारियों को अनुकूल माहौल देकर उन्हें भरोसे में लेने की जरूरत है।

Editor

Jun 17 2023, 08:50

अर्थव्यवस्था की दौर में तेजी से छलांग लगा रहे भारत से क्यों पलायन कर रहे हैं करोड़पति...?


(विनोद आनंद)


हेनले प्राइवेट वेल्थ माइग्रेशन के  2023 की रिपोर्ट के अनुसार भारत से 6500 करोड़पति भारत छोड़कर विदेशों में बसने जा रहे हैं। ये करोड़पति ऐसे लोग हैं जो एक मिलियन डॉलर भारत में निवेश कर सकते हैं जिससे भारतीय इकोनॉमी का और ग्रोथ हो सकता है,इससे लोगों के लिए रोजगार भी सृजित हो सकते हैं जिसकी भारत को आज जरूरत है।

पिछले साल भी 7500 सौ करोड़पतियों ने भारत छोड़ा था जो विदेशों में जाकर बस गए हैं, और यह सिलसिला पिछले कई वर्षो से लगातार जारी है जिसका आंकड़ा हम आगे देंगे और इस पर चर्चा करेंगे।

लेकिन हम यह सवाल उठाना चाहेंगे कि अगर भारत आज विश्व में तेज़ी से उभड़ता हुआ इकोनॉमी है । मोदी सरकार के भारत का विश्व में डंका बज रहा है तो भारत के लोगों के इस पलायन को रोकने में सरकार क्यों कामयाब नही हो पा रही है....?

इस पलायन को रोकने के लिए सरकार को क्या करना चाहिए इस पर विश्लेषण करने की जरूरत है।जिसे सरकार को गंभीरता से करना चाहिए।

आज अगर विश्व के एजेंसियों की रिपोर्ट और आंकड़ो की बात करे तो भारत विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश बन गया है । इसके आगे अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी हैं। भारत ने पिछले 10 सालों में शानदार आर्थिक विकास दर हासिल की है और जहां एक दशक पहले भारत दुनिया की 11वीं सबसे बड़ी इकोनॉमी था वहीं अब ये 6 स्थान आगे बढ़कर 5 वें स्थान पर आ गया है। यह भारत के लिए बहुत उपलब्धि मानी जा सकती है।

इसके साथ हीं अब भारत से ऐसे लोगों का लगातार पलायन जो भारत की इकोनॉमी को और मजबूत कर सकता है इस पर सरकार को चिंता करने की जरूरत है।

  वैसे भारत से प्रतिभाशाली लोगों और उधमियों का पलायन कोई नई बात नही है। चाहे पूर्व में कांग्रेस की सरकार रही हो या वर्तमान में भाजपा की सरकार कोई भी सरकार इस तरह की नीति नही बना पाई की लोगों के पलायन को रोक सके। आज भारत से पलायन का मुख्य वजह है कि यहां सरकार किसी की भी रही हो,वे नही तो प्रतिभाशाली युवाओं के लिए उनके अनुकूल रोजगार और आकर्षक वेतन की व्यवस्था कर पाए हैं और नही यहां के उधमियों के लिए अनुकूल वातावरण दे पाए हैं।

 आज भी भारत में उधोग के लिए अनुकूल वातावरण नही है।उधमियों की सुरक्षा,उनके लिये सुगम टैक्सेशन की व्यवस्था, सरकारी ऑफिस के बाबुओं की असहयोगात्मक नीति और उपर् से राजनेताओं का चंदा,गुंडों की धमकी,मज़दूर संघटन का दवाब और कई तरह की विसंगतियां है जो यहां के उद्यमियों को हताश और निराश किया है।परिणाम स्वरूप लोग यहां से पलायन के लिए विवश होते रहे हैं।

   तेजी से विकास के पायदान पर आगे बढ़ते भारत के लिए यह यह दुर्भाग्यपूर्ण बात है। आज भारत भले हीं आंकड़ो और सर्वे में एक बड़ा इकोनॉमी बन गया हो लेकिन भारत सरकार ना तो सरकारी तंत्र को भ्रस्ट्राचार मुक्त कर पाई और नही देश के विधि व्यवस्था को मज़बूत कर पायी।

 जिसका शिकार देश के माध्यम और छोटे स्तर के उधमी हो रहे हैं।आज एक के बाद एक उधोग बंद होते चले गए। सरकार का पूरा ध्यान दो चार घरानों तक सीमित रह गया है जिन्हें सभी ठेका और सरकारी विभागों का काम हासिल हो रहा है जबकि स्थानीय स्तर पर छोटे उधमियों को फलने फूलने का अवसर मिलना चाहिए। वह नही हो पा रहा है।वहीं सरकार की नीति उधमियों से अधिक से अधिक टैक्स वसूली की रही है। जीएसटी के कारण छोटे छोटे व्यापारी और दुकानदार भी प्रभावित हुए। यहां तक सरकार ने आम उपभोग की वस्तु को भी नही छोड़ा।अभी स्थिति यह है कि आम लोग परेशान हैं और अगर कुछ लोग सक्षम हैं जो नए सिरे से अपने पैर जमा सके तो वे अपनी जमा पूंजी को लेकर एक बेहतर भविष्य के लिए विदेशों में भाग रहे हैं।

 भारत से इसी तरह प्रतिभएँ भी विदेश भाग रहे हैं दुनियां भर के कई विदेशी संस्थाओं में काम करने वाले वैज्ञानिक इंजीनियर, डॉक्टर और वैज्ञनिक भारतीय हैं।

इसमें अधिकतर लोग विदेशों में बस गए हैं।इस एपिसोड में भारत से विदेश भागने वाले लोगों में 

सरकार की कमियां का जिक्र कर रहे हैं अगले एपिसोड में पलायन की प्रवृति और भारत से विदेश भागने वाले आंकड़ो पर हम चर्चा करेंगे।।

( क्रमश)

(अगले अंक में पढ़िए 2012 से अब तक भारत से कितने लोगों का पलायन हुआ उसकी प्रवृति,देश पर उसका प्रभाव और अर्थ शास्त्रियों का राय)

Editor

Jun 12 2023, 13:55

देश में चल रही मज़बूत विपक्ष की कवायद में मिलेगी कितनी सफलता,क्या हो पाएंगे क्षेत्रीय दल एकजूट...? (भाग -2)

(विनोद आनंद)

जैसा कि पिछले एपिसोड में आपने पढ़ा कि क्या 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में विपक्ष एकजूट हो पाएंगे।

इसका जवाब यही है कि कुछ दल भले ही एक साथ हों लेकिन कई ऐसे क्षेत्रीय पार्टी हैं जो वर्तमान सरकार के बदलाव की सोच तो रखते हैं,लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा और अपना क्षेत्रीय हित उनको इस एकजूटता के लिए बाधक बन रही है । ऐसे लोग चुनाव से पहले गठबंधन का हिस्सा नही बन पाएंगे।चुनाव परिणाम के बाद जीत की स्थिति और तात्कालिक परिस्थितियों के अनुकूल वे निर्णय ले सकते हैं।ऐसे स्थिति में राजनीति में सब कुछ होता है।वे या तो विपक्ष के साथ हो सकते हैं तो कुछ पक्ष के साथ भी।

इसका संकेत तेलंगना के केसीआर,उड़ीसा के नवीन पटनायक ने पहले हीं दे दिया है।लेकिन संदेह ममता बनर्जी और अरबिंद केजरीवाल पर भी है।

इधर केसीआर और नवीन पटनायक ने तो यह साफ तौर पर कह दिया है कि वे अपनी क्षेत्रीय आकांक्षाओं को लेकर राजनीति करते हैं। इसीलिए 23 जून को नीतीश कुमार द्वारा पटना में बुलाई गई बैठक में भाग लेने से उन्होंने मना कर दिया। 

ऐसे हालात में कांग्रेस को सभी विपक्ष को एक जूट करना बहुत आसान नही होगा । उन्हें कुछ दल को साथ लेने के लिए भी बहुत ज्यादा समझौता करना होगा।

इस परिस्थिति में लोकसभा चुनाव में भाजपा के वर्चस्व की काट खोजना विपक्षी दलों के लिए राजनीतिक तिलिस्म से कम नहीं होगा।

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पिछले दो बार से लोकसभा चुनाव में जिस तरह से बोलबाला रहा है और 2024 में जो संभावना है, इसके लिहाज से बीजेपी को केंद्रीय स्तर पर टक्कर देने के लिए एक ऐसा विपक्ष चाहिए जो बिखरा हुआ नहीं हो। इसके लिए पिछले कुछ महीनों से नीतीश कुमार प्रयास में जुटे भी हैं। इस बीच राजनीति के दिग्गज माने जाने वाले शरद पवार ने भी ये जता दिया है कि बिना एकजुट हुए 2024 में बीजेपी को हराना बहुत मुश्किल है। 

अब सवाल उठता है कि राष्ट्रीय स्तर पर क्या इस तरह की कोई विपक्षी एकता बन सकती है, जिसके तहत देश की ज्यादा से ज्यादा लोकसभा सीटों पर बीजेपी को सीधा टक्कर दी जा सके। 

कर्नाटक चुनाव से पहले इसको लेकर कोई साफ तस्वीर नहीं बन पा रही थी, लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस को मिली बड़ी जीत के बाद विपक्षी एकता के मुहिम को फिर से मज़बूत करने के लिए पहल शुरू हो गयी है।

अब सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि विपक्षी एकता के लिए बने गठबंधन का नेतृत्व कौन करे ..? 

इस मुद्दा पर देश के कुछ पार्टियों को ये समझ मे। आने लगी है कि गैर-कांग्रेस विपक्षी मोर्चा एक तरह से बीजेपी के लिए फायदेमंद साबित होगा। बीजेपी अभी केंद्रीय स्तर पर जितनी बड़ी राजनीतिक ताकत है, उसको 2024 में तभी चुनौती तभी दिया जा सकता है , जब उसके खिलाफ लोकसभा की ज्यादातर सीटों पर सीधा टक्कर दिया जाए। इसके लिए कांग्रेस का नेतृत्व को कुछ लोग स्वीकार करने के लिए तैयार दिख रहे हैं।

इसके साथ वे ये भी चाहते हैं कि राज्य विशेष में उनकी पार्टी के हितों को कोई नुकसान नहीं पहुंचे और कांग्रेस इसके लिए त्याग करने में अपनी उदारता दिखाए। ममता बनर्जी ने तो कांग्रेस को यह खुलकर संकेत दे दिया है।

सच तो यह है कि विपक्षी दलों में कांग्रेस को राष्ट्रीय पार्टी होने के नाते अब गेंद कांग्रेस के पाले में है। अब ये देखना महत्वपूर्ण होगा कि आने वाले वक्त में वो कैसे 2024 चुनाव से पहले बीजेपी के सामने मजबूत चुनौती पेश करने के लिए बिखरे विपक्ष को कांग्रेस एक साथ कर पाती है।

अगर कांग्रेस सही रणनीति और थोड़ी उदारता के साथ इस चुनौती को स्वीकार कर लेते हैं, तो 2024  चुनाव में सबसे बड़ी ताकत बन सकती है।

कांग्रेस के साथ ही विपक्षी एकता की संभावना तलाशने के बीच जिन नेताओं का जिक्र ज्यादा हो रहा है, उनमें ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अखिलेश यादव, नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन, अरविंद केजरीवाल, एम के स्टालिन और के चंद्रशेखर के साथ ही लेफ्ट दलों के नेता शामिल है। इनके अलावा मायावती, नवीन पटनायक जैसे नेता भी है जिनको विपक्ष के गठबंधन में शामिल करने की कोशिश होगी।

ये जितने भी नेता हैं, उनकी पार्टी की भले ही राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ा जनाधार नहीं है, लेकिन राज्य विशेष में इनमें से कुछ पार्टी सबसे बड़ी ताकत हैं तो कुछ दलों का राज्य की सत्ता में नहीं रहने के बावजूद अच्छा-खासा प्रभाव है। 

फिलहाल पंजाब और दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को लेकर भी संशय बना ही रहेगा। इसका मुख्य कारण है कि केजरीवाल की पार्टी दिल्ली और पंजाब के साथ ही जिस तरह से धीरे-धीरे बाकी राज्यों में बढ़ रहा है, उसका आधार ही कांग्रेस के कमजोर होने पर टिका है। ऐसे में केजरीवाल कतई नहीं चाहेंगे कि विपक्षी एकता की मदद से कांग्रेस एक बार फिर अपना खोया हुआ ताकत प्राप्त कर ले

 महाराष्ट्र का सवाल है तो एनसीपी प्रमुख शरद पवार ही विपक्ष में एक ऐसा नेता हैं, जो शुरू से कहते आ रहे हैं कि 2024 में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी मोर्चा बनेगा, तभी सही मायने में उससे बीजेपी को चुनौती मिल सकती है। उद्धव ठाकरे की ओर से भी कांग्रेस के नेतृत्व पर कोई ज्यादा सवाल खड़ा नहीं होने वाला है। लोकसभा सीटों के लिहाज से महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे नंबर पर आने वाला राज्य है। यहां कुल 48 लोकसभा सीटें हैं। शरद पवार और उद्धव ठाकरे के रुख को देखते हुए महाराष्ट्र में कांग्रेस के लिए सीट बंटवारे के गणित को साधने में ज्यादा परेशानी नहीं आने वाली है।

इसी तरह तमिलनाडु में भी कांग्रेस और डीएमके के बीच की जुगलबंदी पुरानी रही है और अभी भी स्टालिन की पार्टी के साथ मिलकर उनकी सरकार है, कांग्रेस उसका हिस्सा है. ऐसे भी यहां डीएमके का 2019 के लोकसभा और 2021 के विधानसभा चुनाव में जिस तरह का प्रदर्शन रहा है, उसको देखते हुए कांग्रेस 2024 में सीट को लेकर डीएमके से उलझने वाली नहीं है. 2019 के लोकसभा चुनाव में यहां की कुल 39 में से 38 सीटों पर डीएमके की अगुवाई वाले गठबंधन को जीत मिली थी, जिसमें डीएमके के खाते में 20 सीटें और कांग्रेस के खाते में 8 सीटें गई थी। वहीं 2021 के विधानसभा चुनाव में कुल 234 में से डीएमके को अकेले 133 सीटों पर और उसके सहयोगी कांग्रेस को 18 सीटों पर जीत मिली थी।

तमिलनाडु में 2019 में कांग्रेस 9 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ी और डीएमके के साथ उसका जिस तरह का तालमेल है, इसकी पूरी संभावना है कि 2024 में भी सीटों को लेकर दोनों के बीच कोई समस्या पैदा नहीं होने वाली है। ये भी तय है कि देशव्यापी स्तर पर विपक्ष का गठबंधन बने या न बने, तमिलनाडु में कांग्रेस और डीएमके मिलकर ही चुनाव लडेंगे।

अब तेलंगाना की चर्चा पूर्व में भी कर चुका हूं यहां के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव बार-बार गैर-कांग्रेसी विपक्षी मोर्चा की बात ही करते रहे हैं। 

कर्नाटक में कांग्रेस की जीत पर विपक्ष के तमाम बड़े नेताओं ने इसके लिए कांग्रेस को बधाई दी और उनमें से कुछ नेताओं ने विपक्ष की लामबंदी में कांग्रेस के नेतृत्व को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया। लेकिन बड़े नेताओं में एकमात्र केसीआर ही ऐसे नेता हैं, जिन्होंने कर्नाटक में कांग्रेस की जीत को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। 

उन्होंने तो इतना तक कह डाला कि कर्नाटक में कांग्रेस का चुनाव जीतना कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। पार्टी नेताओं के साथ बैठक में 17 मई को केसीआर ने कहा कि कांग्रेस ने कई दशकों तक शासन करने के बाद देश को सभी मोर्चों पर विफल कर दिया। उन्होंने कहा कि तेलंगाना में कांग्रेस पर कोई भरोसा नहीं करेगा। 

साथ केसीआर ने अपने पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को कर्नाटक के नतीजों को बहुत गंभीरता से नहीं लेने की भी नसीहत दे डाली।

फिलहाल केसीआर का जो रुख है, उसके हिसाब से कांग्रेस की अगुवाई वाले किसी भी गठबंधन में उनकी भागीदारी नज़र नहीं आती है। लेकिन आने वाले कुछ महीनों में उनका रुख बदल सकता है. ये इस साल के आखिर में तेलंगाना में होने वाले विधानसभा चुनाव नतीजों पर बहुत हद तक निर्भर करेगा। अगर उसमें केसीआर अपनी सत्ता बरकरार रखने में कामयाब होते हैं, तब तो उनकी सोच में ज्यादा बदलाव की संभावना नहीं है। 

लेकिन जिस तरह से बीजेपी पिछले कुछ सालों में तेलंगाना में अपना जनाधार धीरे-धीरे बढ़ाने में कामयाब हुई है, उसको देखते हुए अगर विधानसभा चुनाव में बीजेपी केसीआर को सत्ता से हटाने में कामयाब हो जाती है, तो शायद केसीआर का रुख 2024 के चुनाव को लेकर बदल सकता है। 

 ऐसे भी तेलंगाना में लोकसभा की 17 सीट ही है और थोड़ी-सी भी संभावना बनती है तो 2024 में केसीआर वहां कांग्रेस को एक या दो से ज्यादा सीटें नहीं दे सकते हैं।

कांग्रेस के लिए बिखरे विपक्ष को एक साथ करने में सबसे ज्यादा चुनौती 4 राज्यों पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और केरल में आने वाला है। पश्चिम बंगाल में 42, उत्तर प्रदेश में 80, बिहार में 40 और केरल में 20 लोकसभा सीटें हैं। 

 इन चारों राज्यों को मिला दें तो कुल सीटें 182 हो जाती हैं। जिस तरह का रुख ममता और अखिलेश यादव का है, ये दोनों ही 2024 में कांग्रेस के साथ तालमेल करने पर इसी शर्त पर राजी होंगे कि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस बेहद कम या फिर कहें कि इक्का-दुक्का सीटों पर चुनाव लड़े।

ममता बनर्जी ने तो कर्नाटक नतीजों के बाद साफ ही कर दिया है कि अगर कांग्रेस चाहती है कि बीजेपी के खिलाफ विपक्षी दलों का एक मजबूत गठबंधन बने तो उसके लिए कांग्रेस को कुछ राज्यों में कुर्बानी देनी होगी। जिन राज्यों का जिक्र ममता बनर्जी ने किया था, वे वहीं राज्य हैं, जिनका विवरण ऊपर दिया गया है। ममता बनर्जी के कहने का आशय है कि मौजूदा वक्त में पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के साथ ही लेफ्ट दलों का भी कोई ख़ास जनाधार नहीं रह गया है। 

2019 में तो कांग्रेस सिर्फ दो ही लोकसभा सीट जीत पाई थी और सीपीएम का तो खाता भी नहीं खुला था। वहीं इसके बाद मार्च-अप्रैल 2021 में हुए विधानसभा चुनाव में तो कांग्रेस और सीपीएम दोनों ही एक-एक सीट जीतने के लिए तरस गए थे।

ममता बनर्जी को ये एहसास हो गया है कि यहां बीजेपी विरोधी वोटों का बंटवारा टीएमसी, कांग्रेस-सीपीएम में होने पर सीधे सीधे नुकसान उनकी पार्टी को है और इसका लाभ उठाकर बीजेपी यहां सबसे ज्यादा सीटें जीतने में कामयाब न हो जाए। इसलिए वो चाहती हैं कि कांग्रेस पश्चिम बंगाल में 2024 में पूरी तरह से टीएमसी का साथ दे और इसके लिए कांग्रेस यहां को लेकर खुद के राजनीतिक मंसूबों के साथ समझौता कर ले।

अब ऐसे में ममता बनर्जी की पार्टी को साधने के लिए कांग्रेस को न सिर्फ़ खुद बलिदान देने के लिए तैयार रहना होगा। साथ ही लेफ्ट दलों को भी मनाना पड़ेगा कि पश्चिम बंगाल की ज्यादातर सीटों पर बीजेपी से सीधा मुकाबला टीएमसी का हो। 

कांग्रेस के लिए ये इतना आसान नहीं होगा। लेफ्ट दल ख़ासकर सीपीएम के लिए भी ये मानना बेहद मुश्किल है। भले ही सीपीएम पश्चिम बंगाल में 2019 आम चुनाव और 2021 के विधानसभा चुनाव में कोई सीट नहीं जीती हो, लेकिन दोनों ही चुनाव में वोट शेयर के मामले में सीपीएम कांग्रेस से बेहतर स्थिति में थी। 

इसके साथ ही अब सीपीएम अगर पश्चिम बंगाल से भी मोह-माया त्याग देगी को भविष्य में उसकी राजनीति सिर्फ़ केरल तक ही सिमट कर रह जाएगी।

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जो केंद्र में सरकार बनाने के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण है। 2014 और 2019 दोनों ही आम चुनावों में बीजेपी की बड़ी जीत में उत्तर प्रदेश का काफी योगदान रहा था।

 2014 में जहां बीजेपी ने सहयोगियों के साथ मिलकर यहां की 80 में से 73 सीटों पर कब्जा किया था, वहीं 2019 में बीजेपी और सहयोगियों की सीटें 64 रही थी।

 उत्तर प्रदेश में 2014 में कांग्रेस को दो और 2019 में महज़ एक लोकसभा सीट पर जीत मिली थी। वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस को सिर्फ 7 सीटें और 2022 के विधानसभा चुनाव में अकेले चुनाव लड़ने पर महज़ दो सीटें मिली थी। 

2022 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर सिर्फ़ 2.33% रहा था. 2019 के लोकसभा चुनाव में ये आंकड़ा 6.36% था।

ऐसे में अगर विपक्षी गठबंधन में अखिलेश यादव को साथ लाना है तो कांग्रेस को उत्तर प्रदेश का मोह-माया भी छोड़ना होगा। अखिलेश यादव चाहेंगे कि उनकी पार्टी ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े। उनके पास कांग्रेस के साथ मिलकर 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ने का अनुभव उतना अच्छा नहीं रहा। वहीं 2022 में कांग्रेस के बिना विधानसभा चुनाव लड़ी तो समाजवादी पार्टी का प्रदर्शन पिछली बार के मुकाबले काफी बेहतर रहा।

 समाजवादी पार्टी 64 सीटों के फायदे के साथ 111 विधानसभा सीटों पर जीतने में सफल रही। अखिलेश चाहेंगे कि 2024 में समाजवादी पार्टी यूपी की ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े और कांग्रेस की जो हालत है वो चंद सीटों पर अपनी दावेदारी जताए। 

इस तरह से पश्चिम बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को बिखरे विपक्ष को साधने में सबसे ज्यादा पसीना बहाना होगा।

जहां तक बात रही बिहार की तो यहां कांग्रेस, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के साथ सरकार में शामिल है। इसके बावजूद लोकसभा चुनाव में ज्यादातर सीटों पर महागठबंधन की जीत को सुनिश्चित करने और बीजेपी को ज्यादा नुकसान पहुंचाने के नजरिए से न तो तेजस्वी और न ही नीतीश कांग्रेस को मनमुताबिक सीटें देने को राजी होंगे। 

पिछले विधानसभा चुनाव में मिले अनुभव को देखते हुए तेजस्वी ख़ासकर वो ग़लती नहीं दोहराना चाहेंगे। बिहार में भी उत्तर प्रदेश की तरह ही कांग्रेस की स्थिति उतनी मजबूत नहीं है. 2014 में यहां कांग्रेस को 2 और 2019 में महज़ एक लोकसभा सीट पर जीत मिली थी। 

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में आरजेडी के साथ गठबंधन के तहत कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिसमें सिर्फ़ 19 पर उसे जीत मिली थी। वहीं आरजेडी 144 सीटों पर लड़कर 75 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रही थी। उस वक्त नतीजों के बाद ये भी चर्चा का विषय था कि अगर तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को इतनी ज्यादा सीटें चुनाव लड़ने के लिए न दी होती तो शायद वहां बीजेपी-जेडीयू की बजाय महागठबंधन को बहुमत हासिल हो सकता था। 

इन सब पहलू और नीतीश की पार्टी की सीटों पर हिस्सेदारी को देखते हुए बिहार में 2024 में कांग्रेस को अपने पंजे समेट कर रखना पड़ेगा, अगर वो देशव्यापी विपक्षी गठबंधन चाहती है।

झारखंड में कांग्रेस को हेमंत सोरेन के साथ तालमेल बनाने में ज्यादा परेशानी नहीं होगी, वहां कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा पहले से ही गठबंधन के तहत चुनाव लड़ते आए हैं। हालांकि फिलहाल झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार है, जिसमें कांग्रेस भी भागीदार है, लेकिन पिछले तीन लोकसभा चुनाव में साथ रहने के बावजूद कांग्रेस-जेएमएम कुछ ज्यादा हासिल नहीं कर पाए थे। 2009 में इस गठबंधन को झारखंड की 14 लोकसभा सीटों में से सिर्फ़ 3 पर जीत मिली थी। वहीं 2014 और 2019 में ये आंकड़ा और कम होकर सिर्फ 2 ही रहा था।

विपक्ष को एक जूट करने में केरल राज्य की भी अहम भूमिका है। केरल में 20 लोकसभा सीटें हैं. सबसे बड़ी समस्या है कि केरल में कांग्रेस और सीपीएम एक-दूसरे के विरोधी हैं और इस राज्य में राजनीति की धुरी कांग्रेस की अगुवाई वाली यूडीएफ और सीपीएम की अगुवाई वाली एलडीएफ के बीच मुकाबले के इर्द-गिर्द घूमती है।

केरल में बीजेपी की राजनीतिक हैसियत फिलहाल लोकसभा चुनाव में जीत के नजरिए से नहीं के बराबर है। ऐसे भी सीपीएम के नजरिए से त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल खोने के बाद केरल एकमात्र राज्य है, जहां उसकी सत्ता है।

 अगर यहां देशव्यापी गठबंधन के लिए कांग्रेस और सीपीएम 2024 के लोकसभा चुनाव में हाथ मिला लेते हैं, तो ये एक तरह से केरल में बीजेपी को जनाधार बढ़ाने का मौका मिल जाएगा। न तो सीपीएम ऐसा चाहेगी और न ही कांग्रेस। सीपीएम की तो राजनीति ही दांव पर आ जाएगी। यानी केरल में कांग्रेस और सीपीएम पहले की तरह ही 2024 में भी एक दूसरे को चुनौती देंगे, ये करीब-करीब तय है।

ऊपर जिन राज्यों का जिक्र किया गया है, उनको छोड़कर विपक्षी गठबंधन के तहत जिन राज्यों में कांग्रेस के पास ज्यादा सीटों की दावेदारी बच जाती है, उनमें मोटे तौर पर बड़े राज्यों में राजस्थान की 25, गुजरात की 26, मध्य प्रदेश की 29, छत्तीसगढ़ की 11, ओडिशा की 21, असम की 14, तेलंगाना की 17, आंध्र प्रदेश की 25, कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटें बच जाती हैं। इनके अलावा हिमाचल प्रदेश की 4, उत्तराखंड की 5 और हरियाणा की 10 सीटें भी हैं, जहां विपक्षी गठबंधन के तहत कांग्रेस की दावेदारी ज्यादातर सीटों पर रह सकती है।

 इन 12 राज्यों में कुल 215 लोकसभा सीटें हैं। देश के अलग-अलग राज्यों में जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, उसको देखते हुए विपक्षी गठबंधन बनने पर सीट बंटवारे के फॉर्मूले के तहत कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा मुफीद राज्य यही होंगे और ममता बनर्जी भी अपने बयानों से यही संकेत देना चाहती होंगी।

सारे विश्लेषण के बाद यह कहा जा सकता है कि 2024 के चुनाव में कांग्रेस के लिए राह आसान नहीं है। न तो बिखरे विपक्ष को एक साथ लाने के मोर्चे पर और न ही खुद के कई बड़े राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करने के लिहाज से। 

इसके वावजूद कांग्रेस को सभी  विपक्ष को एक मंच पर लाने के लिए प्रयास करना होगा। जिससे 2024 में बीजेपी को चुनौती दिया जा सके।  

आज विपक्ष विकास, अर्थव्यवस्था, साम्प्रदायिक आधार पर राजनीतिक गोलबंदी और वोटों का ध्रुवीकरण जैसे बाकी तमाम मुद्दों के साथ बिखरा हुआ है।जिसे एक साथ करना कठिन है,इसके वावजूद कांग्रेस के पास इस बार जिस तरह सभी राजनीतिक दल भाजपा से खफा हैं, इसके साथ केंद्र सरकार के कई चूक के कारण एक बहुत बड़ा आवादी नाराज चल रहे हैं कांग्रेस को इस से बेहतर मौका नही मिलेगा।